शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

किसान ज्ञान परंपरा- झारखंड के किसान -स्वामी सहजानंद सरस्वती

    बिहार प्रान्त को असल में 'बिहार और छोटानागपुर' के नाम से ही पुकारा जाता है। यों कभी-कभी संक्षेप में केवल 'बिहार' भी कह देते हैं। जब उड़ीसा का सम्‍बन्‍ध बिहार से था तब तो 'बिहार और उड़ीसा' अकसर कहा जाता था। मगर उड़ीसा के अलग हो जाने के बाद केवल 'बिहार' के बजाए 'बिहार और छोटानागपुर' कहना ही उचित प्रतीत होता है। यों तो उड़ीसा के मिले रहने पर भी कभी-कभी केवल 'बिहार' ही कहते थे। चाहे जो भी हो, छोटानागपुर का महत्‍व काफी है और जान या अनजान में इसकी याद हमेशा बनी रही है।

    बात असल यह है कि इस प्रान्त के कुल सोलह जिलों में सिर्फ सारन, चम्पारन, दरभंगा, मुजफ्फरपुर और पूर्णिया यही पाँच ऐसे हैं जहाँ पहाड़ नहीं हैं। शेष ग्यारह में तो कमोबेश पहाड़ पाए ही जाते हैं। यह ठीक है कि छोटानागपुर के पाँच जिलों पलामू, राँची, हजारीबाग, मानभूम और सिंहभूमतथा संथाल परगना, इन छह जिलों की भूमि जिस प्रकार पार्वत्य या पहाड़मयी है वैसी गया, मुंगेर आदि की नहीं है। ये छह तो पहाड़ों और जंगलों से घिरे हैं। मगर गया वगैरह के कुछ ही हिस्से पहाड़ी हैं। फिर भी यह बात सही है कि ये जिले भी अपने भीतर कुछ न कुछ जंगल और पहाड़ रखते ही हैं। पटना जिले में ही सबसे कम पहाड़ और जंगल हैं। इस प्रकार जंगलों की प्रधानता का खयाल करके ही पलामू आदि छह जिलों को बहुत पहले से झारखंड कहते चले आते हैं। बाकी जो ग्यारह जिले बच जाते हैं उनमें या तो जंगल पहाड़ ही नहीं, या बहुत ज्यादा नहीं हैं। यह भी बात है कि उनमें बौद्धकाल में बौद्ध भिक्षुओं के रहने और पढ़ने आदि के लिए जगह-जगह मठ या मकान प्राय: बने रहते थे जिन्हें बौद्ध सम्प्रदाय में विहार कहते हैं। इसीलिए वे ग्यारह जिले विहार कहे जाने लगे। असल में तो इस लम्बे सूबे को दो भागों में बाँटकर जैसे जंगली भाग को झारखंड कहते थे वैसे ही दूसरे भाग को विहार खंड ही कहना उचित था। मगर जाने क्यों केवल 'विहार' ही कहा जाता था।

    इस प्रकार बिहार या विहार खंड और झारखंड के नाम से दो भागों में बँटे इस सूबे में विहार खंड के किसानों की दशा सुधारने की कोशिशें तो इध्‍यानर बहुत हुई हैं। मगर यह बात झारखंड के बारे में नहीं हुई है। बिहार प्रान्तीय किसान सभा ने भी उतना ध्‍यान इस ओर नहीं दिया है जितना विहार खंड की ओर। फलत: और तो और, बाहरी लोगों को यहाँ के किसानों की समस्याओं तथा मुसीबतों की जानकारी तक प्राय: हुई नहीं! थोड़ी बहुत टूटी-फूटी बातें ही लोग जानते हैं। कभी-कभी कोई उथल-पुथल हो जाने पर ही कुछ नई बातें मालूम हो पाती हैं। जिसे पक्की और ब्यौरे की जानकारी कहते हैं वह तो फिर भी नहीं होती। वहाँ के असली निवासी, जिन्हें आदिवासी भी कहते हैं, आमतौर से मूक जैसे हैं। पढ़ने-लिखने की तो बात ही जाने दीजिए। उनकी भाषा ऐसी है कि दूसरे लोग समझी नहीं सकते। उनके रस्मोरिवाज भी निराले ही हैं। वे सीधे भी हद से ज्यादा हैं।
यह प्रान्त तो बड़ा है नहीं। कुल सोलह जिले हैं। जनसंख्या भी प्राय: साढ़े तीन (36340000) करोड़ ही है। मगर जहाँ तक किसानों की बात है, यहाँ तीन तरह के काश्तकारी कानून लागू हैं। बिहार काश्तकारी कानून Bihar Tenancy Actसिर्फ विहार खंड के दस जिलों में ही लागू है। उसका ताल्लुक झारखंड से ही नहीं। झारखंड में भी दो कानून हैं। संथाल परगनाको छोड़ बाकी पाँच जिलों में छोटानागपुर काश्तकारी कानून Chotanagpur Tenancy Act—प्रचलित है और उसी के अनुसार वहाँ काम होता है। मगर संथाल परगनाकी तो बात ही निराली  हलत मुरारेस्तृतीय: पन्था: है। इन दोनों में एक भी वहाँ लागू नहीं है। उस जिले के लिए एक तीसरी ही कानूनी व्यवस्था है जिसे संथाल परगना मैनअल Santhal Pargana Manualकहते हैं। उसी के अनुसार वहाँ का इन्तजाम होता है। यह मैनुअल भी बना है ज्यादातर 1872 और 1886 के नियम कायदों (Regulations) के आधार पर ही। झारखंड की पेचीदगी इसीलिए और भी बढ़ जाती है।

    बदकिस्मती की बात यह भी है कि वहाँ के मूल निवासियों का नेतृत्व दूसरों के ही हाथ में है। ईसाइयों के जाने कितने ही मिशन वहाँ बहुत दिनों से काम करते हैं। उनने ईसाइयत का प्रचार भी वहाँ काफी किया है। अतएव एक तो वही लोग वहाँ के किसानों का नेतृत्व करते आए हैं। उनके सिवाय समय-समय पर सूबे के उत्तारी भाग या विहार खंड से भी पढ़े-लिखे सूदखोर बनिए या व्यापारी लोग वहाँ समय-समय पर बसते गए हैं। वकील, मुख्तार या और तरह के पढ़े-लिखे लोग, या तो वही हैं या बंगाली। अबरक, कोयला, लोहा वगैरह के कारबार और लाह या लकड़ी के रोजगार के सिलसिले में भी सभी तरह के लोग भारत के कोने-कोने से ही नहीं, बल्कि दूसरे देशों से भी आके वहाँ बस गए हैं। इसलिए स्वभावत: ऐसे लोग उन गरीबों के अगुवा बनने की कोशिश करते हैं। कांग्रेस जैसी प्रभावशाली संस्था के जितने प्रमुख नेता झारखंड में हैं वे सभी बाहर वाले ही हैं।

    आदिवासी आन्दोलन के रूप में आज एक संस्था वहाँ खड़ी हो गई है सही और उसका नेतृत्व भी आदिवासियों के हाथ में ही बताया जाता है। कई ऐसे लोग भी हैं जो आदिवासी ही हैं और किसान सभा के नाम पर उनने एक संस्था भी बना ली है। मगर उनका नेतृत्व निहायत लचर और अवसरवादी है। वे किसानों को उठाना नहीं चाहते। किन्तु अपना काम निकालना चाहते हैं। आदिवासी आन्दोलन की कमी यह है कि शुद्ध मध्‍यमवर्गीय ढंग से ही चालू हो रहा है। यदि वह किसानों के वर्ग स्वार्थों के ही आधार पर चालू होता तो उसमें अपार शक्ति आ जाती और वह सचमुच झारखंडवासियों का निस्तार ही कर देता।

    यही कारण है कि असलियत का पता नहीं लग पाता और घपले बढ़ गए हैं। मैं शुद्ध किसान हित के खयाल से ही वहाँ की स्थिति पर प्रकाश डालना चाहता हूँ ताकि उस अन्‍धेरीगुफा की झाँकी हमें मिले। हमें और हमारे कार्यकर्ताओं को सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वहाँ के निवासियों के अभाव-अभियोगों को जानते ही नहीं। वहाँ के काश्तकारी कानून की खास बात क्या है और उसमें क्या कमी है यह बात हमें मालूम नहीं। फिर उसके सुधार का आन्दोलन भी किया जाए तो कैसे? बाहरी लोगों की दृष्टि से वहाँ के काश्तकारी कानून में पेचीदगियाँ हैं। कांग्रेसी मंत्रियों के समय वहाँ का कानून भी बहुत कुछ सुधारा गया ठीक बिहार के काश्तकारी कानून के ही ढंग पर। मगर कितने मेम्बरों ने असेम्बली में उसे समझा भी, यह एक सवाल है। सिर्फ रस्मअदाई के खयाल से या दो-चार लोगों के कहने से ही जो कानून बने उससे हम लोगों का फायदा कहाँ तक कर सकते हैं? बिहार के कितने कांग्रेसी नेता हैं जो उन कानूनों को समझते हैं।

    जब तक हम वहाँ की असली परिस्थिति न जानें, लोगों की सबसे चुभने वाली माँगों की हमें पूरी जानकारी न हो, सरकारी महकमे वहाँ कैसे काम करते हैं, कचहरियाँ कहाँ तक किस तरह उन गरीबों के साथ मौजूदा कानून के अनुसार भी न्याय कर पाती हैं, इत्यादि बातें हम न समझें उनके लिए कुछ भी कर सकते हैं क्या और कैसे? आदिवासियों की भाषा न तो हाकिम समझते और न दूसरे ही लोग। बाहरी वकील, मुख्तार भी सिर्फ कामचलाऊ बातें ही जानते हैं। नतीजा यह होता है कि वे बेचारे बहुत बार नाहक लद जाते हैं। अंग्रेजी कानूनों की पेचीदगियाँ वे क्या जानने गए? यदि जानते तो बचाव का रास्ता भी निकालते। इधर तो उन्हें पता ही नहीं है उधर सख्त से सख्त सजाएँ उन पर लद जाती हैं। जेल में रहके उनसे बातें करने और उनके साथ बार-बार हिलने-मिलने पर पता चलता है कि वे किस बला में फँस गए हैं। अपने पक्ष का सबूत उनके पास मौजूद है सही। फिर भी ठीक समय पर या कायदे के मुताबिक वे हाकिम के सामने पेश न कर सके और लद गए! मगर वे इन कायदे-कानूनों को जानने क्या गए? उन्हें किसने ये बातें सिखाने की कोशिश कीं? कानून बनते हैं अंग्रेजी में और आदि जनता की तो बात ही नहीं, उनके जो खास सदस्य असेम्बली में चुने गए हैं उनमें शायद ही एकाध अंग्रेजी जानते हैं। बाकियों की तो हालत ज्यादातर 'लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर' जैसी ही है। थोड़ी-बहुत हिन्दी जानने से भी काम तो नहीं चलता।

    ऐसी दशा में आगे जो कुछ लिखा जाएगा वह सबों की जानकारी के ही लिए। किसी दल या पार्टी या सम्प्रदाय के खंडन-मंडन से हमारा मतलब नहीं है। हमें तो अपना काम करना है। यदि हम झारखंड की जनता की और खासकर वहाँ के किसानों की कुछ भी सच्ची सेवा करना चाहते हैं तो सबसे पहले उस क्षेत्र की, उस अन्‍धेरी गफा no man's land की झाँकी लगाना और परिस्थिति समझ लेना जरूरी है। नहीं तो भटक जाने की पूरी सम्भावना है। वैसी हालत में केवल दो-चार ऊपरी बातों से ही हम सन्तोष कर के तह में घुसने की कोशिश करी नहीं सकते हैं। कहा नहीं जा सकता कि हमें इसमें सफलता कहाँ तक मिलेगी।



सेण्ट्रल जेल, हजारीबाग   स्वामी सहजानन्द सरस्वती

नवम्बर दिवस, शुक्रवार 7.11.41

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