जनजातियों के प्रति वाम की प्रयोगस्थली त्रिपुरा है। सारे देश में आदिवासियों के बारे में वामपंथी दलों ,खासकर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया (मार्क्सवादी) का जो नजरिया है, उसका व्यवहार में शानदार प्रयोग यहां मिलता है। वामपंथी दलों के शासन में आने के बाद से त्रिपुरा के आदिवासी इलाकों में ,कुछ समय को छोड़कर, आमतौर पर शांति है और जनजातियों के लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका अदा कर रहे हैं।
उत्तर-पूर्व के राज्यों त्रिपुरा अकेला राज्य है जहां वामपंथी दलों के नेतृत्व में 1977 से निरंतर लोकतांत्रिक शासन चल रहा है। यह अकेला राज्य है जहां सेना या अर्द्ध-सैन्यबलों ने बिना शासन चल रहा है। जबकि इस क्षेत्र के अन्य राज्यों में निरंतर अशांति बनी हुई है। त्रिपुरा में जनजातियों की आबादी 19 पर्वतीय इलाकों में बसी हुई है। मोटेतौर समूचे राज्य की आबादी का 31 प्रतिशत हिस्सा जनजातियों का है। इस राज्य के ज्यादातर जनजातियां तिब्बती-बर्मी मूल की हैं।
त्रिपुरा की प्रमुख जनजातियां हैं चाइमल,हलाम,जमातिया,तिप्पेरा,त्रिपुरी ,मोग, रियांग,लेप्चा, आदि। इनमें त्रिपुरी और रियांग जनजाति का अधिकांश जनजाति इलाके में वर्चस्व है। कोकबोराक इनकी आमचीत की भाषा है। त्रिपुरा की जनजातियों पर बौद्ध ,ईसाई, और त्रिपुरसुंदरी सम्प्रदाय का गहरा प्रभाव है।
हाल ही में 3 मई 2010 को त्रिपुरा आदिवासी स्वायत्त जिला परिषद के चुनाव हुए हैं जिसमें 27 के परिणाम आए हैं और सभी सीटों पर वामपंथी उम्मीदवार जाते हैं। इसमें 25 पर माकपा, 1-1 सीट भाकपा और फार्बर्ड ब्लॉग को सफलता मिली है।
उल्लेखनीय है कि त्रिपुरा को एक नबम्वर 1957 को केन्द्रशासित क्षेत्र बनाया गया और 21 जनवरी 1972 को राज्य का दर्जा दिया गया। आरंभ में त्रिपुरा में पंचायतों का गठन यनाइटंड प्रोविंस पंचायत राज एक्ट 1947 के आधार पर होता था,उसके तहत ग्रामसभा का गठन किया जाता था। बाद में वाममोर्चा सरकार ने त्रिपुरा पंचायत एक्ट 1983 बनाया और 1984 से इसे लागू किया। इसने 1947 के कानून की जगह ली। सन् 1993 में त्रि-स्तरीय पंचायत की व्यवस्था की गयी। सबसे निचले स्तर पर ग्राम पंचायत,ब्लॉक स्तर पर पंचायतसमिति और जिला स्तर पर जिला परिषद का गठन किया गया। इसके अलावा आदिवासियों के लिए आदिवासी स्वायत्त जिला परिषद का संविधान की छठी अनुसूची के तहत 1985 में गठन किया गया। यह मूलतः आदिवासियों की चुनी हुऊ संस्था है और इसमें कुल 28 जनता के द्वारा चुने सदस्य हैं और दो सदस्य राज्यपाल के द्वारा नामांकित किए जाते हैं,ये भी जनजाति के ही होते हैं। यह परिषद राज्य के दो-तिहाई भौगोलिक क्षेत्र को समेटे हुए है। जबकि इसके दायरे में आने वाली आबादी में दो-तिहाई गैर जनजाति के लोग बसते हैं और एक-तिहाई जनजाति के लोग रहते हैं। इस जाति संरचना में आए असंतुलन को आधार बनाकर विभाजनकारी ताकतें जनजाति और गैर-जनजाति समूहों के बीच में टकराव पैदा करने की कोशिश करते रहते हैं। इन तनाव को बार-बार वाममोर्चे ने सफलता के साथ हल किया है। अनेक बार इस तनाव के कारण दंगे भी हुए हैं।अनेकउग्रवादी गुट जनजातियों के असंतोष को भड़काकर दंगों को हवा देते रहे हैं। इस प्रसंग में उनका एक ही प्रचार है कि वाम के शासन में जनजातियों की उपेक्षा हुई है,आदिवासियों के लिए बनी स्वायत्त परिषद के कानूनों को बड़ी ही धीमी गति से लागू किया जा रहा है। वाममोर्चे ने अपने तरीके से बंगाली बनाम जनजाति के बीच में पैदा किए गए विवादों को बड़े ही कौशल के साथ हल किया है और इसमें उसने आदिवसियों के हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। उत्तर-पूर्व के राज्यों और खासकर त्रिपुरा के संदर्भ में जनजातियों के मूल्यांकन के संदर्भ में कई मिथ फैले हुए हैं। इन मिथों का समूची जनजातु आबादी में अलगाव पैदा करने ,राष्ट्रीय एकता भंग करने, सामाजिक टकराव पैदा करने के लिए समय-समय पर इस्तेमाल किया जाता है।
आमतौर यह कहा जाता है कि जनजातियों में देश के बाकी हिस्सों और अन्य समुदायों के साथ अलगाव और सामाजिक-आर्थिक विकास के अभाव के कारण अलगाववादी स्वर सुनाई देते हैं। इसी आधार पर आदिवासियों में पैदा हुए पृथकतावादी-उग्रवादी गुटों की गतिविधियों की व्याख्या भी की जाती है।
सन् 2001 की जनगणना के अनुसार देश में आदिवासियों की संख्या 8.1प्रतिशत है। यानी कुल 83.6 मिलियन आदिवासी रहते हैं। यो लोग देश के विभिन्न इलाकों में 461 समुदायों में रहते हैं। इनकी आधिकांश आबादी मध्यभारत,पूर्व,उत्तर-पूर्व भारत में निवास करती है। ये लोग समाज के सबसे शोषित समुदाय में आते हैं। इनमें से ज्यादातर खानों में काम करते हैं,बागानों में काम करते हैं या फिर ठेका मजदूर के रूप में काम करते हैं। इनमें से अधिकांश की सामाजिक-आर्थिक दशा बडी खराब है। इनकी बुनियादी समस्याएं हैं इनका जमीन से अलगाव,जंगलात और उसके इस्तेमाल से इनका वंचित रहना, विकास प्रकल्पों के कारण बड़े पैमाने पर विस्थापन,आदिवासी औरतों की दुर्दशापूर्ण अवस्था,सामाजिक उत्पीड़न और शोषण,शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, आदिवासी भाषा और संस्कृति का अवरूद्ध विकास, आदिवासी इलाकों में स्वायत्त प्रशासनिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था का अभाव। ब्रिटिश शासकों से लेकर आधुनिक भारत के स्वतंत्र शासकों तक जितने भी शासन आए हैं वे आदिवासियों के उनकी जमीन और जंगल पर स्नामित्व के अधिकार को अस्वीकार करते हैं। अंधाधुंध पूंजीवादी विकास नेआदिवासियों को उनकी जमीन,वातावरण और संस्कृति से विस्थापित किया है। आदिवासियों की जमीनों पर विकास और अन्य बहानों से बसाया गया है। इसके लिए बड़े पैमाने पर कानूनी मेनीपुलेशन का सहारा लिया गया। यह फिनोमिना उत्र-पूर्व के कुछ राज्यों को छोड़कर सारे देश में आदिवासी इलाकों में देखा गया है। गैर आदिवासियों द्वारा आदिवासियों की जमीन हथियाने के लिए कई हथकंड़े अपनाए जाते रहे हैं, इनमें प्रमुख हैं-जमीन को गिरवी रखकर कर्ज देना,लीज पर लेना,बेनामी हस्तांतरण,झूठे नामों से जमीन का स्वामित्व हथियाना,आदिवासी औरतों से शादी करके जमीन हथियाना, आदिवासियों को मजदूरी के नाम पर बंधुआ बनाना और बाद में उनकी जमीन हड़पना आदि कुछ रास्ते हैं जिनका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता रहा है।
आदिवासियों की अस्मिता को बचाने का सबसे सटीक रास्ता है उन्हें उनकी जमीन से जोड़े रखना। आदिवासियों में भूमिसुधार कार्यक्रमों को सख्ती से लागू करना। आदिवासियों की पहचान उनके जमीन के स्वामित्व से जुड़ी है। इस काम को वाममोर्चा सरकारों ने बड़ी गंभीरता के साथ किया है। जो लोग इन दिनों आदिवासियों के सवाल पर वामपंथी दलों खासकर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया (मार्क्सवादी) पर लालगढ़ के तथाकथित माओवादी हिंसाचार के बहाने हमले कर रहे हैं और मीडिया और बुद्धिजीवियों में मिथ्या प्रचार कर रहे हैं वे जानते हुए भी सत्य को छिपा रहे हैं कि आदिवासियों में भूमिसुधार लागू करने का वाममोर्चे का शानदार रिकॉर्ड रहा है। मसलन पश्चिम बंगाल में भूमिसुधार के तहत ग्यारह लाख एकड़ जमीन पच्चीस लाख परिवारों में वितरित की गई है। इसमें से पांच लाख परिवार आदिवासी हैं। इसी तरह त्रिपुरा में भी आदिवासियों को भूमिसुधारों का व्यापक लाभ मिला है। आदिवासियों का अपनी जमीन से अलगाव कम हुआ है।
आर्थिक उदारीकरण लागू किए जाने के कारण सबसे ज्यादा आदिवासियों पर बुरा असर पड़ा है। आदिवासी इलाकों में भुखमरी बढ़ी है। राशन व्यवस्था पूरी तरह बैठ गयी है। खानों के अधाधुंध उत्खनन ने आदिवासियों की बेदखली बढ़ा दी है। इसके विपरीत आदिवासी इलाकों में विकास कार्य एकदम बंद पड़े हैं। शिक्षा,स्वास्थ्य और आजीविका के अभाव और सूदखोरों के शोषण ने आदिवासियों को पूरी तरह बर्बाद कर दिया है।
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