शनिवार, 25 दिसंबर 2010

मानवाधिकारवादी न्यायाधीश की तलाश में


    मानवाधिकार कार्यकर्त्ता विनायक सेन सहित 3 लोगों को छत्तीसगढ़ के रायपुर सत्र न्यायाधीश ने आजन्म कैद की सजा सुनाई है। न्याय के द्वारा मानवाधिकारों के हनन के सवाल पर इस तरह के जनविरोधी फैसले की जितनी भी आलोचना की जाए कम है। विनायक सेन और 2 अन्य को देशद्रोह के नाम पर आजन्म कैद की सजा सुनाई गई है जो बुनियादी तौर पर गलत है। जस्टिस वर्मा के निर्णय ने एक बात फिर से पुष्ट की है कि हमारे न्यायाधीशों के पास न्यायिकबोध की कमी है और अनेक ऐसे न्यायाधीश भी हैं जो न्याय करते समय मानवाधिकारों की रक्षा का एकदम ख्याल नहीं रखते। 
    गुजरात दंगों के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने दंगे से संबंधित सभी मुकदमे गुजरात के बाहर भेजे। यही हाल दिल्ली और अन्य जगहों पर निचली अदालतों में काम करने वाले अनेक न्यायाधीशों की चेतना का है। हाल ही में एक न्यायाधीश ने अरूंधती राय पर राजद्रोह का केस चलाने का आदेश दे दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बैंच ने बाबरी मस्जिद की मिल्कियत के बारे में न्याय की बजाय बजाय आस्था के आधार पर फैसला दिया । भगवान राम की याचिका पर फैसला दिया। इसमें मजेदार है भगवान का याचिकाकर्ता रूप। 
     गुजरात में दंगा पीडितों को न्याय न मिलना, भाषण देने मात्र पर अरूंधती राय पर राजद्रोह का मुकदमा चलाने का आदेश देना और अब विनायकसेन और उनके साथ दो अन्य को झूठे मामलों में फंसाकर राजद्रोही करार देना, इस बात का संकेत है कि हमारी न्यायपालिका में जजों की कुर्सी पर बैठे लोगों के पास अन्याय और न्याय के बीच में अंतर करने का जो विकृत न्यायिक पैमाना है। वे मानवाधिकारों का सम्मान नहीं करते। कायदे से जो न्यायाधीश मानवाधिकारों का सम्मान नहीं करते और गैर कानूनी पैमानों के आधार पर फैसले करते हैं। उनके खिलाफ  न्याय में कोई प्रावधान जरूर होना चाहिए। हमारे संविधान निर्माताओं ने मान लिया था कि न्यायाधीश जो होगा वह न्यायप्रिय व्यक्ति ही होगा। लेकिन अनेक जज इस धारणा पर खरे नहीं उतरते। विनायक सेन के बारे में आए फैसले ने यह तथ्य पुष्ट किया है कि हमारे जज आधुनिक न्यायकुर्सी पर विराजमान हैं लेकिन अनेक जजों की चेतना आज भी कुरीतियों, कुसंस्कारों,पिछडी विचारधाराओं में कैद है। काश ! जजों के पास मानवाधिकारबोध होता तो न्याय कितना सुंदर होता ?

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