भारत में जनजातियों की दुनिया वैविध्यपूर्ण है। उसके बारे में इकसारभाव से सोचने से सही नीति नहीं बायी जा सकती है। विभिन्न इलाकों में जनजातियों की समस्या,मूल बाशिंदों की अवस्था, स्थानान्तरित जनजातियों की स्थिति ,संस्कार,धर्म आदि में अंतर है। भारत में जो लोग ‘इनडिजिनस पीपुल’ पदबंध के इस्तेमाल जनजातियों के संदर्भ में करते हैं। उनमें ज्यादातर स्वयंसेवी संगठनों के लोग हैं। यह पदबंध संयुक्त राष्ट्र संघ के इण्डिजिनस पीपुल के अध्ययन के लिए बनाए वर्किंग ग्रुप की धारणा का अंधानुकरण है। इसमें यूरोपीय पूर्वाग्रह हैं। ‘इण्डिजिनस पीपुल’ और ‘राष्ट्र’ वे हैं जिनमें हमलों के पहले या ब्रिटिश औपनिवेशिक समाज के आने के पूर्व ऐतिहासिक निरंतरता हो। उन्होंने अपना क्षेत्र विकसित कर लिया हो। वे अपने को समाज के अन्य समुदायों से भिन्न मानते हों। साथ ही वे जिस क्षेत्र में रहते हों वह उनके क्षेत्र के दायरे में आता हो। ये लोग अपने को मौजूदा समय में गैर वर्चस्वशाली समूह के रूप में अपनी पहचान,संस्कृति,क्षेत्र,आदतें,सामाजिक संस्थान, कानून और एथनिक पहचान को बनाए रखना चाहते हैं। आदिवासी इलाकों में रहने वाली सभी जनजातियां मूल जनजतियां नहीं हैं। इसी तरह सभी जनजातियों को आदिवासी के एक ही धागे में बांधना भी सही नहीं होग। सभी जनजातियों को आदिवासी के एक ही धागे में बांधने का काम यूरेपीय देशों के फंड़ से चलने वाले स्वयंसेवी संगठन कर रहे हैं। उनके इस काम से जनजातियों में टकराव बढ़ा है। स्वयंसेवी संगठन भारत सरकार पर दबाब डालते रहे हैं कि सभी जनजातियों को आदिवासी के रीप में देखा जाए। इस तरह के संगठव छत्तीसगढ़,झारखंड और दिल्ली में बड़ी संख्या में सक्रिय हैं इनके सिरमौर हैं मेधा पाटकर-अरूंधती राय-महाश्वेता देवी आदि। इन संगठनों के आदिवासी संघर्षो ने विभिन्न इलाकों में जनजातियों में टकराव की स्थिति पैदा की है। ज्यातर आदिवासी संगठनों की मांग है शिड्यूल ट्राइव या जनजाति सूची में आदिवासियों के नाम शामिल न किए जाएं। खासकर असम में यह चीज दर्ज की गयी है। ( विस्तार से अध्ययन के लिए देखें- Kar, R.K. and Sharma, K.L., 1990, “Ethnic Identity of Tea Labour: A Case Study in Assam” in D. Pakem (ed.) Nationality, Ethnicity and Cultural Identity in North-East India; New Delhi)
असम में ऐसी आबादी कुल आबादी का 20 प्रतिशत है। यानी 40 लाख से ज्यादा लोग है जो आदिवासी हैं। जबकि बोडो 27 लाख हैं। समूचे उत्तर-पूर्व में जनजातियों की आबादी 80 लाख है। यदि आदिवासियों को जनजाति में शामिल कर लिया जाएगा तो उत्तर-पूर्व में जनजातियों की संख्या में 50 फीसदी की वृद्धि हो जाएगी। वे कुल संख्या का तीसरा हिस्सा हो जाएंगे। अनेक जनजातियां इससे घबडायी हुई हैं। अनेक जनजातियों नौकरियों में आरक्षण की सुविधा और संसाधनों से वंचित हो जाने से डरी हुई हैं। जनजाति के लोग नहीं चाहते कि आदिवासियों को जनजाति सूची में शामिल किया जाए। वे मानते हैं कि आदिवासी बाहरी लोग हैं और उन्हें झारखंड बगैरह से लाकर खेती आदि कराने के लिए ब्रिटिश शासकों ने बसाया था ,उन्हें जमीन दी थी। इसी अर्थ में ‘इंडिजिनस पीपुल’ या आदिवासी पदबंध विवादास्पद और विभ्रम पैदा करने वाला है।
उल्लेखनीय है कि सन् 1941की जनगणना में ‘ट्राइवल’ पहलीबार परिभाषित किया गया। इसमें उनकी धार्मिक आस्था को आधार बनाया गया। उसके पहले ‘ट्राइवल’ को हिन्दू धर्म के मानने वाले के रूप में पेश किया जा रहा था। यह मान लिया गया था कि जिन आदिम जातियों का कोई धर्म नहीं है वे सब हिन्दू हैं,क्योंकि हिन्दू धर्म सबसे पुराना धर्म है। ब्रिटिश शासन में जितने भी सेंशस हुए उनमें 1941 को छोड़कर बाकी सभी जनगणना रिपोर्ट में धर्म एक महत्वपूर्ण आधार था। सन् 1931 के सेंशस तक आदिवासियों को ‘एनीमिस्ट’ के नाम से वर्गीकृत किया जाता था। सन् 1931 में पहलीबार ‘ट्राइवल रिलीजन’ पदबंध दाखिल होता है। आदिवासियों के संदर्भ में मुख्य दिक्कत तब आयी जब आदिवासी धर्म और हिन्दू धर्म के बीच संबंधों को परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस की गयी। आदिवासी धर्म से भिन्न हिन्दू धर्म को माना गया। यह माना जाता है कि आदिवासी धर्म अति विकसित और पुराना है उसकी तुलना में हिन्दू धर्म नया है और पिछड़ा है। हिन्दू धर्म की विशेषता है कि यह प्रतिगामी है,पर्वेसिव है। यह अपने अंदर प्रत्येक चीज को समाहित कर लेता है। यह इतना तथाकथित उदार है कि इसका किसी भी समुदाय में प्रवेश हो सकता है। यदि कोई आदिवासी समूह अपने मूल धर्म को न जानता हो तो हिन्दू धर्म आसानी से उस आदिवासी समूह को प्राचीन धर्म होने के नाते अपने नाम से विभूषित कर सकता है। सन् 1909 को भारत में महत्वपूर्ण कह सकते हैं क्योंकि इस साल भिन्न किस्म के धर्म के मानने वालों की गणना आरंभ हुई। भारत में वोट देने वाले भिन्न धर्म के मानने वाले कितने हैं, इसकी गणना आरंभ हुई तो उस समय हिन्दू संगठनों ने उन तमाम जातियों-जनजातियों को हिन्दू धर्म में शामिल करा दिया जिनको अपने धर्म के बारे में जरा सा भी संदेह था। यह चीज कालांतर में 1931 की जनगणना में दिखाई देता है। ‘हिन्दू ही आदिवासी हैं’ का नारा लगाते हुए मुम्बई की 90 प्रतिशत और चेन्नई की 50 प्रतिशत आबादी आदिवासी लिखा दी गयी।
सन् 1881 में जब पहली व्यवस्थित जनगणना हुई थी तब उसमें ‘ट्राइव’ पदबंध का इस्तेमाल नहीं किया गया था,बल्कि ‘फोरेस्ट ट्राइव’ पदबंध का इस्तेमाल किया गया था। इसमें अनेक उपशीर्षक भी रखे गए थे। उसमें कृषि और पशुपालन करने वाली जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है। 1901 और 1911 की जनगणना में ‘तथाकथित-पशुजीवी’ जाति नाम रखा गया था। बाद में 1921 में यह केटेगरी बदल दी गयी और ‘पशुजीवी’ की जगह ‘ट्राइवल रिलीजन’ पदबंध का इस्तेमाल किया गया। बाद में प्रसिद्ध समाजविज्ञानी घुर्ये ने आदिवासियों ‘पिछडे हिन्दू’ के नाम से वर्गीकृत किया। यही वह प्रक्रिया है जिसमें आदिवासियों को जाति के रूप में व्याख्यायित करने का समूचा प्रपंच खड़ा किया गया। आजादी के बाद समाजविज्ञानियों ने जाति और आदिवासी इन दोनों को अलग करके देखने का वैज्ञानिक आधारों पर प्रयास किया और नए किस्म की अवधारणाएं बनायीं। ब्रिटिश समाजविज्ञानियों ने ‘जाति’ और ‘आदिवासी’, ‘धर्म’ और ‘आदिवासी’ में गड्डमड्ड किया। जिसे स्वाधीनता के बाद दुरूस्त करके नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश की गयी और यह माना गया कि ‘जाति’ और ‘आदिवासी’ दो भिन्न किस्म के सामाजिक संगठन का प्रतिनिधित्व करते हैं। जाति वंशानुगत श्रम विभाजन ,छोटे-बड़े का भेद,शुद्धता,अपवित्रता,धार्मिक और नागरिक अपंगता आदि पर आधारित है, जबकि आदिवासियों वे लक्षण नहीं होते जो जाति में होते हैं। जाति और आदिवासी नामक दोनों सामाजिक संगठन दो भिन्न किस्म के नियमों से संचालित हैं। आदिवासियों में ‘ किंनशिप’ संबंध होते हैं। इसके बंधनों में वे बंधे होते हैं। आदिवासियों में ‘क्लॉन’ मूल ईकाई है। वही इसके उपभोग और स्वामित्व की स्वामी है, इसमें अन्य से प्रत्येक व्यक्ति की समानता पर जोर है। इसके विपरीत जाति समाज में असमानता ,परनिर्भरता और मातहत भाव है। इसी तरह जाति और आदिवासी में धर्म के उपयोगी और अनुपयोगी रूपों को लेकर भी भेद है। आदिवासियों और जाति में आनंद,मनोरंजन,सेक्स,मद्यपान,नृत्य,वाद्य आदि को लेकर भी भिन्न किस्म की आदतें हैं। जाति के लोगों में इन सब चीजों को लेकर तरह-तरह की रूढ़ियां चलन में हैं। आदिवासियों को हमेशा से हिन्दू समाज अथवा मुख्यधारा के समाज से बाहर रखा गया है। आदिवासियों की पहचान का आधार राजनीतिक-प्रशासनिक है। हमें कायदे से आदिवासी की अवधारणा पर आलोचनात्मक ढ़ंग से विचार करना चाहिए। ब्रिटिश शासन में आदिवासियों और मुख्य समाज के बीच के अन्तस्संबंध और संपर्क पर ध्यान नहीं दिया गया जबकि आजाद भारत में आदिवासियों और बाकी समाज के बीच के अन्तस्संबंधों पर ध्यान दिया गया। आदिवासियों को जब आप मुख्यधारा के समाज के साथ संपर्क-संबंध बनाते हुए देखते हैं तो आदिवासी जीवन की अपरिवर्तनीय छबि टूटती है और आदिवासी परिवर्तन की छबि सामने आती है। आदिवासी जब मुख्यधारा के समाज से जुड़ते हैं तो सभ्यता में अन्तर्भुक्त होते चले जाते हैं। आदिवासियों के अतीत को लेकर किए गए तमाम अनुसंधान इसकी पुष्टि करते हैं।डीडी कोसाम्बी से लेकर एन के बोस तक का समस्त सामाजिक शोध इस बात की पुष्टि करता है कि आदिवासियों को बाकी समाज या हिन्दू समाज अपने अंदर का हिस्सा बनाता रहा है। उन्हें जाति में तब्दील करता रहा है। यह भी तथ्य सामने आए हैं कि आदिवासी जाति के लोगों ने जाति में अपने को रूपान्तरित कर लिया है और जाति के नियम-कायदे मानने लगे हैं और उन्हें हिन्दू किसानों में गिना जाने लगा है। ऐसी जनजातियों में भील,भूमीज्स,माझी,खासास,राज-गोंडस आदि के नाम लिए जा सकते हैं। अधिकांश मानवविज्ञानियों का लेखन यही तथ्य रेखांकित करता हैं कि जनजातियों का जाति में रूपान्तरण हुआ है। राय-बर्मन (1972) में आदिवासी उन्हें माना जो (1) हिन्दूसमाज में शामिल हैं। (2) जिनका सकारात्मक ढ़ंग से हिन्दू समाजीकरण हो चुका है, (3) जिनका नकारात्मक ढ़ंग से नजरिया बना है, (4)जो हिन्दू समाज से अलग हैं। विद्यार्थी ने लिखा कि आदिवासी वह है जो वन में रहे। गांव में रहे। अर्द्ध विकसित क्षेत्र में रहे। इल्विन (1944)ने लिखा कि आदिवासी वह है जो सबसे शुद्ध हो। वह ऐसा ग्रुप है जो मैदानी इलाकों में रहने वालों के संपर्क में हो और आदिवासी जीवनशैली में रहता हो। डीडी कोसाम्बी (1975) ने लिखा है कि आदिवासियों के द्वारा हिन्दू समाज की तकनीक अपनाने के कारण बड़े पैमाने पर मौजूदा उत्पादन प्रणाली में उन्हें आत्मसात कर लिया गया। आदिवासी गैर प्रतिस्पर्धी व्यवस्था में रखे गए ,इसके कारण उन्हें संरक्षण भी दिया गया। संस्कृतिकरण दूसरा मैथड था जिसके आधार पर आदिवासियों को हिन्दू समाज का हिस्सा बनाया गया। आदिवासियों के रूपान्तरण का तीसरा रूप है आदिवासी राज्य का उदय। जो लोग आदिवासी राज्य की धारणा पर जोर देते रहे हैं उनका मानना है कि आदिवासी जाति या जनजाति या संस्कृतिकरण के सही आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं अतः राज्य के व्यापक सदर्भ में आदिवासियोंका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। एक अन्य समस्या है कि जो आदिवासी समूह या व्यक्ति आधुनिक राज्य ,शिक्षा, संस्थान,नौकरी और बाजार के संपर्क में आ चुके हैं और अपना जनजाति समूह और इलाका त्याग चुके हैं। वे क्या अब भी आदिवासी की कोटि में रखे जाने के लायक हैं। आजादी के बाद जो आदिवासी बच्चे सभी किस्म की आरक्षण सुविधाएं प्राप्त करके दूसरी -तीसरी पीढ़ी में नगरजीवन जी रहे हैं क्या उन्हें आदिवासी कहना सही होगा ?
जिस आदिवासी का संस्कृतिकरण-हिन्दूकरण और नगरीकरण हो चुका है क्या वह अभी भी आदिवासी है ? संस्कृतिकरण ने जनजाति को जाति में बदला है, क्या जाति का भी रूपान्तरण हो रहा है या नहीं ? उपभोग की संस्कृति के विस्तार ने जाति के बंधनों और मान्यताओं को कमजोर करना आरंभ कर दिया है। उपभोक्तावाद ने सभी किस्म के धार्मिक-सामाजिक मतभेदों को मासकल्चर के अदीन कर दिया है। अब आदिवासी संस्कृति का तंजी सं मासकल्चर में रूपान्तरण हो रहा है। आदिवासियों की जीवनशैली से जुड़ी वस्तुएं शहरी मध्यवर्ग के ड्राइंग रूम में सजावट की वस्तुओं के रूप में घुस आई हैं। आदिवासी जीवनशैली की प्रत्येक वस्तु आज मासकल्चर का शानदार माल है। आदिवासी गहनों से लेकर भालों तक,चटाई से लेकर चोटी तक सभी चीजें मासकल्चर का अंग हैं। ग्लोबल-लोकल के द्वंद्व में आदिवासी की संस्कृति का आदिवासी इलाकों,देश और भाषा की सीमाओं के पार बाजार और उपभोक्ता तैयार हो गया है। अब आदिवासी संस्कृति की विशिष्टता को मासकल्चर ने वस्तु और माल में तब्दील कर दिया है। यह रूपान्तरण आदिवासियों की निजता और विशिष्टता को तेजी से खत्म कर रहा है। आदिवासी भी अब एक उपभोक्ता मात्र बनकर रह गया है।
मासकल्चर के दौर में आदिवासियों में जाति संस्कृति कम मासकल्चर ज्यादा फलेगी-फूलेगी। इसके कारण सामाजिक तनाव पैदा होंगे। आदिवासियों में छद्मशत्रु से लड़ाईयां बढ़ेंगी। आदिवासियों की संस्कृति की निजता और विशिष्टता के लिए खतरा किसी अन्य जाति के लोगों से नहीं है बल्कि मासकल्चर से है.पूंजीवाद से है। मुश्किल यह है कि आदिवासियों में इसकी गलत समझ का ज्यादा प्रचार हो रहा है। आम तौर पर आदिवासी अपने शत्रु के रूप में गैर आदिवासी या अन्य जनजाति के लोगों को देख रहे हैं। इसके कारण उत्तर-पूर्व के राज्यों में जनजातियों के बीच आए दिन खूनी झगड़े होते रहते हैं। आदिवासियों का विकास हो इसके लिए जरूरी है कि उन्हें पूंजीवाद की साझा संरचनाओं,उपभोग,उत्पादन,संस्कार आदि की संगतियों में लाया जाए। आदिवासियों में किस तरह की जीवनशैली होगी, किस तरह के संस्कार,आचार-विचार होंगे यह वे ही तय करें। लेकिन आधुनिक शिक्षा के वातावरण की रोशनी उनके दरवाजों तक पहुँचे। लोकतंत्र की प्रक्रिया से जुड़ी संरचनाएं और लोकतांत्रिक कानून व्यवस्था उनके गांवों तक पहुँचे। राज्य और अन्य जातियों के साथ उनके टकराव की नहीं सहयोग की जरूरत है। आदिवासियों पर किसी के वर्चस्व की नहीं समानतावादी भावबोध की जरूरत है।
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