मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

हिन्दी साहित्यालोचना का नीरा राडिया पंथ


       ‘आलोचना’पत्रिका ने हाल के बरसों में किसी गंभीर साहित्यिक बहस को जन्म नहीं दिया है। और न हिन्दी में किसी आलोचक को प्रतिष्ठित ही किया है सिवाय संपादक नामवर सिंह के। फिर भी हिन्दी में उसे आलोचना की महान पत्रिका कहते हैं। सोचने वाली बात यह है यह पत्रिका भी अब प्रायोजन और फिक्सिंग के नीरा राडिया मार्ग की पथिक हो गयी है। सवाल उठता है आलोचना में प्रकाशक की मार्केटिंग रणनीति के तहत चल रहा राडिया मार्ग आलोचना और साहित्य को आखिर कहां ले जाएगा ? इतने बड़े आलोचक के संपादन में निकलनी वाली पत्रिका ने किसी साहित्यिक आंदोलन को जन्म क्यों नहीं दिया ? किसी आलोचक या आलोचकों के समूह को हिन्दी में प्रतिष्ठित क्यों नहीं किया ?
   नामी-गिरामी समीक्षकों को संपादक बनाकर रखने वाली और महत्वपूर्ण कहलाने वाली इस पत्रिका ने साहित्य की श्रीवृद्धि की है । प्रकाशन समूह की प्रतिष्ठा बढ़ायी है। संपादक के नाम को रोशन किया है। लेकिन हिन्दी में किसी भी साहित्यांदोलन का नेतृत्व नहीं किया है।
     हाल के वर्षों में हिन्दी में नीरा राडिया पंथ (साहित्य में जन-संपर्क की रणनीति) कई मौकों पर अपने गुल खिला चुका है और साहित्य के अंदर तथाकथित प्रायोजित उत्तेजना भी पैदा कर चुका है। अलका सरावगी से लेकर धर्मवीर की किताबों को जनप्रिय बनाने और पुरस्कार दिलाने में राडिया मार्ग मददगार साबित हुआ है। इस मार्ग पर चलने से साहित्य को कम और प्रकाशक को ज्यादा लाभ हुआ है। बाजार की नव्य़ उदार तिकड़मों में माहिर हिन्दी के चंद प्रकाशक कैसे सरकारी रसद पर येन-केन प्रकारेण छापेमारी करते हैं, इसके किस्से किसी भी व्यक्ति से दरियागंज में सहज ही जाने जा सकते हैं। आप यह भी जान सकते हैं कि आखिरकार कौन सा प्रकाशक है जो सरकारी खरीद पर पल रहा है। मजेदार बात यह है कि हिन्दी प्रेस में उसके किस्से प्रकाशित नहीं होते।
     हिन्दी के एक सबसे बड़े प्रकाशन समूह की विशेषता है कि वह अधिकांश लेखकों को रॉयल्टी नहीं देता,पैसे लेकर किताबें छापता है। आश्चर्य की बात है कि इस पर कभी प्रगतिशील आलोचकों को गुस्सा नहीं आता। कभी किसी समीक्षक ने उस महान प्रकाशक को किताब देने से मना नहीं किया। किसी लेखक संगठन ने पारदर्शिता की मांग नहीं की।
    ‘नया ज्ञानोदय’ में एक घटिया प्रतिक्रिया पर बबाल करने वाले लेखकों की चेतना को इस प्रकाशन समूह की नव्य उदार तिकडमों और नीरा वाडिया टाइप हरकतों से कोई परेशानी क्यों नहीं होती  ? जबकि लेखक की रॉयल्टी खा जाना,किताब छापने के लिए पैसे मांगना ज्यादा गंभीर अपराध है और इसका प्रतिवाद किया जाना चाहिए। लेकिन मजाल है कि हमारे ज्ञानी-गुणी प्रगतिशील विद्वान कभी इस पर बोलें और बिलबिलाएं और कहें कि हम ऐसे प्रकाशक का एक लाख का इनाम नहीं लेंगे। उसे छापने के लिए किताब नहीं देंगे।  मजेदार बात यह है लेखकों के माल पर डाका डालने वाला ही लेखकों का रहबर बना हुआ है,इसी संदर्भ में हम देखें तो पाएंगे कि प्रकाशनजगत और समीक्षाजगत में हम नीरा राडिया के मार्ग पर चल पड़े हैं। यह बेहद दुखद और अपमानजनक स्थिति है।
     मैं निजी तौर पर ऐसे अनेक नामी लेखकों को जानता हूँ जिनकी पैसा लेकर किताबें छापने की जानकारी स्वयं मुझे उन्होंने दी । और यह भी कहा कि कभी भी एक पैसा रॉयल्टी का उस बड़े प्रकाशक ने नहीं दिया है । ऐसा नहीं है कि यह प्रकाशक सबका पैसा खा जाता है कुछ लेखकों-आलोचकों-प्रोफेसरों और नौकरशाहों को रॉयल्टी के बहाने पैसे खिलाता भी है। कुछ को रॉयल्टी भी देता होगा। लेकिन आमतौर पर इस बड़े प्रकाशक और उसके साथ जुड़ी साहित्य की नीरावाडिया (जन संपर्क टीम) टीम ने साहित्य में प्रायोजन और धंधे की महत्ता को स्थापित किया है। इस परंपरा का आरंभ बहुत पहले हो चुका था लेकिन आम लेखकों ने इसके खिलाफ कभी कुछ भी बोला नहीं है। ज्यादातर लेखक संगठन भी इस मामले में शांत हैं। वे ललचाई नजरों से देखते रहते हैं कि भाई हमें भी कुछ मिले, कुछ न सही हमारी पत्रिका का विशेषांक ही किताब के रूप में छापकर बेच दिया जाए इस प्रकाशक के जरिए। एक खास तरह की साहित्यिक फिक्सिंग कर दी गई है और इसमें अनेक नामी समीक्षक शामिल कर लिए गए हैं या वे स्वेच्छा से शामिल हो गए हैं।
    सुना है ‘आलोचना ’पत्रिका में कबीर पर लिखी पुरूषोत्तम अग्रवाल की आलोचना किताब पर कुछ खास प्रायोजित लेख आने वाले हैं। हमारी समस्या यह नहीं है कि कबीर पर जो किताब आयी है उस पर अनेक समीक्षकों को प्रायोजित ढ़ंग से क्यों लिखाया जा रहा है ,हमारी आपत्ति साहित्य के प्रायोजन पर है।
    साहित्य का प्रायोजन और फिर लक्ष्य को फिक्स करने की कला नीरा वाडिया कला है। इसका साहित्य की पहली और दूसरी परंपरा से कोई लेना-देना नहीं है। वैसे यह प्रकाशक प्रायोजित कला में माहिर है और उसके ही मेनीपुलेशन का खेल है कि दूरदर्शन के राष्ट्रीयचैनल से आने वाली समस्त पुस्तक समीक्षाओं में 80 प्रतिशत से ज्यादा इसी प्रकाशन ग्रुप के द्वारा प्रकाशित किताबों के रिव्यू नामवर सिंह करते हैं।
    नया खेल कबीर के नए अर्थ खोलने वाले पुरूषोत्तम अग्रवाल की किताब पर केन्द्रित प्रायोजित समीक्षाओं से जुड़ा है। कल मेरे एक साहित्यिक मित्र -शिक्षक और छात्र वेदरमण ने बताया आलोचना पत्रिका का पुरूषोत्तम अग्रवाल की किताब पर केन्द्रित अंक आने वाला है या आ गया है। खैर, जो भी हो, महत्वपूर्ण यह है कि अब समीक्षा की एक सामान्य किताब को महान किताब बनाने की मुहिम में हिन्दी के विद्वतजन जुट गए हैं। हम विनम्रता के साथ कहना चाहते हैं यह साहित्य में नीरा राडिया मार्ग पर जाना है,यह साहित्यालोचना के उत्थान की खबर नहीं है।
    इससे भी बड़ी समस्या है जिसका कायदे से नामवरसिंह जबाब दें कि कबीर जब इतने ही महान थे तो उन्होंने अपने जीवन में कबीर पर कोई शोधकार्य क्यों नहीं किया ? एक भी शोधपत्र क्यों नहीं लिखा ? स्वतंत्र भारत में बड़ी मुश्किलों से हिन्दी को मध्यकालीनता के जंजाल से हिन्दी के साहित्यकार छुड़ा पाए हैं अब अचानक कबीर पर लिखी  ‘अकथ कहानी प्रेम की’ किताब के बहाने वे हिन्दी को अतीत के अंधे कुए में ले जाना चाहते हैं। इससे वे किस महान लक्ष्य को हासिल करना चाहते हैं ?
   पुरूषोत्तम अग्रवाल बड़े हैं और सर्वोच्च सरकारी पद की शोभा बढ़ा रहे हैं ,वे चाहें तो उनकी सेवा में हिन्दी के अनेक बड़े लेखक कुछ भी लिख सकते हैं। वे जब तक इस पद पर हैं साहित्य के सारे बैल उनके खूंटे से बंधे रहेंगे।  लेकिन अचानक जिन आलोचकों और लेखकों को उनमें महान समीक्षक नजर आ रहा है उसके बारे में यही कहना है कि वह एक सामान्य अच्छी शोध है जो हर शोधार्थी करता है। इसमें महान जैसा कुछ नहीं है। कबीर उनके प्रिय हैं,उनकी पीएचडी के विषय भी हैं। यह सुंदर किताब है और इसमें कबीर पर सुंदर ढ़ंग से लिखा गया है।
     लेकिन विनम्रतापूर्वक कहना चाहेंगे इस किताब का भारत के,हिन्दी के सामयिक साहित्यिक सवालों,आलोचना की समस्याओं आदि से कोई लेना-देना नहीं है। यह किताब हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य और स्त्री साहित्य को अपदस्थ करने और हाशिए पर डालने के बृहद प्रयास के तहत नीरा राडिया मार्गी तरीकों के जरिए प्रमोट की जा रही है।
    नामवर सिंह और उनकी भक्तमंडली एकबात का जबाब दे कि कबीर यदि इतने ही प्रासंगिक हैं तो जरा यह बताएं कि हिन्दी के आधुनिक कबीर नागार्जुन से लेकर केदारनाथ अग्रवाल,मुक्तिबोध, शमशेर,अज्ञेय आदि ने कभी कबीर पर क्यों नहीं लिखा ? स्वयं नामवर सिंह ने कोई किताब क्यों नहीं लिखी ? नव्य उदार दौर में मध्यकालीन कवियों की महत्ता का आख्यान क्या हमारे सामयिक साहित्यिक सवालों और समस्याओं का जबाब दे सकता है ? यदि ऐसा ही था तो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से लेकर निराला तक किसी ने भी मध्यकालीन लेखकों का मार्ग क्यों नहीं पकड़ा ? मध्यकालीन कवियों के पास ही सामयिक साहित्यिक समस्याओं के समाधान थे तो हमें आधुनिककाल में नए विषयों और नए साहित्यिक नजरिए की खोज की ओर मुखातिब क्यों होना पड़ा ? जिन चार बड़े कवियों का हिन्दी में इस साल जन्मशती वर्ष मनाया जा रहा है उनमें से कोई भी कवि कबीर के मार्ग पर जाने को तैयार नहीं है और अचानक हिन्दी का एक समीक्षक आधुनिककाल के समस्त आलोचना पदबंधों का खिलंदडभाव से उपयोग करते हुए आलोचना में मध्यकाल में आधुनिककाल खोज लाया है। आलोचना का यह प्रगतिशील दृष्टिकोण नहीं है बल्कि नव्य उदार नजरिया है। इसका सामयिक मध्यकालीन भावबोध के नव्य उदार धार्मिक वातावरण से गहरा संबंध है।
   यह सच है पुरूषोत्तम अग्रवाल ने कबीर का सुंदर पुनर्मूल्यांकन किया है। लेकिन इस मूल्यांकन का आलोचना और रचना की सामयिक समस्याओं से कोई संबंध नहीं है। कबीर ने कभी सोचा भी नहीं था कि उनके बारे में दलित विमर्श होगा,आधुनिकता विमर्श होगा,स्त्री विमर्श होगा,उत्तर आधुनिक विमर्श होगा। नए विमर्शों को खींचकर मध्यकाल में ले जाने की अपनी मुश्किलें हैं और इनसे समीक्षा कहीं नहीं पहुँची है।
    आलोचना वर्तमान से भविष्य की ओर जाती है। पुरूषोत्तम अग्रवाल की मुश्किल यह है कि उनकी समीक्षा वर्तमान से अतीत की ओर जाती है। उनके पास आधुनिक समीक्षा के पदबंध हैं और उनके अर्थ और भूमिकाएं वे वे मध्यकाल में खोज रहे हैं। मध्यकालीन कविता को तत्कालीन साहित्य समीक्षा की अवधारणाओं में खोजा जाना चाहिए। इस तरह की आलोचना को नीरा वाडिया की पदावली में साहित्यिक फिक्सिंग कहते हैं।
     मुश्किल यह है कि पुरूषोत्तम अग्रवाल मध्यकालीन आलोचना के पदबंधों में कम जाते हैं और आधुनिक आलोचना के पदबंधों और अवधारणाओं का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। मसलन- आधुनिकता,देशज,औपनिवेशिक, स्त्रीत्व,फैंटेसी,यूटोपिया,लोकवृत्त, उत्तर आधुनिकता, नस्ल,यूरो केन्द्रिकता,ओरिएंट आदि आधुनिक अवधारणाएं हैं इनका उदय और अर्थ वर्तमान या आधुनिक समाज से जुड़ा है। इसे मध्यकाल में ले जाकर लागू करना सही नहीं है। लेकिन अपने खिलंदडभाव में पुरूषोत्तम अग्रवाल ने यह काम खूब किया है।   
पुरूषोत्तम अग्रवाल की दूसरी बड़ी मुश्किल यह है कि वे बातें आधुनिक अवधारणाओं पर करना चाहते हैं लेकिन संदर्भ मध्यकाल का ऱखना चाहते हैं। आधुनिक अवधारणाओं पर मध्यकालीनता के आधार पर बातें करना वैसे ही ही है जैसे उत्तर आधुनिक कट एंड पेस्ट की पद्धति का इस्तेमाल करना।
    तीसरी मुश्किल है वे जाना चाहते हैं आधुनिकककाल में लेकिन जाएंगे मध्यकाल में से होकर । आधुनिक से आधुनिक की ओर की यात्रा तो सुनी थी थी लेकिन आधुनिक से मध्यकाल और फिर आधुनिककाल में लौटने के अतार्किक मार्ग से गुजरी कार रेस हम पहली बार देख रहे हैं। कम से कम रामचन्द्र शुक्ल,हजारीप्रसादद्विवेदी,राहुल सांकृत्यायन, पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, नंददुलारे बाजपेयी आदि की मध्यकालीन कवियों पर केन्द्रित किताबों में यह समस्या तो नहीं है कि आधुनिककाल की अवधारणाओं की रोशनी में मध्यकाल को देखो। वे मध्यकालीन कवि को तत्कालीन परिप्रेक्ष्य और अवधारणाओं की रोशनी में देखते हैं,वे मध्यकाल में आधुनिककाल खोजने नहीं जाते। मध्यकाल में आधुनिककाल की खोज करना अवैज्ञानिक आलोचना है। यह आलोचना का सब-वर्जन है। इस सब-वर्जन को प्रायोजित समीक्षाओं के जरिए वैधता प्रदान करने की कोशिश की जा रही है।
    अंत में, एक बात और कहनी है कि प्रायोजित समीक्षाओं से न तो महान समीक्षक-लेखक पैदा होता है और न महान समीक्षा। पुरूषोत्तम अग्रवाल कोई गुमनाम लेखक नहीं है। वह विगत 30 सालों से ज्यादा समय से मीडिया से लेकर साहित्यिक पत्रिकाओं में धुंधाधार लिखते रहे हैं। उनकी इस किताब के पहले भी कई किताबें आ चुकी हैं। सवाल यह है कि उनके लोक संघ सेवा आयोग के सदस्य बनाए जाने के बाद ही नामवर सिंह से लेकर अन्य दूसरे प्रशंसक समीक्षकों को पुरूषोत्तम अग्रवाल महान क्यों दिखने लगे हैं ? इसके पहले उनके किसी भी विचारवान लेख में इन लोगों को उल्लेखनीय दम नजर क्यों नहीं आया ? इससे पहले कभी हिन्दी आलोचकों और स्वयं नामवर सिंह ने पुरूषोत्तम अग्रवाल के लिखे निबंध या किताब पर जमकर लिखा क्यों नहीं ? यह कैसा आलोचकभाव है जिसके कारण अब पुरूषोत्तम अग्रवाल अचानक लोक संघ सेवा आयोग के सदस्य बनने के बाद महान दिखने लगे ! इसे समीक्षक की महत्ता नहीं पद की महत्ता कहना सही होगा। यह साहित्य में नीरा वाडिया मार्का साहित्यिक फिक्सिंग हैं। यह साहित्य में पकड़ो और लिखाओ का मार्ग है।





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...