आदिवासियों के बारे में यह मिथ प्रचलित है कि उनमें स्त्री-पुरूष का भेद नहीं होता। यह धारणा बुनियादी तौर पर गलत है। आदिवासियों के परंपरागत नियम-कानून के मुताबिक स्त्री का दर्जा पुरूष से नीचे है। वह पुरूष की मातहत है। जिन आदिवासी इलाकों में जमीन के सामूहिक स्वामित्व की जगह जमीन के व्यक्तिगत पट्टे दिए गए हैं वहां पर औरत पहले की तुलना में और भी कमजोर हुई है। औरत का परंपराओं पर न्यूनतम अधिकार रह गया है। आदिवासियों में आधुनिकता के प्रयोगों ने औरत को अधिकारहीन बनाया है। यदि कोई व्यक्ति बैंक से कर्ज लेना चाहे या रबड़ के उत्पादन के लिए कर्ज लेना चाहे तो कर्ज उसी व्यक्ति को मिलेगा जिसके पास जमीन का स्वामित्व होगा। उत्तर-पूर्व के अधिकांश राज्यों में राज्य की तरफ से जमीन का स्वामित्व पुरूष को मिला है। इसके कारण सब मामलों में मर्द ही निर्णय लेते हैं। आधुनिकीकरण,उग्रवाद,फिरौती वसूली के कारण आई आवारा पूंजी ने औरत को और भी अदिकारहीन बनाया है। यहां एक ही उदाहरण देना काफी होगा। नागा उग्रवाद के उभार के जमाने में ज्यादातर अनगामी नागा मर्द सशस्त्र संघर्ष के नाम पर भूमिगत हो गए थे ,ऐसे में उनके संसार का सारा दायित्व नागा औरतों ने संभाला। उन्होंने परिवार और समाज की सभी जिम्मेदारियों को पूरा किया। इस क्रम में बड़ी संख्या में औरतों ने शिक्षा भी अर्जित की। यहां तक कि नागा इलाकों में इन औरतों ने स्कूलों का भी निर्माण किया। इसके परिणामस्वरूप औरतों में पुरूषों की तुलना में ज्यादा शिक्षा का प्रसार हुआ। औरतें ज्यादा पढ़ी-लिखी हो गयीं और मर्द कम पढ़े-लिखे हो गए। लेकिन नागा परंपरागत कानून के अनुसार औरत को मर्द से कम पढ़ी-लिखी होना चाहिए। इस जाति की दो तिहाई औरतें स्नातक हैं। इनमें भी 75 प्रतिशत औरतें सरकारी नौकरी करके तनख्बाह उठाती हैं। इसक्रम में नागा परंपरा को सामाजिक सशक्तिकरण की प्रक्रिया ने पछाड़ दिया। इसका दुष्परिणाम यह निकला कि बड़ी संख्या में नागा औरतों की शादी ही नहीं हुई। क्योंकि नागा पुरूषों का मानना था कि पति-पत्नी के रिश्ते में पत्नी का कम पढ़ी-लिखी होना जरूरी है। फलतः अदिकांश शिक्षित नागा औरतों से नागा मर्दों ने शादी ही नहीं की। इसी तरह मेघालय में आरंभ के 10 साल तक विधानसभा में एक भी औरत सदस्य नहीं थी। जबकि मेघालय के तीनों मुख्य आदिवासी समूह मातृप्रधान हैं। इस समय वहां 60 सदस्यों की विधानसभा में 3 या 4 विधानसभा सदस्य औरत हैं। 1970 के दशक में एक राज्यसभा सदस्य थीं। नागालैण्ड में एक भी औरत न तो विधानसभा सदस्य है और न संसद में ही कोई औरत इसराज्य का प्रतिनिधित्व कर रही है। कुछ औरतें 2004 में चुनाव लड़ना चाहती थीं लेकिन परंपरागल आदिवासी कानून की दुहाई देकर उन्हें चुनाव लड़ने नहीं दिया गया। नागा आदिवासियों के परंपरागत कानून के अनुसार राजनीतिक शक्ति सिर्फ पुरूष के ही पास होती है। औरतों को राजनीतिक शक्ति से परंपरागत कानून वंचित रखता है। स्थिति यहां तक खराब है आदिवासी विकास परिषद में भी कोई औरत सदस्य नहीं है। कुछ औरतों ने कारबी आदिवासी परिषद का चुनाव लड़ा था लेकिन वे हार गयीं। रोचक बात यह है चर्च के द्वारा संचालित शिक्षा संस्थान भी स्त्री की दोयम दर्जे की स्थिति को बदल नहीं पाए हैं। जबकि हिन्दुओं के शिक्षा संस्थानों का अभाव है। चर्च के प्रयास औरत को धर्म से आगे शिक्षा तक ले जाते हैं,जबकि हिन्दू धर्म उन्हें धर्म के दायरे से बांधे रखता है। जिन औरतों में शिक्षा पहुँची है उनमें अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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