मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

संसद में गुमशुदा साहित्यविवेक




       
संसद में “असहिष्णुता” पर बहस चल रही है। यह वह “असहिष्णुता” नहीं है जिसे कॉमनसेंस में हम लोग कहते –सुनते हैं। यह वह भी “असहिष्णुता” नहीं है जिसे राजनीतिक दल आंकड़े दे-देकर व्याख्यायित कर रहे हैं। “असहिष्णुता” के सवाल को राजनीतिकदलों या दल विशेष ने नहीं उठाया,बल्कि लेखकों-बुद्धिजीवियों और वैज्ञानिकों ने उठाया है।ये सब वे लोग हैं जो दलीय राजनीति और कॉमननसेंस के आधार पर “असहिष्णुता” को नहीं देख रहे हैं ,बल्कि अपने सर्जनात्मक कर्म के खिलाफ सामने खड़ी ठोस राजनीतिक-सामाजिक चुनौती के रुप में देख रहे हैं। अफसोस की बात है कि अधिकतर सांसदों ने एक-दूसरे के खिलाफ हिंसा-अपराध के आंकड़े और आख्यान पेश करके यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि “हम ठीक ,तुम गलत।”
    सभी राजनीतिक दलों का यह मानना “हम तो ठीक हैं तुम गलत हो”,यही समूची बहस का मूलाधार है। जबकि लेखकों ने “असहिष्णुता” के सवाल को “हम” और “तुम” की कोटि में रखकर नहीं उठाया,बल्कि वे तो भारतीय समाज में निरंतर बढ़ रही “असहिष्णुता” को एक प्रक्रिया के रुप में देख रहे हैं,उन्होंने उसके हाल के महिनों में तेज होने और ज्यादा आक्रामक हो जाने की ओर ध्यान खींचा है,लेखकों ने किसी दलविशेष को भी इसके लिए दोषी नहीं ठहराया है। वे तो सिर्फ इतनी मांग कर रहे हैं कि केन्द्र सरकार इस ओर ध्यान दे, अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रहे हमलों को रोकने के लिए कदम उठाए।

मुश्किल यह है कि लेखक- बुद्धिजीवी-वैज्ञानिकों के लिए "असहिष्णुता" का जो अर्थ है वह राजनेता समझ नहीं सकते,यह बात आज संसद की कार्रवाई देखकर समझ में आ गयी, लेखक और राजनेता की असहिष्णुता की धारणा,अनुभूति और मंशाएं अलग हैं,संसद में बेहतर होता कि लेखकों के बयान पढे़ जाते ,लेखक बोलते और सत्ताधारी सुनते।लेकिन हुआ उलटा लेखक की भावनाओं को दरकिनार करके राजनेताओं की भावनाएं केन्द्र में आ गयीं,यह तो लेखकों के द्वारा उठाए विषय के साथ संसद का अन्याय है,

राजनाथजी ! कल संभवतः आप सांसदों की बहस का जवाब दें।आपको यह तो पता चल ही गया है कि लेखक और राजनेता या सामान्य नागरिक के दिल,अनुभूतियां और अभिव्यक्ति के धरातल अलग - अलग होते हैं, लेखक के पास राजनेता और नागरिक से ज़्यादा विकसित चेतना और अभिव्यक्ति योग्यता होती है,यही वजह है कि वह साहित्य सृजन कर पाता है।राजनेता-सत्ताधीश अल्पकाल में मर जाता, सत्ताधीश के बयान जन्म लेते ही मर जाते हैं, जबकि साहित्य नहीं मरता , साहित्यकार नहीं मरता। बल्कि उलटा होता है, साहित्यसृष्टि करके लेखक नया जन्म लेता है।जबकि नेता का अंत है बोलना।आजतक कोई राजनेता बोलकर अमर नहीं हुआ !

राजनीति और राजनेता अल्पजीवी और बांझ हैं।जबकि साहित्य-कला और विज्ञान दीर्घजीवी और सृजनशील हैं।समाज में विगत दो हजार सालों में कई राजसत्ता आई और गई, कई व्यवस्थाएं भी बदलीं,उनकी भूमिका बदली,लेकिन वे हमेशा अल्पकालिक और सीमित दायरे में ही असर छोड़ पाए,इसके विपरीत लेखकों-कलाकारों-वैज्ञानिकों के सृजन ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी समाज को प्रभावित किया है।

इनदिनों राजनेता अपने दल के हित देखता है,वोटबैंक देखता है।जबकि लेखक के लिए समाज के हित सर्वोपरि हैं। मानव सभ्यता का इतिहास गवाह है कि लेखक स्वभाव से समाज में प्रगतिशील भूमिका निभाते रहे हैं,वे ऐसे सवाल उठाते रहे हैं जो सत्ता को पसंद नहीं रहे,सत्ता की खुशामद करना,सत्तामोह में रहना साहित्य का धर्म नहीं है। साहित्य और साहित्यकार हमेशा से रचनाओं के जरिए सभी किस्म के मोह से मुक्त करके मोहमुक्त समाज की सृष्टि करते रहे हैं। सत्ता का मोह हो या निहित-स्वार्थों का मोह हो ये सब कला-साहित्य आदि के विकास में हमेशा से बाधक रहे हैं,लेखकों ने अपने सर्जनात्मक तरीकों के जरिए इन सबसे अपने को हमेशा मुक्त किया है।अपने आत्मसंघर्ष के जरिए बार-बार साहित्य और कलाओं को समाज की मुक्ति के मार्ग पर ठेला है,हमेशा उन समस्याओं का सामना किया है जो उनके सृजन में बाधक बनकर खड़ी हुई हैं।

आज संसद की बहस देखकर यह धारणा फिर से पुष्ट हुई कि इनदिनों अधिकतर राजनेता साहित्य-कलाबोध और साहित्यचेतना के अभाव के कारण लेखकीय अनुभूति से वंचित हैं।बेहतर तो यह होता कि बुद्धिजीवीसांसदों को असहिष्णुता की बहस में शामिल करके कलाकारों के मन को संसद महसूस करती।आज संसद में असहिष्णुता के सवाल पर जो बहस हुई वह प्रतिवादी साहित्यकारों की अनुभूतियों से कोसों दूर थी। इस बहस में लेखकों का मन और दिल कहीं पर भी नजर नहीं आया।जबकि लेखक भयाक्रांत है,तीन लेखकों की हत्या हो चुकी है,हत्यारों को केन्द्र सरकार में काबिज अनेक राजनेताओं और दल विशेष का समर्थन हासिल है यही वजह है केन्द्र सरकार से बार-बार लेखकों ने हस्तक्षेप की अपील की है।अफसोस की बात है कि केन्द्र सरकार और उसके मुखिया जरा-जरा सी बात पर ट्विट करते रहते हैं,बयान देते रहते हैं ,लेकिन लेखकों के बयान को उन्होंने कभी शिद्दत के साथ,सहानुभूति के साथ समझने की कोशिश नहीं की,उलटे मंत्रियों से लेकर सांसदों तक सभी ने लेखकों पर हमले किए हैं, “इनाम वापसी” को राजनीतिक खेल कहा है। यह सब करके केन्द्र सरकार ने अपनी कलाविरोधी इमेज को ही पेश किया है।

कलाकारों और लेखकों के प्रति केन्द्र सरकार की असहिष्णुता का कारण मेरी समझ से परे है। भाजपा को जब एक बार केन्द्र में सरकार बनाने का मौका मिल गया तो उसके बाद पीएम,मंत्रियों और सांसदों को सारे देश के प्रतिनिधि के रुप में,सरकार को सारे देश की सरकार के संरक्षक और संचालक के रुप में काम करना चाहिए। लेकिन ऐसा न करके लेखकों-बुद्धिजीवियों पर जिस तरह के वैचारिक हमले किए गए हैं, वह शर्मनाक है।सत्ताधारी दल भाजपा ने “असहिष्णुता” की भावना को दलीय पूर्वाग्रहों और हिंसा के अनंत आंकड़ों के बहाने दरकिनार करने की घृणित कोशिश की है,इसे शासकदल का घटिया आचरण ही कहा जाएगा। शासकदल के सांसद एक-दूसरे के खिलाफ तर्कवारिधि बनने के चक्कर में भूल ही गए कि “असहिष्णुता” का सवाल हिंसा के आंकड़ों से नहीं जुड़ा बल्कि अभिव्यक्ति की आजादी और उस पर हो रहे हमलों से जुड़ा है। ये हमले विभिन्नदलों के लोग करते रहे हैं,इसलिए इसे दलीय नजरिए से नहीं संवैधानिक नजरिए से,अभिव्यक्ति की आजादी के नजरिए से देखा जाना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रहे हमले मात्र कानून-व्यवस्था की खराब अवस्था की देन नहीं है,वह इस समस्या का एक पहलू है,लेकिन असल पहलू है राजनीतिक।

लेखकों पर राजनीति विशेष के लोग ही हमले ज्यादा कर रहे हैं। यह कौन सी राजनीति है जो लेखकों को निशाना बना रही है ? यह वह राजनीति है जिसे सर्वसत्तावाद से मोहब्बत है,जिसे लंपट पालने और लंपटसमाज बनाने में दिलचस्पी है।यह वह राजनीति है जिसमें अपनी आलोचना सुनने-देखने का धैर्य नहीं है।लोकतंत्र में अधीर राजनीति सबसे खराब राजनीति मानी जाती है,अधीर राजनेता हमेशा शार्टकट हथकंडे अपनाते हैं और लेखकों-बुद्धिजीवियों को निरंतर विभिन्न तरीकों के जरिए आतंकित करके रखते हैं।यदि विभिन्न राजनीतिकदल अपने इस राजनीतिक रवैय्ये को बदल लें तो बेहतर होगा।लेखक मात्र इतना ही चाहता है।

बार-बार यह सवाल उठा है कि पहले क्यों नहीं बोले ? लेखक पहले भी बोले हैं,लेकिन सूचना क्रांतिजनित औसतविवेक और सत्ताधारी दल के आक्रामक मीडिया प्रचार ने ऐसा आभास पैदा करने की कोशिश की है कि लेखक-बुद्धिजीवी पूर्वाग्रह से घिरे हैं,मोदी विरोधी हैं,इसलिए सरकार को घेरने के लिए यह सब कर रहे हैं।

असहिष्णुता के खिलाफ “इनाम वापसी” का सरकार को घेरने के साथ कोई संबंध नहीं है। इसका वोट की राजनीति से भी कोई संबंध नहीं है।यह सीधे समाज में बढ़ रही असहिष्णुता का मामला है जिसको लेकर लेखक-बुद्धिजीवी “इनाम वापसी” की मुहिम के जरिए ध्यान खींचना चाहते हैं,वे इस सोए हुए समाज को जगाना चाहते हैं जो लेखकों पर हो रहे हमलों को लेकर एकदम बेगाना बना हुआ है।“इनाम वापसी” के प्रतिवाद के बहाने लेखक न तो किसी का अपमान कर रहे हैं,न किसी के वोट काट रहे हैं और न किसी नेता विशेष या दल विशेष के खिलाफ बयान दे रहे हैं,बल्कि वे तो मात्र समाज से लेकर संसद तक यही संदेश दे रहे हैं कि देश में चारों ओर असहिष्णुता बढ गयी है और हम सबको मिलकर इसके खिलाफ एकजुट होना चाहिए।

केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार हो या राजनीतिक दल हों, यह सभी की जिम्मेदारी है कि वे लेखकों के सम्मान और संवैधानिक हकों की रक्षा के मामले में एक स्वर से लेखकों के साथ एकजुटता दिखाएं। यह समय लेखकों –बुद्धिजीवियों पर हमला करने का नहीं है,बल्कि उन लोगों पर हमला करने का है जिनलोगों या संगठनों ने लेखकों को निशाना बनाया हुआ है।

राजनीतिक दलों को लेखकों से मनवांछित लेखन की मांग छोड़ देनी चाहिए। लेखक को जो उचित लगे वह लिखें।लेखक-बुद्धिजीवी अपने लेखन के जरिए समाज और संस्कृति का चरित्र बदलते रहे हैं,वे यथास्थिति के पक्षधर कभी नहीं रहे,बल्कि वे यथास्थिति के खिलाफ लिखते रहे हैं,लेखक से मनवांछित लेखन की मांग करना अविवेकपूर्ण है।लेखक कभी यह कर ही नहीं सकता।लेखन में यथास्थिति निषेध अंतर्निहित है.इस नजरिए से लेखक से यह कहना कि वह यह लिखे और वह न लिखे,वस्तुतःलेखक के हकों पर हमला है।अफसोस की बात है कि अधिकांश राजनेताओं के भाषणों में इन दिनों यही व्यक्त हो रहा है।



1 टिप्पणी:

  1. भारत को बदनाम करने की विश्व पटल पर नापाक कोशिश का हिस्सा न बन जाय 'असहिष्णुता' |
    देश के प्रति वफादार विद्वानों को ध्यान में रखना होगा देश है तो हम हैं को साकार करना होगा तभी शान्ति-सद्भाव और विश्व बंधुत्व सही माने में आ सकने में
    हम अपना योगदान दे सकेंगे |....

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