शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

आदिवासियों में संसाधन के अभाव का मिथ

    समाजविज्ञानी गुलशन सचदेवा ने ‘डिमिस्टाफाइ नॉर्थ-ईस्ट’ (डायलॉग,जनवरी-मार्च 2006) लेख में विस्तार के साथ उत्तर-पूर्व के बारे में प्रचारित मिथों का तथ्यों के आधार पर खंडन किया है।  उत्तर-पूर्व के बारे में यह मिथ है कि यह समूचा इलाका आदिवासी इलाका है, सन् 2001 की जनगणना के आधार पर कह सकते हैं कि मात्र एक-चौथाई आबादी आदिवासी है। सिर्फ मिजोरम,मेघालय,नागालैण्ड और अरूणाचल प्रदेश में आदिवासी बहुसंख्यक हैं। इन राज्यों के भी शिक्षित युवाओं में आदिवासी संस्कृति कम और मॉडर्न मासकल्चर के दर्शन ज्यादा होते हैं। ये लोग कहीं से भी हाशिए के लोग प्रतीत नहीं होते। इन युवाओं की पश्चिमी वेशभूषा और पश्चिमी जीवनशैली इनकी विशेषता है।
    उत्तर-पूर्व के आदिवासियों की इस समूचे क्षेत्र में आबादी है एक-चौथाई और इनका इस क्षेत्र की दो-तिहाई जमीन पर कब्जा है। वे ही इसके मालिक- प्रबंधक हैं। आदिवासी इलाकों में रहने वाले गैर आदिवासी जमीन नहीं खरीद सकते। इससे आदिवासी और गैर आदिवासी के बीच में समानता के सिद्धांत के बारे में गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं। यह एक तरह से भारत के संविधान में नागरिक को प्रदत्त मुक्त आवागमन-व्यापार-निवास-खरीद-फरोख्त आदि के संवैधानिक हक का खुला उल्लंघन है। यदि हम यह मान लें कि भारत सरकार इन इलाकों में बाहरी लोगों के प्रवेश को रोकना चाहती है तो यह ते भूमंडलीकरण के मुक्त व्यापार,आवागमन आदि का खुला उल्लंघन है। उत्तर-पूर्व की समस्या को हमारे नीति निर्धारकों ने सामान्य समस्या के रूप में न लेकर विशेष समस्या के रूप में लिया है। इस क्षेत्र के विकास को विशेष क्षेत्र के रूप में चिह्नित करके रखा है,आदिवासियों को सामान्य संरक्षण की बजाय विशेष संरक्षण दिया है,इससे खास किस्म का सामंती ढ़ांचा इन इलाकों में पैदा हुआ है। इससे इस क्षेत्र का विकास कम हुआ है,समस्याएं बढ़ी हैं।
   यह मिथ है कि उत्तर-पूर्व के लिए फंड का अभाव है। फंड के अभाव में विकास नहीं होरहा। इसके लिए सरकारी एजेन्सियों के रंग-बिरंगे आंकड़ों का इस्तेमाल किया जा रहा है। सच यह है कि उत्तर-पूर्व के राज्यों के लिए केन्द्र सरकार के द्वारा पर्याप्त मात्रा में धन मुहैय्या कराया जा रहा है। सन् 190-91 से 2002-03 के बीच में 1,08,504 करोड़ रूपये दिए गए। इसमें असम को 43,000 करोड़ रूपये केन्द्र ने दिए। अरूणाचल 9,900 करोड़ ,मणिपुर 11,500 करोड़ रूपये,मेघालय 9,000 करोड़ रूपये, त्रिपुरा को 14,000 करोड़ रूपये ,नागालैण्ड 12,000 करोड़ रूपये और मिजोरम को 9,000 करोड़ रूपये दिए गए। यह कुल भुगतान है जो केन्द्र ने किया है। इसमें से कुछ राशि ऐसी है जो केन्द्र को कर्ज  ब्याज और मूलधन के भुगतान के लिए वापस देनी पडी होगी।  यह राशि काटकर कुल मिलाकर उत्तर-पूर्व के राज्यों को 92,000 हजार करोड़ रूपये मिले हैं। अतः यह कहना कि उत्तर-पूर्व के विकास के लिए पैसा नहीं मिलता यह बात सही नहीं है। बल्कि ज्यादा पैसा मिल रहा है।
    शिक्षा के क्षेत्र में उच्च साक्षरता का मिथ प्रचारित किया जा रहा है। यह कहा जा रहा है कि उत्तर-पूर्व के राज्यों में साक्षरता की दर ज्यादा है ,इस मिथ का खंडन करते हुए गुलशन सचदेवा ने लिखा है कि शिक्षा के क्षेत्र में इस क्षेत्र की  बढ़त के कुछ ऐतिहासिक-सामाजिक कारण हैं। इसके बावजूद शिक्षा के क्षेत्र में बढ़त के अतिरंजित होकर नहीं देखना चाहिए। उत्तर-पूर्व में कुछ क्षेत्र हैं जहां साक्षरता दर ज्यादा है। लेकिन समग्रता में उत्तर-पूर्व को देखें तो पाएंगे कि वहां साक्षरता दर 64.5 प्रतिशत है,जो औसत राष्ट्रीय साक्षरता दर से कम है। यहां तक कि पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल की साक्षरता दर (69.22 प्रतिशत) से भी कम है। कम साक्षरता दर अरूणाचल प्रदेश,असम,मेघालय में है।सन् 2001 की जनगणना के अनुसार उत्तर-पूर्व के 72 जिलों में से 35 जिलों की साक्षरता दर राष्ट्रीय साक्षरता दर से भी नीचे है। सन् 2001 की जनगणना के आंकडे बताते हैं कि अरूणाचल में 54.74 प्रतिशत,असम 64.28प्रतिशत, मणिपुर 68.87 प्रतिशत,मेघालय 63.31 प्रतिशत,मिजोरम 88.49 प्रतिशत,नागालैण्ड 67.11 प्रतिशत,सिक्किम 69.68 प्रतिशत,त्रिपुरा 73.66 प्रतिशत,उत्तर-पूर्व की साक्षरता दर 64.48 प्रतिशत और राष्ट्रीय साक्षरता दर 65.38 प्रतिशत आंकी गयी है।
उत्तर-पूर्व के बारे में यह मिथ है कि यह गरीब इलाका है। तथ्य इसकी पुष्टि नहीं करते। प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े बताते हैं कि सन् 1950-51 में इस क्षेत्र की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति आय से भी ज्यादा थी। सन् 1980-81 में प्रति व्यक्ति आय 789 रूपये थी जो 2000-01 में 3776 रूपये ( 1993-94 के मूल्य के आधार पर ) और सन् 2007-08 में प्रति व्यक्ति आय बढ़कर 7632 रूपये हो गयी है।  

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