रविवार, 7 दिसंबर 2014

वफादार प्रकाशन सम्बन्ध के प्रतिवाद में



     हिन्दी में पुस्तक प्रकाशन वफ़ादारी के युग में है। लेखक और प्रकाशक का रिश्ता "वफ़ादार उत्पादक प्रकाशन सम्बन्ध" पर टिका है। इस सम्बन्ध के दायरे में अधिकांश लेखक और प्रकाशक जीने के लिए अभिशप्त हैं।यह मूलत:वफ़ादारी का गैर-पूँजीवादी सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध में किसी क़िस्म की प्रकाशकीय आधुनिकता नहीं है। 
        "वफ़ादार उत्पादक सम्बन्ध" की लाक्षणिक विशेषता है "सब कुछ अनौपचारिक है",लेखक को नहीं मालूम कि उसकी पुस्तक कहाँ बिक रही है? कितनी बिक रही है और कितनी आय कर रही है ?अधिकांश प्रकाशक , लेखक के साथ कोई लिखित अनुबंध नहीं करता, कोई लिखित दस्तावेज़ लेखक को मुहैय्या नहीं कराता। मज़ेदार बात यह है कि यह हरकत वह लेखक संघ के धाकड नेताओं के साथ भी करता है। लेखक संघों के तक़रीबन सभी बडे नेता किसी न किसी प्रकाशक की वफ़ादार सूची में वरीयता से ऊपर स्थान बनाए हुए हैं। वे अपने अल्पहितों की तो सोचते हैं लेकिन लेखक के सामान्य हितों को लेकर कभी कोई प्रयत्न नहीं करते।
      इस वफ़ादार सम्बन्ध के कारण लेखक-प्रकाशक सम्बन्धों का पूँजीवादी सम्बन्ध विकसित नहीं हो पाया है। लेखक संघ वफ़ादारी के आगे देख ही नहीं पा रहे हैं। उनकी जो भूमिका हो सकती थी उसका पालन नहीं कर पा रहे हैं। क्योंकि "अनौपचारिकता" और "निजी वफ़ादारी " से आगे वे देख ही नहीं पा रहे हैं। यह लेखक संघ के क्षय की सूचना है और "निजी वफ़ादारी" के महान बनने का संकेत भी है!  
      "निजी वफ़ादारी" का साइड इफेक्ट है कि लेखक संघ के सभी बडे लेखकों की आँखों के नीचे हिन्दी के अधिकांश बडे प्रकाशक, लेखकों का खुलेआम शोषण कर रहे हैं ,लेकिन कभी किसी लेखक संघ को किसी प्रकाशक के दरवाज़े पर आंदोलन करते नहीं देखा गया । क्या हम यह मान लें कि हिन्दी के प्रकाशकों के द्वारा प्रकाशन के नियमों का पालन हो रहा है ?
       समस्या का सबसे दुर्भाग्यजनक पक्ष यह है कि हिन्दी के सबसे बडे प्रकाशक ने सभी आंदोलनकारी लेखक नेताओं को अपना वफ़ादार बनाकर बंधुआ बना लिया है !हमारे नामी लेखक बंधुओं को इस बंधुआभाव से कोई परहेज़ नहीं है ।  सवाल यह है कि लेखक- प्रकाशक सम्बन्ध को पेशेवर पूँजीवादी सम्बन्ध बनाने में 'प्रलेसं' ,'जसम'और 'जलेसं' की कोई भूमिका बनती है या नहीं ? क्या कभी इन संगठनों ने हिन्दी के एकमात्र बडे प्रकाशन समूह के खिलाफ कोई बयान तक जारी करके लेखक के हितों के लिए कोई प्रयास किया ? मैं निजी तौर पर कोलकाता के कई लेखकों को जानता हूं जिनको इस प्रकाशक ने एक भी पैसा रॉयल्टी का नहीं दिया , यहाँ तक कि वह कोई अनुबंध तक नहीं करता। इस बडे नामी प्रकाशक का वफादार बनाने का तरीक़ा यह है कि वह लेखक संगठन के लिए विज्ञापन दे देता है या उनकी पत्रिका को किताब के रुप में छाप देता है,वह लेखक संघ को १०-२०फीसदी रॉयल्टी देकर अपनी वफ़ादारी निभा देता है, वफादार लेखक ख़ुश हो जाता है कि यह क्या कम है कि प्रकाशक ने हमारी पत्रिका छाप दी या किताब छापकर रॉयल्टी दे दी! 
     वफादार लेखकनेता भूल जाते हैं कि प्रकाशक अपनी इस तथाकथित सदाशयता की आड़ में बारीकी से अपने सरप्लस कमाने के धंधे को चमका रहा है ! वे कभी प्रकाशक द्वारा की जा रही अनैतिक हरकतों पर नहीं बोलते। स्थिति इतनी भयावह है कि राज्य के स्तर पर , विभाग के स्तर पर, विश्वविद्यालय में पुस्तक ख़रीद के स्तर पर, सरकारी थोक खरीद के स्तर पर हिन्दी के सबसे बडे प्रकाशक ने सबसे घृणित हथकंडे अपनाए हैं और लेखक संगठनों की ओर से कभी कोई बयान तक नहीं आया! 
     हिन्दी के बडे प्रकाशक किस तरह काम करते हैं उसके नमूने हर राज्य में बिखरे पड़े हैं। अभी कुछ समय पहले तक बिहार में सरकारी स्तर पर होने वाली खरीद में एक हिन्दी के संघपरस्त प्रकाशक की इजारेदाराना भूमिका, जो कई सालों से चल रही थी , सारी किताबें उससे ही ख़रीदी जा रही थीं, उसके खिलाफ किसी संगठन ने चूँ तक नहीं की, बाद में नीतीश सरकार ने इस मामले का संज्ञान लिया और वह प्रकाशक काली सूची के हवाले कर दिया गया। सवाल यह है कि एकप्रकाशक विशेष को ही मोटे ठेके कैसे मिल रहे हैं ? एक प्रकाशक विशेष को हाल ही में छत्तीसगढ़ से बहुत मोटा ठेका मिला है। प्रकाशक विशेष को इजारेदाराना ढंग से खरीद का ठेका मिलना, क्या हम सब लेखकों के लिए चिन्ता की बात नहीं है ? लेकिन "जलेसं" या "जसमं" और "प्रलेसं" के सभी बडे नेताओं के मुँह बंद हैं ! यही वह बिन्दु है जहाँ पर हम सबको लोकतांत्रिक प्रकाशकीय दृष्टिकोण अपनाने की ज़रुरत है। वफ़ादारी  का संबंध अ-लोकतांत्रिक सम्बन्ध है और यह लेखक विरोधी सम्बन्ध है। 
                   मैं अब तक ५० किताबें लिख चुका हूँ और मैंने आरंभ में यह निर्णय लिया कि मैं किताब उसी प्रकाशक को दूँगा जो लेखक के साथ पारदर्शिता रखे, रॉयल्टी दे, संयोग की बात है कि मैंने जिस प्रकाशक को किताबें दीं वह सभी लेखकों को रॉयल्टी देता है , बाकी तथ्य भी लेखक के साथ शेयर करता है। लेकिन हिन्दी का सबसे बड़ा प्रकाशक यह काम नहीं करता, इसके मालिक कईबार मुझसे किताब माँग चुके हैं , बदले में मोटी रक़म पहले देने का वायदा भी कर चुके हैं ,लेकिन मैंने उनको विनम्रतापूर्वक मना कर दिया । कहने का आशय यह कि लेखक संघ कम से कम इस तरह के प्रकाशक को किताब न दे जो इजारेदाराना हरकत करता हो, बिक्री के लिए घूस देता हो,लेखक को रॉयल्टी न देता हो। कम से कम लेखक की मान मर्यादा की रक्षा का दायित्व "वफादार लेखक-प्रकाशक सम्बन्ध" से ऊपर है। 

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