रेलमंत्री ममता बनर्जी का अशांत किसानप्रेम उन्हें अंधे गली में ले गया है। वे किसानहठ की शिकार हैं। किसानहठ राजनीतिक प्रतिगामिता को जन्म देता है। ममता का किसान से रोमैंटिक संबंध है। उसका किसान के हितों और भावबोध से कोई लेना-देना नहीं है। ममता के आंदोलन के कारण लालगढ़ और नंदीग्राम अशांति के बड़े केन्द्र के रूप में उभरकर सामने आए हैं। सवाल उठता है क्या अशांति में किसान बचेगा ?
ममता के हमले के केन्द्र में माकपा है,वामपंथ हैं। लेकिन नव्य उदार आर्थिक नीतियां नहीं हैं जिनके कारण किसानों के जीवन में हाहाकार मचा हुआ है। ममता को सिंगूर के बाद किसान याद आया है। उसके पहले उन्हें किसान नजर क्यों नहीं आया ? उन्हें 15 साल बाद राजारहाट के किसानों की याद क्यों आयी है? असल में ,ममता बनर्जी का किसानों के हितों की रक्षा के साथ कोई संबंध नहीं है। किसान के लिए भूमि मिले,राज्य में भूमि सुधार लागू हों,यह मांग उनके और कांग्रेस के राजनीतिक एक्शन से गायब रही है। उनके पास किसानों की जीवनरक्षा का कोई कार्यक्रम नहीं है । किसान की समस्या जमीन की समस्या नहीं है ,किसान की समस्या जमीन पाने,खेती करने,बेचने,उचित दाम पाने की समस्या भी है।खाली जमीन किसान को बचा नहीं सकती। ममता बनर्जी और उनके संरक्षण में चलने वाली जमीन उच्छेद कमेटी ने कभी भी पश्चिम बंगाल में किसानों को जमींदारों से जमीन दिलाने के लिए संघर्ष नहीं किया। किसानों को फसल के बाजिव दाम मिलें इसके लिए आंदोलन नहीं किया। ममता बनर्जी केन्द्र सरकार में है और उनके दल के 7 सांसद मंत्री भी हैं ,वे एक भी बार केन्द्र सरकार के पास पश्चिम बंगाल के किसानों के आर्थिक हितों की रक्षा से जुड़ी मांगों पर अब तक क्यों नहीं मिलीं ? वे एक भी ऐसा फैसला केन्द्र सरकार से नहीं करा पायी हैं जिससे किसानों को सीधे लाभ मिले। इसके बाबजूद रेलमंत्री ममता बनर्जी की भाषणकला ने वामनेताओं की भाषणकला के प्रभामंडल को नष्ट कर दिया है। ममता के भाषण में ‘मैं ऐसा नहीं करने दूँगी’, का नारा बुनियादी नारा है। इस नारे के इर्दगिर्द वह अपनी राजनीतिक साख बनाने में लगी हैं। उनके भाषणों में प्रतिदिन आश्वासन और वायदे रहते हैं। ‘हम करेंगे’ के पदबंध के बहाने अपने को वाम से अलग दिखाने की चेष्टा करती हैं। हर चीज को भविष्य में ले जाती हैं। उनका कहना है मुझे राज्य सरकार में आने दो तब मांगें पूरी होंगी। यानी लोग भविष्य का इंतजार करें। यह सीधे राजनीतिक ठगई है। ममता के भाषण में भावुकता होती है,गुस्सा होता है लेकिन सच नहीं होता। ममता ने जमीन बचाओ-किसान बचाओ का नारा दिया हुआ है लेकिन वे यह भूल गयी हैं कि किसान को उसकी जमीन से बांधकर रखना संभव नहीं है,किसानी में पामाली बढ़ी है। पश्चिम बंगाल में खेती करने वाले किसानों की संख्या में गिरावट आयी है। कृषियोग्य भूमि कम हुई है। यह वामपंथ के सभी सद् प्रयासों के बाद हुआ है। ममता यह देख ही नहीं पा रही हैं कि किसानों की पामाली क्यों बढ़ी है ? किसान की मुख्य समस्या है पामाली।उसके बारे में ममता के पास कोई कार्यक्रम नहीं है। आंकड़ों के अनुसार पश्चिम बंगाल में खेतमजदूरों की संख्या सन् 1987-88 में 39.6 प्रतिशत थी जो सन् 1993-94 में बढ़कर 41.6 प्रतिशत और सन् 1999-2000 में बढ़कर 49.8प्रतिशत हो गयी। यह आंकड़ा तब का है जब राज्य सरकार ने कारखानों के लिए जमीन नहीं ली थी। ममता बनर्जी जमीन बचाओ की आड़ में असल में जमींदारों के राजनीतिक खेल का मोहरा बन गई हैं । पश्चिम बंगाल के किसान की समस्या है बैंक से सस्ती दर पर उन्हें कर्ज मिले। खाद,बीज, बिजली, पानी, बाजार, उपज संरक्षण,कृषि उपज के सही दाम आदि मिलें । ममता बनर्जी ने इनमें से एक भी मसला नहीं उठाया है और इनमें से अधिकांश मसलों का सीधे संबंध केन्द्र सरकार की नव्य उदार नीतियों से है। ममता बनर्जी अच्छी तरह जानती हैं कि नव्य उदार आर्थिक नीतियों ने किसानों के जीवन में भयावह स्थिति पैदा की है। किसानों के सामने अस्तित्व रक्षा का संकट है । क्या ममता बनर्जी के पास किसानविरोधी नव्य उदार नीतियों का कोई विकल्प है ? ममता की मुश्किल यह है कि वे किसान समस्या को महज माकपा की साजिश और लूट के रूप में देख रही हैं ? किसान के अस्तित्व के सवाल जमीन से आगे जाते हैं। किसान के हितों की रक्षा के सवालों पर वाम का रिकॉर्ड शानदार रहा है। पश्चिम बंगाल में सन् 2000 तक 95,000 एकड़ अधिग्रहीत की गई जिसमें से 94,000 एकड़ जमीन किसानों में वितरित की गई है। इनमें अनुसूचित जाति के 37.1 प्रतिशत पट्टादार और 30.5 प्रतिशत बर्गादार हैं। अनुसूचित जनजाति के 19.3 प्रतिशत पट्टादार और 11.0 प्रतिशत बर्गादार हैं।बाकी अन्य में वितरित की गई है। यहां तक कि औरतों को भी संयुक्त और स्वतंत्र रूप से पट्टे दिए गए हैं। 10प्रतिशत औरतों को संयुक्त और 6 प्रतिशत औरतों को अकेले जमीन के पट्टे दिए गए हैं और यह भारत के इतिहास की विरल घटना है। हाल के अध्ययन बताते हैं पामाली के कारण सन् 2001 तक 13 प्रतिशत पट्टादार अपनी जमीन से हाथ धो बैठे हैं। सब से कम मेदिनीपुर में 5.62 प्रतिशत और उत्तर दिनाजपुर में सबसे ज्यादा 22.35 प्रतिशत पट्टादारों के पास से जमीन चली गयी है। किसानों को उनके अस्तित्व के वास्तव कारणों का ज्ञान कराने की बजाय ममता ने फेक और असंभव कारणों को उछाला है,इससे ममता को राजनीतिक लाभ मिल सकता है लेकिन किसान को कोई लाभ नहीं मिलेगा। यह ममता का किसान से पार्टटाइम प्रेम है। इसने गांवों में टकराव पैदा किया है। गांव की शांति नष्ट की है। इससे बड़े पैमाने पर किसानी से किसान विमुख होंगे। खेती में गिरावट आएगी। उनकी उपज के उचित दाम मिलना मुश्किल हो जाएगा। गांवों में जमींदारों का नए सिरे से राजनीतिक दबदबा बढ़ेगा । किसानों का शोषण ,दमन, उत्पीड़न और पामाली बढ़ेगी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें