सोमवार, 27 दिसंबर 2010

झारखण्ड में जमशेदजी टाटा और किसान- स्वामी सहजानंद सरस्वती

 ( प्रसिद्ध किसान नेता और अखिल भारतीय किसान सभा के संस्थापक अध्यक्ष स्वामी सहजानंद सरस्वती ने भारत के किसानों की समस्या पर गंभीरता के साथ विचार किया है। खासकर झारखण्ड राज्य के आदिवासी किसानों के जीवन का बारीकी से अध्ययन किया था। यहां हम उनके जमशेदजी टाटा और किसानों के संदर्भ में किए गए मूल्यांकन को पेश कर रहे हैं)

   झारखंड की बात अधुरी ही रह जाएगी यदि टाटा  का विशेष वर्णन न किया जाए। पारसनाथ पहाड़ के सिलसिले में जैनी सेठों की करतूतों का जिक्र तो होई चुका है। मगर टाटा  का महत्‍व उनसे कहीं ज्यादा है। टाटा  का यहाँ जमींदार और पूँजीपति दोनों ही हैसियत से प्रभाव है। लाखों मजदूरों पर उसकी हुकूमत चलती है। जाने कितने नेताओं और कार्यकर्ताओं को टाटा  ने अपने पाकेट में रख लिया है। ऐसा जादू चलता है कि सबों की बोलती ही बन्द हो जाती है और छोटे-बड़े सभी नेता वहीं जमशेदपुर में ही हजम हो जाते हैं। टाटा  की ही कृपा का फल है कि अब तक जाने कितने नेता जमशेदपुर के मजदूरों का संगठन करने गए और नाकामयाब रहे। नेताओं के प्रति जितना अविश्वास वहाँ के मजदूरों में है उतना और कहीं शायद ही है। फलत: वहाँ जोई जाता है उसी पर अविश्वास किया जाता है। 'धारी न काबू धीर सबके मन मन सिज हरे' वहीं चरितार्थ होता है। यह टाटा  की चातुरी और व्यवहार कुशलता का ज्वलन्त प्रमाण है।
    मगर मुझे तो किसान सभा के कार्यकर्ता की हैसियत से सिर्फ टाटा  की वही बातें लिखनी हैं जिसका ताल्लुक किसानों और सर्व साधारण से है। कारखाने और मजदूरों की दशा के बारे में लिखना इस पुस्तक का लक्ष्य भी नहीं है जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है। मैं उस विषय की विशेष जानकारी भी नहीं रखता। कांग्रेस की स्वराज्य पार्टी जब केन्द्रीय असेम्बली में थी तो टाटा  को सरकारी सहायता देने का प्रश्न उठा था। उसने इसका समर्थन किया। जब वहाँ के मजदूरों के हक में यह शर्त पेश की गई कि टाटा  कम्पनी उन्हें आराम पहुँचाने की गारंटी करे तभी सहायता दी जाए, तो इसका विरोध स्वराज्य पार्टी ने किया था और बिना शर्त ही सहायता का समर्थन किया। जब मजदूरों के सम्‍बन्‍ध में बड़े-बड़ों और ऐसी संस्थाओं की कार्यवाहियाँ पहेली की तरह खड़ी हो जाती हैं तो हमारे जैसा आदमी घबराता है और उस झमेले से अलग रहके किसानों का ही सवाल हल करने की कोशिश करता है। इसीलिए यहाँ भी वही सवाल है। जमशेदपुर के पुराने मजदूर लीडर कहे जाने वाले मिस्टर होमी को भी हम किसानों के ही सिलसिले में याद रखना चाहते हैं। इसीलिए उनका भी थोड़ा उल्लेख होगा। मगर इस सम्‍बन्‍ध में सिंहभूम जिला किसान कान्फ्रेंस, घाटशिला में 3, 4 जुलाई 1939 को हमने जो भाषण दिया था उसे ही यहाँ उध्दृत करके सन्तोष कर लेना चाहते हैं। ज्यादा कहने की जरूरत नहीं प्रतीत होती है। वह इस तरह हैµ
    'बाहरी दुनिया की नजरों में तो आमतौर से टाटा  का काम है जमशेदपुर में केवल इस्पात वगैरह तैयार करना और इस तरह टाटा  कम्पनी सबसे बड़ी पूँजीवादी है। टाटा  से ताल्लुक रखने वाले और किसानों के लिए दिल रखने दूसरे लोगों में भी चन्द लोग ही ऐसे हैं जो यह जानते हैं कि टाटा  कम्पनी जमींदार भी है और प्राय: बीस छोटे-बड़ें गाँवों से, जो जमशेदपुर में और इर्द-गिर्द शामिल हैं, बीस-पच्चीस लाख लगान वसूलती है। इन गाँवों के नाम हैं उलियान, भाटिया, गोभरोगोड़ा, सोनाड़ी, खुटाड़ी, बेलड़ी, जोजाबेरा, साकची, बारा, बारीडीह, महरड़ा, मुड़कटी, निलदी, कालीमाटी, सुसनिगड़िया, गोलमुड़ी, सिद्धगोड़ा वगैरह। इनके कष्ट वर्णनातीत हैं। टाटा  के लिए सरकार ने इन मौजों को 1919-20 में ले लिया। आगे इन गाँवों के कुछ भयंकर कष्टों का वर्णन वहीं के लोगों के शब्दों में किया जाता है। उनने मेरी जमशेदपुर की अप्रैल वाली उसी साल की यात्रा के समय मुझे जो कुछ लिख के दिया था वही यहाँ लिख दिया जाता है। उनका कहना है कि 'जमशेदपुर और आसपास के जो गाँव पहले दलभूम के राजा के मातहत थे हम उन्हीं के शुरू के ही बाशिन्दे हैं। कम्पनी के लिए सरकार ने इन्हें तथा और गाँवों को 1919-20 में ही राजा से हासिल किया था। कम्पनी ने हमें कहा कि आप लोग पूर्ववत् पड़े रहें। क्योंकि हमें अपने ही लिए आपकी सेवाओं की मजदूर, गाड़ीवान, साग-तरकारी उपजाने वाले आदि के रूप में जरूरत है। इसलिए गाँवों का राजा से लिया जाना तो केवल कागजी लिखा-पढ़ी है। स्थिति में अन्तर न होगा।
    1906-09 के सर्वे में जो लगान ठीक था उसे इस कम्पनी ने इन गाँवों को बाकायदा दखल करने के बाद, धीरे-धीरे बढ़ाना और हमारी जमीनों से भारी लगान वसूलना शुरू कर दिया। उस समय तो हमने यह चीज किसी तरह बर्दाश्त की। क्योंकि उस समय चावल, साग, तरकारी वगैरह की कीमत काफी ऊँची थीं।
    'चन्द साल के बाद, जब कि बिना हमारी मदद के भी कम्पनी का कारबार चलने लगा, उसने हमें अपने झोंपड़ों और घरों वगैरह से निकाल के अपने काम के लिए सबकुछ कब्जाना चाहा। फलत: तरह-तरह से हमें परेशान किया जाने लगा। 1932 में लगान न देने के बहाने हमारी बेदखली के केस किए गए। मगर हम लोग सभी केस जीत गए। तब बल प्रयोग शुरू हुआ और इसके चलते कम्पनी का जो प्रधान रूप से इस शहर का प्रबन्धक है। वही नोटिफाइड एरिया कमिटी का चेयरमैन भी है। वह कुछ औरों के साथ नाजायज दूसरे के घर आदि में घुसने के लिए फौजदारी में भी फँसा था और हाईकोर्ट तक सजा बहाल रही। उसके बाद हम लोगों के विरुद्ध 145 धारा के अनुसार फौजदारी के बहुत ज्यादा मुकदमे चलवाए गए। मगर उनमें भी हम जीते।
    'अब जमशेदपुर एरिया कमिटी की ही मदद से हमें तंग करने लगे हैं। कहा जाता है कि इस कमिटी के इलाके के भीतर हैं। मगर इस म्यूनिसिपलिटी का कोई भी फायदा तो पहुँचता नहीं। हाँ, इससे हमारी दिक्कतें जरूर बढ़ गई हैं।
    'अपने छप्परों को फिर से छाने में भी हमें प्लान बनवाने और कमिटी से मंजूरी लेने को कहा जा रहा है। हमें साफ पीने का पानी तो मिलता नहीं। गंदा पानी हममें बीमारियाँ फैला रहा है। मगर कुऑं खोदने की हमें इजाजत नहीं! हमारे न तो सड़कें हैं, न रोशनी और न मेहतरों का प्रबन्ध। हमारे गाँवों में पढ़ाने के प्रबन्ध की तो बातें ही मत पूछें।
    'हमारे यहाँ जो पड़ती जमीनें चरागाह के काम आती थीं वे गत साल से जोत-जात के ईंटों के बनाने के लिए कम्पनी के द्वारा ठेके पर दी जाने लगी हैं। इसका तो सीधा अर्थ है कि हम खेती के जानवरों को खत्म कर दें। क्योंकि अड़गड़े में डाले जाने के डर से उन्हें बाहर तो निकाल सकते नहीं। कम्पनी की इस करतूत ने हमें सबसे ज्यादा परेशान किया है। क्योंकि पशुओं के बिना तो खेती हो नहीं सकती। फलत: हमें गाँव छोड़ के भागना पड़ेगा। इन कारणों से और लगान की कड़ाई के चलते भी हम उसे चुकता कर पाते नहीं। फलत: हमारी बहुत सी जमीन नीलाम हो रही है। आज जो लगान है वह दलभूम के मौजूदा लगान से चौगुना और सर्वे के लगान से पूरा दस गुना है। यह बात नीचे की तालिका से साफ हो जाती है। धानी (धान की जमीनों) और बारी या भीठे (गोड़ा) जमीनों के लगान की दर अलग-अलग दी गई है।
दलभूम का लगान फी बीघा   कम्पनी का लगान फी बीघा
धानी अव्वल नम्बर एक रुपया   चार रुपया, तीन रुपया, दो रुपया और
धानी दोयम नम्बर आठ आना   तीन रुपया क्रमश: इन्हीं चारों जमीनों का।
धानी सोयम नम्बर छह आना    साग तरकारी वाली का तो आठ रुपया है।
गोड़ा जमीन दो आना     सभी गाँवों में कम्पनी की दर एक-सी नहींहै।
    ''साकची तो जमशेदपुर शहर का ही हिस्सा है। इसीलिए वहाँ के लोगों को बाजार, आबपाशी और सड़क वगैरह की आसानी भी है जो अन्य गाँवों को नहीं है। मगर वहाँ का लगान कम है और कम्पनी के ही एक अफसर ने कबूल किया है कि दूसरे गाँवों के किसानों को सभी दिक्कतें बढ़ी-चढ़ी हैं। देखिए

साकची की धानी अव्वल का उल्यान, मांटिया, गोभरागोड़ा का
लगान तीन रुपया        चार रुपया।
साकची की धानी दोयम का उल्यान, मांटिया, गोभरागोड़ा का
लगान करीब सवा दो।     तीन रुपया।
साकची की धानी सोयम   उल्यान, मांटिया, गोभरागोड़ा का दो रुपया
साकची गोड़ा अव्वल डेढ़ रुपया    इन तीन गाँवों की सभी तरह की गोड़ा
साकची गोड़ा दोयम सात आना   जमीनों का लगान तीन रुपया फी बीघा।
साकची गोड़ा सोयम सवा दो आना साग तरकारी का आठ रुपया फी             बीघा
    'टाटा  कम्पनी के मिल का निकला हुआ पानी नदी को गन्दा करता है। मगर क्या मजाल कि किसान उससे अपना खेत पटा लें? गाड़ी पर टैक्स है और जानवरों के मरने पर उन्हें हटाने के लिए जो पाँच रुपया टैक्स है वह तो हमें तबाह कर रहा है।
    'सिंचाई की सुविधा पहले थी। मगर अब नहीं रही। लगान की बाकायदा रसीद नहीं मिलती। छह मास हुए हम बिहार के अर्थमंत्री से और बाद में प्रधानमंत्री के पास भी लिखित प्रार्थना ले के पहुँचे थे। मगर नतीजा अब तक कुछ मालूम नहीं हुआ!' इस लम्बी दास्तान पर टीका-टिप्पणी बेकार है।
    अब जरा मिस्टर होमी की बात सुनिए। अब तक तो यही सुना जाता था कि मिस्टर होमी यहाँ के मजदूरों की लीडरी का दावा करते हैं और दूसरे लोग इसका विरोध करते हैं। यह तो उन्हीं का काम है जो मजदूर हैं कि फैसला करें कि किसे वे अपना लीडर मानते हैं। हमें तो उनके बारे में पड़ोस के ही मानभूम जिले के पोटम्बा थाने के गाँव माँगों के जमींदार या मुकर्ररीदार के रूप में ही यहाँ सामने लाना और कुछ सुनाना है। मानगो गाँव सुवर्ण रेखा नदी के उस पार ही यहीं है। पिछली बार जो मैं वहाँ गया था और पता लगाया तो मालूम पड़ा कि उस गाँव पर जो उनने मुकर्ररीदार का दावा ठोंक दिया है उसके चलते वहाँ के किसानों और कमिया लोगों को बड़ा कष्ट है। श्री मानिक होमी के भाड़े वाले आदमी किस तरह वहाँ के लोगों को सताते और जलील करते हैं इसकी दर्दनाक कहानी वहाँ के स्‍त्री-पुरुषों और श्री क्रिस्टो गौड़ प्रधान ने रो-रो के कह सुनाई। उस जुल्म के बारे में अपनी ओर से कुछ न कह के न्यायालय के दो फैसलों के कुछ अंश उध्दृत कर देता हूँ और मामला साफ हो जाएगा। यह गाँव मानभूम जिले के किनारे पर थाने से सोलह मील पर पड़ता है। इसलिए चालाक और चलते पुर्जे यार लोग यहाँ के हो और भूमिज आदि निवासियों को खूब ही सताते हैं। पहला फैसला पुरुलिया के एस.डी.ओ. मिस्टर एस.के.अहसान का लिखा हुआ अंग्रेजी में है। दूसरा फैसला मिस्टर बी. के. गोखले, डिस्ट्रिक्ट मजिस्टे्रट मानभूम का 5.9.27 का है। दोनों का हिन्दी अनुवाद ही दिया जाता है। पहला यों है
    'पुलिस की रिपोर्ट में होमी और उसके आदमियों के विरुद्ध यह शिकायत थी कि होमी, उसके आदमी और उसी के साथी कुछ और लोग भी किसानों को अनेक ढंग से सताते हैं और धामका के, मारपीट के और जबर्दस्ती रुपया वसूल के दिक करते हैं।
    'अपनी पार्टी की तरफ से उसने साफ-साफ यह शर्त कबूल की है कि बिना अदालती कार्यवाही के दूसरे ढंग से हम लोग अपना अधिकार जबर्दस्ती न चलाएँगे और न किसी को सताएँगे ही, जैसा कि इलजाम है। इसलिए इस समय तो मैं उनके खिलाफ कोई कार्यवाही न करता। मगर इसी के साथ मिस्टर होमी और उनके आदमियों को साफ-साफ चेतावनी देता हूँ कि किसानों को, फिर चाहे वह कोई भी हों, वे लोग किसी भी तरह दिक या परेशान हर्गिज न करें। इस हुक्म की एक नकल पोटम्बा के थानेदार के पास भेजी जाए। ताकि यदि वे लोग अपना वादा तोड़ें तो वह उनके खिलाफ रिपोर्ट करे।'
    दूसरा केस का, जो 1936 के स्फुट केसों में 309 का है, फैसला यों है
    'जो कुछ सबूत है उससे मुझे पता चलता है कि मिस्टर होमी जंगल और पेड़ों को अपनी निजी जायदाद मानता है जिन्हें जब जैसे चाहे काट सकता है और गाँव वालों के जो परम्परा प्राप्त अधिकार जंगल पेड़ों में हैं उन्हें उनका उपभोग रोकना चाहता है। इसी तरह गैर आबाद जमीन के बारे में भी वह किसानों को रोकना चाहता है कि आबाद न करें। हालाँकि प्रधानी प्रथा के अनुसार उन्हें यह अधिकार है कि आबाद करें और उसके लिए उचित लगान दें। मिस्टर होमी का अपना बयान है कि मुझे पता नहीं कि किसान लोग आबाद की गई जमीनों का मुनासिब लगान देना चाहते हैं।' इससे पता चलता है कि पुश्त दर पुश्त से वहाँ रहने वाले किसानों से कोई वास्ता न रख के वह अपने मन के ही लोगों को वहाँ बसाना चाहता है। इसलिए समस्त ग्रामवासी इसे खामख्वाह नापसन्द करते हैं। पुलिस सुपरिंटेंडेंट को जो पत्रे मिस्टर होमी ने 26.1.27 को लिखा था उसके पाँचवें पैराग्राफ में लिखा है कि 'हमने जो पहले पहल दो हजार एकड़ जमीन हासिल की थी उस समूची को एक आदर्श फार्म बनाके उसे नए ढंग से चलाने का हमारा पक्का इरादा है।' मुझे अफसोस है कि यहाँ की हालातों के सम्‍बन्‍ध की अपनी नादानी के करते उसने नया ढंग के आदर्श फार्म के लिए एक प्रधानी (प्रधानवाला) गाँव चुन लिया, जिसमें कि गाँव के समूचे बाशिन्दों के अपने खास हक होते हैं और वे बखूबी माने जाते हैं।
    'पुश्त दर पुश्त से गाँवों में प्रचलित रीति-रिवाजों के विरुद्ध काम करने के अपने इस विचार को मिस्टर होमी जितनी जल्दी छोड़ दें उतना ही खुद उनके लिए अच्छा है और मैं वहाँ जिस अमन और शान्ति के लिए फिक्रमन्द हूँ उसके लिए भी उतना ही अच्छा है।'
    इस पर भी और कुछ लिखना बेकार है। इसने मिस्टर मानिक होमी की जन सेवा का सुन्दर चित्र खींचा है। मजदूरों का नेता तो बना जाता है उन जैसों की सेवा के ही लिए। मगर उनका अमली तरीका तो बड़ा ही खतरनाक है। उसी माँगों गाँव में उनने अपने कहने के लिए एक बँगला अलग बनवाया है। गाँव वालों ने पहले समझा होगा कि ये गरीबों के सेवक आ रहे हैं। इनसे हमारा कल्याण होगा। मगर पीछे उन्हें पता चला कि 'मुनि न होय यह निशिचर घोरा।' मगर अब तो देर हो गई और उनका पाँव वहाँ जम चुका है। अब तो रह-रह के उन गरीबों को अनेक ढंग से उनके फौलादी पंजे का मजा चखना ही होगा जब तक कि गरीबों में अपने हकों की रक्षा करने की पूरी ताकत आ नहीं जाती। वह ताकत तो आएगी जरूर। सवाल यही है कि जल्द आए।




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