गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

आदिवासी जीवन में परिवर्तन का विरोध क्यों ?

    आदिवासियों के जब भी सवाल उठते हैं तो एक सवाल मन में आता है कि क्या आदिवासी अपरिवर्तनीय हैं ? क्या वे जैसे रहते आए हैं उन्हें वैसे ही रहने दिया जाए ? भारत में पूंजीवादी परिवर्तनों का आदिवासियों पर क्या असर हुआ है ?  भारत में 400 आदिवासी समुदाय रहते हैं। जिन्हें आधिकारिक तौर पर शिड्यूल ट्राइव के नाम से जानते हैं। विगत 200 सालों में इनमें बुनयादी परिवर्तन आए हैं। इन परिवर्तनों को हमें वैज्ञानिक तरीके से देखना चाहिए।
आदिवासियों में आए परिवर्तन दो तरह के हैं। पहली कोटि में वे परिवर्तन आते हैं जो स्वाभाविक हैं और स्वाभाविक सामाजिक प्रक्रिया के गर्भ से जन्म ले रहे हैं। दूसरी कोटि में ऐसे परिवर्तन आते हैं जो अस्वाभाविक हैं और उन पर थोपे गए हैं अथवा उन्हें अपनाने के लिए मजबूर किया गया है।
   आदिवासी परिवर्तनों को देखने के लिए मिथकीय पूर्वाग्रहों से बाहर आकर देखने की जरूरत है। आदिवासियों को समझने के लिए उन्हें मिथक बनाने से बचना चाहिए। यह मिथ है कि वे जैसे रहते आए हैं ,वे वैसे ही बने रहना चाहते हैं । दूसरा मिथ यह भी है कि आदिवासियों के जीवन में परिवर्तन सामाजिक -परिवेशगत अलगाव और बृहत्तर समाज के साथ एकीकरण से पैदा होता है।   
 आदिवासियों के बारे में जब भी बातें होती हैं या कोई आंदोलन आरंभ होता है तो एक ही बात कही जाती है कि आदिवासी इलाकों में विकास नहीं हुआ, विकास के अभाव में ही इन इलाकों में उग्रवाद पनप रहा है। आदिवासी इलाकों में विकासहीनता की बात में एकदम दम नहीं है। विकास का अभान जिस तरह बहाना बनाया जा रहा है उसे यदि गंभीरता से लेंगे तो  पंजाब में 1980 के दशक में पैदा हुए खालिस्तानी आंदोलन के लिए कोई तर्क हमारे पास नहीं होगा। पंजाब में हरित क्रांति के बाद उग्रवाद का पनपना इस बात का संकेत है कि उग्रवाद का विकासहीनता से कोई संबंध नहीं है। उग्रवाद एक राजनीतिक फिनोमिना है और यह उन ताकतों के लिए सहज रास्ता है जो मुख्यधारा की राजनीति में स्वाभाविक राजनीति के जरिए स्थान नहीं बना पाते। उग्रवाद के संदर्भ में विकासहीनता एक स्टीरियोटाइप है।  विकासहीनता की बात लालगढ़ (पश्चिम बंगाल) में भी गलत है। लालगढ़ की नौ हजार की आबादी में 10 माध्यमिक स्कूल,एक कॉलेज और अनेक निजी स्कूल हैं। लालगढ़ में विगत 25 सालों से वाममोर्चे का शासन नहीं था। इस इलाके की पंचायतों पर झारखण्डियों के एक दल का कब्जा रहा है। हाल ही में ममता बनर्जी ने जो रैली लालगढ़ में की है उसमें भाग लेने वाले सभी लोग अच्छे कपड़े पहनकर आए थे। सिर्फ पिछले चुनाव में वाममोर्चा जीता है।
    आदिवासियों के बारे में नस्ल और मुख्यधारा से अलगाव का मिथ अंग्रेजों ने बनाया था और उन्होंने ही इसे प्रसारित किया था। इसी तरह मैदानी और पर्वतीय का मिथ भी उनका ही बनाया हुआ है। कहा गया मैदानी लोगों से पर्वतीय लोग भिन्न होते हैं। स्थिति इतनी खराब हो गयी कि 1973 में इनर लाइन रेगूलेशन कानून लागू करना पड़ा। मैदानी इलाके के लोगों को पर्वतीय इलाकों में जाने के लिए अनुमति लेनी पड़ती है,खासकर नागा हिल (नागालैण्ड) मिजोरम की मिजो हिल और अरूणाचल प्रदेश के पर्वतीय इलाकों में जाने के लिए विशेष अनुमति लेनी होती है। भारत से कटे होने की अनुभूति ने उत्तर-पूर्व के राज्यों के निवासियों के मन में अलगाव की भावना को हवा दी। भारत के नामी मार्क्सवादी इतिहासकारों तपनराय चौधरी और इरफान हबीब ने विस्तार के साथ उत्तर-पूर्व के इतिहास का अध्ययन किया है। लेकिन ‘कैम्ब्रिज इकोनोमिक हिस्ट्री’ (भाग1) में इन इतिहासकारों ने असम के मध्यकालीन इतिहास को शामिल किया है। लेकिन यह काम एपेंडिक्स में ही हो पाया है। इतिहास में नागा,जमातिया,खासी,मिजो,मणिपुरी आदि जनजातियों के ब्रिटिश विरोधी संघर्षों को कोई स्थान नहीं मिला है। इसने भी उत्तर-पूर्व के आदिवासियों को राष्ट्रीय अलगाव की अनुभूति में ठेला है। मजेदार बात यह है कि इतिहास कांग्रेस के समय पढ़े जाने वाले पर्चों के जो दस्तावेजी वोल्यूम देखे हैं उनमें उत्तर-पूर्व के आदिवासियों के ब्रिटिश विरोधी संघर्षों के पर्चों को ‘गैर-भारतीय’ की केटेगरी में शामिल किया गया है। ( विस्तार से जानकारी के लिए देखें- Proceedings of North-East India History Association (NEIHA), Session XVII)  
   इतिहासकारों में एक बड़ा तबका रहा है जो उत्तर-पूर्व के आदिवासियों के बारे में सुनियोजित ढ़ंग से साम्राज्यवादी मिथों का प्रचार करता रहा है। इनमें पहला मिथ है नस्ल का। इसके तहत आर्य-मंगोल विभाजन बनाकर इतिहास लिखा गया है। एडवर्ड गेट ने इसकेआदार पर सुर-असुर का विभाजन किया है। उन्होंने सुर-असुर के आधार पर उत्तर-पूर्व के इतिहास को व्याख्यायित करने की कोशिश की है। इसके अलावा इन लोगों ने आदिवासी जातियों के माइग्रेसन को भी अतिरंजित बनाया है। सुर-असुर के नाम पर आदिवासियों को देखने का नस्ली नजरिया है। साम्राज्यवादी विचारकों ने इसी तरह कोर-फ्रिंज के अन्तर्विरोध की बात को भी बेवजह हवा दी है। हिन्दी में इसे केन्द्र-हाशिए के अन्तर्विरोध के नाम से जाना जाता है। इसे हम आदिवासियों के संदर्भ में मुख्यधारा और हाशिए पर पड़े आदिवासियों के अन्तर्विरोध के रूप में देख सकते हैं। इस पदबंध का उदार बुद्धिजीवी भी खुलकर प्रयोग करते हैं।
  आदिवासी अलग-थलग तब ही लगेंगे जब उनको हम भारत का समग्र इमेज के बाहर देखेंगे। वामदलों ने आदिवासियों को भारत की समग्र छबि के अंग के रूप में उन्हें देखा है। आदिवासी पूरे देश से कभी भी अलग नहीं थे,वे हमेशा जुड़े रहे हैं। इनका देश से संबंध था साथ ही पास के राज्यों से भी संबंध-संपर्क था। आदिवासियों का समूचे देश और पड़ोसी राज्यों से जमीनी मार्ग के जरिए गहरा संबंध रहा है। मध्यकाल से लेकर आधुनिककाल तक इस संपर्क-संबंध के प्रमाण उपलब्ध हैं। प्राचीनकाल से उत्तर-पूर्व के राज्य भारत का हिस्सा रहे हैं, इसका विस्तार के साथ इतिहास की किताबों में जिक्र मिलता है। आजादी के बाद पैदा हुए नागा आंदोलन का एकमात्र बड़ा योगदान था उत्तर-पूर्व केराज्यों में बंदूक की संस्कृति की स्थापना। नागा आंदोलन नागालैण्ड की स्थापना के साथ शांत नहीं हुआ। आम आदिवासी में इस आंदोलन से यह संदेश गया कि नागालैण्ड का गठन बंदूक की नोंक पर हुआ है,आदिवासियों को अगर कोई चीज हासिल करनी है तो वे बंदूक की राजनीति करें। नागालैण्ड की मांग को मानने के साथ समूचे उत्तर-पूर्व में समस्याओं का पिटारा खुल गया और इस समूचे क्षेत्र में विभिन्न किस्म के उग्रवादी गुटों की हमलावर कार्रवाईयां बढ़ी हैं। नागा गुटों का यह प्रचार रहा है कि उन्हें जो राज् मिला है वह सशस्त्र संघर्ष की देन है। यही सशस्त्र संघर्ष का छद्म प्रचार ही है जो उत्तर-पूर्व के आदिवासियों में पृथकतावादी-उग्रवादी संगठनों को पैदा करता रहा है। इन दिनों स्थिति य़ह है कि उत्तर-पूर्व में आदिवासियों के हितों की रक्षा के नाम पर बने तमाम उग्रवादी संगठन हफ्ता वसूली, जबरिया कर वसूली,विकास योजनाओं में हफ्ता वसूली,अपहरण,कारचोरी,हत्या आदि के जरिए धन वसूली का व्यापक उद्योग बन चुका है। हाल ही में मीडिया में इसके चौंकाने वाले समाचार आए हैं। जिनमें एक ही चीज साफतौर पर उभर कर आ रही है कि आदिवासी विकास के नाम पर लालगढ़ से लेकर नागालैण्ड तक जितने भी आंदोलन उभरकर सामने आए हैं उनमें कई चीजें साझा हैं। जैसे- इन आंदोलनों का आदिवासियों के हितों के संरक्षण और विस्तार के साथ कोई संबंध नहीं है। उदाहरण के लिए लालगढ़ में चल रहे माओवादी संघर्ष में यह तथ्य सामने आ चुका है कि इस आंदोलन में नेतृत्व करने वाले आदिवासी नहीं हैं। आदिवासी पेड़ नहीं काटते। वे पेड़ की पूजा करते हैं। लेकिन इस इलाके में सक्रिय और माओवादी आंदोलन से जुड़े ‘पुलिस संत्रास विरोघी कमेटी’ के लोगों ने सुरक्षाबलों को लालगढ़ में प्रवेश न करने देने के नाम पर सैंकड़ो पेड़ काट डाले और उन्हें सड़कों पर अवरोध के रूप में पहले इस्तेमाल किया,बाद में सैंकड़ों पेड़ों को अवैध ढ़ंग से बाजार में बेच दिया।  उल्लेखनीय है आदिवासी पेड़ लगाते हैं,उसकी पूजा करते हैं, उसे काटते और बेचते नहीं हैं। ठीक यही फिनोमिना उत्तर-पूर्व के राज्यों में चल रहे आंदोलनों को दौरान भी देखा गया,इसने इस क्षेत्र में टिम्बर माफिया की शक्ल लेली है। टिम्बर माफिया, अवैध हथियारों की स्मगलिंग,फिरौती वसूली, स्थानीय दादा कर आदि इसके चर्चित रूप हैं। माओवादी नेता किसनजी के लैपटॉप और अन्य गिरफ्तार माओवादियों के पास से जो दस्तावेज मिले हैं,झारखण्ड के नेता मधु कोडा के पास से सीबीआई ने छापे के दौरान जो दस्तावेज पकड़े हैं वे इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि माओवाद प्रभावित इलाकों में पंचायतों से लेकर खानों तक माओवादियों का हफ्ता बंधा है और सालाना दो हजार करोड़ रूपये की वे वसूली कर रहे हैं। इन रूपयों से हथियार खरीदने से लेकर कैडरों के पालन-पोषण और बुद्धिजीवियों के खर्चे के लिए धन भी मुहैय्य़ा कराया जाता है। माओवादियों के पास बेनामी धन कैसे पहुँच रहा है और वे उसे कैसे जमा करते हैं। इसका एक ही उदाहरण काफी है। सन् 2009 में पश्चिम बंगाल की पुलिस ने एक युवा माओवादी को गिरफ्तार किया था, इसके बैंक खाते में एक साल में 36 करोड़ रूपये जमा हुए हैं। असम में एक कांग्रेस नेता के माध्यम से 11 सौ करोड़ रूपये उग्रवादी संगठनों के पास विकास खातों में घपला करके पहुँचाया गया। यह तथ्यहाल ही में मीडिया में सुर्खियों में आया है,जिसे सबसे पहले सीएनएन-आईबीएन ने उजागर किया। उत्तर-पूर्व में काम कर रही तमाम सरकारी कंपनियां,तेल कंपनियां और निजी कारपोरेट कंपनियां उग्रवादियों को नियमित हफ्ता देती हैं। इनमें टाटा टी कंपनी द्रवारा उल्फा को सालाना एक करोड़ रूपये सुरक्षा के नाम पर देने का मामला कंपनी के आधिकारिक दस्तावेजों में पाया गया है। इस तथ्य क् प्रकाश में आने के बावजूद इस कंपनी के खिलाफ पुलिस में एफआईआर तक दर्ज नहीं करायी गयी। इसी तरह बोडोलैण्ड आंदोलन के संचालक ‘नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैण्ड ’ को 1994-95 और 1995-96 में विलियमसन मगर नामक कंपनी ने एक करोड़ चंदा दिया था,यह तथ्य कंपनी के आधिकारिक ऑडिट खाते में पाए गए हैं। इसी तरह एक छोटी कंपनी भेरगांव टी स्टेट ने पच्चीस लाख रूपये दिए। इस कंपनी के एक ही साल में दो अपहरण का घटनाएं झेलनी पड़ीं। उल्लेखनीय है कि 1990 में असम के राज्यपाल देवीदास ठाकुर ने राष्ट्रपति को  भेजी रिपोर्ट में लिखा कि अकेले उल्फा ने फिरौती,हफ्ता वसूली,सुरक्षा-कर आदि के नाम पर तकरीबन 400 करोड़ रूपये वसूले हैं। किसी भी सशस्त्र उग्रवादी संगठन को चलाने के लिए बड़े पैमाने पर धन की आवश्यकता होती है। उग्रवादी संगठन शुद्ध विचारधारा के आधार पर नहीं चलते। मसलन् उल्फा जैसे उग्रवादी संगठन को सिर्फ अपने मुख्यालय के लिए के लिए सालाना 30 करोड़ रूपये की जरूरत होती थी। यह जानकारी सुरक्षाबलों को छापे में मिले उल्फा के दस्तावेजों से मिली है। इसके अलावा बटालियन के लिए रसद,गोला-बारूद,हथियार,भोजन,कपड़े आदि के कितने धन की आवश्यकता होती होगी इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। उल्फा के भूटान स्थित मुख्यालय ने अपनी गतिविधियों का पूरा ब्यौरा छापा है। यह एक खुला सच है कि उत्तर-पूर्व उग्रवादियों के फंड सबसे बड़ा स्रोत सरकारी प्रकल्प हैं। सरकारी स्रोतों से धन जुटाना और उससे संगठन चलाना बेहतर धंधा साबित हुआ है। सरकारी सार्वजनिक कंपनियों और बैंक के अधिकारियों से बड़ी रकम ऐंठने में उग्रवादी सफल रहे हैं। उत्तर-पू्र्व के राज्यों के लिए विकास प्रकल्पों के लिए आवंटित धन का अधिकांश हिस्सा उग्रवादी संगठनों के पास जा रहा है। यह बात सरकार जानती है लेकिन इसे रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठा पायी है। उल्फा से जुड़े ठेकेदारों को विकास के बड़े ठेके दिए जाते रहे हैं और उन प्रकल्पों का कहीं पर भी अता-पता नहीं है। इस धंधे में नौकरशाह और राजनेता भी धन खा रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार ग्रामीण विकास के 1992-93 से फरवरी 1998 तक की अवधि में 11.65 बिलियन रूपये आवंटित किए गए। इसमें से मुश्किल से चार बिलियन रूपये ग्रामीण विकास पर वैध योजनाओं पर खर्च हुए हैं,बाकी पैसा उग्रवादी संगठनों और स्थानीय नेताओं ने मिलकर खाया है। विकास फंड का असामाजिक कार्यों के लिए स्थानान्तरण स्वयं में केन्द्र और राज्य सरकार की असफलता को बयान करता है। मीडिया की रिपोर्ट बताती हैं कि उत्तर-पूर्व में सुरक्षा संबंधी खर्चा बढ़ता जा रहा है। सन् 2001 से सालाना 100 करोड़ रूपये सुरक्षा के नाम पर उग्रवादियों की जेब में जा रहे हैं। इसके अलावा विकास फंड से न्यूनतम 10 प्रतिशत धन उग्रवादियों के पास जा रहा है। नागालैण्ड और मिजोरम के उग्रवादी प्रत्येक व्यक्ति से सुरक्षा हफ्ता वसूलते हैं। प्रत्येक सरकारी कर्मचारी को हफ्ता देना होता है।  प्रति तेल टैंकर 3000 हजार प्रतिबार, खाने के गैस सिलेण्डर ले जाने वाले ट्रक से प्रति चक्कर 2000 रूपये,सीमेंट ट्रक से 1000 हजार वसूले जाते हैं। इसके अलावा इस क्षेत्र के उग्रवादी प्रति ट्रक 7000 हजार,टूरिस्ट बस से 12000 हजार रूपये सालाना परमिट शुल्क वसूल करते हैं। मार्च 2008 में सम्पन्न हुए आम चुनाव में नागालैण्ड में 58 उम्मीदवार करोड़पति थे। ये आंकड़े नागालैण्ड इनेक्शन वॉच नामक संगठन ने जारी किए हैं। मेघालय में 27 करोड़पति उम्मीदवार खड़े हुए थे। यह तो छोटे से राज्य का हाल है।  इन सभी उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि थी। इसी तरह मणिपुर में तो उग्रवादियों ने सभी आर्थिक गतिविधियां ठप्प ही कर दी हैं। मणिपुर के मध्यवर्ग के ज्यादातर युवा राज्य के बाहर चले जाते हैं। बाहर ही पढ़ते हैं। उल्लेखनीय है कि उत्तर-पूर्व के राज्यों में एकमात्र त्रिपुरा ऐसा राज्य है जहां पर विकास फंड किसी भी तरह उग्रवादियों के हाथ नहीं लगा है और विकास कार्यों पर सीधे धन खर्च किया जा रहा है। इसके परिणाम भी सामने आने लगे हैं। त्रिपुरा की विकास दर सालाना 9 प्रतिशत दर्ज की गयी है। सरकार फंड का उग्रवादियों को मिलना एकदम बंद है। कभी-कभार उग्रवादी संगठन हिंसा की वारदात करने में सफल हो जाते हैं। कुछ इलाकों में नियमित रूप से उग्रवादी अभी भी हफ्ता वसूल रहे हैं। लेकिन सरकारी फंड का स्रोत बंद है। इससे राज्य की आर्थिक दशा में तेजी से परिवर्तन आया है। 
 





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...