रायपुर साहित्य मेला पर 'जलेसं' के महासचिव -उपमहासचिव का बयान देखने को मिला, आज के संदर्भ में यह बयान एकदम अप्रासंगिक है। पर जलेसं का मानना है यह "महत्वपूर्ण " बयान है ।यह बयान यदि रायपुर मेले से आगे जाकर छत्तीसगढ़ को देख पाता तो बेहतर होता ! मसलन् छत्तीसगढ़ की अकादमियों के बारे में जलेसं बताता या म.प्र. में अकादमियों का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है ,उन पर कुछ कहता, लेकिन जलेसं का कोई प्रभावी हस्तक्षेप नजर नहीं आया !
फ़िलहाल रायपुर साहित्य मेला पर केन्द्रित करें और देखें तो पाएँगे कि जलेसं का बयान इवेंट केन्द्रित और सरकार केन्द्रित नज़रिए तक सीमित है। इस बयान की अपनी सीमाएँ हैं । क़ायदे से हमें रायपुर से आगे देखना चाहिए, हम इवेंट केन्द्रित रहे तो लेखकों की फ़ज़ीहत और अपमान का सिलसिला थमेगा नहीं ,ख़ासकर जनवादी- प्रगतिशील लेखकों के अपमान करने की आदत बंद नहीं होगी ।
जिस तरह जनवादी लेखक संघ के सम्मानित सदस्य असद ज़ैदी ने गंदी भाषा का मेरे प्रसंग में इस्तेमाल किया वह निंदनीय ही नहीं है बल्कि इस बात का संकेत भी है कि लेखकों में एक समूह किस तरह असभ्य और अशालीन हो गया है । ख़ासकर जनवादी लेखक संघ जैसे संगठन को इस प्रवृत्ति को समझना होगा और लेखकों में सभ्य आचरण करने के लिए कोई क़दम उठाने के बारे में सोचना होगा । मेरे ३५ साल के राजनीतिक जीवन में सार्वजनिक तौर पर किसी की भी हिम्मत मुझे निजी तौर पर गाली देने की नहीं हुई, मैं कभी सरकारों के कार्यक्रमों में नहीं गया,न जाने का मेरा अपना निजी फ़ैसला था,इसके पीछे कोई राजनीतिक कारण नहीं था, लेकिन रायपुर साहित्य मेला में जाने का फ़ैसला मैंने भाजपा सरकार के कारण नहीं किया था, मैंने विषय को सुनने के बाद फ़ैसला लियाथा, मुझे वर्चुअल रियलिटी पर बोलने के लिए कहा गया था और मैं इस विषय पर हिन्दी में सबसे पहले किताब लेकर आया था इस कारण मेरा स्वाभाविक आकर्षण था, बुलाने वाले जानते थे कि मैं इंटरनेट पर सबसे तीखा भाजपा के खिलाफ लिखता रहा हूँ, मेरे फेसबुक पर इस प्रसंग में लिखने के बाद ही तथाकथित वामलेखकों की हाय -हाय आरंभ हुई, मेरी पोस्ट पर मंगलेश डबराल आदि ने अपनी राय दी , सारा बवाल वहीं से फेसबुक में तेज़ी से फैला,मेरा मानना है कि जलेसं को फेसबुक पर चलने वाली बहसों में नहीं बोलना चाहिए, यह मसला लेखक समूह ने नहीं उठाया बल्कि रायपुर मेले के प्रतिवादी मूलत: वे लेखक हैं जो वामपंथी बचकानेपन के शिकार हैं और माओवादियों के समर्थक हैं। ये वे लेखक हैं जिनकी सामयिक समाज, संस्कृति और लोकतंत्र के संबंधों को लेकर विकृत समझ है, लोकतंत्र इनके लिए भोग और दुरुपयोग की चीज है । लोकतंत्र का इन बचकानेपन वामपंथियों ने साहित्यिक अवसरवाद और झूठ के प्रचार के लिए जमकर दुरुपयोग किया है। मसलन् मंगलेश डबराल को मैं जब जेएनयू में पढ़ता था तब मेरा कोई परिचय तक नहीं था, लेकिन मेरे जेएनयू कार्यकाल को इस तरह व्यक्त किया गोया वे मुझे क़रीब से जानते हों, मैं वहाँ कई साल एसएफआई का यूनिट अध्यक्ष रहा , जलेस की यूनिट का सचिव रहा, छात्रसंघ का अध्यक्ष रहा, मेरा निष्कलंक जीवन रहा लेकिन मंगलेश डबराल और असद ज़ैदी ने अपनी घटिया मानसिकता का परिचय देते हुए फेसबुक पर मेरे खिलाफ अशालीन और असभ्य भाषा का इस्तेमाल किया। मेरे बारे में इन दोनों लेखकों को असभ्य भाषा लिखने में एकदम शर्म नहीं आई और जनवादी वाम लेखकों ने इनके आचरण की रीयलटाइम में निंदा तक नहीं की, गाली देने वाले इन दोनों लेखकों की जलेसं ने भी निंदा नहीं की , ये दोनों लेखक बाद में भी निर्लज्जता से अपनी असभ्य भाषा की फेसबुक पर नंगी हिमायत करते रहे हैं। दुर्भाग्यजनक है कि जलेसं के महासचिव के बयान में इन दोनों लेखकों के इस असभ्य आचरण की इस तरह अमूर्त भाषा में चर्चा की गयी है कि गोया गूँगे लड़ रहे हों ! जलेसं को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए , यदि हस्तक्षेप किया है तो ठोस रुप में नाम और संदर्भ के साथ गाली देने वाले लेखकों का नाम लेना चाहिए। दुर्भाग्यजनक है कि जो लेखक हमें रायपुर पर उपदेश दे रहे हैं वे पलटकर कभी अपने आचरण-दुराचारण पर ग़ौर नहीं करते,मसलन् मंगलेश डबराल असद ज़ैदी की फेसबुक वॉल देखो तो पाओगे ये जनाब कितनी ईमानदारी से मोदी सरकार की चुप रहकर सेवा कर रहे हैं !
सवाल यह है रायपुर मेला के आगे जलेसं क्यों नहीं देख पा रहा ? लोकतंत्र में बहुदलीय शासन है तो बहुदलीय शासन के प्रति लोकतांत्रिक और पेशेवर रुख़ अपनाना होगा। जलेसं का परंपरागत रुख़ है । जसम के लेखकों का अवसरवादी और वामबचकानेपन का रुख़ है।सवाल यह है कि क्या लेखक संघ तय करेंगे या इनके लठैत तय करेंगे कि लेखक कहाँ जाय और कहाँ न जाय? हमारा मानना है यह लेखक का निजी फ़ैसला होगा कि वह कहाँ जाय ,लेखक का संबंध राज्य से किस रुप में हो यह भी परिभाषित भी लेखक करेगा , संगठन को तय करने का कोई हक़ नहीं है।
लेखकसंघ का काम है रचनाकारों को अभिव्यक्ति का साझा मंच देना , लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्कारों का प्रचार करना, राज्य की संरचनाओं के कार्यकलापों पर समय -समय पर लेखकों को आगाह करना, जनविरोधी नीतियों का विरोध करना और लेखकों में किसी भी क़िस्म के कठमुल्लेपन के खिलाफ अहर्निश संघर्ष चलाना।
हम जानना चाहते हैं जलेसं ने भाजपा संचालित राज्य सरकारों के द्वारा संचालित अकादमियों के प्रसंग में क्या कभी कोई गंभीर विश्लेषण करके लेखकों में कोई एक्शन प्लान पेश किया ? हालत यह है कि भाजपाशासित राज्यों में चल रही अकादमियों से साहित्य में कचडावर्षा हो रही है लेकिन जलेसं चुप है! क्यों चुप है?
रायपुर मेले पर बबाल करने वाले वामलेखकों ने भी कभी कोई गंभीर लेख इस विषय पर नहीं लिखा , लिखा है तो बताएँ कि कहाँ छपा है ? महज़ वामपंथी लेखक होने का नक़ली नाटक करके या प्रतिवाद का नाटक करके इन लेखकों में साहित्य जगत में अपने को जोकर साबित किया है। इस तरह के प्रतिवादी लेखकों की बुद्धि को मैं बंदर बुद्धि ही कहना चाहूँगा। ये अभी तक मानव बुद्धि अर्जित नहीं कर पाए हैं।
बेहतर हो जलेसं इस तरह के फेसबुक विवादों से दूर रहे। रायपुर के प्रतिवाद पर जलेसं का बयान मेरे लिए एक अन्य दृष्टि से हैरानी पैदा कर रहा है, वह है लोकतांत्रिक सरकार और कला संस्थाओं की भूमिका को लेकर, मसलन् मोदी सरकार के शासन में या पहले मनमोहन सरकार के शासन में फ़िल्म महोत्सव में शामिल होने वाले फिल्म कलाकार आदि क्या सरकारी हो गए? हमें अपना नजरिया बदलने की ज़रुरत है।फिल्म महोत्सव में शामिल होकर श्याम बेनेगल सरकारी आदमी नहीं बन जाता, केतन मेहता कांग्रेसी नहीं हो जाता, सरकारी कार्यक्रमों में लेखक की शिरकत को भी इसी रुप में देखना चाहिए। जो वामलेखक प्रतिवाद कर रहे हैं वे शुद्ध अवसरवादी नज़रिए से चीजों को देख रहे हैं ,बेहतर यही होता जलेसं बयान न देता, जलेसं के मित्रों को ख़्याल रखना होगा कि वामपंथी बचकानेपन के लेखकों को संतुष्ट करने की नहीं उनकी सीधे बखिया उधेड़ने की ज़रुरत है ।हम जानना चाहते हैं कि मोदी सरकार के रहते हुए साहित्य अकादमी आदि केन्द्र सरकार द्वारा वित्तपोषित संस्थाओं के आयोजनों में जाना चाहिए ? क्या इनाम लेने चाहिए? क्या एनजीओ संगठनों को केन्द्र सरकार से मदद लेनी चाहिए ? क्या पद्मसम्मान लेना चाहिए ? क्या पत्र पत्रिकाओं को केन्द्र सरकार या भाजपा सरकार के विज्ञापन प्रकाशित करने चाहिए ? क्या यूजीसी आदि संस्थाओं से सेमीनार, प्रोजेक्ट आदि के लिए फ़ंड लेना चाहिए ? क्या विदेशी कारपोरेट घरानों से फ़ंड लेना चाहिए ? हम उम्मीद करते हैं जलेसं गंभीरता से इन सवालों पर विचार करेगा और सबसे पहले भाजपा शासित राज्य सरकारों के द्वारा संचालित अकादमियों के बारे में श्वेतपत्र सामने लाएगा ।
वामपंथ को उसे ढोने वाले लोगों ने बदनाम किया है। ये वो लोग हैं जिन्हें ज्ञान से कोई मतलब नहीं है। ये बस नफरत फैलाते आये हैं। ये चाहते हैं कि संस्कृति को जलाकर दफना दिया जाये। परिष्करण जैसे शब्द इनकी डिक्शनरी में है ही नहीं।
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