रविवार, 5 दिसंबर 2010

साहित्यिक मजमेबाजी के प्रतिवाद में

   
          एक जमाना था हिन्दी साहित्य में य़थार्थ का चित्रण होता था। विचारधारात्मक बहसें होती थीं। नए मानकों पर आलोचना लिखी जाती थी। इन दिनों हिन्दी साहित्य को तमाशबीनों और मेले-ठेले की संस्कृति ने घेर लिया है। पहले साहित्य में उत्सव गौण हुआ करते थे अब प्रधान हो गए हैं। यह साहित्य में तमाशबीन संस्कृति के आने का संकेत है। साहित्य में तमाशेखोरी ,मजमेबाजी को साहित्यकर्म समझना ठीक नहीं होगा। यह साहित्य का बदला हुआ पैराडाइम है। यह परवर्ती पूंजीवाद के गहरे असर का लक्षण है। परवर्ती पूंजीवाद ने हर चीज को तमाशेखोरी और नज़ारे में बदल दिया है।       
भारत तमाशबीनों का देश बनकर रह गया है। इसमें नागरिक नहीं तमाशबीन निवास करते हैं। तमाशबीनों की तरह आज हम सब एक-दूसरे को देख रहे हैं। पूरे समाज को देख रहे हैं।
      अब हम किसी के दोस्त नहीं रहे। रिश्तेदार-नातेदार नहीं रहे। परिचित मात्र हैं। तमाशबीन हैं। तमाशबीन की तरह एक-दूसरे के जीवन में तांक-झांक करते हैं। हम कब तमाशबीन में रूपान्तरित हो गए ? तमाशबीन होने से क्या होता है ? तमाशबीनों की बृहत्तर जमात में आज जो कुछ घटित हो रहा है उसे सामान्य बात कहकर टाला नहीं जा सकता ? तमाशबीन की तरह देखना परवर्ती पूंजीवादी समाज का लक्षण है। यह ऐसा समाज है जहां प्रतीक (साइन) की जगह हम व्यंजित को देखते हैं। मौलिक की नकल करते हैं। यथार्थ के प्रतिनिधि बनने का दावा कर रहे हैं।
       हम जो कुछ देख रहे हैं वह सब कल्पना है,विभ्रम है। कल्पना एक जमाने में आनंद देती थी इन दिनों भय पैदा करती है। सत्य दुर्लभ होता जा रहा है और कल्पना का विस्तार हो रहा है। पूंजीवादी समाज में जितना कल्पना का विस्तार होता है उसी मात्र में भय का विस्तार होता है। भय और कल्पना की इस अन्तर्क्रिया ने समूची सामाजिक चेतना को आच्छादित कर लिया है। फलतः सत्य छोटा हो गया है और कल्पना बड़ी हो गयी है।
      आज भारत में उत्पादन के आधुनिक साधनों का वर्चस्व है। यह सबको तमाशबीन बना रहा है। इसके कारण बड़े पैमाने पर नजारे देखने को मिलते हैं। अब हम जो कुछ देखते हैं वह सब इमेजों में देखते हैं,इमेजों के जरिए समाज को समझते और ग्रहण करते हैं। अब व्यक्ति का नहीं इमेजों का प्रतिनिधित्व सामने आता है। जिन इमेजों को देखते हैं उनका सामान्य जीवन से अब कोई संबंध नहीं होता,फलतःजीवन की एकीकृत धारणा भी नहीं बना पाते। जीवन में चीजों के बीच अन्तस्संबंध नहीं बना पाते। यथार्थ हमेशा अधखुला नजर आता है। यथार्थ अपनी आंतरिक एकता से कटा नजर आता है। जिस दुनिया को देखते हैं वह छद्म होती है। जिन वस्तुओं को देखते हैं वे उलझन पैदा करती हैं। जब इमेजों के संसार में विशिष्टिकृत इमेजों को रच लेते हैं तो इमेजों का स्वायत्त संसार पूर्णता प्राप्त कर लेता है। जिंदगीरहित चीजें स्वायत्त विचरण करने लगती हैं।
     मौजूदा समाज में इमेजों को देखना और उनमें ही जीना सामान्य बात हो गयी हो गयी है। नज़ारों ने प्रमुखता अर्जित कर ली है। इमेज और उनके नजारे ही एकता के सूत्र बन गए हैं। अब हम नज़ारों को देखते हैं,नज़ारे हमें देखते हैं। एक-दूसरे को देखना ही एकीकरण का मंत्र बन गया है। नज़ारे ही समाज को जोड़ने का उपकरण बन गए हैं। समाज में जहां जाओ सब एक-दूसरे को घूर रहे हैं। अब घूरना ही चेतना का निर्धारक तत्व बन गया है। घूरना छद्मचेतना का प्रभावशाली आधार है। वंचित और समर्थ सभी एक-दूसरे को घूर रहे इसके आधार पर ही हमारी चेतना बन रही है।
    हम जब इमेज देखते हैं तो सिर्फ इमेजों को ही नहीं देखते बल्कि इमेजों के जरिए जनता के बीच के सामाजिक संबंधों को भी देखते हैं। जनता के सामाजिक संबंधों के बीच में सेतु का काम इमेज करती हैं। इमेजों को विज़न के दुरूपयोग के जरिए नहीं समझा जा सकता। बल्कि इमेजों का उत्पादन जनोत्पादन की तकनीक के गर्भ से होता है। हम जिन इमेजों को मीडिया के विभिन्न रूपों के माध्यम से देखते हैं वे सभी सामाजिक वर्चस्व वाले मॉडल का प्रतिनिधित्व करती हैं। अब हमारे सामने तयशुदा चीजें पैदा करके रख दी गयी हैं और हमें इनमें से ही चुनना होता है। यह तय है किसमें से चुनना है ? कितना चुनना है ? और क्यों चुनना है ? यह सब निर्धारित है। हम जो चुनते हैं वह अवास्तविक होता है, काल्पनिक होता है। जो चुनते हैं  उससे सामाजिक यथार्थ में नया कुछ भी नहीं जोड़ते। हम उपलब्ध में से चुनते हैं। उपभोग करते हैं। फलतः सामाजिक वर्चस्व का हिस्सा मात्र बनकर रह गए हैं। हम जिन नज़ारों को देखते हैं वे रूप और अन्तर्वस्तु में मौजूदा व्यवस्था की वैधता को ही हमारे ज़ेहन में उतारते हैं। मौजूदा व्यवस्था के लक्ष्य और परिस्थितियों की वैधता को पुष्ट करते हैं। नज़ारे हमारे मन में व्यवस्था के लक्ष्य और परिस्थितियों के प्रति स्थायी वैधता पैदा करते हैं।
    नज़ारे के दर्शकों की भाषा शासकीय भाषा होती है। शासकों की भाषा में नज़ारों का उत्पादन हो रहा है। प्रतिवाद की भाषा का अपहरण कर लिया गया है। इस प्रक्रिया में साहित्य में यथार्थ की जगह निर्मित यथार्थ ने ले ली है और उसकी जय-जयकार में आलोचक व्यस्त हैं। अमेरिका का विरोध करने ,साम्राज्यवाद का विरोध करने वालों की भाषा का लोप हो गया है। पूंजीवाद,अमेरिका,साम्राज्यवाद आदि पदबंधों को लेकर अनुकूल भावबोध और अर्थ संप्रेषित पैदा किया जा रहा है। पूंजीवाद,नव्य-उदारतावाद आदि के प्रति जनता को सक्रिय करने वालों को प्रगतिशील कहा जा रहा है। पूंजीवाद को श्रेष्ठतम समाज के रूप में चित्रित किया जा रहा है। हमें बार-बार यही बताया जा रहा है कि हम पूंजीवाद का समर्थन करें। हमें सहनशील बनने की सीखें  दी जा रही हैं। कहा जा रहा है हम तटस्थ रहें, विवादों, संघर्षों,मांगों के लिए होने वाले सामूहिक संघर्षों से दूर रहें, सामूहिक संघर्ष बुरे होते हैं। आम आदमी को तकलीफ देते हैं। जो लोग समाज में तटस्थता का अहर्निश प्रचार कर रहे हैं ,वस्तुतः पूंजीवाद से तटस्थता का प्रचार कर रहे  हैं। मीडिया और साहित्य में जनसंघर्षों और मानवाधिकार हनन का विकृत प्रचार मूलतः पूंजीवाद की ही सेवा है। यह पूंजीवादी समाज के अन्यायपूर्ण चेहरे को ढंकने की कोशिश है।
   पूंजीवाद ने हमारे सामाजिक जीवन को किस तरह हजम कर लिया है उसका साक्षात प्रमाण है भीषण गर्मी का प्रकोप। अंधाधुंध ,विषम और अनियोजित पूंजीवादी विकास के कारण पर्यावरण संतुलन गड़बड़ा गया है। इस क्रम में हम गर्मी झेल रहे हैं लेकिन पूंजीवाद के बारे में हम कोई भी चर्चा नहीं कर रहे। बल्कि मीडिया निर्मित नजारे की संस्कृति ने मौसम को पूंजीवाद निरपेक्ष और भगवान की कृपा बना दिया है। गर्मी की भीषण तबाही हमारे अंदर किसी भी किस्म की सामाजिक बेचैनी पैदा नहीं कर रही है। मौसम में आए बदलाव हमें पूंजीवादरहित नजर आ रहे हैं। माओवादियों की खूंखार हरकतें गरीबी की देन नजर आ रही हैं। माओवाद के खिलाफ कुछ लोग यह तर्क दे रहे हैं कि हमें उनके खिलाफ राजनीतिक जंग लड़नी चाहिए। उन्हें जनता में अलग-थलग करना चाहिए। जब माओवादी हिंसा कर रहे हों ऐसे में जनता में राजनीतिक प्रचार किया जा सकता है ? क्या माओवाद का विकल्प जनता को समझाया जा सकता है ? राजनीतिक प्रचार के लिए शांति का माहौल प्राथमिक शर्त है और माओवादी अपने एक्शन से शांति के वातावरण को ही निशाना बनाते हैं,सामान्य वातावरण को ही निशाना बनाते हैं, वे जिस वातावरण की सृष्टि करते हैं उसमें राज्य मशीनरी के सख्त हस्तक्षेप के बिना कोई और विकल्प संभव नहीं है। जब एक बार शांति का वातावरण नष्ट हो जाता है तो उसे दुरूस्त करने में बड़ा समय लगता है।कारपोरेट पूंजी निवेश के विध्वंसात्मक  आयाम पर पर्दादारी की जा रही है। हर चीज का जबाव बाजार में खोजा जा रहा है,हमसे सिर्फ देखने और भोग करने की अपील की जा रही है। नव्य उदारतावाद और साम्राज्यवाद के विरोध को अंध अमेरिकी विरोध की बृहत्तर केटेगरी में बांध दिया गया है। जबकि सच यह है कि साम्राज्यवाद के विरोध का अर्थ अंध अमेरिकी विरोध नहीं है।साहित्य और कारपोरेट मीडिया में परवर्ती पूंजीवाद की आलोचना का लोप हो गया है।
     एक जमाना था रंगभेद को सबसे बड़ा भेदभाव का रूप माना जाता था नए किस्म का रंगभेद है झुग्गी-झोंपड़ी ,कच्ची बस्तियां और मुस्लिमों के प्रति घृणा। तमाम किस्म के उदारवादियों में झोंपडी वालों और मुसलमानों के प्रति भेददृष्टि को देख सकते हैं। समूचे देश में विगत तीन दशकों में कच्ची बस्तियों का व्यापक विस्तार हुआ है। महानगरों और शहरों में जितने लोग घरों में रहते हैं उतने ही या उससे ज्यादा लोग झोंपड़ पट्टियों में रह रहे हैं। क्या बस्ती वाले को हम सर्वहारा कह सकते हैं ? क्या यह समुदाय क्रांति कर सकता है? ये वे लोग हैं जिनके पास परंपरागत जाति-धार्मिक पहचान नहीं है, किसी भी किस्म की परंपरागत जीवन शैली नहीं है। स्लावोज जीजेक के शब्दों में इनके पास किसी भी किस्म की पहचान नहीं है। ये सभी किस्म के आधारभूत बंधनों से मुक्त हैं। ये मुक्त स्पेस में यहां से वहां ढ़ुलकते रहते हैं। ये राज्य और पुलिस के नियमन के पूरी तरह बाहर हैं। इन्हें  जबरिया ढ़ंग से समूह में बांध दिया गया है। ये जबरिया एक साथ रहने के लिए अभिशप्त हैं। इनकी परिस्थितियां ऐसी हैं कि अब इनके यहां कोई घटना घटित नहीं होती। आमतौर पर यह कहा जाता है समूचे समाज पर राज्य का नियंत्रण है। लेकिन कच्ची बस्तियों में रहने वालों पर राज्य का कोई नियंत्रण नहीं है।  ये राज्य नियंत्रण के बाहर हैं। इस जनता पर साहित्य में बहस नहीं हो रही। आलोचक नहीं लिख रहे। झोपड़पट्टियों में रहने वाली आबादी में से ही हिंसक गिरोह तैयार हो रहे हैं। हिंसा को जनप्रिय और वैध बनाने में इन वर्गों की बड़ी भूमिका है। हिंसा को झोंपड़पट्टी वालों ने साझा संस्कृति में तब्दील किया है। हिंसा का ज्ञान,राजनीति,मीडिया,साहित्य आदि के स्तर पर महिमामंड़न बढ़ा है। हिंसा का समाजीकरण हो रहा है। फलतःआम बोलचाल की भाषा में हिंसक भाषा आ बैठी है। आम आदमी के पास प्राइवेट वातावरण  का लोप हुआ है। प्राइवेट वातावरण में अहर्निश भय बना हुआ है।प्राइवेसी के सवाल मूलतः संपत्ति संचय के सवाल हैं। संपत्ति संचय के जिन रूपों को हम इन दिनों देख रहे हैं वे हैं बौद्धिक संपदा अधिकार, डिजिटल अधिकार, इंटरनेट से मुफ्त सामग्री संकलन का अधिकार,नेट से मुफ्त संगीत पाने का अधिकार आदि। ये सभी आधुनिक किस्म के संपदा संचय के स्रोत हैं।
   अब राजनीति में विचारधारा के आधार पर जनता को संगठित नहीं किया जा रहा है बल्कि विशेषज्ञों के द्वारा जनता के प्रबंधन और प्रशासन पर जोर दिया जा रहा है। अराजनीतिक ढ़ंग से समाज की सुरक्षा और विकास की बातें की जा रही हैं। समूचे वातावरण को भय में तब्दील कर दिया गया है। हमेशा भय,आशंका और तबाही के डर में कैद रहते हैं। आम जनता में धर्म का ह्रास हुआ है धर्म की जगह धार्मिक तत्ववाद ने ले ली है। धार्मिक फंड़ामेंटलिज्म के प्रभुत्व को आज कोई चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। जगह-जगह धार्मिक फंड़ामेंटलिज्म ने सामाजिक दायरों को संकुचित किया है। समाज में ‘पशु मनुष्य’ और ‘अमानवीय’ ये दो किस्म के लोग ज्यादा दिख रहे हैं। सामान्य जीवन में खाओ-पीओ-मौज करो का नारा देकर जो धारणा बनाई जा रही है उससे ‘पशु मनुष्य’ की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। खाओ-पाओ-मौज करो का सिद्धान्त पशु का सिद्धान्त है। आज आदमी आनंद और मनोरंजन के चक्कर में व्यस्त है और मौत आदि से डरता है। यह पशु की मनोदशा है। इसे मानवीय मनोदशा समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। सत्य प्रेम ही मनुष्य को पशुता से मुक्ति दिलाता है।साहित्य और मीडिया में सत्य की बजाय कृत्रिम यथार्थ और भय का उत्पादन हो रहा है। यह सांस्कृतिक क्षय की सूचना है।                     

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