शनिवार, 27 दिसंबर 2014

मदनमोहन मालवीय और हिन्दू -मुस्लिम एकता की समस्या



 देश में साम्प्रदायिक माहौल बिगडा हुआ है ,संघ और उनके नायक मोदी द्वारा वोट की राजनीति को बहुसंख्यकवाद की राजनीति और धर्माधारित राजनीति की ओर मोड़ा जा चुका है। यह देश के लिए सबसे ख़तरनाक चीज है। देश में चारों ओर मुस्लिम विद्वेष की बर्षा हो रही है। साथ में मदनमोहन मालवीय जी को भारतरत्न देकर सम्मानित भी किया जा रहा है, दुर्भाग्य की बात है कि मालवीयजी के विचारों के साथ संघ और मोदी सरकार का तीन- तेरह का संबंध है । संघ और उसके संगठनों की विचारधारा की धुरी है हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष , जबकि मालवीयजी के विचारों की धुरी है हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव। मोदी नारा विकास का दे रहे हैं लेकिन ज़मीनीस्तर पर बहुसंख्यकवाद की ओर जा रहे हैं। हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष को बढ़ावा दे रहे हैं,फ़ंडामेंटलिस्ट संगठनों की हिमायत कर रहे हैं।संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा  भारत को हिन्दुओं का देश कहकर दुष्प्रचार किया जा रहा है। जानें और पढें संघ वाले कि मालवीयजी ने क्या लिखा था।
     मदन मोहन मालवीय ने लिखा " हिन्दुस्तान में अब केवल हिन्दू ही नहीं बसते हैं - हिन्दुस्तान अब केवल उन्हीं का देश नहीं है। हिन्दुस्तान जैसे हिन्दुओं का प्यारा जन्म-स्थान है, वैसा ही मुसलमानों का भी है। ये दोनों जातियाँ अब यहाँ बसती हैं और सदा बसी रहेंगी। जितना इन दोनों में परस्पर मेल और एकता बढ़ेगी , उतनी ही देश की उन्नति करने में हमारी शक्ति बढ़ेगी और जितना ही बैर या विरोध या अनेकता रहेगी , उतने ही हम दुर्बल रहेंगे।" यह भी लिखा " जो हमारी उन्नति नहीं चाहते , वे हमको एक- दूसरे से लड़ाने के लिए यत्न करते हैं और करेंगे। लेकिन हमारे आपस में एक - दूसरे के विचार और भाव शुद्ध रहें तो हमारे किसी बैरी को हमको लड़ाने का यत्न सफल नहीं होगा। यह दु:ख की बात है कि हम लोगों में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो एक जाति को दूसरे से लड़ाने का यत्न करते हैं। हमको इस बात के कहने में कोई संकोच नहीं कि जो हिन्दू या मुसलमान ऐसा करता है, वह देश का शत्रु है। इतना ही नहीं , बल्कि वह अपनी विशेष जाति का भी शत्रु है । हमको सबको उचित है कि सब एक- दूसरे के चित्त को संताप पहुँचाने वाली बीती बातों को भूल जावें,एक- दूसरे का हित और सुख यत्नों में सहायक हों।" 


साहित्यकार की बदबू' और "जनवादीसेंट"


रायपुर साहित्य मेला पर हिन्दी के रायपुरिया प्रतिवादी वामलेखकों की तथाकथित प्रतिवादी प्रतिक्रियाएं और जलेसं के रुख को देखकर जनवादी-प्रगतिशील साहित्यकार पदबंध से घृणा होने लगी है। यह साहित्यिक बदबू पहले भी थी,लेकिन इधर तो इसने विराट रुप धारण कर लिया है । इसे हम सुविधा के लिए 'साहित्यकार की बदबू' या 'साहित्य का कचड़ा' कहेंगे। आप जितना ही लेखक संगठनों के करीब जाएंगे उतना ही इस बदबू का अहसास करेंगे। हिन्दी में हमने साहित्यकार की घिनौनी हरकतों को छिपाने के लिए कुछ तथाकथित वैचारिकसेंट का इस्तेमाल किया है। जनवादीसेंट उसमें से एक है। हम कहना चाहते हैं इससे साहित्यिक बदबू खत्म नहीं होगी! साहित्यिक गंदगी साफ नहीं होगी। जनवादीसेंट तो लेखक का नकली आवरण है।

    उल्लेखनीय है साहित्यिक गंदगी को कभी हिन्दी के तीनों बड़े लेखक संगठनों (जलेसं,प्रलेसं,जसम) ने निशाना नहीं बनाया । रायपुरिया वामप्रतिवादी लेखकों ने भी कभी इसके खिलाफ कुछ नहीं लिखा! लेखक संगठनों के द्वारा प्रकाशित पत्रिकाएं देखें और खोजें कि 'साहित्यकार की बदबू' और ' साहित्य का कचड़ा' क्या इनके निशाने पर है? स्थिति की भयावहता का चरम यह है कि लखनऊ से प्रकाशित एक जनप्रिय साहित्यिक पत्रिका के संपादक ने हाल ही में एक लेखक से दो टूक कहा नामवर सिंह के खिलाफ वह कोई लेख नहीं छापेगा ! यह संपादक हिन्दी में सबका प्यारा कहानीकार है! सवाल यह है क्या इस तरह की सेंसरशिप की जरुरत है ? क्या इस तरह की सेंसरशिप की नामवर सिंह को जरुरत है ?

हिन्दी साहित्यकार के घिनौने रुप को हमने सुंदर राजनीतिक नारों से ढ़ंक दिया है। मसलन् , आप धर्मनिरपेक्ष हैं ,वामपंथी हैं ,लेखक संगठन के नेता के पसंदीदा लेखक हैं,या भक्त हैं ,तो लेखकनेता आपकी भूरि-भूरि प्रशंसा करेगा,चाहे आपका लेखन कचड़ा हो। सवाल उठता है जलेसं,प्रलेसंऔर जसम ने लेखकों के गैर-अकादमिक और गैर-पेशेवर कर्मों पर कभी खुली बहस क्यों नहीं की ? लेखक के आचरण और आलोचना का गहरा संबंध है, लेखक के मूल्यबोध और आचरण का उसके नजरिए के साथ गहरा संबंध है, ऐसा क्या घटा है जिसने लेखक को दरबारी बना दिया ? यह कैसे हुआ कि दरबारीपन को हम वैचारिक प्रतिबद्धता कहने लगे ?दरबारी होने पर लेखक न तो लोकतांत्रिक होगा और न जनवादी होगा। वह दरबारी ही रहेगा।

हम जलेसं के पदाधिकारियों से जानना चाहेंगे कि कॉमरेड! क्या लेखक फ्रंट पर सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है ? क्या हिन्दी के सभी स्व-नामधन्य वामलेखक दूधके धुले हैं ? क्या वे राजनीतिक दरबारी संस्कृति के शिकार नहीं हैं ? क्या इन लेखकों ने राजनीतिक गुटबाजी को त्याग दिया है ?

लेखकों में राजनीतिक दरबारीपन और गुटबाजी ,साहित्यिक अपराध है। सामाजिक पतनशीलता की निशानी है। लेकिन इन दोनों प्रवृत्तियों को अपने-अपने तरीके से लेखक संगठनों ने बढ़ावा दिया है। वे सामान्य लेखक से इसी तरह के आचरण की मांग भी करते हैं। लेखकों में राजनीतिक-साहित्यिक मसलों पर प्रचार हो, विवाद हो,लेकिन लेखकों में राजनीतिक दरबारीपन और गुटबाजी न हो, इस ओर इन लेखक संगठनों ने कभी ध्यान नहीं दिया।

'साहित्यकार की बदबू' की जड़ है राजनीतिक दरबारीपन। इस दरबारीपन के आधार पर ही अनेक लेखकों ने बड़े-बड़े पुरस्कार पाए, सरकारी खरीद में किताबें बिकवाने में सफलता हासिल की।प्रकाशकों को पाकेट में डाला। मंत्रियों-नेताओं-मुख्यमंत्री-केन्द्रीयमंत्री –पार्टी सचिव को जेब के हवाले किया। केन्द्र सरकार के नेताओं और कम्युनिस्ट पार्टी नेताओं की जी-हुजूरी की, और ऊँचे ओहदे पाए! यही वह प्रवृत्ति है जिसने साहित्य में मिथ्या प्रशंसा को साहित्यिक समीक्षा में रुपान्तरित कर दिया। दिलचस्प बात है जो हिन्दी साहित्य में दरबारी संस्कृति के नायक हैं, वे ही हिन्दी के महान लेखक भी हैं ! उनकी जेब में ही लेखक संगठन भी हैं !

दरबारी भावना के कारण लेखक संघ के पदाधिकारी लेखककीय अहंकार में डूबे रहते हैं, दूसरों को उपदेश देते हैं, सलाह देते हैं, यह करो,यह न करो, यह सही है,वह सही नहीं है। फलां व्यक्ति लेखक नहीं है, फलां व्यक्ति लेखक है, मैं सही हूँ ,वह गलत है। फलां बाजारु है, बिका है, फलां प्रतिबद्ध है। फलां जनवादी है, फलां वाम है,फलां प्रगतिशील है,फलां बड़ा लेखक है, फलां छोटा लेखक है, इसका लिखा पढ़ो, उसका लिखा मत पढो, उसके यहां जाओ,इसके यहां मत जाओ, उसे गोष्ठी में बुलाओ,इसे मत बुलाओ,जो हमारे साथ नहीं है उससे दूर रहो, जिसे संगठन से निकाल दिया है उसका बहिष्कार करो,बार-बारलेखकों से कहो कि वह भ्रष्ट है,पतित है, हम महान हैं, पुण्यात्मा हैं, दूध के धुलेहैं, हमारे साथ पार्टी है, उसके साथ पार्टी नहीं है, जो पार्टी में नहीं उसे लेखक मत मानो, जो पार्टी में नहीं उसे निकृष्ट मानो, जिस पर पार्टी का वरदहस्त है उसे परम पवित्र मानो, वैचारिक रुप से दूध का धुला मानो, हमारी हां में हां मिलाओ,यही वह दरबारीपन है जहां से हिन्दी साहित्य के प्रगतिशील—जनवादी समूह में चीजें तय की जाती रही हैं। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां पर हर किस्म की साहित्यिक तिकड़म और घोटालों को पुण्यकर्म में रुपान्तरित कर दिया जाता है। इन सब चीजों को मैंने बहुत करीब से देखा है,यही वजह है कि मैंने कभी अपने को प्रगतिशील या जनवादी साहित्यकार के रुप में नहीं देखा,मुझे साहित्यिक दरबारीपन देखकर बार-बार यही महसूस हुआ कि मैं कम से कम साहित्यकार नहीं बन सकता, मैं साहित्यकार नहीं हूँ, मुझे इस तरह की हरकतें नापसंद हैं ।

रायपुर साहित्य मेला पर जलेसं के महासचिव-उपसचिव का बयान लीपापोती और लेखकीय अहंकार की आदर्श अभिव्यक्ति है। दुखद है ये दोनों पदाधिकारी दो-टूक ढ़ंग से प्रतिवादी लेखकों के तथाकथित प्रतिवादी रुख से अपने को अभी तक अलग नहीं कर पाए।इससे भी दुखद है जलेसं के नेतृत्व का अहंकार और निर्देशभरा भावबोध। इसमें लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवहार की न्यूनतम मर्यादा का ख्याल तक नहीं रखा गया। हम जानना चाहते हैं कि जलेसं का पदाधिकारी बन जाने पर क्या लेखकीयअहंकार और लेखककीय ओहदा बढ़ जाता है ? क्या जो लेखक नहीं है ,यानी मेरे जैसे लोग, वे क्या तुच्छ और हेय हो जाते हैं ? मैं निजी तौर पर अपने को हिन्दी का साहित्यकार नहीं मानता, मेरी कोई रुचि साहित्यकार बनने की कभी नहीं रही , क्योंकि हिन्दी के मौजूदा अधिकांश साहित्यकार मुझे प्रेरणाहीन और जुगाड़ में मशगूल लगते हैं। वे अपने को महान और श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए दूसरे लेखकों को हेय ठहराते रहे, छोटा दिखाते रहे हैं। वे कभी अपने सांगठनिक दरबारीपन को आलोचनात्मक नजरिए से नहीं देखते। इससे लेखकों का व्यापक स्तर पर नुकसान हुआ है। जलेसं की लेखक संगठन के रुप में साख में बट्टा लगा है। जलेसं दरबारीपन और लेखकीय अहंकार के दायरे से बाहर आएं तो समाज में बेहतर हस्तक्षेप कर सकता है। लेकिन रायपुर साहित्य मेला प्रसंग में जिस तरह का निम्नस्तरीय आचरण जलेसं ने किया है उससे यह उम्मीद कम लगती है कि वे दरबापीपन से बाहर निकलेंगे !

रायपुर से आगे देखे जलेसं

    
रायपुर साहित्य मेला पर 'जलेसं' के महासचिव -उपमहासचिव का बयान देखने को मिला, आज के संदर्भ में यह बयान एकदम अप्रासंगिक है। पर जलेसं का मानना है यह "महत्वपूर्ण " बयान है ।यह बयान यदि रायपुर मेले से आगे जाकर छत्तीसगढ़ को देख पाता तो बेहतर होता ! मसलन् छत्तीसगढ़ की अकादमियों के बारे में जलेसं बताता या म.प्र. में अकादमियों का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है ,उन पर कुछ कहता, लेकिन जलेसं का कोई प्रभावी हस्तक्षेप नजर नहीं आया !
फ़िलहाल रायपुर साहित्य मेला पर केन्द्रित करें और देखें तो पाएँगे कि जलेसं का बयान इवेंट केन्द्रित और सरकार केन्द्रित नज़रिए तक सीमित है। इस बयान की अपनी सीमाएँ हैं । क़ायदे से हमें रायपुर से आगे देखना चाहिए, हम इवेंट केन्द्रित रहे तो लेखकों की फ़ज़ीहत और अपमान का सिलसिला थमेगा नहीं ,ख़ासकर जनवादी- प्रगतिशील लेखकों के अपमान करने की आदत बंद नहीं होगी ।

जिस तरह जनवादी लेखक संघ के सम्मानित सदस्य असद ज़ैदी ने गंदी भाषा का मेरे प्रसंग में इस्तेमाल किया वह निंदनीय ही नहीं है बल्कि इस बात का संकेत भी है कि लेखकों में एक समूह किस तरह असभ्य और अशालीन हो गया है । ख़ासकर जनवादी लेखक संघ जैसे संगठन को इस प्रवृत्ति को समझना होगा और लेखकों में सभ्य आचरण करने के लिए कोई क़दम उठाने के बारे में सोचना होगा । मेरे ३५ साल के राजनीतिक जीवन में सार्वजनिक तौर पर किसी की भी हिम्मत मुझे निजी तौर पर गाली देने की नहीं हुई, मैं कभी सरकारों के कार्यक्रमों में नहीं गया,न जाने का मेरा अपना निजी फ़ैसला था,इसके पीछे कोई राजनीतिक कारण नहीं था, लेकिन रायपुर साहित्य मेला में जाने का फ़ैसला मैंने भाजपा सरकार के कारण नहीं किया था, मैंने विषय को सुनने के बाद फ़ैसला लियाथा, मुझे वर्चुअल रियलिटी पर बोलने के लिए कहा गया था और मैं इस विषय पर हिन्दी में सबसे पहले किताब लेकर आया था इस कारण मेरा स्वाभाविक आकर्षण था, बुलाने वाले जानते थे कि मैं इंटरनेट पर सबसे तीखा भाजपा के खिलाफ लिखता रहा हूँ, मेरे फेसबुक पर इस प्रसंग में लिखने के बाद ही तथाकथित वामलेखकों की हाय -हाय आरंभ हुई, मेरी पोस्ट पर मंगलेश डबराल आदि ने अपनी राय दी , सारा बवाल वहीं से फेसबुक में तेज़ी से फैला,मेरा मानना है कि जलेसं को फेसबुक पर चलने वाली बहसों में नहीं बोलना चाहिए, यह मसला लेखक समूह ने नहीं उठाया बल्कि रायपुर मेले के प्रतिवादी मूलत: वे लेखक हैं जो वामपंथी बचकानेपन के शिकार हैं और माओवादियों के समर्थक हैं। ये वे लेखक हैं जिनकी सामयिक समाज, संस्कृति और लोकतंत्र के संबंधों को लेकर विकृत समझ है, लोकतंत्र इनके लिए भोग और दुरुपयोग की चीज है । लोकतंत्र का इन बचकानेपन वामपंथियों ने साहित्यिक अवसरवाद और झूठ के प्रचार के लिए जमकर दुरुपयोग किया है। मसलन् मंगलेश डबराल को मैं जब जेएनयू में पढ़ता था तब मेरा कोई परिचय तक नहीं था, लेकिन मेरे जेएनयू कार्यकाल को इस तरह व्यक्त किया गोया वे मुझे क़रीब से जानते हों, मैं वहाँ कई साल एसएफआई का यूनिट अध्यक्ष रहा , जलेस की यूनिट का सचिव रहा, छात्रसंघ का अध्यक्ष रहा, मेरा निष्कलंक जीवन रहा लेकिन मंगलेश डबराल और असद ज़ैदी ने अपनी घटिया मानसिकता का परिचय देते हुए फेसबुक पर मेरे खिलाफ अशालीन और असभ्य भाषा का इस्तेमाल किया। मेरे बारे में इन दोनों लेखकों को असभ्य भाषा लिखने में एकदम शर्म नहीं आई और जनवादी वाम लेखकों ने इनके आचरण की रीयलटाइम में निंदा तक नहीं की, गाली देने वाले इन दोनों लेखकों की जलेसं ने भी निंदा नहीं की , ये दोनों लेखक बाद में भी निर्लज्जता से अपनी असभ्य भाषा की फेसबुक पर नंगी हिमायत करते रहे हैं। दुर्भाग्यजनक है कि जलेसं के महासचिव के बयान में इन दोनों लेखकों के इस असभ्य आचरण की इस तरह अमूर्त भाषा में चर्चा की गयी है कि गोया गूँगे लड़ रहे हों ! जलेसं को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए , यदि हस्तक्षेप किया है तो ठोस रुप में नाम और संदर्भ के साथ गाली देने वाले लेखकों का नाम लेना चाहिए। दुर्भाग्यजनक है कि जो लेखक हमें रायपुर पर उपदेश दे रहे हैं वे पलटकर कभी अपने आचरण-दुराचारण पर ग़ौर नहीं करते,मसलन् मंगलेश डबराल असद ज़ैदी की फेसबुक वॉल देखो तो पाओगे ये जनाब कितनी ईमानदारी से मोदी सरकार की चुप रहकर सेवा कर रहे हैं !

सवाल यह है रायपुर मेला के आगे जलेसं क्यों नहीं देख पा रहा ? लोकतंत्र में बहुदलीय शासन है तो बहुदलीय शासन के प्रति लोकतांत्रिक और पेशेवर रुख़ अपनाना होगा। जलेसं का परंपरागत रुख़ है । जसम के लेखकों का अवसरवादी और वामबचकानेपन का रुख़ है।सवाल यह है कि क्या लेखक संघ तय करेंगे या इनके लठैत तय करेंगे कि लेखक कहाँ जाय और कहाँ न जाय? हमारा मानना है यह लेखक का निजी फ़ैसला होगा कि वह कहाँ जाय ,लेखक का संबंध राज्य से किस रुप में हो यह भी परिभाषित भी लेखक करेगा , संगठन को तय करने का कोई हक़ नहीं है।

लेखकसंघ का काम है रचनाकारों को अभिव्यक्ति का साझा मंच देना , लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्कारों का प्रचार करना, राज्य की संरचनाओं के कार्यकलापों पर समय -समय पर लेखकों को आगाह करना, जनविरोधी नीतियों का विरोध करना और लेखकों में किसी भी क़िस्म के कठमुल्लेपन के खिलाफ अहर्निश संघर्ष चलाना।

हम जानना चाहते हैं जलेसं ने भाजपा संचालित राज्य सरकारों के द्वारा संचालित अकादमियों के प्रसंग में क्या कभी कोई गंभीर विश्लेषण करके लेखकों में कोई एक्शन प्लान पेश किया ? हालत यह है कि भाजपाशासित राज्यों में चल रही अकादमियों से साहित्य में कचडावर्षा हो रही है लेकिन जलेसं चुप है! क्यों चुप है?

रायपुर मेले पर बबाल करने वाले वामलेखकों ने भी कभी कोई गंभीर लेख इस विषय पर नहीं लिखा , लिखा है तो बताएँ कि कहाँ छपा है ? महज़ वामपंथी लेखक होने का नक़ली नाटक करके या प्रतिवाद का नाटक करके इन लेखकों में साहित्य जगत में अपने को जोकर साबित किया है। इस तरह के प्रतिवादी लेखकों की बुद्धि को मैं बंदर बुद्धि ही कहना चाहूँगा। ये अभी तक मानव बुद्धि अर्जित नहीं कर पाए हैं।

बेहतर हो जलेसं इस तरह के फेसबुक विवादों से दूर रहे। रायपुर के प्रतिवाद पर जलेसं का बयान मेरे लिए एक अन्य दृष्टि से हैरानी पैदा कर रहा है, वह है लोकतांत्रिक सरकार और कला संस्थाओं की भूमिका को लेकर, मसलन् मोदी सरकार के शासन में या पहले मनमोहन सरकार के शासन में फ़िल्म महोत्सव में शामिल होने वाले फिल्म कलाकार आदि क्या सरकारी हो गए? हमें अपना नजरिया बदलने की ज़रुरत है।फिल्म महोत्सव में शामिल होकर श्याम बेनेगल सरकारी आदमी नहीं बन जाता, केतन मेहता कांग्रेसी नहीं हो जाता, सरकारी कार्यक्रमों में लेखक की शिरकत को भी इसी रुप में देखना चाहिए। जो वामलेखक प्रतिवाद कर रहे हैं वे शुद्ध अवसरवादी नज़रिए से चीजों को देख रहे हैं ,बेहतर यही होता जलेसं बयान न देता, जलेसं के मित्रों को ख़्याल रखना होगा कि वामपंथी बचकानेपन के लेखकों को संतुष्ट करने की नहीं उनकी सीधे बखिया उधेड़ने की ज़रुरत है ।हम जानना चाहते हैं कि मोदी सरकार के रहते हुए साहित्य अकादमी आदि केन्द्र सरकार द्वारा वित्तपोषित संस्थाओं के आयोजनों में जाना चाहिए ? क्या इनाम लेने चाहिए? क्या एनजीओ संगठनों को केन्द्र सरकार से मदद लेनी चाहिए ? क्या पद्मसम्मान लेना चाहिए ? क्या पत्र पत्रिकाओं को केन्द्र सरकार या भाजपा सरकार के विज्ञापन प्रकाशित करने चाहिए ? क्या यूजीसी आदि संस्थाओं से सेमीनार, प्रोजेक्ट आदि के लिए फ़ंड लेना चाहिए ? क्या विदेशी कारपोरेट घरानों से फ़ंड लेना चाहिए ? हम उम्मीद करते हैं जलेसं गंभीरता से इन सवालों पर विचार करेगा और सबसे पहले भाजपा शासित राज्य सरकारों के द्वारा संचालित अकादमियों के बारे में श्वेतपत्र सामने लाएगा ।









जनवादी भोलापन

       
रायपुरसाहित्य मेला पर जनवादी लेखक संघ का बयान अनेक विलक्षण और संकीर्ण बातों की ओरध्यान खींचता है। मसलन्, बयान में लिखा गया है,छत्तीसगढ़ सरकार का यह आयोजन '' लेखकों तथा जनवादी रुझान के बुद्धिजीवियों केबीच विभेद और बिखराव के अपने एजेंडे को पूरा करना चाहता है.'' सवाल यह है यदि आपलोग जानते हीहैं कि वे क्या चाहते हैं तो फिर आपस में लड़ क्यों रहे हैं ? लेखकों में जानबूझकरफूट कौन पैदा कर रहा है ? स्वयं लेखक या भाजपा सरकार ? वस्तुगत स्थिति यह है किवहां जाने वाले किसी लेखक ने न जाने वाले लेखकों के खिलाफ कुछ नहीं लिखा और न बोला! साहित्यिक मान-मर्यादाओं और लोकतांत्रिक आचार-व्यवहार की अवहेलना उन लेखकों ने कीजो अपने को ''वामरक्षक'' कहते हैं। फूट के स्रोत ये ''वामरक्षक'' हैं ! फूट डालनेका काम वहीं से आरंभ हुआ।सार्वजनिक निंदा अभियान उन्होंने चलाया। असद जैदी-मंगलेशडबराल आदि ने तो अपमानजनक भाषा तक का इस्तेमाल किया। आश्चर्य की बात है इन ''वामरक्षक''लेखकों के हमलावर और फूट डालने बयानों की जलेसं ने निंदा तक नहीं की ! असभ्य आचरणकरने वाले लेखकों की निंदा न करके जलेसंकिस तरह का संदेश देना चाहता है ?सवाल उठता है कि असभ्य आचरण की रक्षा करना लेखकसंघ की भूमिका में कब से आने लगा ?

जलेसं की एक अन्य महत्वपूर्णखोज की ओर ध्यान दें ,'' कुछ जनवादी और वामपंथी लेखक अपने विवेक से उससाहित्योत्सव में शामिल होकर अपना स्वतंत्र और जनपक्षधर दृष्टिकोण स्पष्ट रूप सेव्यक्त कर पाए, इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि उक्त आयोजनभाजपा-आरएसएस का राजनीतिक प्रपंच और स्वांग नहीं था.'' जलेसं के नेतागण जानते हैं हर सरकारी कार्यक्रम स्वांग ही होता हैउससे ज्यादा यदि वे सोचते हैं तो गलतफहमी होगी! क्या यूपी सरकार के द्वारा 60 से ज्यादा लेखकों को दिया गयापुरस्कार स्वांग नहीं है ?क्या अखिलेश सरकार के शासन में कम दंगे हुए हैं ? क्या जलेसं अपने अध्यक्ष और दूसरे लेखकों को पुरस्कार लेने से रोकपाया ? क्या यूपी मेंकारपोरेट लूट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की खुली लूट नहीं हो रही ? सिर्फसमाजवादी पार्टी की सरकार होने मात्र से क्या यूपी सरकार की समस्त कारगुजारियांपुण्य में बदल जाती हैं ? क्याइफको के द्वारा आयोजित कार्यक्रम में नामवर सिंह का जाना सही है ? क्या इससेमोदी सरकार को अपनी इमेज चमकाने का मौका नहीं मिलेगा ? केन्द्रीय हिन्दी संस्थान केमोदी सरकार आने के बाद दिए गए पुरस्कारों से मोदी सरकार की इमेज चमकेगी या नहीं ? मैं पुनःध्यान खींचना चाहता हूँ कि इस तरहवर्गीकृत करके नहीं देखा जाना चाहिए। जलेसं जिस तरह से पूरी समस्या को देख रहा है वहसाहित्य का संकीर्ण और तदर्थ नजरिया है। जलेसं से सवाल है कि आदिवासियों के खिलाफपुलिस और सैन्यबलों का सबसे ज्यादा दुरुपयोग किस दल ने किया है ? बस्तर से लेकर उत्तर-पूर्व के राज्यों तक किसनेसबसे ज्यादा हिंसाचार फैलाया है कांग्रेस ने या भाजपा ने ? बस्तर में माओविरोधी ऑपरेशन की जड़ें कहां से पैदा हुई हैं ? मनमोहन सिंह की केन्द्र सरकार का क्या रुख रहापहले ? क्या मनमोहनसरकार का रुख आदिवासी हितैषी था ?सारे तथ्य और आँकड़े जलेसं के बयान के खिलाफ जाते हैं,इसके बावजूद जलेसं सच्चाईदेखने को तैयार नहीं है यह देखकर आश्चर्य होता है । मैं यहां वाम सरकारों का खासकरपश्चिम बंगाल सरकार का आदिवासियों के प्रति जो उपेक्षापूर्ण रुख रहा है उसकी ओरध्यान नहीं खींचना चाहता । जलेसं का नजरिया संकीर्ण ही नहीं गलत आधारों पर टिकाहै। उसमें एकांगिकता है।

कारपोरेटलूट के सभी बड़े मानक तो यूपीए सरकार ने बनाए ,फिर क्या यह मान लिया जाय कि उनदिनों जो लेखक उस सरकार के द्वारा वित्तपोषित संस्थाओं के कार्यक्रमों में जाते थेवे सही काम कर रहे थे ? हरसरकारी संस्था, संस्कृति-साहित्य का स्वांग करती है। यहां तक कि वाम सरकारें भी यहस्वाँग करती रही हैं। फर्ज करो छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार न होती, किसी और दलकी सरकार होती और सारी चीजें वही हो रही होतीं तो क्या सब कुछ जनतांत्रिक हो जाता ? सरकार तो सरकार है और इस मामले मेंसाम्प्रदायिकता,कारपोरेट लूट,शोषण –उत्पीड़न आदि को यदि आधार बनाकर ही देखा जाएगातो मुश्किल होगी। कौन सी ऐसी सरकार है जहां पर ये सब चीजें नहीं घट रहीं। सरकारसाम्प्रदायिक है तो क्या देश छोड़कर चले जाएं लेखक ? नौकरी न करें ? विपक्ष के सांसद ,संसद में न जाएं ? मजदूरवर्ग मिलकर भारतीय मजदूर संघ के साथआंदोलन न करे ?

क्या संघ की फासिस्ट हरकतों को मजदूर संगठनसीटू आदि नहीं जानते ? क्या वेबीएमएस के साथ मिलकर संघर्ष नहीं करते ?वे क्यों साझा संघर्ष करते हैं ?लेखकों से मजदूर संगठनों और संसद से भिन्नआचरण करने की माँग क्यों की जा रही है ? जलेसं का मानना है '' भाजपा लेखकों में यह भ्रान्ति फैलाना चाहती है कि वह असहमतियोंका सम्मान करती है. भाजपाई सरकार के इस छल पर लेखक गंभीरता से विचार करेंगे, ऐसी हम आशा करतेहैं.'' ,यह सच है, लेकिन जलेसं और उससे जुड़े लेखक क्या कर रहे हैं ? फेसबुक जैसेमहान मीडियम पर लेखकों की क्या भूमिका है ? जरा इन लेखकों की फेसबुक वॉल पर जाकरगौर करें तो सच्चाई सामने आ जाएगी !

भाजपा से वैचारिक जंग चंद बयानों और आकांक्षाओंके आधार पर नहीं लड़ी जा सकती।भाजपा के खिलाफ जंग के लिए लेखकों को अहर्निश लिखनाहोगा,कितने जनवादी-प्रगतिशील लेखक हैं जो भाजपा के साइबर हमलों के खिलाफ फेसबुक –ब्लॉग-ट्विटरआदि में लिख रहे हैं ? जो कुछ लिख रहे हैं वह क्या हस्तक्षेप के लिहाज से काफी है ?किसने रोका है जनवादी लेखकों को लिखने से ? वे चुप क्यों रहे जब मोदी के साइबरहमले हो रहे थे ? वे कौन से कारण हैं जो जनवादी लेखकों को मुक्त साइबर प्रतिवाद सेरोक रहे हैं ? साइबर प्रतिवाद में पैसे नहीं खर्च होते, किसी की अनुमति की भीजरुरत नहीं है,सिर्फ लेखक के विवेक और निडर अभिव्यक्ति से ही काम चल सकता है लेकिनजनवादी लेखक तो गूंगे लेखकों की तरह आचरण कर रहे हैं ,इससे अप्रत्यक्षतौर परमजदूरों-किसानों- और आम जनता का नुकसान हुआ है। जनवादियों के साइबर मंचों पर चुप रहनेसे मोदी-संघ को प्रच्छन्न मदद मिली है।

जलेसं का मानना है ''यह समय आयोजन में शिरकत करनेवालों की भर्त्सना का नहीं, बल्किउनके साथ सार्थक संवाद क़ायम करने का,'' जलेसं फिर सारे मसले को गलत ढ़ंग से देख रहा है। संवाद-विवादउनसे कीजिए जो हमले कर रहे हैं,जो लोग वहां गए उन्होंने सही माना इसीलिए वहां गएऔर यह उनका हक है और हम सभी को उनका सम्मान करना चाहिए। कौन किस आयोजन में जाएगा,यह फैसला लेखक का अपना निजी फैसला होगा। इस सम्मेलन में जो लोग गए इनमें अधिकांशलेखकों का साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखने का शानदार रिकॉर्ड रहा है।आदिवासियों-दलितों-स्त्रियों-बच्चों आदि पर लिखने में इन लेखकों की बड़ी भूमिकारही है। बल्कि मुश्किल यह है कि जो लेखक प्रतिवाद कर रहे हैं उनके प्रतिवादीरिकॉर्ड को जरा ध्यान देखें ? मसलन् असद जैदी-मंगलेश डबराल का फेसबुक पर मोदी केखिलाफ क्या रिकॉर्ड है जरा इनकी फेसबुक वॉल पर जाकर देख लें जनवादी लेखक संघ केनेतागण।मजेदार बात है जो लेखक मोदी कीहुंकार के सामने दुम दबाकर बैठे हैं वे मोदी विरोधी होने का दावा कर रहे हैं । मैंनेमोदी की हर नीति और हर बयान की रीयल टाइम में आलोचना लिखी,उसको ये दोनों लेखकगालियां दे रहे हैं और उन गालियों को हमारे मित्रगण अपनी वॉल से लंबे समय तक हटाएतक नहीं ,क्या यही आदर्श लोकतांत्रिक समाज है जिसे जलेसं बनाना चाहता है ? जलेसं के नेताओं के इस बयान में जिस तरह की विचारधाराहीन लीपापोती कीगयी है उसकी कम से कम मुझे उम्मीद नहीं थी। यह लीपापोती जलेसं को कहीं नहीं लेजाएगी, इससे संगठन की साख खराब हुई है।

हाल के वर्षों में हिन्दी लेखकों मेंदादागिरी और भाषायी असभ्य प्रयोग बढ़े हैं,खासकर फेसबुक पर यह चीज आए दिन उनलेखकों के द्वारा हो रही है जिनको साहित्य अकादमी पुरस्कार मिले हैं या जो इसपुरस्कार की आशा लगाए बैठे हैं, सारी दुनिया में कहीं पर भी लेखक गालियां नहींबकते,लेकिन हिन्दी में यह परंपरा है कि हिन्दी लेखक अपमानजनक भाषा का पानी की तरहप्रयोग करते हैं। लेखकों में अपमानजनक भाषा का बढ़ता प्रयोग इस बात का संकेत है किलेखक लंपट होता जा रहा है, उसमें असभ्यता पैर पसार रही है। समस्या यह है कि नयीपरिस्थितियों में लेखक किस तरह व्यवहार करे ? किसनजरिए से देखे ? जलेसं का सरकार औरलेखक के अन्तस्संबंध को देखने का कोई सुसंगत नजरिया नहीं रहा है, कम से कम अब तोइस पहलू पर दो-टूक ढ़ंग से संगठन सोच ले । समस्या ''इस्तेमाल करने और (खुद) इस्तेमाल हो जाने ''की नहीं है, समस्या लोकतांत्रिक कम्युनिकेशन और लोकतांत्रिक आचरण की है। ''इस्तेमाल करने '' या इस्तेमाल हो जाने ''का नजरिया पुराने समाजवादी फ्रेमवर्क की देन है,यह नजरिया पूरी तरह अप्रासंगिक होचुका है। लेखक को हमें समाजवादी फ्रेमवर्क में नहीं लोकतांत्रिक-साइबर फ्रेमवर्कमें देखना होगा, लेखक के आचरणों की संविधान प्रदत्त अधिकारों की रोशनी में नईव्याख्या तैयार करनी होगी, लेखक को हाँकने या आदेश देने के मनोभाव से देखना बंदकरना होगा,इस दौर में नए कम्युनिकेशन मीडियम आ गए हैं अतः उन माध्यमों के परिप्रेक्ष्य में लेखक,राज्य और समाज के संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करनाहोगा। जलेसं अभी तक पुराने फ्रेमवर्क में सोच रहा है यह उसके बयान में निहित है। पुरानानजरिया जलेसं को कहीं नहीं ले जाएगा,इससे संगठन का लेखकों से अलगाव और बढ़ेगा।लेखक कोई इस्तेमाल होने की चीज नहीं है। लेखक तो कम्युनिकेशन का मीडियम है।ऐसा मीडियम है जिसका मालिक वह स्वयं है।


'अभद्र वामलेखकों'' का कुवाम-खेल


                       मैं रायपुर साहित्यमेला में शामिल क्या हुआ,हिन्दी के ''अभद्र वामलेखक'' बागी हो गए! जो लेखक रायपुर गए उनके बारे में फेसबुक पर ये ''अभद्र वामलेखक'' अतार्किक और असभ्य बातें लिखने लगे,  असद जैदी-मंगलेश डबराल आदि ने तो लेखकीय गरिमा को नरक के हवाले कर दिया !सारी शिष्टता-भद्रता की सीमाएं तोड़ दीं। फेसबुक पर गालियां दीं,अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया। हम बलिहारी हैं उन महान सभ्य जनवादी लेखकों के जिन्होंने इस तरह की असभ्यता को अपनी फेसबुक वॉल पर प्रश्रय दिया,प्रच्छन्न और प्रत्यक्ष समर्थन दिया !!
     गालियां देना,अश्लील,अशालीन भाषा में लिखना ''अभद्र वामलेखकों '' की विशेषता है। इस '' अभद्र वामलेखकों '' के सहयोगी हैं ''भद्रवाम लेखक'', जो ''अभद्रलेखकों'' की अभद्रता को मौन समर्थन दे रहे हैं। फेसबुक पर अभद्रता का 'वाम-खेल' असल में वाम के लिए नुकसानदेह साबित हुआ है । इससे हिन्दी लेखकसमाज कलंकित हुआ है।   ''अभद्र वामलेखक'' ,अपनी 'कु-कलम' से रायपुर साहित्य मेला में शामिल होने वाली मैत्रेयी पुष्पा,रमणिका गुप्ता आदि को सरेआम अपमानित कर रहे हैं । जो लेखक रायपुर गए उनमें से अधिकांश का लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष लेखन में महत्वपूर्ण योगदान है। इनमें से अधिकांश का साम्प्रदायिकता आदि के खिलाफ लेखन के स्तर पर शानदार रिकॉर्ड  है । किसी भी लेखक ने रायपुर साहित्य मेला में आरएसएस और उसकी विचारधारा का पक्ष नहीं लिया,किसी के पैनल में कोई संघी लेखक शामिल नहीं था,तकरीबन सभी बड़े लेखकों ने खुले तौर पर अपनी बातें कहीं,संघ की भी आलोचना की।  इससे भाजपा और संघ को वैधता नहीं मिलती। बल्कि हमारा यह मानना है कि लेखकों को देश में सभी स्थानों पर बोलने-लिखने और प्रतिवाद करने की आजादी होनी चाहिए और जहां पर यह आजादी नहीं है या बाधित होती है वहां पर प्रतिवाद किया जाना चाहिए।
    किसी भी साहित्यिक आयोजन में आना-जाना लेखक का लोकतांत्रिक हक है, इस हक को कुत्सा प्रचार के जरिए छीनने का किसी को हक नहीं है।लेखक की विचारधारा कुछ भी हो ,लेकिन लोकतंत्र में लेखक के हकों को छीनने या उस पर हमला करने का किसी को हक नहीं है, जिस तरह लोकतंत्र में प्रतिवाद करने का हक है ,उसी तरह लोकतंत्र में शिरकत करने और शिरकत करके प्रतिवाद करने का भी हक है।
    शिरकत करके प्रतिवाद करना लोकतंत्र का आदर्श प्रतिवादी रुप है,इसके आदर्श हैं संसद और मजदूर आंदोलन। मसलन् ,संसद में विभिन्न दलों के सांसद शिरकत करके प्रतिवाद करते हैं,मजदूर आंदोलन में आरएसएस के मजदूर संगठन के साथ वाम मजदूर संगठन मिलकर प्रतिवाद करते हैं, वे जब मिलकर प्रतिवाद करते हैं तो यह नहीं सोचते कि संघ फासिस्ट है, उसके संगठन के साथ मिलकर लडाई नहीं लड़ेंगे। हाल ही में कई देशव्यापी हड़तालें वाम मजदूर संगठनों ने संघ संचालित भारतीय मजदूर संघ के साथ मिलकर की हैं।
   सवाल यह है  संघ के मजदूर संगठन के साथ वाम क्यों जाता है ? कम से कम हमारे लेखकों को संसद और मजदूर आंदोलन से सीखना चाहिए कि किस तरह अपने से भिन्न विचारधारा के लोगों के साथ आचरण करें ।वाम मजदूर संगठन कभी संयुक्त लड़ाई में अन्य संगठन के शामिल न होने पर उस पर  हमले नहीं करते। उस संगठन के नेता का चरित्रहनन नहीं करते, गालियां नहीं देते। लेकिन अफसोस है ये ''अभद्र वामलेखक'' गालियां देते हैं, गालियां लिखते हैं,लेखक का अपमान करते हैं। गालियां देना ,अपमान करना लेखक की नहीं, लंपटों की प्रवृत्ति है। मैं कई सालों से फेसबुक पर हूँ और असदजैदी-मंगलेश डबराल की तरह कभी असभ्यभाषा का किसी के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया। मैं हमेशा सम्मान के साथ पेश आता हूँ और संवाद करता हूँ। अपने विरोधी का सम्मान करना और उसके साथ शिरकत करना,यह मैंने जेएनयू में राजनीति करते हुए सीखा। लेकिन दुर्भाग्यजनक है कि असदजैदी टाइप "असभ्यलेखक" जेएनयू में रहकर भी सभ्यता नहीं सीख पाया, उसने वहां से गालियां सीखीं ,अहंकार में रहना सीखा, मेल-मिलाप की संस्कृति की बजाय असभ्यभाषा का सार्वजनिक मीडियम में प्रयोग करना सीखा। मैं असद जैदी को उस समय से जानता हूँ वह जब जेएनयू में एमए उर्दू में पढ़ते थे, वे जिस संगठन के सदस्य थे ,मैं उसकाअध्यक्ष हुआ करता था और यह नेतृत्व मैंने अवसरवादी तरीकों से नहीं बल्कि संघर्षों में शिरकत करके हासिल किया था। जनाब मंगलेश डबराल को मैं लेखक के नाते जानता हूँ लेकिन असभ्यलेखक के रुप में मैंने उनको पहलीबार फेसबुक पर रायपुर मेले के प्रसंग में देखा है। मंगलेश डबराल जिस तरह के लेखक हैं,उनका असभ्य आचरण अक्षम्य अपराध है,मैं आसानी से असद जैदी-मंगलेश डबराल टाइप लेखकों को गालियां दे सकता हूँ ,लेकिन मजबूर हूँ कि मैं असभ्य नहीं हूँ। असभ्य होना आसान है,सभ्य होना और आचरण में  सभ्यता को बचाए रखना बेहद मुश्किल काम है।मंगलेश डबराल-असद जैदी टाइप लेखक जब गालियां देने लगें तो समझो कहीं बहुत गहरे तक लंपटसमाज ने हमारे लेखकों को अपनी असभ्यता से प्रभावित कर लिया है। हमें इस समस्या की जड़ों को खोजना चाहिए।
    लेखक के नाते हम ध्यान रखें फेसबुक बेहद ताकतवर माध्यम है,यह कम्युनिकेशन का माध्यम है, यह असामाजिकता और लंपटई का माध्यम नहीं है। जिन असभ्य लेखकों को असभ्यता दिखाने की आदत है वे जरा प्रिटमीडिया में किसी लेखक पर गालियां लिखकर दिखाएं ,मैं फिर कह रहा हूँ मंगलेश डबराल-असद जैदी जैसे लेखक किसी अखबार में किसी लेखक को गालियां लिखकर दें . फिर देखते हैं उस संपादक की क्या गति होती है और इन कलमलंपटों का क्या हश्र होता है ! फेसबुक पर असभ्यभाषा में लिखना सामाजिक अपराध है।
              ''अभद्र वाम लेखक'' की लाक्षणिक विशेषता है  वह न तो मजदूरों से सीखता है और न बुर्जुआजी से सीखता है, उसका प्रेरणा स्रोत तो लंपटसमाज है। लंपटसमाज में गालियां देना अलंकार है,शेखी बघारना ,अहंकार में रहना, अन्य लेखकों को हेय दृष्टि से देखना, असभ्य भाषायी पदबंधों में गरियाना उसकी नेचर है। फतबे जारी करना,कौन लेखक है और कौन लेखक नहीं है,यह तय करना वस्तुतः लंपटसमाज से उधार ली गयी साहित्यिक दादागिरी है। लंपटसमाज में लंपटों के छोटे-छोटे समूह होते हैं और वे तय इलाकों में सक्रिय रहते हैं। ठीक यही दशा''अभद्र वाम लेखकों'' की है। ''अभद्र वाम लेखक'' अपने लघुसमाज को 'साहित्य समाज'कहते हैं, असल में यह साहित्य समाज न होकर ''लंपट साहित्य समाज'' है , दलाली ,अवसरवाद,चमचागिरी इसके सामान्य लक्षण हैं। इन ''अभद्र वामलेखकों'' को सहज ही कांग्रेस -भाजपा के नेताओं के चैम्बरों में राजनीतिक चरण चुम्बन लेते सहज ही देखा जा सकता है। यहां तक प्रमाण है कि इण्डियन एक्सप्रेस की एक जमाने में हड़ताल तुड़वाने में ये ''अभद्रवामलेखक'' अग्रणी भूमिका निभा चुके हैं।
   दुखद बात यह है कि ''वाम अभद्रलेखक'' जब गाली देते हैं तो ''भद्र वामलेखक''चुपचाप रहते हैं, गालियां सुनकर चुप रहना,गाली देने वाले की निंदा न करना भी प्रच्छन्न अभद्रता है। ये वे लोग हैं जो लेखक संघ चला रहे हैं!  हम अभी तक समझ नहीं पाए हैं कि यह कौन सा जनवाद है जो लेखकों को गाली देने को प्रश्रय देता है। अपमानित करने को महानता समझता है।लेखकों पर निजी हमले की रक्षा में यदि लेखक संघ के नेतागण खड़े रहेंगे तो यह तय है कि इससे जनवादी लेखक संघ-प्रगतिशील लेखक संघ भी कलंकित होंगे। मेरा जनवादी लेखक संघ में काम करने का शानदार रिकार्ड रहा है ,स्थापना के समय मैं जेएनयू शाखा का सचिव था, कोलकाता आने पर कोलकाता जिला सचिव रहा हूँ,इस संगठन को लाखों रुपये चंदा भी एकत्रित करके दिया है,पचासों लेखकों को इस संगठन से जोड़ा है। लेकिन मैंने कभी अपनी आँखों के सामने किसी लेखक को अपमानित नहीं होने दिया। किसी को असभ्यता नहीं करने दी। हमने यह नहीं सीखा कि जो असहमत हो उसे गालियां दो, जो हमारी न माने उसके बारे में मूल्य-निर्णय करो।
   जनवादी लेखक संघ बुनियादी तौर पर लेखकों के हकों के लिए प्रतिबद्ध संगठन है,वह राजनीतिक संगठन नहीं है, वह माकपा की राजनीतिक लाइन के अनुरुप लिखने-पढ़नेवालों का संगठन नहीं है, उसमें विभिन्न विचारधारा के लेखक हैं। रायपुर साहित्यमेला के प्रसंग में '' अभद्र वामलेखकों” के नजरिए की जनवादी लेखक संघ के कुछ लेखकों ने जिस तरह हिमायत की है वह जनवादी लेखक संघ के बुनियादी लक्ष्य का उल्लंघन हैं। यदि हमारी बात कोई लेखक न माने तो उस पर निजी हमले करो। इसे साहित्यिक गुण्डागर्दी कहते हैं।लोकतंत्र में यह संभावना सब समय रहती है कि लेखकों के अलग-अलग नजरिए हों और वे अलग-अलग ढ़ंग से एक ही मसले पर सोचें और आचरण करें,उनके वैचारिक सरोकारों में भी अंतर हो सकता है, लेकिन यह किस तरह का जनवाद है जो जनवादी लेखक संघ ,प्रगति लेखक संघ और जसम के लेखक संगठन के कुछ सदस्य फेसबुक पर व्यक्त कर रहे हैं कि जो रायपुर गया वह भाजपा का हो गया, भाजपा की दलाली करने लगा।
      देखें सच क्या है ? मसलन् मोदी के आगमन को लेकर फेसबुक पर लोकसभा चुनाव के दौरान और उसके बाद जितनी  पोस्ट मैंने संघपरिवार और मोदी की आलोचना में लिखी हैं,संभवतः किसी और लेखक ने नहीं लिखीं। अब आप जरा इन दोनों लेखकों ( मंगलेश डबराल और असद जैदी) या जनवादी लेखक संघ या प्रगतिशीललेखक संघ के नामी लेखकों की फेसबुक वॉल पर जाएं और देखें कि इनका फेसबुक पर मोदी के प्रति क्या रवैय्या  है ? मोदी एंड कंपनी जब इंटरनेट से बमबारी कर रही थी,मंगलेश डबराल-असदजैदी चुपचाप बैठकर आनंद ले रहे थे। यह सवाल तो उठता ही है कि लेखक के नाते मोदी के हमलों के खिलाफ इन लेखकों ने फेसबुक पर क्यों नहीं लिखा ? जब जनता पर मोदी एंड कंपनी हमला कर रही थी उस समय चुप रहना ,उसके उठाए मुद्दों पर न बोलना लोकतंत्र की मदद करना है या मोदी की मदद करना है ? यह अचानक नहीं है कि जिन इलाकों या राज्यों में माओवादी सक्रिय हैं वहां पर वामपंथी आंदोलन सबसे ज्यादा क्षतिग्रस्त हुआ है और कांग्रेस-भाजपा सबसे ज्यादा लाभान्वित हुए हैं। पश्चिम बंगाल में नक्सलबाडी आंदोलन से सबसे ज्यादा लाभ कांग्रेस को मिला ,माकपा नुकसान में रही। छत्तीसगढ़ में भाजपा लाभान्वित हो रही है,आंध्र में कांग्रेस लाभान्वित हुई,यह अचानक नहीं है कि छत्तीसगढ़ में कोई बड़ा भाजपानेता माओवादियों का शिकार नहीं बना,स्थिति यह है कांग्रेसनेता दिग्विजय सिंह ने माओवादियों से कांग्रेस में शामिल होने की अपील की है।
    यह नियम है अराजकता का ,शासकवर्ग हमेशा अपने पक्ष में इस्तेमाल करता है। माओवादी हिंसा और अराजकता की भी यही मूल परिणति है, इसलिए रमन सरकार को माओवादियों से बुनियादी तौर पर कोई परेशानी नहीं है,क्योंकि समग्रता में माओवादी भाजपा की मदद कर रहे हैं। माओवादी हिंसा और राजनीति की किसी भी तर्क से हिमायत संभव नहीं है। मूलतःऐसे किसी भी संगठन की हिमायत नहीं की जा सकती जिसका हमारे देश के संविधान में विश्वास न हो। हमें इस सवाल पर सोचना चाहिए कि माओवादी राजनीति से क्या वामपंथ का विकास होगा या वामपंथ क्षतिग्रस्त होगा ? अब तक का अनुभव बताता है कि माओवादी राजनीति से वामपंथ क्षतिग्रस्त हुआ है। उनके राजनीतिक एक्शन बुर्जुआदलों की मदद करते रहे हैं और लोकतांत्रिक आंदोलन को कमजोर करते रहे हैं। पश्चिम बंगाल में माओवादी सीधे माकपा को निशाना बनाते रहे हैं।नक्सलबाड़ी से लेकर लालगढ़ का अनुभव इसकीपुष्टि करता है।

कॉमरेड ! कबीलावाद को जनवाद नहीं कहते !



     हिन्दी लेखकों के एक बड़े हिस्से में फेसबुक से लेकर सांगठनिक स्तर तक कबीलावादी मानसिकता बनी हुई है। वे गुट बनाकर काम करते हैं, अपने गुट के सदस्य की प्रशंसा करते हैं, गुट का सदस्य घटिया काम करे,तब भी प्रशंसा करते हैं,उसकी स्तरहीन रचना को भी महान बनाकर पेश करते हैं, हर हालत में उसके पक्ष में खड़े होते हैं, जो उनसे अससहमत हो,उनकी आलोचना लिखे, उसपर निजी हमले करते हैं। फेसबुक पर सक्रिय अधिकांश जनवादी-प्रगतिशील लेखकों की फेसबुक वॉल देखें तो पाएंगे कि ये लोग फेसबुक पर कोई गंभीर विचार-विमर्श नहीं करते, केन्द्र-राज्य सरकारों की जनविरोधी हरकतों या फैसलों की कभी तीखी आलोचना नहीं करते। साहित्य-कला के सवालों पर नहीं लिखते। इनकी दुनिया आत्म-प्रशंसकों से घिरी है। ये अपनी प्रशंसा करते हैं, जो उनकी प्रशंसा करता है, उसकी प्रशंसा करते हैं। इनकी फेसबुक वॉल पर किसी भी साहित्यिक मसले पर कोई बहस नहीं मिलेगी। ये फेसबुक में हैं लेकिन फेसबुक से जुड़े किसी भी ज्ञान-विज्ञान को पढ़ने में इनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। ये दुनियाभर की सैर कर रहे हैं लेकिन थोड़ा ठहरकर दुनिया में जो मसले उठ रहे हैं उन पर बातें नहीं करते। देश –विदेश की दुनिया से बेखबर होकर फेसबुक पर ये लोग किसलिए हैं और किस रुप में हैं इसे समझने की जरुरत है । इनसे सवाल किया जाय कि वे फेसबुक पर क्यों हैं ? वे लेखक हैं तो देश-विदेश के सवालों पर गूंगे क्यों रहते हैं ? ये कमाल के वीर हैं,सारी दुनिया के सवालों पर गूंगे रहते हैं लेकिन अपने आलोचकों से पूछते हैं पार्टनर तेरी पॉलिटिक्स क्या है ? इनको कभी कांग्रेस-माकपा-भाजपा –सपा-बसपा आदि की जनविरोधी भूमिका पर एक पंक्ति लिखते नहीं देखा गया,इनको भारतीय लेखकों की कोई समस्या नजर नहीं आती और न उस पर कोई बहस चलाते हैं, हम सवाल करना चाहते हैं आखिर वे फेसबुक पर क्यों हैं ? फेसबुक पर इस तरह की गूंगी उपस्थिति तो इनके कबीलावाद को और भी मुखर रुप में व्यंजित कर रही है।

मोदी के आगमन के पहले और बाद में आप इन प्रगतिशील-जनवादियों की फेसबुक वॉल देखें तो चौंक जाएंगे अधिकतर की वॉल पर मोदी के बारे में बमुश्किल कोई पोस्ट मिलेगी,ऊपर से तुर्रा यह कि ये फेसबुक पर धर्मनिरपेक्षता की रक्षा कर रहे हैं। असल में ये फेसबुक को जनसंपर्क के माध्यम के रुप में इस्तेमाल कर रहे हैं। हमें इस पर आपत्ति नहीं है कि वे जन-संपर्क क्यों करते हैं, हमें आपत्ति है कि ये लोग यदि सच में भाजपा विरोधी हैं,मोदी विरोधी हैं तो जमकर भाजपा सरकारों की जनविरोधी नीतियों और अमानवीयता पर लिखते क्यों नहीं ? पहले मनमोहन सिंह सरकार पर ये चुप क्यों थे ? इनकी फेसबुक वॉल पर छत्तीसगढ़ सरकार से लेकर मोदी सरकार के खिलाफ कोई पोस्ट या निरंतर पोस्ट नजर क्यों नहीं आतीं ?

ये लोग कबीले के सरदार की तरह फेसबुक पर आते हैं ,इधर-उधर लाइक करते हैं,एक-आध टिप्पणी लिखते हैं ,और 56इंट का सीना दिखाकर चले जाते हैं। फेसबुक पर उनका गूंगाभाव और सरकारी नीतियों से लेकर साहित्यिक सवालों तक चुप्पी बनाए रखना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि हिन्दी के ये लेखक कबीलावाद से बाहर नहीं निकले हैं। कबीले की तमाम बुराईयां इनके फेसबुक आचरण में साफ दिखाई देती हैं।

हम विनम्रतापूर्वक कहना चाहेंगे कबीलावाद , जनवाद नहीं है। फेसबुक से लेकर जीवन तक जनवाद का अर्थ है अन्य के व्यक्तित्व,विचार,व्यवहार,आचरण आदि का सम्मान करना.शिरकत,सहयोग और मित्रता को बनाए रखना, राज्य और अन्य संरचनाओं या अधिरचनाओं के वैचारिक सवालों पर वस्तुगत होकर तीखी बहस करना। अन्य के सही तर्क और विवेक को मानना। ''मैं सही और तुम गलत '' के फ्रेमवर्क में न सोचना। वह जनवाद बेमानी है जिसमें अन्य के लिए जगह न हो। तर्कहीन होना,गालिया बकना,गुस्सा करना,घृणा करना,चरित्र हनन करना,निजी जीवन पर हमले करना जनवाद नहीं है, यह तो कबीलावाद है। आधुनिक भाषा में कहूं तो यह मार्क्स-गांधी का नहीं नीत्शे का अनुसरण है।

इंटरनेट के युग में कबीलावाद के पक्षधर सिर्फ संग्रहालय की शोभा बढ़ाएंगे। हमारे हिन्दी लेखक कबीलावाद से निकलकर जनवाद के अनुरुप,भारत के संविधान के अनुरुप आचरण करें और लोकतंत्र को अपनी दैनन्दिन जीवन शैली में ढालें वरना वे अभी तो हाशिए पर हैं भविष्य में हाशिए के बाहर चले जाएंगे।

इंटरनेट युग कबीलावाद के अंत का युग है। इंटरनेट युग में कबीलावाद वस्तुतः एक किस्म का फंटामेंटलिज्म है। यह विलक्षण आयरनी है और सच्चाई है कि कबीलावादी लेखकों के आचरण और फंडामेंटलिस्टों के फेसबुक आचरण में बुनियादी तौर पर अनेक बातें मिलती-जुलती हैं। हम चाहते हैं हिन्दीलेखक (खासकर प्रगतिशील-जनवादी लेखक) कबीलावाद से बाहर निकलें और जनवादी आचरण करें। फेसबुक पर लिखें, विभिन्न विषयों पर बहस चलाएं और अपने नीतिगत नजरिए को पेश करें,नीत्शे के मार्ग से निकलकर मार्क्स-गांधी के मार्ग का अनुसरण करें।नीत्शे का मार्ग फासिज्म की ओर ले जाता है। यह आचरण को दुरुस्त करने वाली बात है, यदि नहीं समझे तो भविष्य में समाज में वही स्थान होगा जो नीत्शे का है।

मंगलेश डबराल-असद जैदी असभ्य भाषा के प्रयोग के कारण ब्लॉक किए गए,

असद जैदी-मंगलेश डबराल ब्लॉक किए गए ,क्योंकि वे फेसबुक पर असभ्य भाषा लिख रहे थे। शिक्षितों और खासकर लेखक का असभ्य भाषा बोलना अपराध है।कल जबरीमल पारख ने एक पोस्ट लिखी,जिस पर चर्चा चल रही थी,उसमें कहीं से असद जैदी दाखिल हुए और गालियां बकने लगे,मंगलेश डबराल ने भी असभ्य भाषा लिखी, उन्होंने असद की भाषा की प्रच्छ्न्न हिमायत की। फेसबुक पर हिन्दी के लेखक जब भी बहस करते हैं तो तर्कहीन होने पर तुरंत असभ्यभाषा लिखने लगते हैं।बहस करने का धैर्य नहीं है तो फेसबुक पर मत जाओ।गालियां दोगे, पर्सनल अटैक करोगे,ब्लॉक कर दिए जाओगे। हिन्दी लेखकों में एक वर्ग की आदत है बहस में अ-लोकतांत्रिक हो जाना,गुटबाजी करके लेखक के खिलाफ घटिया अ-साहित्यिक प्रचार अभियान चलाना। फेसबुक पर भी ये बीमारियां ये ही लेखक ला रहे हैं। पढ़ें पूरी पोस्ट-


पूरी बहस पढ़ें-

Jawari Mal Parakh की मूल पोस्ट-

हमारे एक प्रिय मित्र जो छतीसगढ़ सरकार द्वारा आयोजित और प्रायोजित साहित्योत्सव में भाग लिया है, उनका मानना है की यह आयोजन बीजेपी में कट्टरपंथियों और उदारतावादियों के बीच के संघर्ष का नतीजा है. मैं नहीं जानता कि बीजेपी में उदारतावादी होने का क्या मतलब है. क्या उदारतावादी हिंदुत्व की विचारधारा में यकीन नहीं करते, क्या वे गुजरात में हुए नरसंहार के लिए शर्मिंदा है और क्या वे बाबरी मस्जिद के विध्वंस को गलत मानते हैं. यदि ये तीनों बातें मानते हैं तो फिर वे बीजेपी में नहीं हो सकते. अगर हम बीजेपी और आरएसएस के बारे में किसी तरह की ग़लतफ़हमी पालते हैं तो यह सिर्फ अपने को धोखा देना होगा. फासीवादी विचारधारा का कोई उदारतावादी पक्ष नहीं होता. सिर्फ वे अपने को वहां होने को सही ठहराना चाहते हैं और उसके लिए यह तर्क पेश कर रहे हैं तो इस पर मुझे कुछ नहीं कहना है. अगर आपने उनके मंच पर खड़े होकर उनकी आलोचना कर दी या उनको गाली भी दे दी तो उससे कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला है. आपकी मौजूदगी ही उनके सही होने का सबूत है. सही इस अर्थ में कि हम भी उदार हैं, लोकतंत्र में यकीन करते हैं और अपने मंच पर देखो हम अपने धुर विरोधियों को भी सादर आमंत्रित करते हैं.

बाद में उस पर आई टिप्पणियां-







Hammad Farooqui ye BJP ka udartava aisa he ki atal ji advani ji ki apreksha,advani ji-toghariya ki,toghariya-Narendra ji,Narendra ji Niranjan ji,Niranjan ji Aditya Nath ji ki apeksha udartavadi hein..

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Anil Kumar Singh bilkul sahi baat sir .

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Virendra Yadav अब एक नया तर्क चल रहा है कि नरेन्द्रमोदी तो उदार हैं क्योंकि आर्थिक उदारवाद के कायल हैं और योगी , साध्वी ,साक्षी आदि कट्टरपंथी.

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Hammad Farooqui kuttey ka pilla-Hara...zad...se zeyada udar he..?

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Anil Kumar Singh भेड़ की खाल में भेड़िया वाली बात.

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Tiwari Keshav सहमत

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Jagadishwar Chaturvedi मैं जबरीमलजी से सहमत हूं, भाजपा को लेकर कोई बुनियादी मतभेद नहीं है आपसे मेरा,यह मेरा अनुमान है सही भी हो सकता है भविष्य में और गलत भी।

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Narendra Tomar लगता है कि संघ और नरेंद्र माेदी के बीच एक समझ यह भी है कि नरेंद्र मोदी की छवि को उदारवादी के रूप में पेश करते हुए कट्टरतावादी सांप्रदायिक खेल को जारी रखा जाएगा।

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Mangalesh Dabral जगदीश्वर-जी, भाजपा में कट्टरता और उदारवाद के बीच संगर्ष की तथाकथित सैद्धांतिकी आपने पेश की है और अब आप पारख जी का भी समर्थन कर रहे हैं! या इलाही ये माजरा क्या है!

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Mangalesh Dabral यह कहना सरासर भ्रामक है की संघ परिवार आर्थिक उदार्ताव्गाद का विरोधी है.

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Mangalesh Dabral हा हा, अब आप लिखे भी कर रहे हैं!!! यह क्या दुरंगी चाल हैं!

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Mangalesh Dabral लाइक पढ़ें.

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Jagadishwar Chaturvedi मंगलेशजी, यह मेरा राजनीतिक अनुमान है और राजनीतिक अनुमानों पर बहस होनी चाहिए,माजरा कुछ नहीं है, आप जानते हैं मेरी जेएनयू की राजनीतिक शिक्षा में राजनीतिक तैौर पर कभी कोई भी दल अछूत नहीं रहा, मैं सभी दलों के बीच में संवाद के पक्ष में रहा हूँ। दुरंगीचाल नहीं है। मैं सैंकडों पोस्ट भाजपा पर फेसबुक पर लिख चुका हूँ,दुरंगापन तो आप जैसे लेखकों का है।

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Santosh Chaturvedi सचमुच मामले में बड़ा घालमेल नजर आ रहा है। इन कट्टरवादी ताकतों से आखिर किस बिना पर उदारतावाद की उम्मीद की जा रही है।जबकि परिदृश्य पूरी तरह स्पष्ट है।

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Jagadishwar Chaturvedi मंगलेशजी, पहले आप ही कहें कि भारत भवन पुण्यात्माओं का केन्द्र कैसे हो गया ,जिसमें आप आते जाते रहे हैं।

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Mangalesh Dabral आपको नाथूराम गोडसे को देशभक्त कहने वालों से संवाद करते रहना चाहिए. शायद वे आपकी शिक्षाओं पर अमल करने लगें. और मैं बीजेपी सरकार आने के बाद कभी भारत भवन नहीं गया तमाम बुलाओं के बावजूद.

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Jagadishwar Chaturvedi संतोष, फेसबुक पर विचारों का आदान-प्रदान होता है यहां दलीय सोच में बाँधकर बातें करने से बहस नहीं हो पाएगी, दलीय सोच के लिए दलीय मंत हैं।

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Jagadishwar Chaturvedi मंगलेशजी, मैं जिस सत्र में था उसमें सभी लोकतांत्रिक लेखक थे और उनमें संवाद हुआ है। आपके जैसे लेखक से मैं यह उम्मीद नहीं करता, आप तो संघ के नेता के कार्यक्रम में गए थे, मैं तो संघ के कार्यक्रम में नहीं गया ।

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Mangalesh Dabral मैं किसी संघी नेता के कार्यक्रम में नहीं गया. और छत्तीसगढ़ में अफ़सोस की आपको सुनने को हम न हुए!

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Jagadishwar Chaturvedi







मंगलेशजी, भारत भवन फोर्ड फाउंडेशन के पैसों से चलता रहा जब जनवादी लेखक संघ ने उससे दूर रहने का कॉल दिया तब आप जैसे लेखकों ने दौडकर उसमें शामिल होना जरुरी समझा,यह सरासर अपमान नहीं लगा आपको आश्चर्य है।राकेश सिंहा के साथ उसके कार्यक्रम में जाना गलत नहीं लगा। रायपुर मेला तो राज्य सरकार ने आयोजित किया था,क्या आज की स्थिति में हम भारत सरकार का बहिष्कार कर सकते हैं ,जरा इफको के 10लाख वापस करा दो नामवरजी से, आपने निंदा में बयान क्यों नहीं दिया, आप यूपी में अपराधियों को संरक्षण दे रही सरकार से पुरस्कार लेने वालों के खिलाफ चुप क्यों रहे ? कांग्रेस की सरकार थी जब भोपास गैस त्रासदी हुई आपने तो कांग्रेस की सरकार से इनाम तक लिया उस समय आपको लेखकीय नैतिकता का कोई ज्ञान क्यों नहीं रहा। क्या कांग्रेस को कलंक मुक्त कर दिया है आपने?

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Mangalesh Dabral वह राकेश सिन्हा का नहीं , एक किताब की लेखक का कार्यक्रम था और इस ज़रा सी चूक के लिए भी मैंने माफी मांग ली थी. मैंने किसी कांग्रेसी से भी कोई पुरस्कार नहीं लिया.

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Mangalesh Dabral जगदीश्वर-जी, आपकी चातुरी की कहानियाँ तो जेएनयू से ही मशहूर हैं!

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Jagadishwar Chaturvedi गए क्यों ,भारतभावन के लिए आपने कभी माफी मांगी, आप तो खुलेआम हिमायत कर रहे हैं, फोर्ड फाउण्डेशन की मदद से चलने वाले भारत भवन की ,जबकि सब जानते है कि फोर्ड फाउण्डेशन के साथ सीआईए का याराना है।

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Mangalesh Dabral मैं कभी भारत भवन भी नहीं गया. आप झूठ बोल रहे हैं.

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Jagadishwar Chaturvedi मंगलेशजी, आपने हिमायत की है।कुछ दिन पहले ही अखबार में कहा है।

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Mangalesh Dabral अब आप अपनी बकवास बंद करें तो बेहतर हो.

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Jagadishwar Chaturvedi बकबास तो आपने आरंभ की थी।मैं तो आपकी बातों पर राय दे रहा था। राय दें कांग्रेस को आप दूध का धुला मानते हैं या नहीं ,क्या भोपाल गैस कांड से आप मुक्त कर दिए हैं उसको, भाजपा पर आपकी भूमिका को लेकर दुविधा नहीं है,

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Mangalesh Dabral बहुत देर बाद पता चला कि आपको शर्म भी नहीं आती.

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Jagadishwar Chaturvedi कमाल है बेशर्मी आप कर रहे हैं, आप डिक्टेट कर रहे हैं कि मैं कहां जाऊँ कहां न जाऊँ, शर्म आपको आनी चाहिए। लोकतंत्र है यह ।

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Mangalesh Dabral क्या मैंने आपको जाने से रोका? आप बही साहब कहीं भी जाएँ, यह ज़रूर लोकतंत्र है.

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Santosh Chaturvedi Jagadishwar Chaturvedi सर, फेसबुक विचारों के आदान प्रदान का एक बेहतर मच है, इससे भला कौन इनकार कर सकता है। आपके विचारों और सूचनाओं से हम समय समय पर लाभान्वित होते रहते हैं। लेकिन बात जब ऐसे कूढ़मगज लोगों की हो जो रोज ब रोज अपनी मूर्खता भरी बातों से हास्...See More

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Jagadishwar Chaturvedi मंगलेशजी, आपने रोका नहीं आपकी बातों में है यह, आपकी राय बता रही है, कम से कम लोकतंत्र में सम्मान करके बातें करना तो सीख लें आप, कमाल है।

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Mangalesh Dabral medicine can cure a sick person, nothing can cure a vulgar person--chinese proverb.

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Jagadishwar Chaturvedi संतोषजी, मैं लगातार लिखता रहा हूँ, मैंने छत्तीसगढ़ सरकार पर भी लिखा है, समस्या यह नहीं है,समस्या यह है भाजपा सरकार के आयोजित कार्यक्रम में जाएं या नहीं। बहस इस सवाल पर है।

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Anil Kumar Singh जोरदार विमर्श या ठग-विमर्श.

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Jagadishwar Chaturvedi अवसरवाद सबसे बड़ी बीमारी है उसका कोई इलाज बाजार में नहीं है।

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Jagadishwar Chaturvedi अनिलजी, ठग-विमर्श सही है,

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Jagadishwar Chaturvedi मंगलेशजी, आपकी फेसबुक वॉल पर मोदी के चुनाव मैदान में आने के बाद से मोदी और भाजपा के खिलाफ कितनी पोस्ट हैं जरा गिनकर खुद बताएं या किसी की मदद ले लें, पता चल जाएगा कि आपने भाजपा की इनदिनों किस तरह सेवा की है। प्रमाण है आपकी वॉल,जरा गिनती कर लें।

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Asad Zaidi जवरीमल जी, जिन्हें आप अपना प्रिय मित्र कह रहे हैं वह अगर वहीं हैं जो मैं समझ रहा हूँ तो जान लीजिये कि वह पुराने बेहया और लफंगे हैं। उनसे सुधार की उम्मीद रखना एक भैंसे या बैल से दूध की उम्मीद रखने की तरह है। वह एक फ़्री-लांस अवसरवादी हैं। वक़्त के साथ उनका यह स्वभाव उनके चेहरे और भंगिमा से भी झलकने लगा है। मुझे उनकी किसी बात से ताज्जुब नहीं होता।

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Jagadishwar Chaturvedi भाजपा की दिल्ली सरकार से पैसा लेने में कोई परेशानी नहीं होती कमाल।

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Mangalesh Dabral are mahan aatmaa, kisne dilli ki baajapaa sarkaar se paisa ya inaam liya?

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Mangalesh Dabral आप क्या किसी चंडूखाने में बैठे हैं?

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Jagadishwar Chaturvedi

मंगलेशजी, आपके लिए नहीं लिखा,निश्चिंत रहें, जिनके लिए लिखा है, वे जबाव दें। असभ्यता की हद हैअसद जैदी बेहया और लफंगा लिख रहा है मेरे लिए और आप समझ भी नहीं रहे।इसका गाली देना तो उसे लफ़ंगा बनाता है, मैंने तो असद पर कुछ नहीं लिखा, यह कैसा हिन्दीकवि है जो गालियाँ लिखता है, कवि जब गालियाँ लिखे तो यह पतन की निशानी है,रही बात अवसरवाद की तो असद ज़ैदी तुम तो मदनलाल खुराना की सरकार के कर्जगीर हो! अमेरिका के नेटवर्क में काम करके अमेरिकी विचारधारा की सेवा कर चुके हो। तुम जैसा अवसरवादी तो हमने नहीं देखा।



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Mangalesh Dabral आह, यह आपके लिए है? क्या सच?

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Jagadishwar Chaturvedi मंगलेशजी, मैं कई दिन पहले आपके प्रति अपना सम्मान व्यक्त कर दियाथा ,मैं सारी बहस के बावजूद आपका सम्मान करता हूँ,

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Mangalesh Dabral यह बहस तो नहीं है. अगर बहस यही है तो हिंदी को कोई नहीं बचा सकता.

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Mangalesh Dabral छत्तीस गढ़ सरकार भी नहीं.

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Jagadishwar Chaturvedi मंगलेशजी, असद जैदी क्या हैं और क्या नहीं यह मैं बताने नहीं जा रहा, वे सज्जन पुरुष हैं, लेकिन वे जिस भाषा में दाखिल हुए हैं यह तो निपट लंफंगई है। मुद्दों पर बहस होगी,तीखी बहस होगी,लेकिन लेखकीय सम्मान को खत्म करके नहीं, मैंने पहले भी लिखा है।

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Jagadishwar Chaturvedi मंगलेशजी, मेरी छत्तीसगढ़ सरकार या मोदी सरकार से कोई मुहब्बत नहीं है। असद जैदी ने सबसे घटिया और ओछी हरकत की है। वह जबाव दे उसने भाजपा की दिल्ली सरकार से पैसा क्यों लिया,काहे के तीसमारखाँ बने फिर रहे हैंं।

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Mangalesh Dabral आपने बता दिया की असद के सज्जन हैं और एक पुरुष भी. बस और क्या चाहिए! अब आप अपनी मेधा को कुछ विश्राम दें.आपकी मोहब्बत जहाँ भी ह, वहां मुबारक.

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Jagadishwar Chaturvedi

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Kamlakant Tripathi क्या घमासान है ! देश के महान साहित्यकारों की भाषा है यह तो बेचारा पाठक किधर जाएगा ? इतनी सी बात नहीं समझते कि जो आपा खोता है वह औरों को कितना भी expose करने की कोशिश करे, सबसे ज़्यादा वही expose होता है. और जब पत्थर फेंके जा रहे हों , गलती उसकी होती ह...See More

सोमवार, 15 दिसंबर 2014

रायपुर साहित्य मेला के बहाने लिबरल बनने की चाह



   रायपुर साहित्य मेला में आना कई मायनों में सार्थक रहा, यह मेला असल में भाजपा के अंदर चल रही लिबरल राजनीतिक प्रक्रिया के अंग के रुप में देखा जाना चाहिए। भाजपा की आंतरिक संरचनाओं में लिबरल बनाम हिन्दुत्व के अंतर्विरोधों को सहज ही देखा जा सकता है। यह एक सच्चाई है कि छत्तीसगढ़ सरकार का हाल की कई अमानवीय - जनविरोधी घटनाओं के कारण आम जनता से अलगाव बढा है। जिस दिन (१२-१४ दिसम्बर २०१४) साहित्यमेला आरंभ हुआ उस दिन (१२ दिसम्बर) विभिन्न विरोधी राजनीतिक दलों ने रमन सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध करते हुए जुलूस निकाले, कांग्रेस ने साहित्यकारों से साहित्य मेला में न जाने की अपील की। लेकिन इसके बावजूद यह मेला हुआ। स्थानीय साहित्यकारों को भी इस सम्मेलन में सक्रिय रुप से भाग लेते देखा गया। एक बुज़ुर्ग साहित्यकार ने केदारनाथ सिंह के रवैय्ये की तीखी आलोचना भी की, उन्होंने बताया कि छत्तीसगढ़ सरकार का दिल्ली स्थित जनसंपर्क अधिकारी केदारजी के घर मुख्यमंत्री का निमंत्रण पत्र लेकर गया था उन्होंने आने के बारे में अपनी स्वीकृति भी दी,इसके बाद ही निमंत्रण पत्र से लेकर अन्य सभी प्रचार सामग्री  में उनका नाम दिया गया। स्थानीय लेखकों से बातें करके यह भी पता चला कि भाजपा सरकार का इस कार्यक्रम में कोई हस्तक्षेप नहीं था, स्थानीय लेखकों की मदद से ही सारा कार्यक्रम तय किया गया था । तीन दिन चले कार्यक्रम में कहीं पर भी कोई भाजपा या संघ का नेता नजर नहीं आया, समूचे कार्यक्रम को पेशेवर लोगों के जरिए संचालित किया गया, बाहर से आए लेखकों को बेहतरीन होटलों में रखा गया और सम्मानजनक ढंग से आदर-सत्कार किया गया। चूँकि यह हिन्दी के लेखकों का मेला था इसलिए राज्य सरकार ने राज्य के कॉलेज शिक्षकों को मेले में भाग लेने के लिए तीन दिन का अवकाश देकर बेहतर मिसाल क़ायम की। इन शिक्षकों के रहने आदि की भी व्यवस्था की गयी। दिलचस्प बात यह रही कि समूचा शहर साहित्यमेला की प्रचार सामग्री से पटा पडा था, हर जगह साहित्यकारों के नाम की सूचना सुंदर ढंग से दी गयी थी। मुश्किल यह थी कि जिस स्थान पर ( पुख़ौती मुक्तांगन, नया रायपुर ) यह मेला आयोजित किया गया था वह शहर से तक़रीबन २५किलोमीटर दूर था, पहले दो दिन कार्यक्रम में कम दर्शक थे लेकिन तीसरे दिन शहर के विभिन्न इलाक़ों से मुफ़्त बस सवारी की व्यवस्था करके सैंकडों लोगों को साहित्यमेला स्थल तक लाने में राज्य प्रशासन सफल रहा । इससे यह भी पता चला कि रायपुर में मेलाप्रेमी-साहित्यप्रेमी जनता भी है। जो लोग शहर के विभिन्न इलाक़ों से यहाँ आए उनमें मध्यवर्ग के मराठी भाषी और आसपास के गाँवों के लोग ज़्यादा थे। 
              

रायपुर साहित्यमेला में दिया गया भाषण- वर्चुअल रियलिटी की चुनौतियाँ


          आभासी संसार यानी वर्चुअल जगत,यह असल में वर्चुअल रियलिटी है। यह तकनीकी है,अवधारणा नहीं है,यह वातावरण है,एनवायरमेंट है। 7जून1989 को कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर तंपनी ऑटोडेक्स और कम्प्यूटर कंपनी बीपीएल ने इसकी घोषणा की। इसका जन्म 1984 में एक विज्ञानकथा के गर्भ के जरिए हुआ।विलियम गिब्सन के उपन्यास 'न्यूरोमेंसर' से इसका सिलसिला शुरु होता है। इसका राजनीतिक आयाम भी है,यह 'स्टारवार'कार्यक्रम के गर्भ से निकली तकनीक है।यह समाजवाद के पराभव के साथ आई तकनीक है। जो लोग पूंजीवाद के प्रति आलोचनात्मक रवैय्या रखते थे,समाज को बदलना चाहते थे,जिनमें युद्ध के खिलाफ और शांति के पक्ष में भावनाएं थी उन्हीं को वर्चुअल रियलिटी ने निशाना बनाया।नई जीवनशैली दी।वर्चुअल रियलिटी के सिद्धांतकार जेरोन लेनियर ने वर्चुअल रियलिटी को पेश करते हुए नारा दिया '' जनता को कल्पनाशीलता से मुक्त करो,लोगों को संप्रेषित करने में मदद करो।'' आरंभ में वर्चुअल रियलिटी में सामाजिक आलोचना का भाव था बाद में सिर्फ तकनीकी रह गई।जो आलोचक थे वे व्यवसायी हो गए। 

     जेरोन लेनियर ने लिखा है ' वर्चुअल रियलिटी हमारे बाहरी जगत पर असर डालती है।हमारे आंतरिक जगत पर असर नहीं डालती।नया वस्तुगत यथार्थ पैदा करती है।तुम इसमें रमण कर सकते हो,यह संक्रमणशील है,तुम इसकी चीजों का दुरुपयोग नहीं कर सकते;यह कृत्रिम वातावरण की खुली तकनीकी है। इसने व्यक्ति,निजता, समुदाय, समय और आकार आदि के बारे में हमारी अब तक की समस्त धारणाओं को बदला है।' 

        वर्चुअल रियलिटी का काम है कार्रवाई,शिरकत और नियंत्रण स्थापित करना।यह दुनिया को वर्चस्ववादी दृष्टिकोण से देखने का विमर्श तैयार करती है।इसीलिए वर्चस्ववादी ताकतों को सबसे प्रिय है।इसका काम मुख्य काम है व्यस्त रखना।लक्ष्य है वर्चस्व स्थापित करना।इसका लक्ष्य सत्य या विवेक नहीं है, बल्कि निजी दृष्टिकोण है।यह समस्त विमर्शों को अपने मातहत बना लेना चाहती है।

         उल्लेखनीय है साँफ्टवेयर में संगीत क लय की तरह हर चीज को व्यक्त करने की क्षमता है । यहाँ संगीत से लेकर व्यक्ति तक हर चीज को व्यक्त कर सकते हैं । मौजूदा दौर में मनुष्य की हर गतिविधि सॉफ़्टवेयर से जुडी हैं या उसके जरिए संचालित हो रही हैं । कहने के लिए www के नाम पर तरह तरह के डिज़ायन और साफ्टवेयर इस्तेमाल किए जा रहे हैं इसे वेब 2.0 (web 2.0) की विचारधारा कहते हैं औ, सतह पर यह स्वतंत्रता का वायदा करती है लेकिन असलियत में यहाँ मनुष्य से ज़्यादा मशीनों को स्वतंत्रता है । वे इसे 'ओपेन कल्चरया खुली संस्कृति कहते हैं। ब्लागसोशलमीडियावीडियोयू -ट्यूब ,हल्की टिप्पणियाँ यहाँ नाटकीय और हार्मलेस नजर आती हैं ।लेकिन बृहत्तर स्तर पर यह विखंडित(फ्रेगमेंट) संस्कृति का लगावरहित संचार  है। इससे निजी मेल मुलाक़ात की परंपरा या आदत की क्षति होती है ।कम्युनिकेशन इन दिनों कभी -कभी अति-मानवीय फिनोमिना नजर आता है । मनुष्य से परे का फिनोमिना नजर आता है।

               मौजूदा दौर में व्यक्ति से हमारी आकांक्षाएँ बहुत कम हो गयी हैंन्यूनतम आकांक्षाओं के साथ जीना रहना सामान्य बात हो गयी है । तकनीक की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह बताती है कि आदमी कितनी जल्दी बदलता है । डिजिटल डिज़ायन में छोटा सा परिवर्तन व्यापक स्तर पर समाज को प्रभावित करता है । ख़ासकर वे लोग जो इसका इस्तेमाल करते हैं वे तेज़ी से प्रभावित होते हैं । वर्चुअल रियलिटी की खूबी है कि निज की शक्ति और सामाजिक दृष्टि को रुपान्तरित करती है । इसी अर्थ में तकनीक को मनुष्य या निज का एक्सटेंशन कहा गया ।

     हमारी अस्मिता तुरंत गजटस बदलते ही रुपान्तरित हो जाती है । सूचना तकनीक के साथ सोशल इंजीनियरिंग के बिना काम करना संभव नहीं है। हमें सवाल करना चाहिए ब्लॉगिंगट्विटिंगफेसबुक आदि से व्यक्ति कितना बदलता है मैं क्या हूँ मेरी पहचान क्या है जिन लोगों ने इसके प्रोग्राम बनाए वे तो सिर्फ़ यही माँग करते हैं कि आप कम्प्यूटर से संपर्क-संबंध रखें यानी अपने दिमाग़ के किसी कोने के साथ कम्प्यूटर का संबंध बनाकर रखें। कम्प्यूटर में अनजान वैज्ञानिकों की भीड़ के बनाए प्रोग्राम हैं जिनके साथ हम संपर्क रखते हैं । यह एक तरह से अल्लम-गल्लम लोगों के समूह हैं ,जो मनुष्य कहलाते हैं। ये ही लोग हैं जो अंगागि-भाव से जुड़े हैं। इनकी राय ही वैध राय है । यहाँ रीयल व्यक्ति की नहीं कृत्रिम व्यक्ति की राय मिलती है । यह व्यक्ति भी फार्मूलाबद्ध ढंग से बोलता है । रुढिबद्ध भाषातयशुदा भाषा उसकी विशेषता है और यह सब काम मशीन करती है । यह कृत्रिम मनुष्य है जो कम्प्यूटर में बैठा हुआ है । लेकिन मनुष्य तो फ़ार्मूला नहीं है । मनुष्य फ्रेगमेंट नहीं है।लेनियर ने लिखा " फ्रेगमेंट आर नेट पीपुल्स"मनुष्य  तो परिवर्तनशील है। वह तो रहस्यमय विश्वासों में डूबा व्यक्ति है। लेनियर ने लिखा क्या कोई तकनीकीविद विश्वास करेगा कि अतीत से बेहतर भविष्य हो सकता है.तकनीकीविदों को आदर्शवादी होना चाहिए उनके पास आदर्श विचार होने चाहिए।

          तकनीकी विकास की प्रक्रिया निरंतर विभ्रम पैदा करती रही है। यह एक तरह का तकनीकी पागलपन भी है। इसके कारण वास्तव और आदर्श कम्प्यूटर में निरंतर विभ्रम बना रहता है । तकनीक यह मानकर चलती है कि प्रत्येक तकनीक नए के ब्राण्ड रुप में काम करे या  जानी जाय। समूची रणनीति यह है कि  हम कम्प्यूटर के बारे में यथार्थवादी ढंग से न सोचें। कम्प्यूटर के प्रोग्राम जिस गति से आ रहे हैं उसके कारण एकदिन हम बंद गली में जाकर क़ैद हो सकते हैं!

   नई तकनीक आने के साथ जो चीज़ें आई हैं वे मनुष्य के अंगों से जुड़ी हैं,मसलन् हमारे आँखों और कान से वेबकाम्स और मोबाइल फ़ोन जुड़े हैं ये हमारी स्मृति की विस्तारित मेमोरी या स्मृति का अंग हैं। ये वे स्ट्रक्चर हैं जो दुनिया और अन्य लोगों से  जोड़ सकता हैऔर ये संरचनाएँ पलटकर यह भी सोचने का मौक़ा देती हैं कि व्यक्ति चाहे तो स्वयं के बारे में सोच सकता है ।  

          लेनियर ने लिखा है कि तकनीक की नई उप-संस्कृति  आज सबसे ज्यादा प्रभावशाली है और असर पैदा करने वाली है। मजेदार बात यह है कि इस उप-संस्कृति का कोई नाम नहीं है। लेकिन साइबर वैज्ञानिक इसे डिजिटल माओवादी कहते हैं। इसमें आदिवासियों जैसा सांस्कृतिक खुलापन और साझा सर्जनात्मक तत्व हैं। यह कम्प्यूटर साइंस के कृत्रिम विवेक से जुड़ी है। इसकी विशेषता है संदर्भविरोध या एंटीकंटेस्ट,इसमें फाइलें एक-दूसरे के साथ बिना संदर्भ के साझा की जा सकती हैं,समाहित की जा सकती हैं। इसकी राजधानी सिलिकॉनवेली है। लेकिन इसकी शक्ति सारी दुनिया में फैली हुई है। इसने साइबर समग्रतावाद को जन्म दिया है। इस प्रसंग में लोग सबसे बड़ी गलती यह कर रहे हैं कि वे निजी नेटवर्क को ध्वस्त करने में लगे हैं। इससे अराजकता और बढ़ेगी। नेटवर्क में अराजकता न बढ़े इसके लिए जरुरी है कि ज्यादा से ज्यादा रियल लोग नेटवर्क में शिरकत करें। यदि नेटवर्क में अमूर्त लोग रहते हैं तो यह अर्थहीन हो जाएगा। नेटवर्क अर्थहीन न बने इसके लिए जरुरी है कि रीयल लोग नेटवर्क में सक्रिय हों। रीयल लोग रहेंगे तो नेटवर्क अर्थवान रहेगा। क्योंकि अर्थवत्ता नेटवर्क में नहीं रीयल लोगों में है।

     आभासी संसार में शब्द सर्जना का रीयल सुख तब ही संभव है जब हम इसके मसलों पर खुलकर बहस करें। हमें इसके मसलों को जानना होगा और उन पर बौद्धिकों के बीच में बहस चलानी होगी। हमारे वैज्ञानिकों से लेकर मीडिया तक,राजनेताओं से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं तक आभासी संसार का उपयोग बड़े पैमाने पर हो रहा है लेकिन उसके बुनियादी संरचना से जुड़े सवालों पर कोई गंभीर विचार विमर्श अभी नहीं हो रहा है। राजीव गांधी के कम्प्यूटर मिशन से लेकर नरेन्द्र मोदी के डिजिटल इंडिया के मिशन तक सूचना तकनीक के प्रचार-प्रसार का एक ही लक्ष्य है सूचना उपभोक्ता तैयार करना, सूचना तकनीक के उपभोक्ता तैयार करना, यहां तक कि हमारी तथाकथित बड़ी सूचना-संचार कंपनियां भी सेवाक्षेत्र में ही सीमित हैं और उन्हीं कामों पर जोर दे रही हैं जहां उपभोक्ता है और मुनाफा है। 

    आभासी संसार का सपना डिजिटल बुद्धिजीवी से जुड़ा है। आम जनता के दैनंदिन जीवन में डिजिटल कम्युनिकेशन का दखल बढ़ा है। हमें डिजिटल गुरु बनना है तो हमारे देश के बौद्धिकों को डिजिटल आदतों और संस्कारों को अपनाना होगा।  अभी अधिकांश बौद्धिक-लेखक आदि प्रिंटसंचार और तदजनित मसलों तक सीमित हैं। पूरा देश अभी भी 19वीं सदी के सवालों से जूझ रहा है। देश इन सवालों से मुक्त हो इसके लिए जरुरी है 'डिजिटल छलांग' लगाई जाय,'डिजिटल छलांग' बौद्धिकों को डिजिटली एक्टिव किए बिना संभव नहीं है। विश्व में बौद्धिक वर्चस्व की प्रक्रियाओं में दखल देने के लिए यह जरुरी है, वरना हमारे देश की डिजिटल प्रतिभाओं का अमेरिका-ब्रिटेन आदि देशों की ओर प्रतिभा पलायन होता रहेगा। आभासी संसार में शब्द सर्जना के लिए डिजिटल प्रतिभाओं को रोकना,उनके लिए यहां पर्याप्त संसाधन जुटाना और प्रभावशाली संरचनाओं का निर्माण करना बेहद जरुरी है। हम पहले से देश के प्रति बेगानेपन के शिकार थे,आभासी संसार ने हमारे बेगानेपन को और बढ़ाया है, कम्प्यूटर आने के बाद हमारे देश में प्रतिभा पलायन तेज हुआ है,इसे किसी भी कीमत पर रोकने की जरुरत है। 

  सवाल यह है कि संचार क्रांति को ज्ञानक्रांति में कैसे बदलें ? सूचनासमाज को ज्ञानसमाज कैसे बनाएं ? हमारे यहां ज्ञान समाज और सूचना समाज की समस्याओं को लेकर कोई बहस नहीं है,बौद्धिकों से लेकर मीडिया तक इसके सवालों पर एकसिरे से चुप्पी छाई हुई है, यह चुप्पी क्यों है ? मजेदार बात है सूचना तकनीक और आभासी संसार के बारे में अधिकांश खबरे कानून-व्यवस्था की समस्या से जुड़ी हैं या फिर उपभोक्ता के नजरिए से आती हैं यानी प्रोडक्ट की बिक्री के प्रसंग में सूचना तकनीकी की खबरें आ रही हैं। 

     आभासी संसार में शब्द सर्जना के लिए आंतरिक प्रतिबंधों,पुराने संस्कारों,खासकर कम्युनिकेशन की पुरानी आदतों और झिझक से लड़ने की जरुरत है। लेखक के नाते हमारे अंदर अनेक किस्म के आंतरिक प्रतिबंधकाम करते रहते हैं,इनसे लड़ने की जरुरत है। आभासी संसार में दखल बढ़ाने के लिए विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के स्तर पर कम्प्यूटर और डिजिटल तकनीक के आविष्कार  और नए सॉफ्टवेयर निर्माण ध्यान देने की जरुरत है। अभी हमारे यहां सभी कम्पयूटर पाठ्यक्रम प्रयोजनमूलक हैं ,और सेवाक्षेत्र केन्द्रित हैं। उनमें रिसर्च और नए अनुसंधान के लिए कोई स्थान नहीं है। 

     आभासी संसार और भारतीय पूंजीवाद के रिश्ते को भी हमें खोलकर देखना चाहिए। हमारे देश का पूंजीपतिवर्ग तो कम्प्यूटर को सेवा और मुनाफे से अधिक मानकर नहीं चलता हमें विचार करना चाहिए कि हमारे देश के पूंजीपतिवर्ग की प्रकृति क्या है ? इससे तय होगा कि हमारे देश के आभासी संसार की प्रकृति क्या होगी ?

    हमारे देश के पूंजीपतिवर्ग की चारित्रिक विशेषता है मुनाफा-मुनाफा और सिर्फ मुनाफा कमाना। उसके पास मुनाफा कमाने का विवेक तो है लेकिन ज्ञान,खोज,अनुसंधान और नए के निर्माण की बुद्धि नहीं है। वह व्यापार में रिस्क लेता है लेकिन ज्ञान और खोज के क्षेत्र में उसने कभी कोई जोखिम नहीं उठाया। 'खोज' के बिना आधुनिकता का नजरिया नहीं बनता। यही वजह है भारत के पूंजीपति के पास दौलत है, मुनाफा कमाने की तकनीक है लेकिन खोज की संरचनाएं नहीं हैं। खोज के लिए वह निवेश नहीं करता। इससे भी भयानक स्थिति अकादमिक जगत में है वहां पर विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम तो हैं ,लेकिन 'खोज ' का नजरिया गायब है। ये पाठ्यक्रम सिर्फ नौकरी पाने की कला सिखाते है। इसका दुष्परिणाम यह निकला है कि हमारे देश से प्रतिभा पलायन बड़े पैमाने पर हुआ। प्रतिभा पलायन से बचने का एक ही तरीका है प्रतिभा संरक्षण की संरचनाओं का निर्माण और संसाधनों का विकास। प्रतिभा को शत्रु या प्रतिस्पर्धी के रुप में देखने की बजाय मित्र-नागरिक के रुप में देखा जाय। प्रतिभाशाली व्यक्ति लोकतंत्र की शक्ति होता है। प्रतिभाशाली व्यक्ति को  डिजिटल  युग में दाखिल कर पाते हैं तो हमारे सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक विमर्श के बुनियादी आधार में परिवर्तन हो आएगा। हम देखेंगे कि हठात हम जिन मसलों पर उलझते थे वे एकसिरे से अप्रासंगिक हो गए है। डिजिटल इंडिया में जाने के लिए हम यह सोचे कि डिजिल संसार में डिजिटल उपभोक्तासमाज के साथ जाना चाहते हैं या फिर डिजिटल बौद्धिकों को भी साथ में लेकर जाना चाहते हैं। केन्द्रसरकार की संचारनीति का मुख्य जोर डिजिटल उपभोक्तावाद पर है। इन नीतियों के केन्द्र में सेवाक्षेत्र और सेवकक्षेत्र है,बौद्धिकों का क्षेत्र इसके लक्ष्य से बाहर है। 

         आभासी संसार का कोई भी परिप्रेक्ष्य स्थानीय संरचनाओं और तकनीकी सचेतनता पर आधारित है। भारत की लेखकीय दुनिया किस तरह की तकनीकीचेतना की अवस्था में है इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है कि आभासी संसार किस तरह की समस्याओं से मुखातिब है स्थिति यह है कि कम्युनिकेशन के कम्प्यूटरजनित रुपों के इस्तेमाल के मामले में लेखक-शिक्षक सबसे पीछे हैं, कायदे से इनको आगे होना चाहिए। हमारे यहां यह विलक्षण स्थिति है कि जो जितना ज्ञानी है,वह उतना ही कम्प्यूटर और डिजिटल सर्जना से दूर है। सचेतन लोगों का दूर रहना अपने आपमें बड़ी चुनौती है। वे दूर क्यों हैं ? इसके पीछे क्या कारण हैं ? सबसे पहले उसकी खोज करने की जरुरत है।भारतीय लेखक का मनोजगत और उसके दैनंदिन अभ्यास में पुरानी लेखकीय आदतें रुढ़िबद्ध हैं। इनके प्रति वह संरचना के स्तर पर संघर्ष नहीं करता। उसमें परिवर्तन की इच्छा का अभाव है। 

  आभासी संसार के आने के बाद भाषाओं के साथ सबसे बड़ी दुर्घटना घटी है। भाषा का पहले कोई मालिक नहीं होता था लेकिन अब भाषाओं के मालिक संगठन का उदय हो गया है। इसे 'यूनीकोड कंस्टोरियम' कहते हैं। इसमें Adobe Systems, Apple, Google, IBM, Microsoft, Oracle Corporation, Yahoo! and Oman's Ministry of Endowments and Religious Affairs सदस्य हैं। इसमें कोई भारतीय कंपनी नहीं है और नकोई भारतीय वैज्ञानिक इसके बोर्ड का सदस्य ै। लेकिन संस्था के रुप में भारत इसका सदस्य है। लेकिन भारत का कोई प्रतिनिधि उसकी सूची में नहीं है।  

   हिन्दी में वेबसाइट कल्चर का क्रमशःविकास हो रहा है,प्रयोजनमूलक कम्प्यूटर शिक्षा का भी विकास हो रहा है । लेकिन बाधाएं भी अनेक हैं,ब्लॉगिंग और वेबसाइट की मदद करने वाली संस्थाओं का अभाव है, हिन्दी वेबसाइट के प्रमोशन में व्यापार-जगत की कोई दिलचस्पी नहीं है। जबकि स्थानीय स्तर पर इस तरह के मददगार बनाए जा सकते,आर्थिक संसाधनों के अभाव में वेबसाइट को बनाए रखना अपने आप में बड़ी चुनौती है।  दूसरी बड़ी चुनौती है वैविध्यपूर्ण सामग्री के धारावाहिक फ्लो की। कायदे से भारत सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों को,खा,कर छत्तीसगढ़ की सरकार को अपने सभी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में सभी के लिए वाई-फाई की सुविधा देनी चाहिए,साथ ही विभिन्न विषयों के विभागों के वेबसाइट निर्माण के लिए नियमित आर्थिक मदद देनी चाहिए।साथ ही वेबप्रकोष्ठ भी बनाया जाय। सभी विभागों की शोध पत्रिकाओं को नेट पर होना चाहिए। 

    विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के द्वारा पहल करके विभिन्न विषयों पर नई-पुरानी सामग्री के अपलोड करने की नियोजित स्कीम बनाकर लागू की जानी चाहिए। हम यदि डिजिटल इंडिया में जाना चाहते हैं तो यह अनिवार्य करें कि विभिन्न विश्वविद्यालयों की वेबसाइट पर विभिन्न विषयों की भारत के लेखकों,समाजविज्ञानियों,वैज्ञानिकों आदि की किताबें निबंध और पाठ्य सामग्री उपलब्ध हों। फिलहाल दशा यह है कि जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय की वेबसाइट तक दरिद्रतम रुप में है। कायदे से सभी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में वाई-फाई की सुविधा हो, प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय तक के सभी शिक्षकों को मुफ्त नेट कनेक्शन दिया जाय। साथ ही प्रत्येक स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय की वेबसाइट हो, वहां शिक्षकों-छात्रों के मुफ्तलेखन के वॉल हों। 

       प्राचीन रचनाओं को नेटलूट से बचाने के लिए भारत सरकार,लेखक संगठन और प्रकाशक संगठन मिलकर प्रयास करें वरना हमारी समस्त रचनाएं अमेरिकी दूरसंचार कंपनियों खासकर गूगल के स्वामित्व में चली जाएंगी। यह दुर्भाग्यजनक है कि हमने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है। इस प्रसंग में सबसे पहला कदम यही हो सकता है कि भारत अपना सर्चइंजन तैयार करके उपलब्ध कराए। साथ ही साइबर कानूनों का जनहित में पुनर्मूल्यांकन किया जाय। इसी प्रसंग में बौद्धिकसंपदा अधिकार कानून की नए सिरे से समीक्षा की जानी चाहिए। 

     गूगल ने 16दिसम्बर2014 से स्पेनिश गूगल न्यूजसेवा को स्थायी तौर पर बंद करने की घोषणा की है। यह घोषणा स्पेनिश बौद्धिक संपदा कानून में लाए गए परिवर्तन के कारण करनी पड़ी। स्पेन ने किसी लिंक और समाचारलेख से जुड़ी सामग्री के प्रकाशन को एकदम फ्री करने का फैसला किया है। जबकि गूगल इसके लिए पैसे लेता था। खासकर न्यूजलाइन एग्रीगेटर में मुफ्त इस्तेमाल करने का प्रावधान कर दिया है। उल्लेखनीय है गूगल लिंक शेयर करने और न्यूजलेख शेयर करने का चार्ज वसूल करता है। उल्लेखनीय है जर्मनी ने 2013 में इसी तरह का कानून बनाया था लेकिन गूगल के दबाव के कारण वे मुफ्त शेयर करने वाले प्रावधान को लागू नहीं कर पाए और गूगल को भुगतान करते रहे। हमें भारत के संदर्भ में इस पहलू की जांच करने की जरुरत है कि क्या न्यूजसेवा के जरिए लिंक और न्यूजलेख शेयर करने पर गूगल को भुगतान करना पड़ता है ?

       आभासी संसार में शब्द सर्जना का नया दौर डिजिटल बुक के साथ आरंभ होगा। हमें देखना चाहिए कि इसका क्या असर होगा ? क्या इससे किताब पढ़ने की आदत कम होगी ? क्या इससे पाठक की रीडिंग आदत का सार्वजनिक उदघाटन हो जाएगा तो पाठक पर कोई बुरा असर पड़ेगा? क्या इससे पाठक को संकलित की गयी सूचना पर वर्चस्व स्थापित करने का मौका मिलता है ? डिजिटल बुक पढ़ने की सूचना सार्वजनिक होने से क्या रीडिंग आदत पर कोई बुरा असर होता है ? अभी तक विचार की प्राइवेसी हुआ करती थी लेकिन डिजिटल बुक आने के बाद उसकी प्राइवेसी खत्म हो गयी है,यह प्राइवेसी हमारी अभिव्यक्ति की आजादी,विचार और खोज का हिस्सा थी। विचार की यदि प्राइवेसी नहीं होगी तो विचारों का विकास संभव नहीं है। यह हम सब जानते हैं कि मार्क्स,लेनिन, माओ,स्टालिन आदि के विचारों को पढ़ने के कारण पाठक के घरों पर छापे पड़े हैं,सजाएं तक हुई हैं,खासकर अमेरिका से लेकर भारत तक यह स्थिति देखने में आती है। यदि किसी के घर माओवादी सामग्री मिल जाय या किसी प्रतिबंधित संगठन की सामग्री मिल जाय तो पुलिस परेशान करना आरंभ कर देती है। अमेरिका-ब्रिटेन आदि में तो हालात यहां तक खराब हैं कि लाइब्रेरी आने-जाने वालों का रिकॉर्ड मगाकर देखा जा रहा है कि लाइब्रेरी में कौन सा पाठक किस तरह की किताबें पढ़ता है या लेता है।इसके आधार पर उसके खिलाफ कार्रवाई हो रही हैं। पिछले दिनों एक भारतीय को बम से संबंधित किताबें पढ़ने,वेबसाइट देखने के कारण 25साल की सजा ब्रिटेन की अदालत ने सुना दी थी,जबकि उस लड़के का किसी आतंकी संगठन से कोई संबंध नहीं था। 

   अभी हालात यह  हैं कि आप दुकान पर जाइए चुपचाप किताब खरीदो और चलते बनो, लेकिन इंटरनेट पर यह मुसीबत है कि आपके पीछे लोग लगे रहते हैं, क्या पढ़ रहे हो,कहां से पढ़ रहे हो।फोलो करते रहते हैं। इसके कारण यूजर को अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है, अनेक देशों में प्रतिबंधित साहित्य को पढ़ने वालों पर सख्त कार्रवाई हुई है। डिजिटल बुक में पाठक की पढ़ने की आदत गुप्त नहीं रहती, आप किसी भी पाठक की रीड़िंग आदत का विश्लेषण कर सकते हैं,पता कर सकते हैं कि वह कहां क्या पढ़ रहा है।जबकि पुराने ढ़ांचे में पढ़ने की आदत गुप्त रहती थी।  आप एकबार डिजिटल बुक की दुनिया में दाखिल हुए तो फिर दूरसंचार कंपनियां आपका पीछा करती रहती हैं कि कहां और क्या पढ़ रहे हो ,कहां से किताब ले रहे हो आदि। 

     डिजिटल बुक खोजते समय अपनी पढ़ने की प्राइवेसी का ख्याल रखें ऐसी किसी भी वेबसाइट पर डिजिटल बुक न पढ़ें जो आपसे रजिस्ट्रेशन की मांग करती हो या आपकी कोई निजी जानकारी मांगती हो। ऐसी वबसाइट पर जाएं जो पाठक की पहचान को जानने की कोशिश न करे, गुमनाम ढ़ंग से किताब पढ़ना जरुरी है,इससे आपको अपनी प्राइवेसी बचाने में मदद मिल सकती है। आपकी निजी सूचनाएं सुरक्षित रह सकती हैं। अनेक वेबसाइट हैं जहां डिजिटल बुक के साथ अनेक फीचर जुड़े होते हैं जिनकी हम उपेक्षा करते हैं और नहीं जानते कि इन फीचर का मतलब क्या है । मसलन् किंडल के जरिए सन् 2009 में अमाजॉन की किताब डाउनलोड करते समय यह पाया गया कि वहां एक ऐसा ही फीचर था जिसके जरिए अमाज़ान ने यूजर की सूचनाएं एकत्रित कर ली थीं, यह हाल सोनी 2005 में सोनी ने किया था वह अपनी साइट से डाउनलोड करने वालों की सूचनाएं एकत्रित करता रहा और इसके जरिए उसने यूजर की संगीत सुनने की आदतों और संगीत की प्राथमिकताओं को पता कर लिया। डिजिटल असमानता




मुख्य बिंदु - अमेरिकी विदेशनीति के अंतर्ग्रथित अंश के तौर पर इंटरनेट स्वाधीनता की मांग अमेरिका कर रहा है । चीन -ईरान आदि देशों के संदर्भ में ।साथ ही सोशलमीडिया की आजादी की माँग की जा रही है ।आज फेसबुक और ट्विटर को अमेरिका राजनीतिक औजार की तरह इस्तेमाल कर रहा है । 
       
      इंटरनेट पर एक खास किस्म का अधिनायकवाद चल रहा है । मसलन राज्य बनाम राज्यविरोधी , पश्चिमपरस्त बनाम पश्चिमविरोधी । इस तरह का ध्रुवीकरण आमजनता के वैविध्य और विभिन्न स्तरों की अनदेखी करता है । मसलन रुस,चीन और भारत में जनता का बहुत बड़ा वर्ग है जो नव्य उदारीकरण का विरोधी है । 

          इंटरनेट पर राष्ट्रवाद ,अतिवाद और धार्मिक फंडामेंटलिज्म की आंधी चल रही है। इंटरनेट पर हिजबुल्ला ,मुस्लिम ब्रदरहुड या संघ परिवार की अतिसक्रियता बताती है कि इंटरनेट सभी को इमपावर करता है । खासकर उन ताकतों को ज्यादा ताकतवर बनाता है जो राज्य को कमज़ोर करना चाहते हैं ।उनको शक्ति देता है जो लोकतांत्रिकीकरण के पक्ष में हैं । 
        इसीतरह फेसबुक और ट्विटर सबको शक्तिशाली बनाते हैं । यह भी नहीं कह सकते कि इंटरनेट का सारा उत्पादन अच्छा है यहाँ पर बुरी चीजें भी हैं । 
           
डिजिटल असमानता -
    डिजिटल समानता का आधार है डिजिटल तकनीक की उपलब्धता और अनुपलब्धता । जिनके पास डिजिटल तकनीक है , कम्प्यूटर है या मोबाइल है । इसमें भी यह देखना होगा कि ब्राडबैंड या इंटरनेट कनेक्शन है या नहीं  ? कितने के पास इनमें से क्या है और क्या नहीं है । खासकर इंटरनेट यूजर और इंटरनेट के बिना । जो इंटरनेट यूजर हैं वे संचार समृद्ध हैं और जो इंटरनेट यूजर नहीं हैं वे संचार दरिद्र हैं । अब इनमें भी देखें कि किस जाति के लोगों में इंटरनेट की खपत ज्यादा है ? पश्चिम में काले - गोरे का भेद इस प्रसंग में आया 
है । भारत में यह भेद नहीं है लेकिन जो सामाजिक - धार्मिक जनसंख्या है उसके आधार पर हमें देखना चाहिए । इससे डिजिटल के सामाजिक विभाजन को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं । गाँव और शहर, कस्बे या छोटे शहर और महानगर, महानगर के मध्यवर्गीय और कच्ची बस्तियों या स्लम में रहने वालों के बीच का डिजिटल भेद समझने में मदद मिलेगी । 

       जातियों में भी किन जातियों में इंटरनेट का उपयोग ज्यादा है और किनमें कम है यह भी देखने की ज़रुरत है । 

कहने का तात्पर्य यह है कि भेद के जितने मौजूदा रुप हैं उनको इंटरनेट के साथ जोड़ें तो डिजिटलभेद का संसार खुल जाएगा । यह संभव है सवर्ण हो और सामाजिक भेदभाव का शिकार न हो लेकिन इंटरनेट कनेक्शन न रखता हो । असवर्ण हो और इंटरनेट कनेक्शन रखता हो तो उसे डिजिटल समृद्ध ही कहेंगे । भले ही सामाजिक जीवन में विभिन्न किस्म के भेदभाव का शिकार हो लेकिन वैसे नेट कनेक्शन रखता हो तो उसे कनेक्टेड कहेंगे । यह कनेक्टिविटी सुपरफीशियल है । नेट की दौड़ में वे ही लोग शामिल हो सकते हैं जो पहले से आर्थिक समर्थ हैं और नये कम्युनिकेशन की जिनको ज़रुरत है । मसलन ऐसे करोड़ों लोग हैं जो निजी कम्युनिकेशन में विश्वास करते हैं  और जिनको लोकल कम्युनिकेशन में ही रहना है तो वे क्यों लें नेट कनेक्शन या मोबाइल फोन ? 

डिजिटल भेदभाव को कम करने का एक बडासाधन है सामुदायिक काॅलसेंटर और सामुदायिक कम्प्यूटर सेवा । इसके अलावा इंटरनेट पर मुफ्त और ओपन सोर्स साॅफ्टवेयर की उपलब्धता और नेट संसाधनों के रुप में मुफ्त ज्ञान सामग्री और लाइब्रेरी के ज़रिए डाउनलोड सुविधा । 

डिजिटल भेदभाव न हो इसके लिए जरुरी है कि ब्राडबैंड को आम जनता तक पहुँचाया जाय । कम्प्यूटर तकनीक मुफ्त में प्रदान की जाय। 

विकसित देशों का डिजिटल परिदृश्य और अनुभव - 

डिजिटल भेदभाव का आलम यह है कि पाँच में एक वयस्क अमेरिकी वयस्क इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं करता ।' पेव इंटरनेट प्रोजेक्ट ' के अनुसार सन् 2011 में 94 फीसदी काॅलेज शिक्षित अमेरिकन इंटरनेट का इस्तेमाल करते  थे , किंतु इनमें 43 फीसदी हाईस्कूल तक पास नहीं थे । आॅनलाइन रहने वालों में 62फीसदी लोग ऐसे थे जिनकी सालाना आमदनी  30 हज़ार डालर सालाना थी जबकि आॅनलाइन रहने वालों में 97 फीसदी की आमदनी 70 हज़ार डालर सालाना थी । इसमें भी नस्ल ,वर्ग और जातीयता का भेद बहुत बड़ी भूमिका अदा करता है । 

'पेव' के सर्वे के अनुसार अमेरिका की 88 फीसदी आबादी के पास सेलफोन है, 57 फीसदी के पास लेपटाॅप है, 19फीसदी के पास ई बुक रीडर है और 19 फीसदी के पास टेबलेट कम्प्यूटर है ।  63 फीसदी अपने वायरलैस के जरिए आॅनलाइन रहते हैं । 
    जो नौजवान इंटरनेट पर नहीं जाते उनमें से आधे ने कहा है कि इंटरनेट उनके लिए प्रासंगिक नहीं है इसीलिए वे इंटरनेट पर नहीं जाते । इनमें से ज्यादातर ने कभी इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं किया । यहाँ तक कि इनमें से अधिकांश के घर में भी इंटरनेट नहीं है । औसतन पाँच में से एक युवक ने कहा कि वे नहीं जानते कि इंटरनेट तकनीक का प्रयोग कैसे करते हैं । दस में से एक युवक ने कहा कि वो भविष्य में ईमेल या इंटरनेट का प्रयोग करेगा । 

       अमेरिका में 27फीसदी युवा किसी न किसी रुप में अपाहिज हैं । जिन युवाओं में अपंगता  नहीं है उनमें से मात्र 54फीसदी ही इंटरनेट पर जाते हैं जबकि अपाहिज युवाओं 81 फीसदी जाते हैं । अपाहिज युवाओं में दो फीसदी युवा ऐसे हैं जो इंटरनेट का किसी भी तरह इस्तेमाल नहीं कर सकते । 

' पेव' के सर्वे के अनुसार सन् 1995 में अमेरिका में दस में से एक वयस्क आॅनलाइन था । जबकि अगस्त 2011 में कराए सर्वे के अनुसार 78 फीसदी वयस्क और 95 फीसदी तरुण या अवयस्क आॅनलाइन पाए गए । 

एक ज़माना था जब इंटरनेट यूजर के डाटा विश्लेषण में नस्ल , पैसा ,लिंग,  अल्पसंख्यक और उम्र या शिक्षा को बुनियादी पैमाना मानकर देखा जाता था । लेकिन 'पेव' के नए सर्वे से पता चलता है कि अब ये पैमाने बेमानी हो गए हैं । 

सर्वे में उन कारणों की जाँच की गयी जिनके कारण सन् 2000 में पाँच में से एक अमेरिकी  वयस्क इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं करता था । तकरीबन 54 फीसदी मानते थे कि इंटरनेट ख़तरनाक है , खासकर उम्रदराज लोग यह मानते थे ।इनकी हाईस्कूल से भी कम शिक्षा थी । तकरीबन 39फीसदी मानते थे कि इंटरनेट बड़ा खर्चीला है । खासकर 30साल से कम उम्र के ,हिस्पेनिक वयस्क मानते थे । इनकी शिक्षा हाईस्कूल से कम थी । लेकिन हाल में 2011 में कराए सर्वे से पता चला कि जो लोग इंटरनेट पर नहीं जाते उनमें से 49 फीसदी मानते हैं कि इंटरनेट उनके लिए प्रासंगिक नहीं है । वे इंटरनेट का किसी भी रुप में इस्तेमाल नहीं करना चाहते । इसके अलावा इंटरनेट का इस्तेमाल न करने वाले 21फीसदी ने कहा कि इंटरनेट खर्चीला है अतः वे नहीं जाते । तकरीबन इतने ही लोगों ने कहा कि वेइस्तेमाल करना नहीं जानते इसलिए नहीं जाते । 

'पेव' के सन् 2011 के सर्वे में खोज की गयी कि इंटरनेट का इस्तेमाल न करने के पीछे क्या कारण हैं ? पता चला 31फीसदी की कोई दिलचस्पी नहीं है, 12फीसदी ने कहा कम्प्यूटर नहीं है , 10 फीसदी ने कहा बहुत खर्चीला है , 9फीसद ने कहा मुश्किल है , 7फीसदी मानते हैं कि यह समय की बर्बादी है , 6फीसदी मानते हैं इंटरनेट उनके पास नहीं है , 6फीसदी ने कहा कि उनके पास सीखने का समय नहीं है ।4फीसद ने कहा कि वे सीखने के लिहाज अब काफ़ी बूढे हो गए हैं, 4फीसदी ने कहा कोई ज़रुरत नहीं है ।2फीसदी ने कहा कि नहीं जानते कैसे सीखें, 2 फीसदी अपंगता के कारण इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं ,1 फीसदी वायरस आदि के डर के  कारण इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं करते हैं । 
     
अमेरिका के बारे में यह मिथ है कि वहाँ पर सबके पास फोन है ,इंटरनेट है या मोबाइल है । सच यह नहीं है । यह सच है कि अमेरिका में आम लोगों में फोन कनेक्टिविटी बेहतर है लेकिन गाँवों या छोटे शहरों में रहने वाले कम आयवर्ग के सभी लोगों में अभी तक फोन नहीं पहुँचा है । सैंट्रल सिटी और ग्रामीण इलाकों में फोन अभी तक 79.8 फीसदी लोगों तक पहुँचा है । गाँवों में 81.6फीसदी और शहरों में 81.7 फीसदी लोगों तक पहुँचा है । गाँव के लोगों में मात्र 4.5 आबादी तक कम्प्यूटर पहुंचा है । इनमें मात्र 23.6फीसदी घरों में कम्प्यूटर है । जबकि सैंट्रल सिटी में मात्र 7.6फीसदी आबादी तक पहुँच है और इनमें मात्र 43.9फीसदी के पास कम्प्यूटर है । जबकि शहरी इलाकों में मात्र 8.1जनता के पास कम्प्यूटर पहुँचा है और इसमें भी 44.1 फीसदी के पास निजी कम्प्यूटर है । 

ग्रामीण अमेरिकी घरों में (जिनमें अमेरिकन इण्डियन आदि आते हैं ) मात्र 75.5 फीसदी के पास फोन है । ग्रामीण काले लोगों में मात्र 6.4 फीसदी के पास कम्प्यूटर है । सैंट्रल सिटी के मात्र 10.4 काले लोगों के पास कम्प्यूटर है । सैंट्रल सिटीवासी हिस्पैनिकों में मात्र 10.5 के पास कम्प्यूटर है । शहरी काले लोगों में मात्र 11.8फीसदी के पास कम्प्यूटर है । एशियाई और पेसीफिक बाशिंदों में मात्र 26.7 फीसदी के पास कम्प्यूटर है । ग्रामीण नेटिव अमेरिकन के पास सबसे कम निजी कम्प्यूटर हैं । 

       सर्वोच्च 10 इंटरनेट पहुँच वाले देशों में अमेरिका सबसे ऊपर है और उसके बाद स्वीडन, डेनमार्क, स्विटजरलैंड, नाॅर्वे ,नीदरलैंड ,कनाडा ,आस्ट्रेलिया , सिंगापुर ,दक्षिण कोरिया का नाम आता है ।ये सभी समृद्ध देश हैं , कोरिया को छोड़कर । 

इसी तरह ब्रिटेन में चार में से एक वयस्क कभी भी इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं करता ।एक तिहाई घरों में इंटरनेट कनेक्शन नहीं है । ब्रिटेन में 65साल उम्र से ऊपर के 39फीसदी लोगों के पास इंटरनेट नहीं है । सामाजिक- आर्थिक तौर पर कमज़ोर तबके के 49फीसदी लोगों के पास इंटरनेट नहीं है । सोशल हाउसिंग में रहने वाले 70 फीसदी लोगों के पास इंटरनेट नहीं या वे आॅनलाइन नहीं हैं । निचले स्तर पर रहने वाले मात्र 25 फीसदी को ही सरकारी तंत्र संपर्क कर पाता है यदि सबके साथ नेट संपर्क करे तो आर्थिकबोझ ही नहीं उठा सकती सरकार ? फलत: 75फीसदी से ज्यादा ग़रीब लोग आॅनलाइन सरकारी संपर्क के बाहर हैं । ब्रिटेन के जो लोग आॅनलाइन नहीं हैं उनमें 38 फीसदी लोग हैं जो बेरोजगार हैं । 

एक ज़माना था भारत और चीन में 50 -50मिलियन टेलीफोन उपभोक्ता थे । देखते ही देखते चीन का आंकड़ा बदल गया और भारत का आंकड़ा जस का तस बना रहा । चीन ने सालाना 25मिलियन का इजाफा किया है लेकिन उस गति से भारत अपना विकास नहीं कर पाया है । इस प्रसंग में बार बार अमेरिका का उदाहरण दिया जाता है लेकिन अभी भी वहाँ पर मात्र  65 फीसद जनता ही इंटरनेट की यूजर है वहाँ पर शत प्रतिशत का लक्ष्य सन् 2020 तक पाने का लक्ष्य रखा गया है । दूसरी बात यह कि अमेरिका में 35डालर प्रति माह इंटरनेट भाड़ा खर्च करने की स्थिति में ग्रामीण जन हैं । हमारे यहाँ तो महानगरीय मध्यवर्ग भी इतना पैसा खर्च करने की स्थिति में नहीं है । 

सारी दुनिया में कम्प्यूटर - इंटरनेट का विकास तेज़ी से हुआ है और यह देखा गया है कि सन् 1990 में विश्व के 100 में से 2.5 के पास पर्सनल कम्प्यूटर था ,सन् 2001में 100 में 9 के पास कम्प्यूटर आ गया । जबकि इंटरनेट का उपयोग करने वालों की संख्या 1990 में शून्य थी जो 2001 में बढ़कर 8.1 जनसंख्या हो गयी । 

आंकडे बताते हैं कि सन् 2001 में उत्तरी अमेरिका में 100 में 61.1कम्प्यूटर था । जबकि उस समय दक्षिण एशियाई देशों में 100 में 0.5 के पास कम्प्यूटर था । इसी तरह कम्प्यूटर की पहुँच अफ्रीकी देशों में 100 में से 1 एक के पास कम्प्यूटर था । 
यूरोप और सेंट्रल एशियाई देशों में 100 में 18.1 के पास कम्प्यूटर था । 

नेट लाइब्रेरी और ओपनसोर्स -

पहले इंटरनेट सामग्री के संरक्षण को लेकर अनेक असुविधाएं थीं लेकिन फिलहाल ऐसा नहीं है ।  Wayback Machine आने के बाद से एक बड़ा परिवर्तन आया है कि इंटरनेट पर जो भी चीज़ इंटरनेट लाइब्रेरी में लिखी जाती है वह स्वत: संरक्षित हो जाती है । ब्रेवस्टार ने इंटरनेट आर्काइव नामक संस्था का गठन किया और इस पर वेबक मशीन का प्रयोग आरंभ किया । इस पर लाइब्रेरी है जिसमें हज़ारों किताबें हैं । इंटरनेट आर्काइव में इस समय 150 विलियम आइटम हैं । यह गुटेनवर्ग प्रकल्प से भिन्न लाइब्रेरी है । प्रोजेक्ट गुटेनवर्ग में चालीस हज़ार ई बुक हैं । इनको मुफ्त में डाउनलोड किया जा सकता है  और किसी भी पापुलर ई बुक रुप में पढ़ा जा सकता है । 
        ओपन लाइब्रेरी की खूबी है कि यह दुनिया की अनेक लाइब्रेरी के साथ काम कर रही है और उनके केटेलाॅग को इंटरनेट पर लाए हैं । अभी तक ये 20मिलियन टाइटिल्स को स्कैन करके इंटरनेट पर दे चुके हैं । इसके अलावा 1.7 मिलियन किताबों को सार्वजनिक कर चुके हैं । यहाँ से मुफ्त में किताबें डाउनलोड की जा सकती हैं । 

       इंटरनेट प्रकाशन के तीन तत्व हैं । ये हैं स्पीड,काॅस्ट और एक्सिस । स्पीड में नकारात्मक ध्वनि भी निकलती है फास्ट फूड जैसी । यहाँ'फास्ट 'नकारात्मक है । इसी तरह 'फ्री' का अर्थ है अगंभीर या चीप । इसी प्रकार एक्सिस का मतलब है जनता का सहज पहुँच के दायरे में । अकादमिक ज्ञानदाता मानते रहे हैं कि ज्ञान को जनता में नहीं समझदारी या बुद्धिमान लोगों को ही देना चाहिए। जो ज्ञान सामान्य जनता को दिया जाता है वह सस्ता और ग़ैर अकादमिक होता है । 

भारत का अनुभव -

भारत में इनदिनों लेपटाॅप बाँटकर डिजिटल भेद को कम करने की कोशिश की जा रही है। लेकिन इससे डिजिटल भेद कम नहीं होगा । डिजिटल भेदभाव कम करने के लिए जरुरी है कि युवा इंटरनेट का नियमित इस्तेमाल करें । नियमित इस्तेमाल ही है जो उनको भेद ख़त्म करने में मदद करेगा । डिजिटल भेद को ख़त्म करने के लिए आॅनलाइन रहें और कंटेंट पैदा करें । उनकी डिजिटल सार्वजनिक मंचों पर आवाज सुनाई दे । 

डिजिटल स्पेस में दो तरह के लोग हैं एक वे हैं जो आॅनलाइन हैं और दूसरे वे हैं जो आॅफलाइन हैं । जो आॅलाइन हैं वे डिजिटल असमान हैं । डिजिटल समानता के लिए आॅनलाइन होना जरुरी है । नीति निर्माताओं औरपत्रकारों के लिए आ़नलाइन कंटेंट महत्वपूर्ण और जरुरी है । किसी के पास डिजिटल गैजेट्स हैं लेकिन वो आॅनलाइन नहीं रहता तो ऐसे व्यक्ति को डिजिटल असमान की कोटि में ही रखेंगे । 

डिजिटल विभाजन अमेरिका से लेकर भारत तक वैसे ही फैला है जैसे अभाव और बेकार फैली हुई है । मसलन यूरोपीय देशों में 77फीसदी लोग नेट से जुड़े हैं जबकि अफ्रीका में मात्र 7 फीसदी लोग ही नेट से जुड़े हैं । यही हाल भारत का है । अमेरिका का सारी दुनिया में ब्राॅडबैंड की प्रति व्यक्ति में चौदहवां स्थान है । यह डिजिटल अंतराल अविकसित मुल्कों में और भी ज्यादा है । 

       भारत में डिजिटल असमानता को देखने का तरीका यह भी हो सकता है कि कितने फीसदी एसीएसटी हैं जिनके पास डिजिटल गजैट्स हैं और नेट का नियमित प्रयोग करते हैं ? इसी तरह अल्पसंख्यकों और औरतों में कितने हैं जो नियमित नेट पर लिखते हैं । एक बड़ा हिस्सा है जो आॅनलाइन तो रहता है लेकिन कंटेंट निर्माण में उसकी कोई भूमिका नहीं है । हाशिए के जागरुक लोगों का कंटेंट निर्माण न करना उनको डिजिटल असमान में बनाए रखता है । 
     स्मार्ट फोन की हाल मेंखपत बढ़ी है लेकिन स्मार्ट फोन से आप १०पेज का लेख नहीं लिख सकते । डिजिटल असमानता को ख़त्म करने के लिए डिजिटल कंटेंट बनाएँ और डिजिटल उत्पादन पर नियंत्रण रखें और डिजिटल सक्रियता बनाए रखें । 

      भारत में दो तरह के डिजिटल लोग हैं एक वे हैं जो स्पीडवाले नेट का इस्तेमाल करते हैं और एक वे हैं जो धीमी गति के नेट का इस्तेमाल करते हैं या जिनके शहरों में नेट बेहद धीमी गति से चलता है । जो डिजिटल समर्थ  हैं वे राकेट की गति में रहते हैं और डिजिटल असमर्थ हैं वे चींटी की गति से चलते हैं । हमें देखना चाहिए कि हाइस्पीड नेट के कितने यूजर हैं ? 
     

        यह भी देखें  भारत में नेट कनेक्टेड सक्रिय मध्यवर्गीय कितना है ? 

अमेरिका और भारत में कम्प्यूटर के उपयोग को लेकर जो अंतर है उसे भी देखें , मसलन् , भारत में 1000 में 6 लोगों के पास निजी कम्प्यूटर है जबकि अमेरिका में 10 में से 6 के पास निजी कम्प्यूटर है । इस अंतराल का सूचना ,ज्ञान ,शिक्षा और विकास पर व्यापक असर देखा जा सकता है । 

डिजिटल भेदभाव का सीधा संबंध व्यक्ति की आय और बिजली की उपलब्धता से है । हमें देखना चाहिए प्रति व्यक्ति आमदनी क्या और वो किस किस मद में खर्च कितना पैसा खर्च करता है । इस नजरिए से देखने पर पाएंगे कि भारत में डिजिटल असमानता सभी असमानताओं से बड़ी असमानता है । मसलन प्रति व्यक्ति आय और उस आय का नियमित खर्चा किन किन मदों में होता है इसे देखना चाहिए । शहर और गाँव में किस रुप में विभिन्न मदों में खर्चा होता है और किस तरह उसका पूरे आर्थिकतंत्र पर असर हो रहाहै इसे देखने की ज़रुरत है । 

    डिजिटल असमानता को आय,व्यय,बिजली,शहर,गाँव, जाति,शिक्षा और भाषा के आधार पर देखा जाना चाहिए । 
यह भी देखें कि कम्प्यूटर है तो उसकी मेंटीनेंस भी है या नहीं । दफ्तरों में एक बड़ा हिस्सा मेंटीनेंस के बिना सड़ रहा है । दूसरा यह कि कम्प्यूटर है तो इंटरनेट है या नहीं ? एक कम्प्यूटर या एक इंटरनेट कनेक्शन को कितने लोग इस्तेमाल करते हैं  ? 
     भारत में स्थिति एकदम विलक्षण है । यहाँ पर टेलीफोन कनेक्शन का कुछ खास महानगरों या राज्यों में ही सबसे ज्यादा विकास हुआ है। यूएनडीपी रिपोर्ट 2001 के अनुसार 1.4 मिलियन टेलीफोन कनेक्शन में से 1.3 मिलियन कनेक्शन दिल्ली ,बंगलौर, तमिलनाडु ,दक्षिण कर्नाटक और महाराष्ट्र में ही हैं । 
      ताज़ा आंकडे बताते हैं कि दिसम्बर 2012 तक इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या 15 करोड हो जाने का अनुमान है । शहरी भारत में 10.5करोड तथा ग्रामीण भारत में साढें चार करोड इंटरनेट यूजर हैं । वर्तमान यूजरों में 9.7 करोड एक्टिव यूजर हैं । यूजरों में 48 फीसदी यूजर इंटरनेट का हर हफ्ते कम से कम 5 या 6 बार इस्तेमाल करते हैं । जबकि 28फीसदी रोज़ इस्तेमाल करते हैं । 
     ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट यूजरों की संख्या में तेज़ी से इजाफा हुआ है । सन् 2010 में गांवों में 50लाख इंटरनेट यूजर थे वहीं जून 2012 में यह संख्या बढ़कर 3.8करोड हो गयी है । आई क्यूब की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत में रहने वाले 83.3 करोड लोगों में  7करोड लोग कम्प्यूटर साक्षर हैं । इसमें से 3.8करोड यूजर हैं और  3.1 करोड सक्रिय यूजर हैं । 
   ग्रामीण भारत में 32.3करोड मोबाइल धारकों में 36लाख ग्रामीण इंटरनेट का मोबाइल पर इस्तेमाल करते हैं । 
     इसके अलावा भारतीय भाषाओं का प्रयोग बढ रहा है । अभी79 फीसदी लोग अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल करते हैं । 
जबकि हिंदी इस्तेमाल करने वालों की संख्या 32 फीसद हो गयी है ।
आज भी लोग इंटरनेट सेवाओं को हासिल करने के लिए अपने घर से दस किलोमीटर दूर जाकर ही साइबर कैसे आदि की सेवाओं का उपयोग कर पाते हैं । 

इंटरनेट और विकास- 
  
      इंटरनेट का हमारी अर्थव्यवस्था के विकास में बहुत बड़ा योगदान है । भारत के सकल घरेलू उत्पाद में इंटरनेट का 30विलियम डालर का योगदान है । आगामी तीन सालों में यह बढ़कर 100 विलियन डालर हो जाएगा । यानी कुल जीडीपी का 1.6फीसद है जो सन् 2015 तक विकसित होकर 3.3 फीसद हो जाएगा । इसके कारण इंटरनेटजनित अर्थव्यवस्था शिक्षा और स्वास्थ्य से भी बड़ी अर्थव्यवस्था हो जाएगी । 
      सन् 2015 तक इंटरनेटजनित उद्योग में 22मिलियन लोगों को नौकरी मिलेगी । मैंकेजीकी रिपोर्ट के अनुसार भारत में पीसी की पहुँच अभी 1000 लोगों में मात्र 48 के बीच है । यह अर्जेंटीना,मैक्सिको और वियतनाम से भी नीचे है । यानी सारी दुनिया में 57वें नम्बर पर हैं । 



डिजिटल असमानता को परखने के पैमाने - 

डिजिटल असमानता के तीन बड़े रुप हैं पहला, विकसित और अविकसित देशों के बीच डिजिटल असमानता , दूसरा एक ही देश में असमानता और तीसरा डिजिटल यूजरों के बीच असमानता । 
डिजिटल असमानता को देखने के लिए हम देखें कि प्रथम, क्या यूजर आर्थिक तौर सक्षम है और इंटरनेट आदि का खर्चा उठा सकता है ? दूसरा ,क्या  यूजर ज्ञानात्मकतौर पर सक्षम है ? क्या कम्प्यूटर और इंटरनेट के उपयोग के तरीकों को बेहतर ढंग से जानता है ? तीसरा ,क्या यूजर के इस्तेमाल के लिए इंटरनेट पर पर्याप्त सामग्री है ? चौथा , क्या यूजर जानता है कि उसके पास राजनीतिक संरचनाओं और सत्ता की संरचनाओं का वह इंटरनेट पर किस तरह इस्तेमाल करे ? किस तरह कम्युनिकेट करे ? पाँचवा , यूजर की शिक्षा और ज्ञान का स्तर किस तरह का है और वह इसका सही उपयोग जानता है कि नहीं ? छठा , किसी समुदाय विशेष के ईज्ञान को जानने के लिए उसकी भाषा ,शिक्षा , साक्षरता और संस्थान संरचनाओं और सूचना और तकनीक के इस्तेमाल के स्तर का ज्ञान होना चाहिए । यानी डिजिटल असमानता को समझने के लिए समग्र नजरिए की ज़रुरत है । किसी एक पहलू पर केन्द्रित होकर देखने से डिजिटल असमानता को देख ही नहीं सकते । 
      इसके अलावा यूजर की तकनीकी क्षमता या कौशल की भी बडी भूमिका होती है । मसलन् जो तकनीक उपयोग में लायी जा रही है उसका तकनीकी स्तर क्या है ? तकनीक के उपयोग की कितनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता है ? सामाजिकतौर पर किस तरह की मदद मिल सकती है और किस तरह के नेटवर्क मदद के लिए उपलब्ध हैं ? तकनीक के इस्तेमाल का स्तर क्या ? ये चार बड़े कारक हैं जिनके आधार पर तकनीकी क्षमता का अनुमान किया जा सकता है । 

औरतों के संदर्भ में - 
  
 यह सच है  कि बाज़ार में सबसे बड़ी क्रेता औरतें हैं लेकिन कम्प्यूटर की सबसे बड़ी यूजर अभी औरतें नहीं हैं । अधिकांश औरतें अभी भी इंटरनेट और कम्प्यूटर के दायरे के बाहर हैं । तीन-चौथाई औरतों ने तो अभी बटन तक नहीं पकड़ी है । हाल ही में अमेरिका में पहलीबार ऐसा हुआ है कि पुरुषों की तुलना में औरतों की संख्या में औसतन इजाफा हुआ है। एशिया में भी पुरुष समुदाय बड़ा यूजर है इंटरनेट का । मसलन औरतें बहुत कम ईमेल रखती हैं । औरतें जितनी मोबाइल फोन और इंटरनेट सेवाओं को जानेंगी या इनका उपयोग करेंगी उतना ही वे अभिव्यक्ति और गतिशीलता के मामले में सक्रिय होंगी । औरत की सक्रियता और पहचान को निर्मित करने और उसे सूचना संपन्न बनाने में यह माध्यम बहुत बड़ी भूमिका अदा कर सकता है । यहाँ तक कि उसकी बाज़ार संबंधी समझ बनाने और अच्छा क्रेता बनाने में भी मददगार हो सकता है । स्त्री के सबलीकरण में संचार की बड़ी भूमिका रही है। स्त्री को अपनी बात संप्रेषित करने के अत्याधुनिक उपकरण और परिवेश मुहैय्या कराना समाज का दायित्व है और इसमें सरकारों की बड़ी भूमिका हो सकती है । 

ब्लाग के फ़ायदे -

ब्लाॅग  ने सहभागिता और सामाजिक लेखन को बढ़ावा दिया है और एक नए किस्म की संस्कृति पैदा की है । कम्युनिकेशन के रुप में लेखक और पाठक का नया संबंध बना है जो पाठक है वह लेखक भी है और अपने विचार रीयलटाइम में दे सकता है । ब्लाॅग लेखन में गद्य या पद्य के अलावा या यों कहें शब्दों के अलावा अनेक मीडिया रुपों का भी उपयोग किया जा सकता है । कृति के इस्तेमाल के प्रति पुराना नज़रिया बदला है । आप मेरे लेखन का इस्तेमाल करें मैं आपके लेखन का इस्तेमाल करूँ । यह लेखन में खुले,पारदर्शी और सहभागी लेखनयुग के आगमन की सूचना है । 

ब्लाॅग में शोध कार्यों के लिए भी इस्तेमाल की अनंत संभावनाएं हैं । शोधार्थी अपना ब्लाॅग बनाएँ और इसमें सहपाठी मित्रों को शामिल करें। साहित्य का शिक्षक होने के नाते मैं नए मीडिया की उपेक्षा नहीं कर सकता। नया मीडिया नई संवेदनशीलता और नए दृष्टिकोण की माँग करता है। पुराने नज़रिए से नया मीडिया बहुत कम समझ में आएगा। यह मीडिया शेयरिंग पर निर्भर है। शेयरिंग और अनौपचारिकता के बिना नया मीडिया अर्जित करना संभव नहीं है। पुरानी लेखकीय आदतें इस माध्यम में मदद नहीं करतीं। 
 
 डिजिटल युग में आलोचना- 

नए युग में निजी अनुभव और व्यक्तित्वकेन्द्रित लेखन आ रहा है। सवाल यह है कि इसे आलोचना में रुपान्तरित कैसे करें ? यह एक तरह का अनौपचारिक लेखन भी है, निजी अनुभव और निजी नज़रिए को  महान बताया जा रहा है, जबकि बेहतर लेखन वह है जो अन्य के नज़रिए की कसौटी पर खरा उतरे ।इंटरनेट के आने के बाद लेखक-पाठक का नया संबंध पैदा हुआ है।नए संबंध की रीयलटाइम कम्युनिकेशन ने प्रकृति तय की है। पहले लेखक का पाठक से लिखने के बाद संबंध ख़त्म हो जाता था । लेकिन नए दौर में पाठक कभी भी लेखक से संपर्क कर सकता है,और अपनी राय कह सकता है। (रायपुर साहित्यमेला में 14दिसम्बर 2014 को दिया गया भाषण)
   











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