मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

सूचना समाज की नयी भाषा को पहचानो

             
 सोवियत संघ के पराभव के बाद  सारी दुनिया में मार्क्सवादी चिंतकों को करारे वैचारिक सदमे और अनिश्चितता से गुजरना पड़ा है। सूचना समाज किस तरह वैचारिक विपर्यय पैदा कर सकता है इसके बारे में कभी विचार ही नहीं किया गया। अधिकांश समाजवादी विचारक इसे सामान्य और एक रूटिन परिवर्तन मानकर चल रहे थे। वे यह भी देखने में असमर्थ रहे कि परवर्ती पूंजीवादी मॉडल को लागू किए जाने के बाद मार्क्सवाद का भी रूप बदलेगा। पुराने किस्म का मार्क्सवाद चलने वाला नहीं है। लेकिन अनेक विचारकों के यह बात गले नहीं उतर रही है। एक तरफ मीडिया में समाजवाद विरोधी उन्माद और दूसरी ओर सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ की धड़कनों का हाथ में न आना, यही वह बिडम्वना थी जिसने मार्क्सवादियों को हतप्रभ अवस्था में पहुँचा दिया। सूचना समाज में मार्क्सवाद की प्रकृति और भूमिका एकदम बदल गयी है। राजनीतिक प्रतिवाद की शक्ल बदल गयी है। लोगों को जोड़ने और उनसे संवाद करने और संपर्क करने के तरीके बदल गए। सूचना समाज आने के पहले राजनीतिक मुहावरे,पदबंध आदि संचार के हथकंड़े के रूप में इस्तेमाल किए जाते थे। सूचना समाज के जन्म के साथ ही राजनीतिक पदबंधों और मुहावरों की जगह सांस्कृतिक पदबंधों और मुहावरों ने ले ली। अब सारी चीजें वस्तुओं और उपभोक्तावादी तत्वों के जरिए व्याख्यायित होने लगीं। साहित्य से लेकर राजनीति तक सब जगह उपभोक्तावाद की भाषा और मुहावरे चले आए। मसलन पहले नामवर सिंह की तुलना आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के साथ की जाती थी नए दौर में उनकी तुलना अमिताभबच्चन से होने लगी। प्रसिद्ध आलोचक सुधीश पचौरी ने उन्हें हिन्दी के अमिताभ बच्चन के नाम से पुकारा। कहने का अर्थ यह है कि सूचना समाज अपने साथ नया यथार्थ और नयी भाषा लेकर आया है और इस नए यथार्थ को पढ़ने के लिए नए किस्म की सैद्धांतिकी की भी जरूरत है। इसी प्रसंग में प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक फ्रेडरिक जेम्सन ने मार्क्सवाद की पांचवी थीसिस में लिखा  ‘‘राजनीतिक तथा आर्थिक दोनों क्षेत्रों के लिए संस्कृति का बढ़ता हुआ महत्व इन क्षेत्रों के सोद्देश्यमूलक अलगाव या विभेदीकरण का परिणाम नहीं, बल्कि स्वयं जिन्सीकरण (कोमोडिफिकेशन) की अपेक्षाकृत अधिक विश्वव्यापी संतृप्ति और प्रवेश है। जिन्सीकरण अब उस सांस्कृतिक क्षेत्र के उन विशाल क्षेत्रों को अपना उपनिवेश बनाने में सक्षम हो गया है, जो क्षेत्र अब तक इससे बचे थे और सचमुच इसके विरुध्द या इसके तर्क से असहमत थे। यह तथ्य कि संस्कृति आज अधिकांशतया व्यवसाय में बदल गई है, इसका परिणाम यह हुआ है कि अधिकांश चीजें जो पहले विशिष्ट रूप से आर्थिक और वाणिज्यिक समझी जाती थी, वे भी अब सांस्कृतिक बन गई हैं, यह ऐसी व्याख्या है जिसमें इमेज सोसायटी या उपभोक्तावाद के विभिन्न निदानों को शामिल करने की आवश्यकता है।’’
‘‘इस प्रकार के विश्लेषण, मसलन जिन्सीकरण (कामोडिफिकेशन) की अवधारणा संरचनात्मक और गैर-उपदेशात्मक, में अपेक्षाकृत अधिक सामान्य रूप में मार्क्सवाद को सैध्दांतिक बढ़त हासिल है। नैतिक मनोवेग राजनीतिक कार्रवाई उत्पन्न करता है लेकिन यह बहुत ही क्षणिक होती है जो शीघ्र ही पुनर्समाहित और पुनर्शमित हो जाती है। यह अपने विशिष्ट विषयों को अन्य आंदोलनों के साथ बांटने के लिए शायद ही प्रवृत्त होती है। लेकिन केवल इस प्रकार के संलयन और निर्माण द्वारा ही राजनीतिक आंदोलनों का विकास और विस्तार संभव है। सचमुच मैं इस मुद्दे को दूसरी तरह से कहना चाहूंगा कि उपदेशपरक राजनीति में वहीं विकसित होने की प्रवृत्ति होती है जहां संरचनात्मक संज्ञान और समाज का मानचित्रण (मैपिंग) अवरुध्द होता है। समाजवाद के असफल होने का बोध होने पर उत्पन्न आक्रोश को आज के संजातीय और धार्मिक प्रभुत्व के रूप में, उस शून्य को नए अभिप्रेरकों से भरने के एक हताश अंध प्रयास के रूप में देखा जा सकता है।’’
‘‘जहां तक उपभोक्तावाद का संबंध है, यह आशा की जा सकती है कि यदि इसके स्थान पर जान बूझकर कुछ और बिलकुल भिन्न चीज चुनना हो तो यह ऐतिहासिक रूप में उतना ही महत्वपूर्ण सिध्द होगा जितना कि मानव समाज को एक जीवन शैली के रूप में उपभोक्तावाद के अनुभवों से गुजरना। लेकिन विश्व के अधिकांश के लिए उपभोक्तावाद के व्यसन वस्तुनिष्ठ रूप में उपलब्ध नहीं होंगे, तब यह संभव प्रतीत होता है कि 1960 के दशक की रैडिकल थ्योरी का दूरदर्शितापूर्ण निदान : कि पूजीवाद स्वयं ठीक उसी रूप में एक क्रांतिकारी शक्ति है जिस रूप में यह नई आवश्यकताओं और इच्छाओं को जन्म देता है लेकिन जिनकी पूर्ति यह नहीं कर सकता है : नई विश्व व्यवस्था के विश्व स्तर पर प्राप्त होगा।’’
‘‘सैध्दांतिक स्तर पर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में स्थायी संरचनात्मक बेरोजगारी, वित्तीय सट्टेबाजी और अनियंत्रणीय पूंजी संचलन, इमेज सोसाइटी के ज्वलंत मुद्दे व्यापक रूप में उस स्तर पर एक दूसरे से अंतर्संबंधित हैं जिसे उनकी अंतर्वस्तु, उनके अमूर्तन का अभाव (ठीक उसके विपरीत जिसे किसी अन्य काल में उनका 'आत्मनिर्वासन' (एलीनेशन) कहा जाता) कहा जा सकता है। जब हम विश्वीकरण एवं सूचनाकरण (इनफार्मेटाइजेशन) जैसे मुद्दों को जोड़ने का प्रयास करते हैं तो द्वंद्वात्मकता का और भी विरोधाभासी स्तर मिलता है। जब नए विश्व नेटवर्कों (वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों) की राजनीतिक और विचारधारात्मक संभावनाओं को आज के विश्व तंत्र की स्वायत्तता के लोप तथा किसी राष्ट्र या क्षेत्र की अपनी स्वायत्तता और अस्तित्व प्राप्त करने की असंभावना या स्वयं को विश्व बाजार से अलग करने की असंभावना के साथ जोड़ा जाता है तो प्रतीयमानत: जबरदस्त असमंजस की स्थिति उत्पन्न होती है। किसी एक विचार को अपना लेने मात्र से बुध्दिजीवी इस गलियारे से रास्ता नहीं निकाल सकते। वास्तव में संरचनात्मक विरोधाभासों के परिपक्व होने से ही नई संभावनाओं का विहान होता है। पुनश्च: जैसा कि हीगेल ने कहा होता; हम कम से कम इस असमंजस को 'नकारात्मक से चिपके रहकर' बरकरार रख सकते हैं, उस स्थान को जीवित रखकर जहां से नव्य की अप्रत्याशित रूप से उत्पत्ति की आशा की जा सकती है।’’
           

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