शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

उत्तर आधुनिकतावाद,नारीवाद और मार्क्स- केरॉल ए.स्टेविले-1-

                             
     एक वर्ष से भी अधिक समय से ओ.जे. सिंपसन का मुकदमा न केवल 'टैबलॉयड्स' में बल्कि मुख्यधारा के प्रेस में भी सुर्खियों में था। निकोल ब्राऊन सिंपसन और रॉन गोल्डमैन की भयावह हत्याओं के बाद लगभग सभी टेलीविजन या रेडियो वार्ता कार्यक्रमों में यह मामला बहस का गरमागरम मुद्दा था। यह 'टाइम' और 'न्यूजवीक' जैसी लोकप्रिय पत्रिकाओं के मुख्य पृष्ठ पर छपा तथा प्रमुख समाचारपत्रों के पहले पृष्ठ पर नियमित रूप से छाया रहा। शॉक रेडियो के होस्ट होवार्ड स्टर्न ने अब अलोकप्रिय 911 टेप बजाने के बाद अचानक घरेलू हिंसा को खोज निकाला था, जबकि लाखों टेलीविजन दर्शक लॉस एंजेलस पुलिस विभाग की सिंपसन की श्वेत ब्रोंको की शानदार छानबीन को देखने में लगे थे।
आरंभ से ही इस कहानी में अति-यथार्थवादी तत्व थे; वास्तविक घटना से एक दूरी जिसने सिंपसन और गोल्डमैन की जिंदगियों का अंत कर दिया था। साथ ही लॉस एंजेलस में नस्ल, वर्ग, राजकीय दमन की वास्तविक घटनाओं से भी दूरी थी। ज्यों-ज्यों सप्ताह दीर्घ होकर महीनों में बदले, हत्या की घटना और मीडिया कवरेज के बीच दूरी बढ़ती गई, जबकि यह मामला स्वयं ही स्वास्थ्य सेवा, 'प्रोपोजिशन 187' पारित होने तथा 'कांट्रैक्ट विद अमेरिका' की खबरों के आगे निष्प्रभ हो गया। घरेलू हिंसा तसवीर से गायब हो गई क्योंकि कवरेज में मुकदमे को खेल की खबरों या कार्य-निष्पादन के समान ही महत्व दिया जाने लगा। दरअसल अब प्रश्न सिंपसन के दोषी या निर्दोष होने का कम से कमतर होता गया तथा बचाव पक्ष और सरकारी वकील अपना-अपना दांव कैसे खेलते हैं, इसका हो गया। मुख्यधारा की मीडिया में शायद ही किसी ने आर्थिक विशेषाधिकार का उल्लेख किया लेकिन नस्ल और लिंग के मुद्दे बार-बार उठाए गए। पहले सिंपसन और निकोल ब्राऊन सिंपसन के संबंध में और फिर जब न्यायालय बचाव पक्ष के अफ्रीकी-अमरीकी प्रमुख, जॉनी कोचरान और श्वेत मुख्य सरकारी वकील मार्सिया क्लार्क के बीच युध्दभूमि बन गया। मुकदमे के कवरेज में सूचना और मनोरंजन के बीच, सच्चाई और कहानी के बीच सत्य के शब्द न केवल अस्पष्ट हो गए, प्रत्युत वे गायब हो गए।
उत्तरआधुनिकतावाद में आपका स्वागत है : मीडिया के भव्य समारोह, वास्तविक के लोप, इतिहास का अंत, मार्क्सवाद की मौत तथा अनेक अन्य सहस्राब्दवादी दावों कीदुनिया में। जहां ख्यातिलब्ध मुकदमों ने सनसनीखेज कवरेज के लिए ऐतिहासिक रूप से उत्तेजित किया है, वहीं शायद ही कोई इनकार करेगा कि स्वयं मीडिया में गत दशकों में भारी परिवर्तन आया है या मीडिया अब सूचना के विशाल प्रवाह को नियंत्रित और प्रभावित करती है। लेकिन जहां हममें से कुछ इन परिवर्तनों की ऐतिहासिक और भौतिकवादी व्याख्या प्रस्तुत करना चाहेंगे वहीं उत्तरआधुनिकतावादियों के लिए सच्चाई और कल्पना के बीच की रेखा का लोप जो आज कथित रूप से 'जन संस्कृति' का निर्माण करता है, दरअसल बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों की सच्चाई है। यों कहें कि व्याख्या करने के लिए कुछ भी नहीं है क्योंकि जो हम जान सकते हैं और जो जानने योग्य है मीडिया द्वारा प्रस्तुत वर्णन और कपोल-कल्पनाएं हैं। उत्तरआधुनिकतावादी दावा करते हैं कि समाज अब चपटी दुनिया के कगार पर पहुंच गया है और केवल एक ही सत्य हम निश्चित तौर पर जान सकते हैं वह यह कि हम नहीं समझ सकते कि किस चीज ने समाज को वहां पहुंचाया है या नीचे रसातल में क्या है।
समाज के बारे में उत्तरआधुनिकतावाद की भविष्यसूचक दृष्टि को बुध्दिजीवियों के सत्य से संबंध-विच्छेद के एक और उदाहरण के रूप में व्याख्या करना या खारिज करना आसान है। पुनश्च: इस लेख में मैं इस प्रवृत्ति की व्याख्या केवल बौध्दिक अमूर्तीकरण के रूप में नहीं करना चाहता, प्रत्युत एक ऐतिहासिक परिघटना तथा राजनीति से बौध्दिक पश्चगमन के रूप में करना चाहता हूं। विशेष तौर पर मैं उन बिंदुओं पर विचार करना चाहता हूं जिन पर उत्तरआधुनिकतावाद समयुगीन नारीवाद को काटता है और उस प्रतिच्छेदन का राजनीतिक अभिप्राय क्या है।
उत्तरआधुनिकतावाद क्या है?
पहले मैं दो अति व्यापक और प्राय: अस्पष्ट पदबंधों 'उत्तरआधुनिकतावाद' और 'नारीवाद' को परिभाषित करने का प्रयास करूंगा, कम से कम जिस रूप में वे आज अकादमी में उपयोग किए जाते हैं। मोटे तौर पर उत्तरआधुनिकतावाद को एक ऐतिहासिक युग, उत्तर-औद्योगिक, उत्तर-फोर्डिस्ट या उत्तर-पूंजीवादी समाज की अवस्था समझा जाता है। उत्पादन के 'समयुगीन' संबंधों (यदि उन्हें कोई ऐसा अभी भी कह सके) को प्राय: विखंडित (यह सामाजिक ताने-बाने और उत्पादन के रूप दोनों पर लागू होता है), विसरित या असंगठित (इस अर्थ में कि व्यवस्थागत शक्ति संबंध हर जगह है और कहीं भी नहीं है; यह व्याप्त है लेकिन इसके स्रोत की पहचान नहीं की जा सकती) और अंतत: ऐतिहासिक और आर्थिक निर्धारक तत्वों से अलग परिभाषित किया जाता है। उपभोग उत्पादन से आगे निकल गया है, जिससे वर्ग संघर्ष (या यह धारणा भी कि समाज शत्रुतापूर्ण ढंग से मजदूरों और पूंजीपतियों के बीच बंटा हुआ है) एक पुरानी अवधारणा बन गया है। लोग अब अपने आपको वर्ग के रूप में या इसके साथ नहीं देखते बल्कि विभिन्न अपेक्षाकृत विशिष्ट स्थायीअस्मिताओं (आइडेंटिटीज) (यथा महिला, महिला समलैंगिक, पुरुष समलैंगिक, अफ्रीकी-अमरीकी, लातिनी) से जाने जाते हैं, उन अस्मिताओं से जो केवल आर्थिक रूप में परिभाषित नहीं होतीं। संक्षेप में कहा जाए तो दमन की कोई सिलसिलेवार भौतिक बुनियाद नहीं है।
समाज की उत्तरआधुनिकतावादी समझ के केंद्र में यह विश्वास है कि आधुनिकता और प्रबोधन के 'महान' या समष्टिकारी सिध्दांतों, साथ ही विवेकशीलता, प्रगति, मानवता, न्याय के आग्रह और यहां तक कि सत्य को प्रस्तुत करने की क्षमता के महत्व को कम कर दिया गया है। इस प्रकार की तर्क भाषा, वस्तुपरकता और निरूपण की उत्तर-संरचनावादी समालोचनाओं से उत्पन्न होती है; लेकिन जहां उत्तर-संरचनावाद थ्योरी है, उत्तरआधुनिकतावाद आचरण है। दूसरे शब्दों में, जहां उत्तर-संरचनावादियों ने आधुनिकतावाद की बुनियाद की आलोचना की, उत्तरआधुनिकतावादियों ने इन समालोचनाओं को इन बुनियादों की ही अस्वीकृति का अधिदेश समझा।
यानी उत्तरआधुनिकतावादियों के अनुसार तंत्र जिसे शायद ही (कभी) पूंजीवाद का नाम दिया जाता है, वह इतना असंगठित और विषमांगी हो गया है कि यह न केवल समझ से परे है बल्कि अब यह ऐसा कोई बिंदु भी नहीं प्रदान करता जहां से इसका विरोध किया जा सके। सचमुच पूंजीवाद का 'असंगठन' यह दरशाता है कि विरोध करने के लिए कोई केंद्रीय बिंदु या तंत्र नहीं है। इस मीडिया-संतृप्त युग में किसी निश्चितता के साथ कोई नहीं जानता कि वास्तव में सच क्या है, इसी विवेचना असंभव हो गई है, चाहे राजनीतिक हो या कलात्मक। पूंजीवाद अब विखंडित और आवयविक एकत्व विहीन हो गया है और अब एक व्यवस्था के रूप में इसे नहीं समझा जा सकता; और किसी भी हालत में इसे समझने के या जानने के आधार ही समाप्त हो गए हैं।
जॉन फ्रैंक ल्योतार्द जैसे यूरोपीय उत्तरआधुनिकतावादियों ने यह विचार व्यक्त किया है कि सामान्य रूप में प्रबोधन के समान ही मार्क्सवाद अपने 'समष्टिकारी' आवेगों के कारण स्तालिनवाद की परिणति तक पहुंच गया। कुछ उत्तरआधुनिकतावादी, खास तौर पर संयुक्त राज्य में, मार्क्सवाद और सोवियत शैली की पध्दतियों में समानता से कहीं आगे जाकर मार्क्सवाद को सभी प्रकार के दमन के लिए जिम्मेदार मानते हैं। लिंडा निकोल्सन का कहना है कि 'बीसवीं सदी के मार्क्सवाद ने महिलाओं, अश्वेतों, पुरुष समलैंगिकों, महिला समलैंगिकों तथा अन्य, जिनके दमन को अर्थशास्त्र तक सीमित नहीं किया जा सकता, की मांगों को अवैध करार देने के लिए उत्पादन और वर्ग की सामान्य कोटियों का उपयोग किया है।'1 इस प्रकार का निर्णय नाटकीय रूप से उत्तरआधुनिकतावाद की एक और विशेषता को दरशाता है : इसकी ऐतिहासिक विस्मृति। निकोल्सन के जैसा वक्तव्य न केवल प्रजातांत्रिक वर्ग राजनीति के समृध्द इतिहास को दबाता है बल्कि यह इस सरल तथ्य के प्रति भी उल्लेखनीय रूप से संवेदनहीन है कि मार्क्सवाद तथा आम तौर पर समाजवादी संगठनों को पूंजीवाद द्वारा बार-बार हाशिए पर ढकेल कर अवैध करार दिया गया है। उत्तरआधुनिकतावादीस्वरूप के विचारों के यूरोप से उत्तरी अमरीका में प्रतिरोपण में दुगनी अनैतिहासिक होने की प्रवृत्ति है। ये विचार उन ऐतिहासिक और भौतिक स्थितियों से अलग हैं जिन्होंने इन्हें उत्पन्न किया और बाद में वर्ग आधारित राजनीतिक संघर्षों के विरुध्द प्रतिरोध के वातावरण में एक ऐसे समाज द्वारा अपनाया गया जिसके वर्ग संघर्ष के इतिहास को बड़े मनोयोग से दबा दिया गया है। यदि राजनीतिक दावे इतने अधिक नहीं होते तो यह विडंबना ही प्रतीत होती कि उत्तरआधुनिकतावादी और जार्ज बुश जैसे लोग तथा डिक आर्मे यह तर्क कर रहे होते कि संयुक्त राज्य अमरीका में वर्ग नहीं हैं।
विश्वविद्यालय में अधिकांश मानविकियों तथा समाजविज्ञान पाठयक्रमों में उत्तरआधुनिकतावादी सामाजिक सिध्दांत और सामान्य उत्तरआधुनिकतावाद विद्यमान है। अनुभववाद तथा मात्रात्मक पध्दतियों ( जो व्याख्या योग्य सत्य के किसी रूप की मौजूदगी को मानती हैं) का त्याग करके सभी उत्तरआधुनिकतावादी प्राय: अपने अंतर्विरोधी दावों के समर्थन के लिए सास्युअर के भाषाविज्ञान तथा भाष्यविज्ञान से लिए व्याख्यात्मक पध्दतियों पर निर्भर करते हैं। उत्तरआधुनिकतावादी सामाजिक सिध्दांतकार आदर्शवाद और भौतिकवाद के दर्शन के बारे में पारंपरिक बहसों को दोबारा चलाने के क्रम में मार्क्स और एंगेल्स द्वारा 'दि जर्मन आइडियोलॉजी' में वादानुवाद के निर्दिष्ट विषयों के परे नहीं गए हैं। प्रत्युत, वे आदर्शवाद की निरपेक्ष जीत का दावा करते हैं क्योंकि भौतिकता और आर्थिक आधार को इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिया गया है और केवल भाषा ही शेष है। इस 'भाषिक' बुनियाद पर कार्य करते हुए, उत्तरआधुनिकतावादी सामाजिक सिध्दांतकार तर्क देते हैं कि इस सदी के अंतिम बरसों में राजनीति केवल अव्यवस्थित ढंग से या विखंडित, विभक्त और प्राय: परस्पर विरोधी श्रेणियों के माध्यम से कार्य कर सकती है जिनसे लोग अपनी समानता स्थापित करते हैं।
तमाम भ्रांतियों और अंतर्विरोधों के बावजूद उत्तरआधुनिकतावाद के कुछ एकरूप करने का सिध्दांत हैं : 'यथार्थ' की तर्कमूलक संरचना पर आलोचनारहित और आदर्शवादी फोकस (यानी 'यथार्थ' क्या है, इसकी संरचना भाषा में तथा इसके द्वारा होता है हालांकि इसकी वास्तव में कोई व्याख्या नहीं करता कि इसका अर्थ क्या है) तथा 'विभेद' की धारणा को सापेक्ष विशेषाधिकार प्रदान करना। अंतत: यदि हम उन 'वास्तविक' हितों को नहीं खोज सकते जो 'हमें' एकजुट कर सकें तो केवल एक ही प्रकार की राजनीतिक कार्रवाई की कल्पना की जा सकती है जो कि हमारी स्थायी अस्मिता (आइडेंटिटी) में 'विभेदों' पर आधारित होगी। मार्क्स की विभेद में एकता की धारणा के विपरीत या ई.पी. थामसन की 'हितों की समानता' के विपरीत उत्तरआधुनिकतावादी विशिष्ट और स्थानीकृत विभेदों के पक्ष में इस प्रकार के वर्णन को अस्वीकार करते हैं, जिसमें लोगों के सामान्य हित व्यापक रूप से समान होते हैं तथा जिन्हें राजनीतिक एजेंसियों द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है।(क्रमशः)

किसान ज्ञान परंपरा- झारखंड के किसान -स्वामी सहजानंद सरस्वती

    बिहार प्रान्त को असल में 'बिहार और छोटानागपुर' के नाम से ही पुकारा जाता है। यों कभी-कभी संक्षेप में केवल 'बिहार' भी कह देते हैं। जब उड़ीसा का सम्‍बन्‍ध बिहार से था तब तो 'बिहार और उड़ीसा' अकसर कहा जाता था। मगर उड़ीसा के अलग हो जाने के बाद केवल 'बिहार' के बजाए 'बिहार और छोटानागपुर' कहना ही उचित प्रतीत होता है। यों तो उड़ीसा के मिले रहने पर भी कभी-कभी केवल 'बिहार' ही कहते थे। चाहे जो भी हो, छोटानागपुर का महत्‍व काफी है और जान या अनजान में इसकी याद हमेशा बनी रही है।

    बात असल यह है कि इस प्रान्त के कुल सोलह जिलों में सिर्फ सारन, चम्पारन, दरभंगा, मुजफ्फरपुर और पूर्णिया यही पाँच ऐसे हैं जहाँ पहाड़ नहीं हैं। शेष ग्यारह में तो कमोबेश पहाड़ पाए ही जाते हैं। यह ठीक है कि छोटानागपुर के पाँच जिलों पलामू, राँची, हजारीबाग, मानभूम और सिंहभूमतथा संथाल परगना, इन छह जिलों की भूमि जिस प्रकार पार्वत्य या पहाड़मयी है वैसी गया, मुंगेर आदि की नहीं है। ये छह तो पहाड़ों और जंगलों से घिरे हैं। मगर गया वगैरह के कुछ ही हिस्से पहाड़ी हैं। फिर भी यह बात सही है कि ये जिले भी अपने भीतर कुछ न कुछ जंगल और पहाड़ रखते ही हैं। पटना जिले में ही सबसे कम पहाड़ और जंगल हैं। इस प्रकार जंगलों की प्रधानता का खयाल करके ही पलामू आदि छह जिलों को बहुत पहले से झारखंड कहते चले आते हैं। बाकी जो ग्यारह जिले बच जाते हैं उनमें या तो जंगल पहाड़ ही नहीं, या बहुत ज्यादा नहीं हैं। यह भी बात है कि उनमें बौद्धकाल में बौद्ध भिक्षुओं के रहने और पढ़ने आदि के लिए जगह-जगह मठ या मकान प्राय: बने रहते थे जिन्हें बौद्ध सम्प्रदाय में विहार कहते हैं। इसीलिए वे ग्यारह जिले विहार कहे जाने लगे। असल में तो इस लम्बे सूबे को दो भागों में बाँटकर जैसे जंगली भाग को झारखंड कहते थे वैसे ही दूसरे भाग को विहार खंड ही कहना उचित था। मगर जाने क्यों केवल 'विहार' ही कहा जाता था।

    इस प्रकार बिहार या विहार खंड और झारखंड के नाम से दो भागों में बँटे इस सूबे में विहार खंड के किसानों की दशा सुधारने की कोशिशें तो इध्‍यानर बहुत हुई हैं। मगर यह बात झारखंड के बारे में नहीं हुई है। बिहार प्रान्तीय किसान सभा ने भी उतना ध्‍यान इस ओर नहीं दिया है जितना विहार खंड की ओर। फलत: और तो और, बाहरी लोगों को यहाँ के किसानों की समस्याओं तथा मुसीबतों की जानकारी तक प्राय: हुई नहीं! थोड़ी बहुत टूटी-फूटी बातें ही लोग जानते हैं। कभी-कभी कोई उथल-पुथल हो जाने पर ही कुछ नई बातें मालूम हो पाती हैं। जिसे पक्की और ब्यौरे की जानकारी कहते हैं वह तो फिर भी नहीं होती। वहाँ के असली निवासी, जिन्हें आदिवासी भी कहते हैं, आमतौर से मूक जैसे हैं। पढ़ने-लिखने की तो बात ही जाने दीजिए। उनकी भाषा ऐसी है कि दूसरे लोग समझी नहीं सकते। उनके रस्मोरिवाज भी निराले ही हैं। वे सीधे भी हद से ज्यादा हैं।
यह प्रान्त तो बड़ा है नहीं। कुल सोलह जिले हैं। जनसंख्या भी प्राय: साढ़े तीन (36340000) करोड़ ही है। मगर जहाँ तक किसानों की बात है, यहाँ तीन तरह के काश्तकारी कानून लागू हैं। बिहार काश्तकारी कानून Bihar Tenancy Actसिर्फ विहार खंड के दस जिलों में ही लागू है। उसका ताल्लुक झारखंड से ही नहीं। झारखंड में भी दो कानून हैं। संथाल परगनाको छोड़ बाकी पाँच जिलों में छोटानागपुर काश्तकारी कानून Chotanagpur Tenancy Act—प्रचलित है और उसी के अनुसार वहाँ काम होता है। मगर संथाल परगनाकी तो बात ही निराली  हलत मुरारेस्तृतीय: पन्था: है। इन दोनों में एक भी वहाँ लागू नहीं है। उस जिले के लिए एक तीसरी ही कानूनी व्यवस्था है जिसे संथाल परगना मैनअल Santhal Pargana Manualकहते हैं। उसी के अनुसार वहाँ का इन्तजाम होता है। यह मैनुअल भी बना है ज्यादातर 1872 और 1886 के नियम कायदों (Regulations) के आधार पर ही। झारखंड की पेचीदगी इसीलिए और भी बढ़ जाती है।

    बदकिस्मती की बात यह भी है कि वहाँ के मूल निवासियों का नेतृत्व दूसरों के ही हाथ में है। ईसाइयों के जाने कितने ही मिशन वहाँ बहुत दिनों से काम करते हैं। उनने ईसाइयत का प्रचार भी वहाँ काफी किया है। अतएव एक तो वही लोग वहाँ के किसानों का नेतृत्व करते आए हैं। उनके सिवाय समय-समय पर सूबे के उत्तारी भाग या विहार खंड से भी पढ़े-लिखे सूदखोर बनिए या व्यापारी लोग वहाँ समय-समय पर बसते गए हैं। वकील, मुख्तार या और तरह के पढ़े-लिखे लोग, या तो वही हैं या बंगाली। अबरक, कोयला, लोहा वगैरह के कारबार और लाह या लकड़ी के रोजगार के सिलसिले में भी सभी तरह के लोग भारत के कोने-कोने से ही नहीं, बल्कि दूसरे देशों से भी आके वहाँ बस गए हैं। इसलिए स्वभावत: ऐसे लोग उन गरीबों के अगुवा बनने की कोशिश करते हैं। कांग्रेस जैसी प्रभावशाली संस्था के जितने प्रमुख नेता झारखंड में हैं वे सभी बाहर वाले ही हैं।

    आदिवासी आन्दोलन के रूप में आज एक संस्था वहाँ खड़ी हो गई है सही और उसका नेतृत्व भी आदिवासियों के हाथ में ही बताया जाता है। कई ऐसे लोग भी हैं जो आदिवासी ही हैं और किसान सभा के नाम पर उनने एक संस्था भी बना ली है। मगर उनका नेतृत्व निहायत लचर और अवसरवादी है। वे किसानों को उठाना नहीं चाहते। किन्तु अपना काम निकालना चाहते हैं। आदिवासी आन्दोलन की कमी यह है कि शुद्ध मध्‍यमवर्गीय ढंग से ही चालू हो रहा है। यदि वह किसानों के वर्ग स्वार्थों के ही आधार पर चालू होता तो उसमें अपार शक्ति आ जाती और वह सचमुच झारखंडवासियों का निस्तार ही कर देता।

    यही कारण है कि असलियत का पता नहीं लग पाता और घपले बढ़ गए हैं। मैं शुद्ध किसान हित के खयाल से ही वहाँ की स्थिति पर प्रकाश डालना चाहता हूँ ताकि उस अन्‍धेरीगुफा की झाँकी हमें मिले। हमें और हमारे कार्यकर्ताओं को सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वहाँ के निवासियों के अभाव-अभियोगों को जानते ही नहीं। वहाँ के काश्तकारी कानून की खास बात क्या है और उसमें क्या कमी है यह बात हमें मालूम नहीं। फिर उसके सुधार का आन्दोलन भी किया जाए तो कैसे? बाहरी लोगों की दृष्टि से वहाँ के काश्तकारी कानून में पेचीदगियाँ हैं। कांग्रेसी मंत्रियों के समय वहाँ का कानून भी बहुत कुछ सुधारा गया ठीक बिहार के काश्तकारी कानून के ही ढंग पर। मगर कितने मेम्बरों ने असेम्बली में उसे समझा भी, यह एक सवाल है। सिर्फ रस्मअदाई के खयाल से या दो-चार लोगों के कहने से ही जो कानून बने उससे हम लोगों का फायदा कहाँ तक कर सकते हैं? बिहार के कितने कांग्रेसी नेता हैं जो उन कानूनों को समझते हैं।

    जब तक हम वहाँ की असली परिस्थिति न जानें, लोगों की सबसे चुभने वाली माँगों की हमें पूरी जानकारी न हो, सरकारी महकमे वहाँ कैसे काम करते हैं, कचहरियाँ कहाँ तक किस तरह उन गरीबों के साथ मौजूदा कानून के अनुसार भी न्याय कर पाती हैं, इत्यादि बातें हम न समझें उनके लिए कुछ भी कर सकते हैं क्या और कैसे? आदिवासियों की भाषा न तो हाकिम समझते और न दूसरे ही लोग। बाहरी वकील, मुख्तार भी सिर्फ कामचलाऊ बातें ही जानते हैं। नतीजा यह होता है कि वे बेचारे बहुत बार नाहक लद जाते हैं। अंग्रेजी कानूनों की पेचीदगियाँ वे क्या जानने गए? यदि जानते तो बचाव का रास्ता भी निकालते। इधर तो उन्हें पता ही नहीं है उधर सख्त से सख्त सजाएँ उन पर लद जाती हैं। जेल में रहके उनसे बातें करने और उनके साथ बार-बार हिलने-मिलने पर पता चलता है कि वे किस बला में फँस गए हैं। अपने पक्ष का सबूत उनके पास मौजूद है सही। फिर भी ठीक समय पर या कायदे के मुताबिक वे हाकिम के सामने पेश न कर सके और लद गए! मगर वे इन कायदे-कानूनों को जानने क्या गए? उन्हें किसने ये बातें सिखाने की कोशिश कीं? कानून बनते हैं अंग्रेजी में और आदि जनता की तो बात ही नहीं, उनके जो खास सदस्य असेम्बली में चुने गए हैं उनमें शायद ही एकाध अंग्रेजी जानते हैं। बाकियों की तो हालत ज्यादातर 'लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर' जैसी ही है। थोड़ी-बहुत हिन्दी जानने से भी काम तो नहीं चलता।

    ऐसी दशा में आगे जो कुछ लिखा जाएगा वह सबों की जानकारी के ही लिए। किसी दल या पार्टी या सम्प्रदाय के खंडन-मंडन से हमारा मतलब नहीं है। हमें तो अपना काम करना है। यदि हम झारखंड की जनता की और खासकर वहाँ के किसानों की कुछ भी सच्ची सेवा करना चाहते हैं तो सबसे पहले उस क्षेत्र की, उस अन्‍धेरी गफा no man's land की झाँकी लगाना और परिस्थिति समझ लेना जरूरी है। नहीं तो भटक जाने की पूरी सम्भावना है। वैसी हालत में केवल दो-चार ऊपरी बातों से ही हम सन्तोष कर के तह में घुसने की कोशिश करी नहीं सकते हैं। कहा नहीं जा सकता कि हमें इसमें सफलता कहाँ तक मिलेगी।



सेण्ट्रल जेल, हजारीबाग   स्वामी सहजानन्द सरस्वती

नवम्बर दिवस, शुक्रवार 7.11.41

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

गृहमंत्री पी. चिदम्बरम् का माओवादी प्रेम

          पश्चिम बंगाल में केन्द्रीय गृहमंत्री पी.चिदम्बरम का असली खेल सामने आ गया है। खासकर माओवादियों के संदर्भ में हम पहले भी कईबार लिख चुके हैं कि कांग्रेस का माओवादियों के प्रति याराना है। इसबार कुछ बात ही अलग है। असल में माओवादी हिंसाचार और आतंक देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व चुनावी गणित को ध्यान में रखकर माओवाद से लड़ना चाहता है। जैसा कि सभी जानते हैं कि पश्चिम बंगाल के लालगढ़ इलाके में केन्द्र और राज्य के सशस्त्रबलों का संयुक्त अभियान चल रहा है और उसमें अब तक काफी हद तक सफलता भी मिली है। अनेक नामी-गिरामी माओवादी नेता और हिंसाचार में शामिल अपराधियों को सशस्त्रबलों ने पकड़ा भी है। माओवादियों के जितने बड़े नेता पश्चिम बंगाल में पकड़े गए हैं उतने बड़े नेता अन्यत्र किसी राज्य में गिरफ्तार नहीं हुए हैं। लालगढ़ इलाके में अभी भी सैंकड़ों शरणार्थी अपने घरों से दूर पनाह लिए कष्ट में दिन काट रहे हैं। 30 हजार से ज्यादा सशस्त्रबलों के संयुक्त अभियान के बाबजूद माकपा के सदस्यों और हमदर्दों को उनके घर वापस नहीं पहुँचा पाए हैं। इन शरणार्थी शिविरों के रखरखाब,देखभाल और समस्त खर्चे को माकपा की स्थानीय इकाईयां उठा रही हैं। माओवाद के खिलाफ लालगढ़ में जो आपरेशन चल रहा है उसके बारे में दो सप्ताह पहले तक केन्द्र और राज्य सरकार के बीच में कोई मतभेद नहीं था।
      दूसरी ओर ममता बनर्जी और उनके दल तृणमूल कांग्रेस का माओवादियों के साथ खुला गठबंधन है और वे चाहते हैं कि लालगढ़ इलाके से सशस्त्रबलों को हटा लिया जाए। इसके लिए वे लगातार प्रदर्शन,धरना,रैली आदि कर रही हैं। लेकिन 21 दिसम्बर 2010 को एक नया मोड़ आया है । केन्द्रीय गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने राज्य के मुख्यमंत्री को एकपत्र लिखकर कहा है कि लालगढ़ इलाके से ‘हरमदवाहिनी’ के लोगों को हथियार समर्पण के लिए राज्य सरकार प्रयास करे। इस प्रसंग में सबसे पहली बात यह कि पश्चिम बंगाल में ‘हरमदवाहिनी’ नामक कोई संगठन नहीं है। माओवादी और तृणमूल कांग्रेस के लोग भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) को कलंकित करने और उसका नाम विकृत करने के लिए ‘हरमदवाहिनी’ पदबंध का प्रयोग कर रहे हैं। ‘हरमद’ यानी ‘गुंडा’वाहिनी। आश्चर्य की बात यह है कि गृहमंत्री ने ‘हरमदवाहिनी’ पदबंध का अपने पत्र में इस्तेमाल किया है। सवाल उठता है क्या गृहमंत्री का किसी राष्ट्रीय राजनीतिक दल को उसके असली नाम से पुकारने की बजाय विकृत नाम से पुकारना सही है ? यह राजनीतिक शिष्टाचार और सरकारी मर्यादा का उल्लंघन है । केन्द्रीय गृहमंत्री को किसी भी दल को विकृत नाम से पुकारने का कोई हक नहीं है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जब ऑपरेशन चल रहा हो और सशस्त्रबलों के जवान अपनी जान की बाजी लगाकर माओवादियों का मुकाबला कर रहे हों तो ऐसी स्थिति में चिदम्बरम् का पत्र उनके मनोबल को तोड़ने का काम करेगा। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कानून-व्यवस्था का मसला राज्य के अधीन आता है केन्द्रीय गृहमंत्री ने पत्र लिखकर अपनी मर्यादा का अतिक्रमण किया है। सब जानते हैं माओवादियों से कांग्रेसियों का आंतरिक याराना है और वे जहां पर भी गए हैं वहां उन्होंने क्रांति की सेवा कम की है असंवैधानिक सत्ताकेन्द्रों और स्थानीय बड़े बुर्जुआदल के दलालों का काम ज्यादा किया है। बिहार,छत्तीसगढ़,आंध्र,पश्चिम बंगाल आदि का अनुभव इस बात की पुष्टि करता है।
    कायदे से लालगढ़ ऑपरेशन को लेकर केन्द्र सरकार को अपने मंत्रियों की लगाम कसनी चाहिए। केन्द्र के मंत्री बेलगाम होकर माओवादियों के घर आ जा रहे हैं और उन्हें खुलेआम समर्थन दे रहे हैं। कम से चिदम्बरम बाबू ने एकबार ममता बनर्जी को भी पत्र लिखा होता कि आप और आपका दल माओवादियों और उनके डमी संगठन पुलिस संत्रास विरोधी कमेटी से अपने को दूर रखे। चिदम्बरम बाबू का यह माओ-ममता अंधप्रेम किसी तर्क से समझ में नहीं आता। हम यह समझने में असमर्थ हैं कि माओवादियों का समर्थन करने वाले कैबीनेट में कैसे रह सकते हैं। चिदम्बरम बाबू को पूरा हक है कि वे केन्द्रीयबलों को वापस बुला लें। लेकिन माकपा को अपना कार्यकर्ताओं और आदिवासियों के जानोमाल की माओवादियों से हिफाजत के लिए संघर्ष करने का लोकतांत्रिक हक है। ममता बनर्जी और माओवादी मिलकर माकपा और वाममोर्चे का विरोध करें यह बात समझ में आती है लेकिन वे माकपा सदस्यों का कत्लेआम कर रहे हैं। कम्युनिस्टों की खुलेआम हत्याएं कर रहे हैं और ममता एड कंपनी कम्युनिस्ट हत्यारों को राजनीतिक, कानूनी और आर्थिक मदद दे रहे हैं। इससे भी आश्चर्य की बात यह है कि चिदम्बरम बाबू ने अपने पत्र में माओवादियों के आंकड़े इस्तेमाल किए हैं। राज्य सरकार ने जो आंकड़े दिए हैं और चिदम्बरम् ने जो आंकड़े दिए हैं उनमें अंतर है। कायदे से राज्य के आंकड़े प्रामाणिक हैं क्योंकि कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य की है। कायदे से होना यह चाहिए कि केन्द्र सरकार माओवाद की समस्या को संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ के नजरिए से न देखे। अभी आधिकारिक तौर पर माओवाद की समस्या तीन जिलों में हैं लेकिन राज्य ने इस समस्या से प्रभावित 3 और जिलों को इसमें शामिल करने का कुछ रोज पहले अनुरोध है किया था लेकिन केन्द्र ने उस पर अभी तक सकारात्मक कार्रवाई नहीं की। उलटे माओवादियों के प्रति नरम रूख को व्यक्त करते हुए माओवादियों की मांगों को ही अपने पत्र में लिख डाला। इससे कांग्रेस का माओवादियों के प्रति नरम रूख सामने आया है और यह देश के लिए घातक है।             


ममता के पांच काल्पनिक मिथ और यथार्थ

ममता बनर्जी को मिथ बनाने की आदत है वह उनमें जीती हैं। ममता बनर्जी निर्मित पहला मिथ है माकपा शैतान है। दूसरा मिथ है मैं तारणहार हूँ। तीसरा मिथ है माओवादी हमारे बंधु हैं। चौथा मिथ है हिंसा का जवाब प्रतिहिंसा है और पांचवां मिथ है ‘हरमदवाहिनी’। इन पांचों मिथों का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। छद्म मिथों को बनाना फिर उन्हें सच मानने लगना यही ममता की आयरनी है। यहीं पर उसके पराभव के बीज भी छिपे हैं। ममता बनर्जी अधिनायकवादी भाषा का प्रयोग करती हैं उनकी आदर्श भाषा का नमूना है ‘हरमदवाहिनी’ के नाम से गढ़ा गया मिथ। ‘हरमदवाहिनी’ काल्पनिक सृष्टि है। यह मिथ लालगढ़ में पिट गया है। वहां के साधारण किसान और आदिवासी समझ गए हैं कि इस नाम से पश्चिम बंगाल में कोई संगठन नहीं है। यह थोथा प्रचार है। लालगढ़ में ‘हरमदवाहिनी’ के कैंपों की एक सूची तृणमूल कांग्रेस और माओवादी बांट रहे हैं। इस सूची में 86 कैंपों के नाम हैं और इनमें कितने लोग हैं उनकी संख्या भी बतायी गयी है। उनके अनुसार ये माकपा के गुण्डाशिविर हैं और माकपा के अनुसार ये माओवादी हिंसाचार से पीड़ितों के शरणार्थी शिविर हैं। सच क्या है इसके बारे में सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं। किस कैंप में कितने गुण्डे या शरणार्थी हैं यह आधिकारिक तौर पर कोई नहीं जानता।
    विगत दो साल में माओवादियों ने लालगढ़ में आतंक की सृष्टि की है । 200 से ज्यादा माकपा के निर्दोष सदस्यों और हमदर्दों की हत्याएं की हैं। सैंकड़ों को बेदखल किया है। इनमें से अनेक लोग बड़ी मुश्किल से पुलिसबलों की मदद से अपने घर लौटे हैं। लालगढ़ के विभिन्न इलाके स्वाभाविक छंद में लौट रहे हैं। यह बात ममता एंड कंपनी के गले नहीं उतर रही है। ममता एंड कंपनी ने माकपा के ऊपर लालगढ़ में हमले, लूटपाट, हत्या, औरतों के साथ बलात्कार आदि के जितने भी आरोप लगाए गए हैं वे सब बेबुनियाद हैं। लालगढ़ में एक साल में एक भी ऐसी घटना नहीं घटी है जिसमें माकपा के लोगों ने किसी पर हमला किया हो ,इसके विपरीत माओवादी हिंसाचार ,हत्याकांड,जबरिया चौथ वसूली और स्त्री उत्पीडन की असंख्य घटनाएं मीडिया में सामने आई हैं।
          असल में ममता बनर्जी और माओवादी ‘हरमदवाहिनी’ के मिथ के प्रचार की ओट में लालगढ़ के सच को छिपाना चाहते हैं। उनके पास माकपा या अर्द्ध सैन्यबलों के लालगढ़ ऑपरेशन के दौरान किसी भी किस्म के अत्याचार,उत्पीड़न आदि की जानकारी है तो उसे मीडिया ,केन्द्रीय गृहमंत्री और राज्यपाल को बताना चाहिए। उन्हें उत्पीडि़तों के ठोस प्रमाण देने चाहिए।  उल्लेखनीय है माकपा ने यह कभी नहीं कहा कि उनके लालगढ़ में शिविर नहीं हैं। वे कह रहे हैं उनके शिविर हैं और इनमें माओवादी हिंसा से पीडित शरणार्थी रह रहे हैं। ममता बनर्जी जिन्हें गुण्डाशिविर कह रही हैं वे असल में शरणार्थी शिविर हैं । सवाल उठता है माकपा और वामदलों को लालगढ़ में राजनीति करने हक है या नहीं ? ममता और माओवादी चाहते हैं कि उन्हें लालगढ़ से निकाल बाहर किया जाए। इसके लिए ममता बनर्जी ने माओवादी और पुलिस संत्रास विरोधी कमेटी के हिंसाचार तक का खुला समर्थन किया है।
माकपा के लोग लालगढ़ में हमले कर रहे होते,बलात्कार कर रहे होते.उत्पीड़न कर रहे होते तो कहीं से तो खबर बाहर आती। लालगढ़ से साधारण लोग बाहर के इलाकों की यात्रा कर रहे हैं। प्रतिदिन सैंकड़ों-हजारों लोग इस इलाके से बाहर आ जा रहे हैं। इसके बाबजूद माकपा के द्वारा लालगढ़ में अत्याचार किए जाने की कोई खबर बाहर प्रकाशित नहीं हुई है। कुछ अर्सा पहले ममता बनर्जी की लालगढ़ रैली में लाखों लोग आए थे। माओवादी भी आए थे। ममता बनर्जी ने माकपा के द्वारा  लालगढ़ में सताए गए एक भी व्यक्ति को उस रैली के मंच पर पेश नहीं किया । माओवादियों के दोस्त मेधा पाटकर और अग्निवेश भी मंच पर थे वे भी किसी उत्पीडि़त को पेश नहीं कर पाए। नंदीग्राम में जिस तरह तृणमूल कांग्रेस ने माकपा के अत्याचार के शिकार लोगों को मीडिया के सामने पेश किया था वैसा अभी तक लालगढ़ में वे नहीं कर पाए हैं। मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है कि माकपा साधुओं का दल है। वह संतों का दल नहीं है। वह संगठित कम्युनिस्ट पार्टी है। उसके पास विचाराधारा से लैस कैडरतंत्र है जो उसकी रक्षा के लिए जान निछाबर तक कर सकता है। विचारधारा से लैस कैडर को पछाड़ना बेहद मुश्किल काम है। माकपा के पास गुण्डावाहिनी नहीं है विचारों के हथियारों से लैस पैने-धारदार कैडर हैं। उनके पास पश्चिम बंगाल में हथियारबंद गिरोहों से आत्मरक्षा करने और लड़ने का गाढ़ा अनुभव है। उनके साथ अपराधियों का एकवर्ग भी है। जिनसे वे सहयोग भी लेते हैं। लेकिन लालगढ़ जैसे राजनीतिक ऑपरेशन को सफल बनाने में गुण्डे मदद नहीं कर रहे वहां विचारधारा से लैस कैडर जान जोखिम में डालकर जनता को एकजुट करने और माओवादी हिंसाचार का प्रतिवाद करने का काम कर रहे हैं। माओवादी हिंसा का प्रतिवाद देशभक्ति है ,लोकतंत्र की सबसे बड़ी सेवा है।
   लोकतंत्र में माकपा को अपने जनाधार को बचाने का पूरा हक है। केन्द्र और राज्य सरकार के द्वारा माओवाद के खिलाफ अभियान में माकपा के कैडर लालगढ़ में जनता और पुलिसबलों के बीच में सेतु का काम कर रहे है। वे लालगढ़ में लोकतंत्र को बचाने की कोशिश कर रहे हैं । लोकतंत्र की खातिर मारे जा रहे हैं। वे न गुण्डे हैं और न महज पार्टी मेम्बर हैं। वे लोकतंत्र के रक्षक हैं । लालगढ़ में माकपा की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है और उसका उसे राजनीतिक लाभ भी मिलेगा। ममता जानती हैं कि माओवाद प्रभावित इलाकों में विधानसभा की 46 सीटें हैं और ये सीटें तृणमूल कांग्रेस के प्रभावक्षेत्र के बाहर हैं और इन सीटों पर वे किसी न किसी बहाने सेंधमारी करना चाहती हैं जो फिलहाल संभव नहीं लगती और यही लालगढ़ की दुखती रग है।

विनायकसेन की मुक्ति के लिए फेसबुक वाले एकजुट



जगदीश्वर चतुर्वेदी-  विनायक सेन को आजन्म कैद की सजा सुनाकर जज महोदय ने क्या आधुनिक न्याय विवेक का परिचय दिया है ? मानवाधिकार की न्याय ने एक नयी परिभाषा गढ़ी है और भविष्य में आने वाले खतरों की चेतावनी भी दी है । आपकी क्या राय है
10 hours ago ·  · 
    • Abinash 'Kafir' Mishra मानवाधिकार की ताक पर कानून-व्यस्था को लचीला बनाना क्या भविष्य के खतरोँ को रोकने का सही तरीका है? दंड का आकलन अपराध पर होना चाहिये न कि मानवाधिकार पर, अन्यथा सुव्यस्थित समाज का निर्माण करना कठिन हो जायेगा।
      10 hours ago via Facebook Mobile · 
    • Jagadishwar Chaturvedi जी नहीं,न्याय को मानवाधिकारों के नजरिए से ही देखा जाना चाहिए।
      न्याय का दायरा मानवाधिकारों के तहत है।
      10 hours ago ·  ·  1 person
    • Jagadishwar Chaturvedi अभी जो अव्यवस्था है समाज से लेकर न्याय तक,उसकी धुरी है मानवाधिकारों की चेतना का अभाव।
      10 hours ago · 
    • Abinash 'Kafir' Mishra शायद यही वजह है कि आज अपराध अपना साम्राज्य निडरता से फैला रहा है।
      10 hours ago via Facebook Mobile · 
    • Abinash 'Kafir' Mishra मानवाधिकार के आड में अपराधिक जगत फल फूल रहा है। इस पर नकेल कसने का एक ही जरिया है, कठोर दंड विधान।
      10 hours ago via Facebook Mobile · 
    • Jagadishwar Chaturvedi ऐसा नहीं है। गरीबों के लिए भोजन,काम,पानी आदि की मांग करना अपराध नहीं है। लेकिन यदि कोई इन्हें लेकर संघर्ष करता है तो न्यायाधीश सामने आ जाते है। 144 लेकर।यह नहीं होना चाहिए।
      10 hours ago ·  ·  1 person
    • Deepti Singh दंड का नजरिया सुधारात्मक प्रक्रिया से जुड़ा होना चाहिए दंड मे प्रतिकार कि भावना औए सच को कुचलने की ज़बर्दुस्त कोशिश उसे न्याय और विकास से तो दूर ले ही जाती है लोगो कि आस्था और विश्वास को भी डगमगा देती है
      10 hours ago · 
    • Abinash 'Kafir' Mishra ‎'कागजी बकवास' करना आसान होता है। इतिहास गवाह है कि कोई प्रणाली बिना सहयोग के सफल नहीं हो सकती। भारत जैसे देश में 'स्वंय हिताय, स्वंय बचाव' के अलावा मानवाधिकार और कुछ नहीं है। इसका सफल प्रयोग सामंत और नेता बखुबी कर रहे हैं।
      10 hours ago via Facebook Mobile · 
    • Jagadishwar Chaturvedi समाज की रक्षा के सामूहिकबोध को केन्द्र में लाना होगा। निजता के परे जाकर ही यह काम संभव है।मानवाधिकार निजी रक्षा की चीज नहीं है यह सामाजिक रक्षा की चीज है।
      10 hours ago ·  ·  1 person
    • Abinash 'Kafir' Mishra इसे आमलोगोँ से दूर रखना अधिक सही होगा नहीं तो इसका दोहन वहाँ भी होगा।
      10 hours ago via Facebook Mobile · 
    • Jagadishwar Chaturvedi बंधुवर, मानवाधिकार आम लोगों की चीज है। अमीरों की नहीं,उनके पास तो हक हैं।
      10 hours ago · 
    • Abinash 'Kafir' Mishra जी, लेकिन राम-राज्य संभव नहीं है
      10 hours ago via Facebook Mobile · 
    • मैं दहशत गर्द था मरने पे बेटा बोल सकता है
      हुकूमत के इशारे पे तो मुर्दा बोल सकता है
      बहुत से कुर्सियां इस मुल्क मै लाशो पे रखी है
      ये वो सच है जिसे झूठे से झूठा बोल सकता है
      सियासत कि कसौटी पे परखिये मत वफादारी
      किसी दिन इन्त्कामन कोई गूंगा बोल सकता है

      10 hours ago ·  ·  1 person
    • Jagadishwar Chaturvedi राम राज्य नहीं विवेकपूर्ण राज्य की बात हो रही है।रामराज्य किसी को नहीं चाहिए।
      10 hours ago · 
    • K Lal Hindustani NO COMMENT ON JUDICIARY,HE CAN APPEAL TO A HIGHER COURT
      10 hours ago · 
    • Abinash 'Kafir' Mishra अगर मानवाधिकार को कानुन से उपर रख देंगे तो उससे पैदा होने वाले संकट पर नकेल कोन कसेगा?
      9 hours ago via Facebook Mobile · 
    • Jagadishwar Chaturvedi बंधुवर,न्याय की समीक्षा तो होनी ही चाहिए। वह ऊपर का न्याय हो या निचली अदालत का।
      9 hours ago · 
    • Deepti Singh isse neechli adalto ki jammedaariyan kam nahi hoti....justice delayed is justice denied
      9 hours ago · 
    • Abinash 'Kafir' Mishra तो क्या अपराधी को वरियता प्रदान करना सही है?
      9 hours ago via Facebook Mobile · 
    • Jagadishwar Chaturvedi एक और बात है कि न्याय मिले,समय पर मिले, देर से भी मिले कम से कम न्याय तो मिले।देर से भी अधिकांश मामलों में न्याय नहीं मिलता।
      9 hours ago · 
    • Jagadishwar Chaturvedi बंधु, मानवाधिकार की मांग अपराध नहीं है। सेन साहब के मामले की यही तो मुश्किल है।
      9 hours ago · 
    • K Lal Hindustani What we can do except to wait for final justice having full faith in it and democracy
      9 hours ago · 
    • Abinash 'Kafir' Mishra क्या दंड के बिना एक विबेकपूर्ण राज्य कायम हो सकता है?
      9 hours ago via Facebook Mobile · 
    • Jagadishwar Chaturvedi आस्था रहे ,साथ में लोकतंत्र और मानवाधिकारों के लिए सामाजिक दबाब भी पैदा करें।जिससे जजों के दिमाग की भी धुलाई हो। हम क्यों मान रहे हैं कि जज दूध के धुले हैं। उनमें भी पिछड़े मूल्यों के जज हैं।
      9 hours ago · 
    • Shyam Ji Pathak bahut galat faisla kiya hai, hum sub ko milker iske khilaf apni awaz buland karni chaiye
      9 hours ago · 
    • सुना है हाकिम सारे दीवाने अब ज़िंदां के हवाले होगे

      सारे जिनकी आँख ख़ुली है
      सारे जिनके लब ख़ुलते हैं
      सारे जिनको सच से प्यार
      सारे जिनको मुल्क़ से प्यार
      और वे सारे जिनके हाथों में सपनों के हथियार
      सब ज़िंदां के हवाले होंगे!

      ज़ुर्म को अब जो ज़ुर्म कहेंगे
      देख के सब जो चुप न रहेगें
      जो इस अंधी दौड़ से बाहर
      बिन पैसों के काम करेंगे
      और दिखायेंगे जो पूंजी के चेहरे के पीछे का चेहरा
      सब ज़िंदां के हवाले होंगे

      जिनके सीनों में आग बची है
      जिन होठों में फरियाद बची है
      इन काले घने अंधेरों में भी
      इक उजियारे की आस बची है
      और सभी जिनके ख़्वाबों में इंक़लाब की बात बची है
      सब ज़िंदां के हवाले होंगे

      आओ हाकिम आगे आओ
      पुलिस, फौज, हथियार लिये
      पूंजी की ताक़त ख़ूंखार
      और धर्म की धार लिये
      हम दीवाने तैयार यहां है हर ज़ुर्म तुम्हारा सहने को
      इस ज़िंदां में कितनी जगह है!

      कितने जिंदां हम दीवानों के
      ख़ौफ़ से डरकर बिखर गये
      कितने मुसोलिनी, कितने हिटलर
      देखो तो सारे किधर गये
      और तुम्हें भी जाना वहीं हैं वक़्त भले ही लग जाये
      फिर तुम ही ज़िंदां में होगे

      9 hours ago ·  ·  2 people
    • Abinash 'Kafir' Mishra सही न्याय से ज्यादा गलत न्याय दिलाने में इसकी ज्यादा भूमिका है। यह मात्र सामंतों की हितैसी है।
      9 hours ago via Facebook Mobile · 
    • Jagadishwar Chaturvedi असल समस्या यह है कि हमारा मध्यवर्ग विवेकपूर्ण और मानवाधिकारपूर्ण चेतना से लैस नहीं है,वरना कोई जज मानवाधिकारों के खिलाफ लिखने का साहस ही नहीं करता।
      9 hours ago ·  ·  1 person
    • विनायक सेन साहब को सजा देना बिलकुल गलत है.........आज विनायक सेन साहब जैसे देश और समाज के खम्भे की जरूरत है जिससे सभी खम्भों के सड़ जाने के बाद भी ये गणतंत्र जिन्दा रहे ..इन साले भ्रष्ट कुकर्मी मंत्री और उद्योगपतियों को विनायक सेन साहब जैसे लोग ही ठीक कर सकते हैं.........इस देश में भ्रष्ट मंत्रियों और कुकर्मी उद्योगपतियों को सरे आम गोली मारने वाले के लिए इनाम और सम्मान की व्यवस्था किये जाने की जरूरत है...क्योकि इन कुकर्मियों के वजह से न सिर्फ मानवाधिकार बल्कि समूची मानव जाती खतरे में है.....सामाजिक कार्यकर्ताओं को सजा तय करते वक्त जाँच अधिकारी तथा सजा सुनाने वाले जजों की संपत्ति और चरित्र की भी सूक्ष्म जाँच की भी आवश्यकता है....आज न्याय पालिका अच्छे,सच्चे,देशभक्त और इमानदार लोगों के फायदे के लिए कम बल्कि अपराधियों और भ्रष्ट कुकर्मियों के फायदे के लिए ज्यादा काम कर रही है....

      9 hours ago · 
    • Abinash 'Kafir' Mishra भ्रष्टता को रोकने के लिये भ्रष्टता का सहारा क्योँ? खिलवाड संविधान के साथ भी हो रहा है उसका क्या
      9 hours ago via Facebook Mobile · 
    • Jagadishwar Chaturvedi यह ठीक कहा आपने
      9 hours ago · 
    • Abinash 'Kafir' Mishra सही गलत का फैसला किस आधार पर?
      9 hours ago via Facebook Mobile · 
    • Jagadishwar Chaturvedi न्याय बुद्धिऔर समानता के आधार पर।
      9 hours ago · 
    • Hitendra Patel यह दुर्भाग्यपूर्ण है. अगर कानूनी हिसाब से सजा देना मुनासिब भी होता हो तो भी इस प्रकार का दण्ड दिया जाना अंग्रेजी राज की तरह का "न्याय" है.
      9 hours ago ·  ·  1 person
    • Abinash 'Kafir' Mishra हम अपने अधिकारों द्वारा किसी का चुनाव करते हैं लेकिन क्या मैंने अपने अधिकारों का सही प्रयोग किया है? अगर नहीं तो उसके दुष्परिणामों से कौंन बचायेगा? निश्चय ही कानुन।
      9 hours ago via Facebook Mobile · 
    • Abinash 'Kafir' Mishra तो फिर क्यों जेलों में व्यस्था समानता के आधार पर नहीं होता? उसका जिम्मेदार अधिकार ही है जो पैसे और ताकत पर बिक जाता है।
      9 hours ago via Facebook Mobile · 
    • Jagadishwar Chaturvedi सही कहा।
      9 hours ago · 
    • Madan Agrawal डॉ.विनायक सेन जेसे व्यक्ति को राजद्रोह के आरोप में उम्र केद देकर भ्रष्ट राजनेताओ एवम न्यायपालिका ने वही किया /जो अब तक करते आ रहे एवम हमेशा सफल भी हे /तभी तो असली देश गद्दार मंचो पर विराजमान मिलते /आम आदमी की हिम्मत नही होती आवाज उठाने की
      9 hours ago · 
    • Why DR ABC or D should made FREE from the jail….....Our we a free nation?? Yes I can say with proud that we live in a free and democratic nation…no doubt foa any one.. A session court in trial held Dr Vinayak guilty for sedition and announced LIFE IMPRISONMENT…..what wrong... Maoist, naxalism sympathiser and so called progressive news channels starts campaign to criticise court judgment, I feel shame for all of them on name of democracy and independence.....Best way to them is that in places of making hue and cry over pronounced court judgment, in a salient manner they appeal in country's higher court for further relief…But reality is that for smooth function for corporate or government office, an state headed by the Congress, BJP or a left.... or own home requires foa a unique Dandaman…. shouting slogan to make free XYZ…an waste exercise…

      8 hours ago ·  ·  1 person
    • कल कोलकाता में एक प्रोटेस्ट सभा हूई। जिसे अपर्णा सेन ,मेधा पाटकर सहित कई लोगों ने सम्बोधित किया। फिर एक मौन जूलुस निकला जो मेट्रो चैनल तक गया। कुछ तथ्य: 1. ये आजीवन कैद 14या 20 साल की नहीं है,सचमुच आजीवन है।2. जिस जज ने ये फैसला सुनाया वे रेगुलर जज नहीं हैं,किसी के छुट्टी पर चले जाने की वजह से यहां थे।3. जिस चिरकुट पर दस्तखत करके आप किसी विचारधीन कैदी से मिलने की इजाजत पाते हैं-उस पर दो प्रावधान होते है,या तो कहिये कि आप उसके मित्र हैं या रिश्तेदार्। नारायण सान्याल से मिलने वाले विनायक 'मित्र' लिखते थे। इस आधार पर उन्हें अदालत ने जुर्म में शरीक पाया।4.उन्हें ठीक कहां से किन परिसिथतियों में गिरफतार किया गया,यह पुलिस नहीं बता पा रही। केवल संदेह पर यह हुआ।5.उनकी जेब में एक चिरकुट मिला,बगैर दस्तखत के ,इसे पुलिस साक्ष्य रुप में पेश कर रही है,जो कि गैरकानूनी है। 6.एक राहगीर ,अनिल सिंह से विटनेस करवाया गया,उसकी 'ओवरहियरिंग' के ब्यान के आधार पर यह सब हुआ। इस तरह की तमाम असंगतियों पर 'न्याय' हुआ।
      मुझे लगता है यह फैसला तो उच्च अदालत में टिक नहीं पायेगा लेकिन सरकार एक मेसेज देना चाह रही है,चेतावनी। हमारे लिये मौका है कि हम अगले हमले के पहले तैय्यारी में जुट जायें।

      8 hours ago · 
    • Jagadishwar Chaturvedi सही लिखा है आपने।
      8 hours ago · 

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         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...