'आत्महत्या' शब्द के बारे में वार्तालाप में निरंतर चर्चा होती रहती है। अत: ऐसा सोचा जा सकता है कि इसके बारे में सब जानते हैं और इसकी परिभाषा देना फुजूल है। वास्तव में रोजमर्रा की भाषा के शब्द और उनसे जो अवधारणाएं व्यक्त की जाती हैं उनके हमेशा एक से अधिक अर्थ हो सकते हैं। जो विद्वान उनका प्रयोग उनके स्वीकृत अर्थ में करते हैं और कोई परिभाषा नहीं देते वे गंभीर गलतफहमी का शिकार हो सकते हैं। उनका अर्थ इतना अनिश्चित होता है कि हर मामले में तर्क तकाजे के अनुरूप बदलता रहता है। जिस वर्ग से उन्हें लिया जाता उसे किसी विश्लेषण द्वारा तैयार नहीं किया जाता। उन्हें भीड़ की भ्रमित धारणाओं के आधार पर तैयार कर लिया जाता है। तथ्य के बहुत भिन्न रूपों को बगैर सोचे-समझे एक श्रेणी में डाल दिया जाता है या एक जैसी वास्तविकताओं को अलग-अलग नाम दे दिए जाते हैं। इस प्रकार यदि हम आम प्रयोग का अनुसरण करेंगे तो हम जिसे जोड़ा जाना चाहिए उसे अलग-अलग कर देंगे और जिसे अलग-अलग किया जाना चाहिए उसे इकट्ठा कर देंगे। हम वस्तुओं की सादृश्यता को लेकर गलती कर बैठेंगे और उनके स्वरूप को नहीं पकड़ पाएंगे। केवल तुलनीय तथ्यों पर विचार करके ही वैज्ञानिक अनुसंधान किया जा सकता है और इसमें अधिक निश्चित सफलता तभी मिल सकती है जब सभी तुलनीय तथ्यों को इकट्ठा कर दिया जाए। लेकिन सत्ताओं की स्वाभाविक सादृश्यताओं को सतही जांच द्वारा स्पष्ट नहीं किया जा सकता, जैसा कि आम शब्दावली में किया जाता है। इस प्रकार विद्वान आम प्रयोगों के शब्दों के अनुरूप इकट्ठे किए गए तथ्य समूहों को अपने अनुसंधान का विषय नहीं बना सकता। उसे अपने अध्ययन के लिए खुद समूह बनाने चाहिए ताकि उन्हें सदृश्यता और विशेष अर्थ दिया जा सके। तभी वे वैज्ञानिक विचार के काबिल बन सकेंगे। फूलों या फलों की बात करने वाला वनस्पतिज्ञ और मछलियों या कीड़ों की बात करने वाला प्राणिविज्ञानी पूर्व निर्धारित अर्थों में इन शब्दों का प्रयोग करता है।
हमारा पहला काम आत्महत्या शीर्षक के अंतर्गत अध्ययन के लिए तथ्यों का क्रम निर्धारण होना चाहिए। हमें यह जांच करनी चाहिए कि क्या मृत्यु के विभिन्न रूपों में से कुछ में ऐसी वस्तुपरक सामान्य विशेषताएं हैं जो सभी ईमानदार प्रेक्षकों को नजर आती हैं और इतनी विनिर्दिष्ट हैं कि अन्यत्र नहीं पाई जातीं और सामान्य तौर पर आत्महंतक कहे जाने वाले व्यक्तियों से संबध्द हैं। तभी हम इस शब्द को उसके सामान्यत: प्रयुक्त अर्थ में रख सकते हैं। यदि ऐसे रूप मिलते हैं तो हम इस शीर्षक के अंतर्गत उन सभी तथ्यों को रखेंगे जिनमें ये पृथक विशेषताएं हैं भले ही इस कवायद से इस वर्ग में वे सभी मामले शामिल न हो पाएं जिन्हें सामान्यत: इसमें शामिल किया जाता है या अन्यथा दूसरे वर्ग में रखे जाने वाले मामले इसमें शामिल हो जाएं। महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि औसत बुध्दि किसे आत्महत्या मानती है बल्कि इस तरह के वर्गीकरण को संभव बनाने वाली वस्तुओं की श्रेणी को निर्धारित करना है। यह निर्धारण वस्तुपरक होना चाहिए और वस्तुओं के निश्चित पक्ष के अनुरूप होना चाहिए।
मृत्यु के विभिन्न प्रकारों में कुछ में यह खास विशेषता होती है कि वह खुद शिकार व्यक्ति का ही कृत्य होती है, ऐसे कृत्य का परिणाम जिसका कर्ता पीड़ित व्यक्ति ही होता है। आत्महत्या संबंधी सामान्य विचार में यही विशेषता निश्चित रूप में बुनियादी तत्व है। इस तरह से होने वाले कृत्यों के आंतरिक स्वरूप का कोई महत्व नहीं है। सामान्यत: आत्महत्या को एक सकारात्मक हिंसक कार्रवाई माना जाता है जिसमें शारीरिक ऊर्जा का प्रयोग किया जाता है लेकिन किसी विशुध्द रूप में नकारात्मक रवैए या मात्र अकारण का भी वही परिणाम हो सकता है। खाना खाने से इनकार उतना ही आत्महत्यात्मक है जितना कि खंजर या गोली से खुद को नष्ट करना। मृत्यु को कृत्य का परिणाम मानने के लिए उसका मृत्यु से ठीक पहले होना जरूरी नहीं है। तत्व के स्वरूप को बदले बगैर कारण-कार्य संबंध अप्रत्यक्ष हो सकता है। जब कोई बागी व्यक्ति शहीद सम्मत विजय की उम्मीद में बहुत बड़ा समझा जाने वाला द्रोह करता है और जल्लाद के हाथों मारा जाता है तो वह बिलकुल वैसे ही अपनी मृत्यु को प्राप्त करता है जैसे कि उसने स्वयं अपने ऊपर आघात किया हो। इस तरह की दो स्वैच्छिक मृत्युओं को अलग वर्गों में डालने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि उनके अंत के भौतिक हालातों में ही अंतर है। इस तरह से हम अपने पहले सूत्र पर पहुंचते हैं :आत्महत्या शब्द किसी भी ऐसी मृत्यु के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है जो खुद शिकार व्यक्ति के सकारात्मक या नकारात्मक कृत्य का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष परिणाम हो।
लेकिन यह परिभाषा अपूर्ण है। यह दो एकदम अलग प्रकार की मृत्युओं में भेद नहीं करती। किसी भ्रमित व्यक्ति के खिड़की से यह सोचकर बाहर कदम रखने कि वह समतल जमीन पर कदम रख रहा है और गिर कर मर जाने और दूसरे होशोहवास वाले व्यक्ति द्वारा जानबूझकर ऐसा करके मर जाने में अंतर है। मृत्यु के कुछ ऐसे मामले भी हैं जो सीधे-सीधे या दूर-दूर तक कर्ता के कृत्य का परिणाम नहीं हैं। मृत्यु के कारण भीतरी नहीं बल्कि बाहरी हैं।
क्या आत्महत्या उसी समय मानी जाएगी जब मृत्यु में परिणत होने वाला कृत्य शिकार व्यक्ति द्वारा इसी परिणाम के लिए किया गया हो? क्या उसी व्यक्ति को खुद को मारने वाला कहा जाएगा जिसमें ऐसा करने की इच्छा थी और क्या आत्महत्या जानबूझकर स्वयं को मारना है? सबसे पहले तो यह आत्महत्या की ऐसी विशेषता हुई जिसका आसानी से प्रेक्षण और संज्ञान नहीं किया जा सकता, भले ही इसका कितना भी महत्व हो। एजेंट की अभिप्रेरणा का कैसे पता लगाया जाए, जब उसने संकल्प किया तो क्या वह उस समय स्वयं को मारना चाहता था या उसका और कोई उद्देश्य था। मंशा इतनी अंतरंग चीज है कि दूसरा व्यक्ति उसकी लगभग से अधिक व्याख्या नहीं कर सकता। इसका आत्मप्रेक्षण भी नहीं किया जा सकता। कितनी ही बाद हम अपने कृत्यों का सही कारण नहीं समझ पाते। हम क्षुद्र भावनाओं के साथ या अंधे होकर नैमी तौर पर किए गए कृत्यों को बड़े जोश और उच्च इरादों के साथ किए गए कृत्य बताते हैं।
इसके अलावा सामान्य तौर पर भी किसी कृत्य को उसके कर्ता के लक्ष्य द्वारा परिभाषित नहीं किया जा सकता क्योंकि आचरण की समरूप प्रणाली को उसके स्वरूप को बदले बगैर अलग-अलग लक्ष्यों की ओर मोड़ा भी जा सकता है। यदि आत्मनाश की मंशा ही आत्महत्या है तो उन तथ्यों को आत्महत्या नाम नहीं दिया जा सकता जो स्पष्ट अंतरों के बावजूद उन तथ्यों से मेल खाते हैं जिन्हें आत्महत्या कहा जाता है और इस शब्द को निकाल कर ही उनकी अन्यथा व्याख्या की जा सकती है। अपनी रेजिमेंट को बचाने के लिए निश्चित मौत का सामना करने वाला सिपाही मरना नहीं चाहता, लेकिन क्या वह अपनी मृत्यु का वैसा ही कर्ता नहीं है जैसा कि दिवालिएपन से बचने के लिए स्वयं को मारने वाला विनिर्माता या व्यापारी? अपने धर्म के लिए मरने वाले शहीद या अपने बच्चे के लिए कुर्बानी देने वाली मां आदि की भी यही स्थिति है। मृत्यु को अपरिहार्य उद्देश्य के लिए दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम के रूप में स्वीकार किया जाता है या वास्तव में उसे मांगा और चाहा जाता है, दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति अस्तित्व का परित्याग करता है। इसके लिए अपनाए गए विभिन्न तरीके एक ही वर्ग के प्रभेद हैं। उनमें इतनी अधिक अनिवार्य समानताएं हैं कि उन्हें एक सामान्य अभिव्यक्ति में इकट्ठा करना पड़ेगा। वे इस प्रकार स्थापित एक वर्ग के प्रभेद होंगे। सामान्य भाषा में आत्महत्या एक ऐसे व्यक्ति का हताश कृत्य है जो जीना नहीं चाहता। बहरहाल जीवन का परित्याग किया जाता है क्योंकि इसे त्यागने के क्षण में व्यक्ति ऐसा चाहता है। यदि कोई जीव संभवत: सर्वाधिक प्रिय चीज को त्यागना चाहता है तो ऐसे कृत्यों की स्पष्ट रूप में अनिवार्य सामान्य विशेषताएं होनी चाहिए। इस तरह के संकल्पों को कामयाब बनाने वाली अभिप्रेरणाओं में भिन्नताएं गौण भिन्नताएं ही मानी जाएंगी। इस प्रकार यदि
संकल्प जीवन के बलिदान में तब्दील होता है तो वैज्ञानिक तौर पर इसे आत्महत्या ही कहा जाएगा, किस तरह की आत्महत्या यह हम बाद में देखेंगे।
सर्वोच्च परित्याग के इन सभी संभव रूपों की सामान्य विशेषता यह है कि निर्धारक कृत्य जान बूझकर किया जाता है। कृत्य के समय शिकार व्यक्ति अपने आचरण के निश्चित परिणाम के विषय में जानता है भले ही उस कृत्य के पीछे कोई भी कारण रहे हो। इस प्रकार की विशेषता वाले प्राणघातक तथ्य उन सभी तथ्यों से स्पष्ट रूप में भिन्न हैं जिनमें शिकार व्यक्ति अपना अंतकर्ता नहीं है या केवल अनजानकर्ता है। उनमें एक आसानी से पहचाना जा सकने वाला अंतर है। यह पता लगाना असंभव नहीं है कि अपने कृत्य के स्वाभाविक परिणामों की व्यक्ति को अग्रिम तौर पर जानकारी थी या नहीं। इस प्रकार वे एक निश्चित समरूप समूह हैं जिन्हें अन्य समूह से अलगाया जा सकता है। इसलिए उन्हें एक विशेष शब्द दिया जा सकता है। आत्महत्या उनके लिए उपयुक्त शब्द है; और कोई शब्द गढ़ने की जरूरत नहीं है; क्योंकि इस नाम वाली बहुसंख्यक घटनाओं का ताल्लुक इसी वर्ग से है। अब हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं : मृत्यु के उन सभी मामलों को आत्महत्या कहा जाएगा जिनमें मृत्यु खुद शिकार व्यक्ति के सकारात्मक या नकारात्मक कृत्य का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष परिणाम होती है और जब व्यक्ति यह जानता हो कि इसका यही परिणाम होगा। आत्महत्या का प्रयास भी इसी प्रकार परिभाषित कृत्य है। इसमें बस मृत्यु नहीं होती।
इस परिभाषा के चलते पशुओं द्वारा आत्महत्या से संबंधित बात हमारे अध्ययन के दायरे से बाहर हो जाती है। पशु-समझ के बारे में अपनी जानकारी के आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि उन्हें अपनी मृत्यु के बारे में पूर्व समझ होती है या उन्हें इस कृत्य के साधनों की जानकारी होती है। यह पक्की बात है कि कुछ पशु ऐसे स्थान पर नहीं जाना चाहते जहां पर दूसरे मारे गए हैं। ऐसा लग सकता है कि उन्हें मृत्यु का पूर्व ज्ञान होता है। वास्तव में इस सहज प्रतिक्रिया का कारण रक्त की गंध है। जिन मामलों को पूरी प्रामाणिकता के साथ आत्महत्या बताया गया वहां वास्तव में दूसरी ही बात हो सकती है। यदि कोई चिढ़ा हुआ बिच्छू स्वयं को डंक मार देता है (जो कि निश्चित नहीं है) तो यह संभवत: स्वत:स्फूर्त, अविचारित प्रतिक्रिया है। उसकी चिढ़ से उत्पन्न अभिप्रेरणा ऊर्जा संयोग से और यों ही विसर्जित हो जाती है। जीव इसका शिकार हो जाता है, हालांकि ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उसे अपने कृत्य परिणाम की पूर्व कल्पना थी। दूसरी ओर यदि कुछ कुत्ते अपने मालिकों को खो देने के बाद खाना खाने से इनकार करते हैं तो यह इस वजह से है कि क्योंकि दु:ख के कारण उनकी भूख मिट गई है। उनकी मृत्यु हो जाती है, लेकिन बगैर किसी पूर्वाभास के। न तो इस मामले में भूखा रहने और ऊपर वाले मामले में जख्म को ज्ञातप्रभाव का माध्यम माना जा सकता है। इसलिए हम आगे केवल मानव आत्महत्या पर ही विचार करेंगे।
लेकिन इस परिभाषा से न केवल गलत संहतियों और स्वेच्छाचारी बहिष्करणों का अंत होता है बल्कि इससे हमें समूचे नैतिक जीवन में आत्महत्या के स्थान के बारे में विचार प्राप्त होता है। इससे पता चलता है कि आत्महत्याएं एक पूरी तरह पृथक समूह, किसी विकराल तत्व का कोई अलग- थलग वर्ग नहीं है, जिसका आचरण के अन्य रूपों के साथ कोई संबंध नहीं है, बल्कि इनका बीच के मामलों की निरंतर शृंखला के द्वारा आचरण के अन्य रूपों के साथ संबंध रहता है। ये आम प्रथाओं का अतिरंजित रूप मात्र है। हमारा कहना है कि आत्महत्या उस समय मानी जाती है जब शिकार व्यक्ति घातक कृत्य को करने के समय उसके सामान्य परिणाम के बारे में निश्चित रूप से जानता है। यह निश्चितता अधिक या कम हो सकती है। उसमें यदि थोड़ा सा संदेह हो जाए तो नया तथ्य सामने आएगा, आत्महत्या नहीं बल्कि उसके नजदीक की कोई चीज, क्योंकि उनमें केवल मात्रा का अंतर है। घातक परिणाम की निश्चितता के बगैर यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के लिए जानबूझकर जोखिम उठाता है और मर भी जाता है तो इसे आत्महत्या नहीं कहेंगे। उसका कृत्य किसी निडर दुस्साहसी के कृत्य से अधिक नहीं है जो मृत्यु से खेलता है और उससे बचना चाहता है या किसी ऐसे विरक्त मनुष्य का कृत्य जिसकी किसी चीज में रुचि नहीं है, जो अपने स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखता और उपेक्षा द्वारा उसे खराब कर देता है। लेकिन कृत्य के ये विभिन्न रूप सच्ची आत्महत्या से मूलभूत रूप में भिन्न नहीं हैं। ये एक जैसी मानसिक अवस्था के परिणाम होते हैं, एजेंट को ज्ञात प्राणघातक जोखिम रहते हैं और इन जोखिमों की संभावना निवारक का काम नहीं करती। अंतर केवल यही है कि इसमें मृत्यु की संभावना कम होती है। इसी प्रकार यदि कोई विद्वान अपने अध्ययन के प्रति अत्यधिक समर्पण के कारण मर जाता है तो यह कहना उचित ही होगा कि उसने खुद को अपनी मेहनत से मार दिया। ये सब तथ्य एक तरह की अविकसित आत्महत्या है। प्रणाली विज्ञानिक रूप से यह पक्की आत्महत्या नहीं है और इसे पूर्ण आत्महत्या नहीं माना जाना चाहिए। लेकिन साथ ही इसके साथ उसके निकट संबंध की उपेक्षा भी नहीं की जानी चाहिए। आत्महत्या उस समय बिलकुल अलग चीज लगने लगती है जब उसका अटूट संबंध साहस और समर्पण के कृत्यों और विवेकहीनता और स्पष्ट उपेक्षा से जुड़ जाता है। इन संबंधों के स्वरूप को हम आगे देखेंगे।(क्रमशः)
विभिन्न प्रकार का विश्लेषण
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