रायपुरसाहित्य मेला पर जनवादी लेखक संघ का बयान अनेक विलक्षण और संकीर्ण बातों की ओरध्यान खींचता है। मसलन्, बयान में लिखा गया है,छत्तीसगढ़ सरकार का यह आयोजन '' लेखकों तथा जनवादी रुझान के बुद्धिजीवियों केबीच विभेद और बिखराव के अपने एजेंडे को पूरा करना चाहता है.'' सवाल यह है यदि आपलोग जानते हीहैं कि वे क्या चाहते हैं तो फिर आपस में लड़ क्यों रहे हैं ? लेखकों में जानबूझकरफूट कौन पैदा कर रहा है ? स्वयं लेखक या भाजपा सरकार ? वस्तुगत स्थिति यह है किवहां जाने वाले किसी लेखक ने न जाने वाले लेखकों के खिलाफ कुछ नहीं लिखा और न बोला! साहित्यिक मान-मर्यादाओं और लोकतांत्रिक आचार-व्यवहार की अवहेलना उन लेखकों ने कीजो अपने को ''वामरक्षक'' कहते हैं। फूट के स्रोत ये ''वामरक्षक'' हैं ! फूट डालनेका काम वहीं से आरंभ हुआ।सार्वजनिक निंदा अभियान उन्होंने चलाया। असद जैदी-मंगलेशडबराल आदि ने तो अपमानजनक भाषा तक का इस्तेमाल किया। आश्चर्य की बात है इन ''वामरक्षक''लेखकों के हमलावर और फूट डालने बयानों की जलेसं ने निंदा तक नहीं की ! असभ्य आचरणकरने वाले लेखकों की निंदा न करके जलेसंकिस तरह का संदेश देना चाहता है ?सवाल उठता है कि असभ्य आचरण की रक्षा करना लेखकसंघ की भूमिका में कब से आने लगा ?
जलेसं की एक अन्य महत्वपूर्णखोज की ओर ध्यान दें ,'' कुछ जनवादी और वामपंथी लेखक अपने विवेक से उससाहित्योत्सव में शामिल होकर अपना स्वतंत्र और जनपक्षधर दृष्टिकोण स्पष्ट रूप सेव्यक्त कर पाए, इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि उक्त आयोजनभाजपा-आरएसएस का राजनीतिक प्रपंच और स्वांग नहीं था.'' जलेसं के नेतागण जानते हैं हर सरकारी कार्यक्रम स्वांग ही होता हैउससे ज्यादा यदि वे सोचते हैं तो गलतफहमी होगी! क्या यूपी सरकार के द्वारा 60 से ज्यादा लेखकों को दिया गयापुरस्कार स्वांग नहीं है ?क्या अखिलेश सरकार के शासन में कम दंगे हुए हैं ? क्या जलेसं अपने अध्यक्ष और दूसरे लेखकों को पुरस्कार लेने से रोकपाया ? क्या यूपी मेंकारपोरेट लूट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की खुली लूट नहीं हो रही ? सिर्फसमाजवादी पार्टी की सरकार होने मात्र से क्या यूपी सरकार की समस्त कारगुजारियांपुण्य में बदल जाती हैं ? क्याइफको के द्वारा आयोजित कार्यक्रम में नामवर सिंह का जाना सही है ? क्या इससेमोदी सरकार को अपनी इमेज चमकाने का मौका नहीं मिलेगा ? केन्द्रीय हिन्दी संस्थान केमोदी सरकार आने के बाद दिए गए पुरस्कारों से मोदी सरकार की इमेज चमकेगी या नहीं ? मैं पुनःध्यान खींचना चाहता हूँ कि इस तरहवर्गीकृत करके नहीं देखा जाना चाहिए। जलेसं जिस तरह से पूरी समस्या को देख रहा है वहसाहित्य का संकीर्ण और तदर्थ नजरिया है। जलेसं से सवाल है कि आदिवासियों के खिलाफपुलिस और सैन्यबलों का सबसे ज्यादा दुरुपयोग किस दल ने किया है ? बस्तर से लेकर उत्तर-पूर्व के राज्यों तक किसनेसबसे ज्यादा हिंसाचार फैलाया है कांग्रेस ने या भाजपा ने ? बस्तर में माओविरोधी ऑपरेशन की जड़ें कहां से पैदा हुई हैं ? मनमोहन सिंह की केन्द्र सरकार का क्या रुख रहापहले ? क्या मनमोहनसरकार का रुख आदिवासी हितैषी था ?सारे तथ्य और आँकड़े जलेसं के बयान के खिलाफ जाते हैं,इसके बावजूद जलेसं सच्चाईदेखने को तैयार नहीं है यह देखकर आश्चर्य होता है । मैं यहां वाम सरकारों का खासकरपश्चिम बंगाल सरकार का आदिवासियों के प्रति जो उपेक्षापूर्ण रुख रहा है उसकी ओरध्यान नहीं खींचना चाहता । जलेसं का नजरिया संकीर्ण ही नहीं गलत आधारों पर टिकाहै। उसमें एकांगिकता है।
कारपोरेटलूट के सभी बड़े मानक तो यूपीए सरकार ने बनाए ,फिर क्या यह मान लिया जाय कि उनदिनों जो लेखक उस सरकार के द्वारा वित्तपोषित संस्थाओं के कार्यक्रमों में जाते थेवे सही काम कर रहे थे ? हरसरकारी संस्था, संस्कृति-साहित्य का स्वांग करती है। यहां तक कि वाम सरकारें भी यहस्वाँग करती रही हैं। फर्ज करो छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार न होती, किसी और दलकी सरकार होती और सारी चीजें वही हो रही होतीं तो क्या सब कुछ जनतांत्रिक हो जाता ? सरकार तो सरकार है और इस मामले मेंसाम्प्रदायिकता,कारपोरेट लूट,शोषण –उत्पीड़न आदि को यदि आधार बनाकर ही देखा जाएगातो मुश्किल होगी। कौन सी ऐसी सरकार है जहां पर ये सब चीजें नहीं घट रहीं। सरकारसाम्प्रदायिक है तो क्या देश छोड़कर चले जाएं लेखक ? नौकरी न करें ? विपक्ष के सांसद ,संसद में न जाएं ? मजदूरवर्ग मिलकर भारतीय मजदूर संघ के साथआंदोलन न करे ?
क्या संघ की फासिस्ट हरकतों को मजदूर संगठनसीटू आदि नहीं जानते ? क्या वेबीएमएस के साथ मिलकर संघर्ष नहीं करते ?वे क्यों साझा संघर्ष करते हैं ?लेखकों से मजदूर संगठनों और संसद से भिन्नआचरण करने की माँग क्यों की जा रही है ? जलेसं का मानना है '' भाजपा लेखकों में यह भ्रान्ति फैलाना चाहती है कि वह असहमतियोंका सम्मान करती है. भाजपाई सरकार के इस छल पर लेखक गंभीरता से विचार करेंगे, ऐसी हम आशा करतेहैं.'' ,यह सच है, लेकिन जलेसं और उससे जुड़े लेखक क्या कर रहे हैं ? फेसबुक जैसेमहान मीडियम पर लेखकों की क्या भूमिका है ? जरा इन लेखकों की फेसबुक वॉल पर जाकरगौर करें तो सच्चाई सामने आ जाएगी !
भाजपा से वैचारिक जंग चंद बयानों और आकांक्षाओंके आधार पर नहीं लड़ी जा सकती।भाजपा के खिलाफ जंग के लिए लेखकों को अहर्निश लिखनाहोगा,कितने जनवादी-प्रगतिशील लेखक हैं जो भाजपा के साइबर हमलों के खिलाफ फेसबुक –ब्लॉग-ट्विटरआदि में लिख रहे हैं ? जो कुछ लिख रहे हैं वह क्या हस्तक्षेप के लिहाज से काफी है ?किसने रोका है जनवादी लेखकों को लिखने से ? वे चुप क्यों रहे जब मोदी के साइबरहमले हो रहे थे ? वे कौन से कारण हैं जो जनवादी लेखकों को मुक्त साइबर प्रतिवाद सेरोक रहे हैं ? साइबर प्रतिवाद में पैसे नहीं खर्च होते, किसी की अनुमति की भीजरुरत नहीं है,सिर्फ लेखक के विवेक और निडर अभिव्यक्ति से ही काम चल सकता है लेकिनजनवादी लेखक तो गूंगे लेखकों की तरह आचरण कर रहे हैं ,इससे अप्रत्यक्षतौर परमजदूरों-किसानों- और आम जनता का नुकसान हुआ है। जनवादियों के साइबर मंचों पर चुप रहनेसे मोदी-संघ को प्रच्छन्न मदद मिली है।
जलेसं का मानना है ''यह समय आयोजन में शिरकत करनेवालों की भर्त्सना का नहीं, बल्किउनके साथ सार्थक संवाद क़ायम करने का,'' जलेसं फिर सारे मसले को गलत ढ़ंग से देख रहा है। संवाद-विवादउनसे कीजिए जो हमले कर रहे हैं,जो लोग वहां गए उन्होंने सही माना इसीलिए वहां गएऔर यह उनका हक है और हम सभी को उनका सम्मान करना चाहिए। कौन किस आयोजन में जाएगा,यह फैसला लेखक का अपना निजी फैसला होगा। इस सम्मेलन में जो लोग गए इनमें अधिकांशलेखकों का साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखने का शानदार रिकॉर्ड रहा है।आदिवासियों-दलितों-स्त्रियों-बच्चों आदि पर लिखने में इन लेखकों की बड़ी भूमिकारही है। बल्कि मुश्किल यह है कि जो लेखक प्रतिवाद कर रहे हैं उनके प्रतिवादीरिकॉर्ड को जरा ध्यान देखें ? मसलन् असद जैदी-मंगलेश डबराल का फेसबुक पर मोदी केखिलाफ क्या रिकॉर्ड है जरा इनकी फेसबुक वॉल पर जाकर देख लें जनवादी लेखक संघ केनेतागण।मजेदार बात है जो लेखक मोदी कीहुंकार के सामने दुम दबाकर बैठे हैं वे मोदी विरोधी होने का दावा कर रहे हैं । मैंनेमोदी की हर नीति और हर बयान की रीयल टाइम में आलोचना लिखी,उसको ये दोनों लेखकगालियां दे रहे हैं और उन गालियों को हमारे मित्रगण अपनी वॉल से लंबे समय तक हटाएतक नहीं ,क्या यही आदर्श लोकतांत्रिक समाज है जिसे जलेसं बनाना चाहता है ? जलेसं के नेताओं के इस बयान में जिस तरह की विचारधाराहीन लीपापोती कीगयी है उसकी कम से कम मुझे उम्मीद नहीं थी। यह लीपापोती जलेसं को कहीं नहीं लेजाएगी, इससे संगठन की साख खराब हुई है।
हाल के वर्षों में हिन्दी लेखकों मेंदादागिरी और भाषायी असभ्य प्रयोग बढ़े हैं,खासकर फेसबुक पर यह चीज आए दिन उनलेखकों के द्वारा हो रही है जिनको साहित्य अकादमी पुरस्कार मिले हैं या जो इसपुरस्कार की आशा लगाए बैठे हैं, सारी दुनिया में कहीं पर भी लेखक गालियां नहींबकते,लेकिन हिन्दी में यह परंपरा है कि हिन्दी लेखक अपमानजनक भाषा का पानी की तरहप्रयोग करते हैं। लेखकों में अपमानजनक भाषा का बढ़ता प्रयोग इस बात का संकेत है किलेखक लंपट होता जा रहा है, उसमें असभ्यता पैर पसार रही है। समस्या यह है कि नयीपरिस्थितियों में लेखक किस तरह व्यवहार करे ? किसनजरिए से देखे ? जलेसं का सरकार औरलेखक के अन्तस्संबंध को देखने का कोई सुसंगत नजरिया नहीं रहा है, कम से कम अब तोइस पहलू पर दो-टूक ढ़ंग से संगठन सोच ले । समस्या ''इस्तेमाल करने और (खुद) इस्तेमाल हो जाने ''की नहीं है, समस्या लोकतांत्रिक कम्युनिकेशन और लोकतांत्रिक आचरण की है। ''इस्तेमाल करने '' या इस्तेमाल हो जाने ''का नजरिया पुराने समाजवादी फ्रेमवर्क की देन है,यह नजरिया पूरी तरह अप्रासंगिक होचुका है। लेखक को हमें समाजवादी फ्रेमवर्क में नहीं लोकतांत्रिक-साइबर फ्रेमवर्कमें देखना होगा, लेखक के आचरणों की संविधान प्रदत्त अधिकारों की रोशनी में नईव्याख्या तैयार करनी होगी, लेखक को हाँकने या आदेश देने के मनोभाव से देखना बंदकरना होगा,इस दौर में नए कम्युनिकेशन मीडियम आ गए हैं अतः उन माध्यमों के परिप्रेक्ष्य में लेखक,राज्य और समाज के संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करनाहोगा। जलेसं अभी तक पुराने फ्रेमवर्क में सोच रहा है यह उसके बयान में निहित है। पुरानानजरिया जलेसं को कहीं नहीं ले जाएगा,इससे संगठन का लेखकों से अलगाव और बढ़ेगा।लेखक कोई इस्तेमाल होने की चीज नहीं है। लेखक तो कम्युनिकेशन का मीडियम है।ऐसा मीडियम है जिसका मालिक वह स्वयं है।
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