शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

उत्तर आधुनिकतावाद,नारीवाद और मार्क्स- केरॉल ए.स्टेविले-1-

                             
     एक वर्ष से भी अधिक समय से ओ.जे. सिंपसन का मुकदमा न केवल 'टैबलॉयड्स' में बल्कि मुख्यधारा के प्रेस में भी सुर्खियों में था। निकोल ब्राऊन सिंपसन और रॉन गोल्डमैन की भयावह हत्याओं के बाद लगभग सभी टेलीविजन या रेडियो वार्ता कार्यक्रमों में यह मामला बहस का गरमागरम मुद्दा था। यह 'टाइम' और 'न्यूजवीक' जैसी लोकप्रिय पत्रिकाओं के मुख्य पृष्ठ पर छपा तथा प्रमुख समाचारपत्रों के पहले पृष्ठ पर नियमित रूप से छाया रहा। शॉक रेडियो के होस्ट होवार्ड स्टर्न ने अब अलोकप्रिय 911 टेप बजाने के बाद अचानक घरेलू हिंसा को खोज निकाला था, जबकि लाखों टेलीविजन दर्शक लॉस एंजेलस पुलिस विभाग की सिंपसन की श्वेत ब्रोंको की शानदार छानबीन को देखने में लगे थे।
आरंभ से ही इस कहानी में अति-यथार्थवादी तत्व थे; वास्तविक घटना से एक दूरी जिसने सिंपसन और गोल्डमैन की जिंदगियों का अंत कर दिया था। साथ ही लॉस एंजेलस में नस्ल, वर्ग, राजकीय दमन की वास्तविक घटनाओं से भी दूरी थी। ज्यों-ज्यों सप्ताह दीर्घ होकर महीनों में बदले, हत्या की घटना और मीडिया कवरेज के बीच दूरी बढ़ती गई, जबकि यह मामला स्वयं ही स्वास्थ्य सेवा, 'प्रोपोजिशन 187' पारित होने तथा 'कांट्रैक्ट विद अमेरिका' की खबरों के आगे निष्प्रभ हो गया। घरेलू हिंसा तसवीर से गायब हो गई क्योंकि कवरेज में मुकदमे को खेल की खबरों या कार्य-निष्पादन के समान ही महत्व दिया जाने लगा। दरअसल अब प्रश्न सिंपसन के दोषी या निर्दोष होने का कम से कमतर होता गया तथा बचाव पक्ष और सरकारी वकील अपना-अपना दांव कैसे खेलते हैं, इसका हो गया। मुख्यधारा की मीडिया में शायद ही किसी ने आर्थिक विशेषाधिकार का उल्लेख किया लेकिन नस्ल और लिंग के मुद्दे बार-बार उठाए गए। पहले सिंपसन और निकोल ब्राऊन सिंपसन के संबंध में और फिर जब न्यायालय बचाव पक्ष के अफ्रीकी-अमरीकी प्रमुख, जॉनी कोचरान और श्वेत मुख्य सरकारी वकील मार्सिया क्लार्क के बीच युध्दभूमि बन गया। मुकदमे के कवरेज में सूचना और मनोरंजन के बीच, सच्चाई और कहानी के बीच सत्य के शब्द न केवल अस्पष्ट हो गए, प्रत्युत वे गायब हो गए।
उत्तरआधुनिकतावाद में आपका स्वागत है : मीडिया के भव्य समारोह, वास्तविक के लोप, इतिहास का अंत, मार्क्सवाद की मौत तथा अनेक अन्य सहस्राब्दवादी दावों कीदुनिया में। जहां ख्यातिलब्ध मुकदमों ने सनसनीखेज कवरेज के लिए ऐतिहासिक रूप से उत्तेजित किया है, वहीं शायद ही कोई इनकार करेगा कि स्वयं मीडिया में गत दशकों में भारी परिवर्तन आया है या मीडिया अब सूचना के विशाल प्रवाह को नियंत्रित और प्रभावित करती है। लेकिन जहां हममें से कुछ इन परिवर्तनों की ऐतिहासिक और भौतिकवादी व्याख्या प्रस्तुत करना चाहेंगे वहीं उत्तरआधुनिकतावादियों के लिए सच्चाई और कल्पना के बीच की रेखा का लोप जो आज कथित रूप से 'जन संस्कृति' का निर्माण करता है, दरअसल बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों की सच्चाई है। यों कहें कि व्याख्या करने के लिए कुछ भी नहीं है क्योंकि जो हम जान सकते हैं और जो जानने योग्य है मीडिया द्वारा प्रस्तुत वर्णन और कपोल-कल्पनाएं हैं। उत्तरआधुनिकतावादी दावा करते हैं कि समाज अब चपटी दुनिया के कगार पर पहुंच गया है और केवल एक ही सत्य हम निश्चित तौर पर जान सकते हैं वह यह कि हम नहीं समझ सकते कि किस चीज ने समाज को वहां पहुंचाया है या नीचे रसातल में क्या है।
समाज के बारे में उत्तरआधुनिकतावाद की भविष्यसूचक दृष्टि को बुध्दिजीवियों के सत्य से संबंध-विच्छेद के एक और उदाहरण के रूप में व्याख्या करना या खारिज करना आसान है। पुनश्च: इस लेख में मैं इस प्रवृत्ति की व्याख्या केवल बौध्दिक अमूर्तीकरण के रूप में नहीं करना चाहता, प्रत्युत एक ऐतिहासिक परिघटना तथा राजनीति से बौध्दिक पश्चगमन के रूप में करना चाहता हूं। विशेष तौर पर मैं उन बिंदुओं पर विचार करना चाहता हूं जिन पर उत्तरआधुनिकतावाद समयुगीन नारीवाद को काटता है और उस प्रतिच्छेदन का राजनीतिक अभिप्राय क्या है।
उत्तरआधुनिकतावाद क्या है?
पहले मैं दो अति व्यापक और प्राय: अस्पष्ट पदबंधों 'उत्तरआधुनिकतावाद' और 'नारीवाद' को परिभाषित करने का प्रयास करूंगा, कम से कम जिस रूप में वे आज अकादमी में उपयोग किए जाते हैं। मोटे तौर पर उत्तरआधुनिकतावाद को एक ऐतिहासिक युग, उत्तर-औद्योगिक, उत्तर-फोर्डिस्ट या उत्तर-पूंजीवादी समाज की अवस्था समझा जाता है। उत्पादन के 'समयुगीन' संबंधों (यदि उन्हें कोई ऐसा अभी भी कह सके) को प्राय: विखंडित (यह सामाजिक ताने-बाने और उत्पादन के रूप दोनों पर लागू होता है), विसरित या असंगठित (इस अर्थ में कि व्यवस्थागत शक्ति संबंध हर जगह है और कहीं भी नहीं है; यह व्याप्त है लेकिन इसके स्रोत की पहचान नहीं की जा सकती) और अंतत: ऐतिहासिक और आर्थिक निर्धारक तत्वों से अलग परिभाषित किया जाता है। उपभोग उत्पादन से आगे निकल गया है, जिससे वर्ग संघर्ष (या यह धारणा भी कि समाज शत्रुतापूर्ण ढंग से मजदूरों और पूंजीपतियों के बीच बंटा हुआ है) एक पुरानी अवधारणा बन गया है। लोग अब अपने आपको वर्ग के रूप में या इसके साथ नहीं देखते बल्कि विभिन्न अपेक्षाकृत विशिष्ट स्थायीअस्मिताओं (आइडेंटिटीज) (यथा महिला, महिला समलैंगिक, पुरुष समलैंगिक, अफ्रीकी-अमरीकी, लातिनी) से जाने जाते हैं, उन अस्मिताओं से जो केवल आर्थिक रूप में परिभाषित नहीं होतीं। संक्षेप में कहा जाए तो दमन की कोई सिलसिलेवार भौतिक बुनियाद नहीं है।
समाज की उत्तरआधुनिकतावादी समझ के केंद्र में यह विश्वास है कि आधुनिकता और प्रबोधन के 'महान' या समष्टिकारी सिध्दांतों, साथ ही विवेकशीलता, प्रगति, मानवता, न्याय के आग्रह और यहां तक कि सत्य को प्रस्तुत करने की क्षमता के महत्व को कम कर दिया गया है। इस प्रकार की तर्क भाषा, वस्तुपरकता और निरूपण की उत्तर-संरचनावादी समालोचनाओं से उत्पन्न होती है; लेकिन जहां उत्तर-संरचनावाद थ्योरी है, उत्तरआधुनिकतावाद आचरण है। दूसरे शब्दों में, जहां उत्तर-संरचनावादियों ने आधुनिकतावाद की बुनियाद की आलोचना की, उत्तरआधुनिकतावादियों ने इन समालोचनाओं को इन बुनियादों की ही अस्वीकृति का अधिदेश समझा।
यानी उत्तरआधुनिकतावादियों के अनुसार तंत्र जिसे शायद ही (कभी) पूंजीवाद का नाम दिया जाता है, वह इतना असंगठित और विषमांगी हो गया है कि यह न केवल समझ से परे है बल्कि अब यह ऐसा कोई बिंदु भी नहीं प्रदान करता जहां से इसका विरोध किया जा सके। सचमुच पूंजीवाद का 'असंगठन' यह दरशाता है कि विरोध करने के लिए कोई केंद्रीय बिंदु या तंत्र नहीं है। इस मीडिया-संतृप्त युग में किसी निश्चितता के साथ कोई नहीं जानता कि वास्तव में सच क्या है, इसी विवेचना असंभव हो गई है, चाहे राजनीतिक हो या कलात्मक। पूंजीवाद अब विखंडित और आवयविक एकत्व विहीन हो गया है और अब एक व्यवस्था के रूप में इसे नहीं समझा जा सकता; और किसी भी हालत में इसे समझने के या जानने के आधार ही समाप्त हो गए हैं।
जॉन फ्रैंक ल्योतार्द जैसे यूरोपीय उत्तरआधुनिकतावादियों ने यह विचार व्यक्त किया है कि सामान्य रूप में प्रबोधन के समान ही मार्क्सवाद अपने 'समष्टिकारी' आवेगों के कारण स्तालिनवाद की परिणति तक पहुंच गया। कुछ उत्तरआधुनिकतावादी, खास तौर पर संयुक्त राज्य में, मार्क्सवाद और सोवियत शैली की पध्दतियों में समानता से कहीं आगे जाकर मार्क्सवाद को सभी प्रकार के दमन के लिए जिम्मेदार मानते हैं। लिंडा निकोल्सन का कहना है कि 'बीसवीं सदी के मार्क्सवाद ने महिलाओं, अश्वेतों, पुरुष समलैंगिकों, महिला समलैंगिकों तथा अन्य, जिनके दमन को अर्थशास्त्र तक सीमित नहीं किया जा सकता, की मांगों को अवैध करार देने के लिए उत्पादन और वर्ग की सामान्य कोटियों का उपयोग किया है।'1 इस प्रकार का निर्णय नाटकीय रूप से उत्तरआधुनिकतावाद की एक और विशेषता को दरशाता है : इसकी ऐतिहासिक विस्मृति। निकोल्सन के जैसा वक्तव्य न केवल प्रजातांत्रिक वर्ग राजनीति के समृध्द इतिहास को दबाता है बल्कि यह इस सरल तथ्य के प्रति भी उल्लेखनीय रूप से संवेदनहीन है कि मार्क्सवाद तथा आम तौर पर समाजवादी संगठनों को पूंजीवाद द्वारा बार-बार हाशिए पर ढकेल कर अवैध करार दिया गया है। उत्तरआधुनिकतावादीस्वरूप के विचारों के यूरोप से उत्तरी अमरीका में प्रतिरोपण में दुगनी अनैतिहासिक होने की प्रवृत्ति है। ये विचार उन ऐतिहासिक और भौतिक स्थितियों से अलग हैं जिन्होंने इन्हें उत्पन्न किया और बाद में वर्ग आधारित राजनीतिक संघर्षों के विरुध्द प्रतिरोध के वातावरण में एक ऐसे समाज द्वारा अपनाया गया जिसके वर्ग संघर्ष के इतिहास को बड़े मनोयोग से दबा दिया गया है। यदि राजनीतिक दावे इतने अधिक नहीं होते तो यह विडंबना ही प्रतीत होती कि उत्तरआधुनिकतावादी और जार्ज बुश जैसे लोग तथा डिक आर्मे यह तर्क कर रहे होते कि संयुक्त राज्य अमरीका में वर्ग नहीं हैं।
विश्वविद्यालय में अधिकांश मानविकियों तथा समाजविज्ञान पाठयक्रमों में उत्तरआधुनिकतावादी सामाजिक सिध्दांत और सामान्य उत्तरआधुनिकतावाद विद्यमान है। अनुभववाद तथा मात्रात्मक पध्दतियों ( जो व्याख्या योग्य सत्य के किसी रूप की मौजूदगी को मानती हैं) का त्याग करके सभी उत्तरआधुनिकतावादी प्राय: अपने अंतर्विरोधी दावों के समर्थन के लिए सास्युअर के भाषाविज्ञान तथा भाष्यविज्ञान से लिए व्याख्यात्मक पध्दतियों पर निर्भर करते हैं। उत्तरआधुनिकतावादी सामाजिक सिध्दांतकार आदर्शवाद और भौतिकवाद के दर्शन के बारे में पारंपरिक बहसों को दोबारा चलाने के क्रम में मार्क्स और एंगेल्स द्वारा 'दि जर्मन आइडियोलॉजी' में वादानुवाद के निर्दिष्ट विषयों के परे नहीं गए हैं। प्रत्युत, वे आदर्शवाद की निरपेक्ष जीत का दावा करते हैं क्योंकि भौतिकता और आर्थिक आधार को इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिया गया है और केवल भाषा ही शेष है। इस 'भाषिक' बुनियाद पर कार्य करते हुए, उत्तरआधुनिकतावादी सामाजिक सिध्दांतकार तर्क देते हैं कि इस सदी के अंतिम बरसों में राजनीति केवल अव्यवस्थित ढंग से या विखंडित, विभक्त और प्राय: परस्पर विरोधी श्रेणियों के माध्यम से कार्य कर सकती है जिनसे लोग अपनी समानता स्थापित करते हैं।
तमाम भ्रांतियों और अंतर्विरोधों के बावजूद उत्तरआधुनिकतावाद के कुछ एकरूप करने का सिध्दांत हैं : 'यथार्थ' की तर्कमूलक संरचना पर आलोचनारहित और आदर्शवादी फोकस (यानी 'यथार्थ' क्या है, इसकी संरचना भाषा में तथा इसके द्वारा होता है हालांकि इसकी वास्तव में कोई व्याख्या नहीं करता कि इसका अर्थ क्या है) तथा 'विभेद' की धारणा को सापेक्ष विशेषाधिकार प्रदान करना। अंतत: यदि हम उन 'वास्तविक' हितों को नहीं खोज सकते जो 'हमें' एकजुट कर सकें तो केवल एक ही प्रकार की राजनीतिक कार्रवाई की कल्पना की जा सकती है जो कि हमारी स्थायी अस्मिता (आइडेंटिटी) में 'विभेदों' पर आधारित होगी। मार्क्स की विभेद में एकता की धारणा के विपरीत या ई.पी. थामसन की 'हितों की समानता' के विपरीत उत्तरआधुनिकतावादी विशिष्ट और स्थानीकृत विभेदों के पक्ष में इस प्रकार के वर्णन को अस्वीकार करते हैं, जिसमें लोगों के सामान्य हित व्यापक रूप से समान होते हैं तथा जिन्हें राजनीतिक एजेंसियों द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है।(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...