जिस देश में प्रधानमंत्री से लेकर सांसद तक अंधविश्वासी और गँवार संतों की चरणरज को परम प्रसाद मानते हों!कूपमंडूक और जाहिल संतों को प्रेरक मानते हों!जिस देश के सांसद कूपमंडूक ज्ञान को विज्ञान मानते हों और लाखों जनता उनको जय- जय हो करके चुनती हो! गंभीरता से सोचो उस देश की संसद की चेतना कैसी होगी ? हमने कभी लोकतंत्र के परम स्वायत्तरुप संसद और "परम मनुष्य "सांसदों के बारे में वैज्ञानिकचेतना की कसौटी पर बातें नहीं कीं।इससे अनेक क़िस्म के लोकतांत्रिक अंधविश्वास फैले हैं।
लोकतंत्र में दो तरह के अंधविश्वास हैं, पहली कोटि में परंपरागत अंधविश्वास आते हैं, ये हमें विरासत में मिले हैं, दूसरी कोटि में पूँजीवादी अंधविश्वास आते हैं जो हमें पूँजीवाद के आगमन के साथ समाजवाद और बुर्जुआ लोकतंत्र ने दिए हैं। मज़ेदार बात है हमने कभी न तो समाजवादरचित अंधविश्वासों पर बहस की और न बुर्जुआ अंधविश्वासों पर सवाल खड़े किए । समाजवाद ने पुराने या विरासत में प्राप्त अंधविश्वासों को नष्ट किया लेकिन नए समाजवादरचित अंधविश्वासों पर किसी को सवाल ही खड़े करने नहीं दिया गया। भारत में भी अंग्रेज़ों के ज़माने से लेकर आजतक ईश्वर की सत्ता को ख़ारिज करना अपराध घोषित कर दिया गया, मज़ेदार बात तो यह है कि हमारे यहाँ भगवान के नाम पर ज़मीन-जायदाद होती है, भगवान मुकदमे लड़ता है!ऐसे में उसके न होने की बातें करना तो "महान अपराध "ही माना जाएगा!संविधान की सौगंध सबसे बड़ा अंधविश्वास है! सांसदों का आचरण उसके अनुरूप नजर ही नहीं आता,इसके बावजूद सांसद महान हैं! कहने का आशय यह कि बुर्जुआ लोकतंत्र में पुराने और नए अंधविश्वास बने रहते हैं , विभिन्न तरीक़ों के जरिए उनको क़ानूनी और अन्य क़िस्म का संरक्षण मिला हुआ है।
संसद को लेकर जिस तरह का पूजाभाव हमारे ज़ेहन में है वह अपने आपमें एक रुढि है, सांसदों को लेकर जो मान्यता है वह भी रुढिग्रस्त है,इससे भी बड़ी बात यह कि लोकतंत्र भी रुढियों और तथाकथित लोकतांत्रिक अंधविश्वासों से भरा हुआ है। लोकतांत्रिक अंधविश्वास न हों तो लोकतंत्र ख़त्म हो जाय। हमने कभी विचार ही नहीं किया है हमारे सांसद कितने वैज्ञानिकचेतना संपन्न है? कोई सर्वे भी नहीं किया कि जिन सांसदों को हम आज़ादी के बाद से लेकर आज तक चुनते रहे वे वैज्ञानिकचेतना से लैस हैं या नहीं? सच यह है हमारे अधिकांश सांसद अंधविश्वासी और अवैज्ञानिक चेतना से लैस हैं।इसके बावजूद संसद महान हैं!
हमारे न्यायाधीशों में अधिकांश में वैज्ञानिकचेतना का अभाव है,इसके बावजूद न्याय महान है !न्यायाधीश महान हैं! ये धारणाएँ बताती हैं कि हमारे अंधविश्वास और रुढियों के खिलाफ कोई गंभीर जंग न तो संसद में लड़ी गयी और न संसदीय संरचनाओं में ही लड़ी गयी।
यूपीएससी पास करने वाले अधिकतर "महानजन" भगवान के आगे भीख माँगते,रोते बिसूरते देखे गए हैं! जिस देश के क्रीम कहे जानेवाले "महानजनों" में अंधविश्वास का यह आलम हो वहाँ वैज्ञानिकचेतना की रक्षा करना , उसका प्रचार- प्रसार करना बहुत ही मुश्किल काम है। ऐसी अवस्था में भारत विश्वगुरु कैसे बन सकता है ?
वैज्ञानिकचेतना हासिल करना नए मनुष्य के निर्माण के आत्मसंघर्ष की प्रक्रिया से जुडा है। हमने अपने देश में सतही संरचनाओं को तो यूरोप की नक़ल पर तैयार कर लिया , यूरोप जैसे कपड़े पहन लिए हैं, यूरोपीय वस्तुएँ जमा कर लीं,लेकिन नए यूरोपीय वैज्ञानिक मूल्यों को ग्रहण नहीं किया , मूल्यों की पुरानी मीनारों में बंद रहकर हम विश्वगुरु का सपना देख रहे हैं लेकिन साक्षात जीवन में घट रही अनहोनी और अमानवीय ज़िन्दगी के प्रति बेख़बर बने हुए हैं।
वैज्ञानिकचेतना की सबसे बड़ी खूबी है कि हम अमानवीय मूल्यों और ऐसी चीजों को न मानें जिनको यथार्थ में रेशनल तर्क की कसौटी पर परख न सकें।हमारे वैज्ञानिक सोच का आलम यह है कि हमने सवाल खड़े करने बंद कर दिए हैं!" हाँ जी-हाँ जी कहना उसी गाँव में रहना", की मनोदशा ने पुरानी और नई रुढियों और अंधविश्वासों के प्रति हमें गूँगा बना दिया है। वैज्ञानिकचेतना हमने गूंगेपन से मुक्त करती है।" हाँ जी" के गुलामबोध से मुक्त करती है ।सोचो क्या गूंगाभारत विश्वगुरु बन सकता है ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें