शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन की समस्याएं

         काव्य या साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करने ज्यों ही जाते हैं बड़ी समस्या उठ खड़ी होती है। पहली अनुभूति यह पैदा होती है कि हिन्दी की कविता अन्य विदेशी भाषा की कविता से पीछे है। आलोचना का तुलनात्मक अध्ययन करने जाते हैं तो पाते हैं कि हिन्दी की आलोचना कितनी पीछे है। यही दशा अन्य विधाओं की है।

यानी तुलना करते ही बार-बार यह एहसास पैदा होता है कि हिन्दी का साहित्य अन्य भाषाओं के साहित्य से कितना पीछे है। ऐसा नहीं है कि हम हिन्दी वालों को ही ऐसी अनुभूति होती है। अंग्रेजी के साहित्यकारों को भी ऐसी ही अनुभूति होती है कि फ्रेंच या जर्मन साहित्य से उनका साहित्य कितना पीछे है।

मैथ्यू अर्नाल्ड पहले लेखक हैं जिन्होंने पहलीबार एकपत्र में 1848 में ‘तुलनात्मक साहित्य’ पर सुसंगत ढ़ंग से विचार किया था। सन् 1886 में पहलीबार एच.एम.पॉसनेट ने ,जो अंग्रेजी के प्रोफेसर थे, उन्होंने पहलीबार अपनी किताब का नाम इसी पदबंध से ऱखा था।

मैं निजीतौर पर महसूस करता हूँ कि ‘तुलनात्मक साहित्य’ की बजाय ‘ साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन’ कहना ज्यादा संगत होगा। ‘तुलनात्मक साहित्य’ मूलतः खोखला पदबंध है। इस प्रसंग में कॉरनेल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर लोन कूपर का उल्लेख करना समीचीन होगा। कूपर ने लिखा तुलनात्मक साहित्य खोखला शब्द है। इससे सही अर्थ की अभिव्यक्ति नहीं होती। मुझे अनुमति दो तो मैं ‘तुलनात्मक आलूओं’ और ‘तुलनात्मक भुसी’ कहना ज्यादा पसंद करूँगा।‘तुलनात्मक साहित्य’ पदबंध में ‘तुलनात्मक’ और ‘साहित्य’ दो पदबंध हैं। दिक्कत यह है कि साहित्य की परिभाषा में तेजी से परिवर्तन आया है जबकि ‘तुलनात्मक’ के उपकरण नहीं बदले हैं या उनमें कम बदलाव आया है। मसलन् साहित्य को अंग्रेजी में सीखना,साहित्य संस्कृति,साहित्यिक उत्पादन,लेखन का ढ़ांचा,लेखन आदि के नाम से विश्लेषित किया जा रहा है। इसी तरह सभी किस्म के ‘साहित्य उत्पादन’ को ‘साहित्य’ माना जाता है। 18वीं शताब्दी में साहित्य ‘राष्ट्रीय’ और ‘स्थानीय’ के साथ नत्थी होकर आया था। आज इस अर्थ की प्रासंगिकता कम हो गयी है। हमें इस संदर्भ को व्यापक फलक पर खोलकर विचार करना चाहिए।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘तुलनात्मक साहित्य’ पदबंध ‘सार्वभौम साहित्य’, ‘साहित्य’, ‘आम साहित्य’, ‘विश्व साहित्य’ से प्रतिस्पर्धा करते हुए आया है। वेन तिघेम के अनुसार तुलनात्मक साहित्य का लक्ष्य है विभिन्न साहित्यों का एक-दूसरे के संबंध के साथ अध्ययन करना। कुछ विचारक तुलनात्मक साहित्य को अंतर्राष्ट्रीय साहत्य संबंधों के इतिहास के संदर्भ में विश्लेषित करते हैं। इस क्रम में वे तथ्य,संपर्क और आध्यात्मिक संबंधों का अध्ययन करते हैं। इस क्रम में हमें यह भी ध्यान रखना होगा किकि लेखक की जिंदगी और आकांक्षाएं अनेक साहित्यों से जुड़ी होती हैं। एक मुश्किल यह है कि ‘तुलनात्मक साहित्य’ और ‘जनरल साहित्य’ में विभाजक रेखा खींचना मुश्किल है।

तुलनात्मक साहित्य के नजरिए से देखें तो संस्कृत,उर्दू और हिन्दी में कुछ चीजें साझा हैं। इन तीनों भाषाओं के साहित्य पर दरबारी संस्कृति और सभ्यता का गहरा असर है। इनमें संस्कृत और उर्दू पर दरबारी संस्कृति का ज्यादा असर है। हिन्दी पर कम असर है। हिन्दी में वीरगाथाकाल और रीतिकाल पर दरबारी संस्कृति का व्यापक असर देखा जा सकता है। इसके अलावा हिन्दी की मध्यकालीन कविता जन-जीवन से जुड़ी कविता है। इसमें राम-कृष्ण के आख्यान की आंधी चली है। राम-कृष्ण के बहाने दरबारी संस्कृति का विकल्प निर्मित किया गया। राजा के सामने सिर झुकाने से बेहतर भगवान के सामने सिर झुकाने का भाव है जो कि प्रतिवादी भाव है।

इसके विपरीत संस्कृत काव्य परंपरा में राजा को अपदस्थ नहीं किया जा सका। संस्कृत काव्य का बड़ा हिस्सा राजा केन्द्रित आख्यानों से भरा है। इसमें जनता के भावों और सुख-दुख के लिए कोई जगह नहीं है। इसमें पशु हैं,पक्षी हैं,उपदेश हैं.काव्यमानक हैं और सबसे बड़ी बात यह कि इसमें सामाजिक यथार्थ का प्रतिबिम्बन नहीं है।

हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रेखांकित किया है संस्कृत कविता जीवन से कटी हुई है।जबकि हिन्दी कविता सामाजिक जीवन से जुड़ी है। संस्कृत कविता जन्म से नियमों से बंधी रही है। काव्य नियमों का यथोचित निर्वाह करना कवि का लक्ष्य रहा है। इसके विपरीत हिन्दी के जनकवियों ने कभी भी काव्य नियमों का पालन नहीं किया। काव्य निर्माण के उपकरणों को उन्होंने जन प्रचलित काव्य रूपों से ग्रहण किया।काव्य नियमों के प्रति हिन्दी के जनकवियों का उपेक्षाभाव वह प्रस्थान बिंदु है जहां से हमें प्रतिवादी काव्य के आरंभ को देखना चाहिए। नियमों की उपेक्षा से पैदा हुआ प्रतिवादी काव्यरूप अपने साथ राजतंत्र का विकल्प भी लेकर आया।रामाश्रयी-कृष्णाश्रयी, सगुण- निर्गुण काव्य परंपरा से उसने अंतर्वस्तु ली।इन कवियों ने क्या लिखा और किस नजरिए से लिखा इसका उनकी मंशा से गहरा संबंध है।

मूल सवाल है मध्यकालीन हिन्दी कवियों की मंशा का।कवि की मंशा का कविता के उपकरणों और काव्य क्षेत्र चयन के साथ गहरा संबंध है। मध्यकालीन जनकवियों ने राम-कृष्ण,सगुण-निर्गुण आदि व्यापक अभिव्यक्ति का क्षेत्र चुना।उसमें धारावाहिकता बनाए रखी।यह मूलतः उनके दरबारी संस्कृति के प्रति विरोधभाव की अभिव्यक्ति है। इस प्रतिवाद के केन्द्र में काव्य के रूप और अंतर्वस्तु दोनों हैं।

कवि की मंशा लक्ष्यीभूत श्रोता की प्रकृति के साथ नाभिनालबद्ध होती है। संस्कृत के कवि का लक्ष्यीभूत श्रोता और हिन्दी के जनकवियों का लक्ष्यीभूत श्रोता भिन्न है। यह भिन्न ही नहीं बल्कि इनके हितों में गहरा अंतर्विरोध है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो संस्कृत-हिन्दी कवियों के काव्यजगत में गहरी विचारधारात्मक टकराहट नजर आएगी। संस्कृत -हिन्दी के कवियों के सामाजिक सरोकारों में गहरा अंतर नजर आएगा। यही वजह है कि हिन्दी के मध्यकालीन जनकवि संस्कृत काव्य परंपरा से अपने को पूरी तरह अलग करते हैं।

संस्कृत कवि दरबार के लिए लिखता है। हिन्दी का जनकवि भक्त के लिए लिखता है, सबके लिए लिखता है। संस्कृत कवि अपनी निजता को सार्वजनिक नहीं करता इसके विपरीत हिन्दी कवि अपनी निजता को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करता है। संस्कृत कवि अपने निजी जीवन के दुखों को छिपाता है,हिन्दी कवि उन्हें सार्वजनिक करता है। व्यक्तिगत को सामाजिक बनाता है और व्यक्तिगत और सार्वजनिक के सामंतीभेद को नष्ट करते हुए व्यक्तिगत को सार्वजनिक बनाता है। यहां से वह सचेत रूप से आधुनिकभावबोध के लक्षणों की नींव ड़ालता है।

उल्लेखनीय है मध्यकालीन कवियों ने अपने सारे उपकरण व्यापारिक पूंजीवाद से लिए हैं। ये कवि नई उदीयमान सामाजिक शक्तियों कारीगर-दस्तकार और उदीयमान व्यापारीवर्ग के भावबोध से संसार को देखते हैं। उपेक्षित शूद्रों और स्त्रियों को समानता और अभिव्यक्ति का मंच देते हैं। उनके यहां सब कुछ पर्सनल है,व्यक्तिगत है। भक्ति का रूप भी व्यक्तिगत है। व्यक्तिगत सत्ता का ऐसा महाराग इसके पहले कभी नहीं सुना गया। व्यक्तिगत भावों की अभिव्यक्ति के बहाने राजतंत्र की समूची सत्ता और उसके सांस्कृतिकबोध और मूल्य संरचना को सर्जनात्मक चुनौती दी गयी।

तुलनात्मक साहित्य के क्षेत्र में अध्ययन की कई पद्धतियां प्रचलन में हैं। फ्रांसीसी तुलनाशास्त्री ‘प्रभाव’के अध्ययन पर जोर देते हैं। रेने वैलेक ने ‘कारण-प्रभाव’ को महत्ता दी है। हंगरी के तुलनाशास्त्री ‘स्रोत’ और ‘मौलिकता’ को महत्वपूर्ण मानते हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने राष्ट्रीय चरित्रों की पहचान स्थापित की।उल्लेखनीय है कि ‘प्रभाव’ का ‘ग्रहण’ के साथ संबंध है। फलतः ग्रहणकर्ता मूल्यांकन के केन्द्र में रहेगा। वेन तेघम और अन्य विचारकों ने ‘ग्रहण’ के सिद्धांत के अनुरूप ही अपने तुलनात्मक नजरिए का विकास किया।

साहित्य संप्रेषण और ग्रहण के सवालों पर सामयिक तुलनाशास्त्री विभिन्न दृष्टियों से विचार करते रहे हैं। हंगरी के तुलनाशास्त्रियों ने ‘स्रोत’ और ‘मौलिकता’ पर जब जोर दिया था तो उस समय हंगरी में 19वीं शताब्दी का समय था और संस्थानों के निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी।तुलनात्मक साहित्य के मूल्यांकन और सिद्धान्त की किताबों को गौर से देखें तो पाएंगे कि कुछ महत्वपूर्ण पदबंधों का प्रयोग मिलता है। जैसे, फार्चून,डिफ्यूजन,रेडिएशन आदि इन पदबंधों का पाठक पर पड़ने वाले प्रभाव के संदर्भ में धडल्ले से प्रयोग चल रहा है। जबकि ग्रहणकर्त्ता के संदर्भ में प्रतिक्रिया, क्रिटिक,ओपिनियन,रीडिंग,ओरिएण्टेशन आदि का खूब प्रयोग हो रहा है। पुनर्रूत्पादन के संदर्भ में फेस,रिफ्लेक्शन, मिरर, इमेज, रिजोनेंस,इको,म्यूटेशन आदि का प्रयोग मिलता है।

फ्रांस में ग्रहण सिद्धांत का विरोध करने वालों का भी एक गुट है जो विषयवस्तु केन्द्रित अध्ययन पर जोर देता है। इस क्षेत्र में मनोवैज्ञानिक और शैलीवैज्ञानिक आलोचना दृष्टियों का जमकर प्रयोग हुआ है। इसके दायरे में मिखाइल बाख्तिन के ‘इंटरटेक्चुअलिटी’ से लेकर वाक्य-विन्यास, रूपकों,वाक्य की बहुअर्थी संरचना और रूपवाद आदि सब कुछ शामिल हैं।फ्रांसीसी तुलनाशास्त्रियों ने इमेज और इमेनोलॉजी में अंतर किया है और इमेज के अध्ययन पर जोर दिया है। इन विचारकों ने विचारों के इतिहास,मनोदशा, संवेदनशीलता और मूल्यों का भी अध्ययन किया है। ये लोग वैविध्य और उदारता के आधार पर मूल्यांकन करते हैं।फ्रांसीसी तुलनाशास्त्रियों ने रूपवादी दृष्टिकोण का विरोध करते हुए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। उनके द्वारा किए गए अध्ययनों को चार भागों में बांट सकते हैं। 1.काल्पनिकता का अध्ययन, 2. किसी महान् विषयवस्तु का अध्ययन, 3. प्रतीकों का अध्ययन, 4. विषयवस्तु का अध्ययन।

फ्रांसीसी तुलनाशास्त्रियों के यहां सामान्य साहित्य और तुलनात्मक साहित्य का अंतर साफ दिखाई देता है। इन लोगों ने रिप्सेशन थ्योरी को सामान्य साहित्य के क्षेत्र के बाहर रखा है। इसके अलावा पद्धति की समस्याओं को भी उठाया है। तुलनात्मक साहित्य की जटिलता और समृद्धि को रेखांकित किया है। उनके मूल्यांकन के केन्द्र में पाठ है। किंतु यह काम उन्होंने रूपवादी और संरचनावादियों से भिन्न रूप में किया है। वे हमेशा इमेजरी और ओपिनियन पर केन्द्रित होकर काम करते रहे हैं। विधाओं के इतिहास का पुनर्लेखन,काव्य की व्याख्या के लिए इंटरटेक्चुअलिटी या अन्तर्पाठीयता की धारणा , इतिहास और अंतर्वस्तु का प्रयोग करते रहे हैं। इस क्रम में उन्होंने पाठ का विकेन्द्रीकरण किया है।

उल्लेखनीय है फ्रांस में ‘लिटरेचर’ पदबध का अर्थ ‘साहित्यिक अध्ययन’ है। वाल्तेयर ने अपने अधूरे लेख ‘लिटरेचर’ में, जो उन्होंने दर्शनकोश के लिए लिखा था, उसमें उन्होंने साहित्य को ‘अभिरूचि का ज्ञान’ कहा था। 19वीं सदी में फ्रांस में ‘तुलनात्मक साहित्य’ पदबंध का प्रयोग मिलता है। खासकर ए.एफ.विल्हमैन की पत्रिकाओं के इतिहास संबंधी पुस्तक में इस पदबंध का सुसंगत प्रयोग मिलता है। यह पुस्तक 1828 में छपी थी। इस पुस्तक में तुलनात्मक साहित्य की पद्धति का इस्तेमाल करते हुए आधुनिककाल के अनेक साहित्यरूपों का विश्लेषण किया गया है।

सामान्य साहित्य का आंदोलनों और साहित्यिक फैशनों के साथ संबंध है। जबकि तुलनात्मक साहित्य दो भाषाओं के साहित्य के आपसी संबंध से बंधा है। मसलन् संस्कृत की कविता और हिन्दी की कविता के किसी कालखण्ड को लेकर या दो लेखकों का अध्ययन किया जा सकता है। तुलनात्मक स्रोतों और प्रभावों का अध्ययन किया जा सकता है. तुलनात्मक कारणों और परिणामों का अध्ययन किया जा सकता है।

तुलनात्मक अध्ययन के दौरान किसी कृति को पूरी तरह अन्य भाषा के प्रभावों में घटाया नहीं जा सकता। या अन्य भाषा के प्रभाव को आलोकित करने वाले प्रधान बिंदु के रूप में नहीं देखा जा सकता।तुलनात्मक सहित्य और सामान्य साहित्य के बीच में बनाबटी जंगल खड़े करने से बचना चाहिए। साहित्यिक वैदुष्य और साहित्येतिहास का एक ही लक्ष्य है साहित्य का मूल्यांकन करना। हमें तुलनात्मक साहित्य और सामान्य साहित्य के वर्गीकरण से बचना चाहिए। यदि इस वर्गीकरण को लागू करते हैं तो हम तुलनात्मक साहित्य को केवल दूसरी श्रेणी के लेखकों ,अनुवादों, यात्रा-पुस्तकों,मध्यस्थ के संबंधों तक सीमित कर देंगे। तुलनात्मक साहित्य को एक छोटे अनुशासन में सीमित कर देंगे।

वेन तेघम के अनुसार तुलनात्मक साहित्य को राष्ट्रीय साहित्यों से अलगाने की जरूरत है। तुलनात्मक साहित्य का संबंध उन मिथकों और गाथाओं से है जो कवियों के चारों ओर हैं और इनका गौण और लघु लेखकों से संबध है। वेन तेघम और उनके अनुयायी साहित्यिक अध्ययन के बारे में 19वीं सदी के प्रत्यक्षवादी तथ्यवाद की शब्दावली में सोचते थे। ये लोग स्रोतों और प्रभावों का अध्ययन करते थे। साहित्य की सरसरी व्याख्या करते थे। सरसरी व्याख्या के लिए मूलभाव,विषयवस्तु, चरित्र, स्थितियां, कथानक ,कालक्रम आदि का इस्तेमाल करते थे। इन्होंने अपने यहां समानान्तरों, समानताओं और अस्मिताओं के अम्बार को एकत्रित कर रखा है।तुलनात्मक साहित्य या सामान्य साहित्य पर विचार करते हुए ध्यान रहे कि कोई भी रचना,स्रोतों और प्रभावों का जोड़ नहीं होती।वह पूर्ण होती है। उसमें कच्ची सामग्री कहीं से भी ली जा सकती है। कच्ची सामग्री निर्जीव नहीं होती। वह नई संरचनाओं में आसानी से रूपान्तरित हो जाती है।

सरसरी व्याख्या कहीं नहीं ले जाती और साहित्य में कार्य-कारण संबंध स्थापित करने में सफल नहीं होती। यदि कृति और कृतिकार को तुलनात्मक मूल्यांकन करने के चक्कर में स्रोतों और प्रभावों में रिड्यूज कर दिया जाता है तो इससे कृति और कृतिकार की समग्र अर्थवत्ता को ठेस लगती है। जो कृतियां पूर्ण होती हैं उनके अलगाव के कारण कृति में नहीं होते।तुलनात्मक साहित्य के उदय का प्रधान कारण था राष्ट्रवाद का निषेध करना। साहित्य की आधुनिक धारणा के उदय के साथ साहित्य में राष्ट्रवाद का जयघोष होने लगा। जातीय साहित्य की धारणा पर जोर देने के बहाने साहित्य में राष्ट्रवाद के एजेण्डे को प्रतिष्ठित किया गया।

हिन्दी में जातीय साहित्य की बहस के केन्द्र में मूलतः राष्ट्रवाद को ही प्रतिष्ठित करने का लक्ष्य है। साहित्य का आधुनिक धारणा के आलोक में मूल्यांकन करने के बजाय जातीय साहित्य की धारणा के आलोक में रामविलास शर्मा और अन्य के द्वारा जो गट्ठर भरकर लेखन हुआ है उसने राष्ट्रवाद को साहित्य में पुख्ता किया है। साहित्य में राष्ट्रवाद की प्रतिष्ठा का हिन्दी में खास अर्थ है प्रतिक्रियावादी राजनीतिक चेतना की हिन्दी विभागों में प्रतिष्ठा। इससे हिन्दी साहित्य की अपूरणीय क्षति हुई है।

राष्ट्रवाद एक तरह का अलगाव भी है। यह समूचे समाज और साहित्य से अलगाव है। अलगाव और राष्ट्रवाद को तुलनासाहित्य शास्त्रियों ने फ्रेंच,जर्मन,अंग्रेजी साहित्य में चुनौती दी। तुलनाशास्त्रियों ने साहित्य में प्रचलित विषयवस्तु और पद्धति विज्ञान के बनावटी विभाजन को अस्वीकार किया। स्रोतों और प्रभावों की यांत्रिक धारणा का निषेध किया। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या राष्ट्रवाद का विरोध किया। मेरे कहने का यह आशय नहीं है कि तुलनाशास्त्री देशभक्त नहीं थे। वे देशभक्त थे लेकिन साहित्य को राष्ट्रवाद के साथ नत्थी करना नहीं चाहते थे।

तुलनाशास्त्री विलक्षण किस्म के हिसाबी लोग हैं। तुलना करते हुए और अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन करते हुए तुलनात्मक साहित्य को सांस्कृतिक बही-खाते के रूप में इस्तेमाल करते हैं। वे मूल्यांकन के जरिए बताते हैं कि कैसे उनके देश ने दूसरे देश पर प्रभाव ड़ाला या उनकी भाषा ने अन्य भाषा के साहित्य को प्रभावित किया,इस तरह वे अपने देश के सांस्कृतिक बही-खाते को बढ़ाने का काम करते हैं। इसके जरिए वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उनके देश ने दूसरे देशों पर यथासंभव प्रभाव ड़ाला। वे बारीकी से यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उनके देश ने किसी विदेशी साहित्यकार को किसी अन्य देश की तुलना में अधिक आत्मसात किया और समझा है। हिन्दी में यह बीमारी सहज ही छायावादी कवियों के साथ रवीन्द्ननाथ टैगौर के साथ तुलना के संदर्भ में देख सकते हैं।

तुलनात्मक साहित्य और सामान्य साहित्य के बीच विभाजन करने की पद्धति से हमें बचना चाहिए। यह विभाजन बनावटी है। आज तुलनात्मक साहित्य एक स्वतंत्र अनुशासन है। इसका लक्ष्य है राष्ट्रीय सीमाओं के परे जाकर साहित्य का अध्ययन करना।सच्चा साहित्यिक आलोचक वह है साहित्य को मृत तथ्यों का जखीरा होने से बचाता है। मृत तथ्यों की स्थापना करना पाण्डित्य नहीं है। आलोचक वह है जो साहित्य के मूल्यों और गुणों का उद्घाटन करता है।साहित्यिक इतिहास और आलोचना में कोई अंतर नहीं है। साहित्यिक इतिहास की सरलतम समस्या को बताने के लिए मूल्यांकन आवश्यक है। किसी लेखक ने किसी अन्य लेखक को प्रभावित किया इसके लिए लेखक की विशिष्टताओं का ज्ञान आवश्यक है। इसलिए उनकी परंपराओं के संदर्भ का ज्ञान और निरंतर तोलने,तुलना करने,विश्लेषण करने और अलगाने की क्रिया आवश्यक है। यह सारा कार्य-व्यापार आलोचनात्मक है।

आलोचना के बिना इतिहास नहीं लिखा जा सकता। इतिहास लिखते समय चयन, चरित्र- चित्रण और मूल्यांकन की जरूरत पड़ती है। इन तीनों तत्वों के बिना कोई भी इतिहास नहीं लिखा जा सकता। जो साहित्यिक इतिहासकार आलोचना की महत्ता को अस्वीकार करते हैं उन्हें अचेत आलोचक कहना समीचीन होगा।तुलनात्मक साहित्य ने इतिहास और आलोचना को अस्वीकार किया है। अपने को तथ्यात्मक संबंधों, स्रोतों,प्रभावों,मध्यस्थों और ख्यातियों तक सीमित रखा है। हमें इस तरह के नजरिए से बचना चाहिए।

साहित्य में विधाओं का एक-दूसरे से बैर नहीं है। हमें एक-दूसरे को अपदस्थ करने की कोशिशों से बचना चाहिए। बहुत सारे काम हैं जो इतिहास करता है, अनेक ऐसे काम हैं जो इतिहास से संभव नहीं हैं उन्हें आलोचना करती है, आलोचना और इतिहास से जो काम नहीं हो पाते उन्हें तुलनात्मक साहित्य के जरिए किया जा सकता है।अभिव्यक्ति और मूल्यांकन के अभावों की पूर्ति नयी विधाएं और संचार रूप करते हैं। एक रूप जब जन्म ले लेता है तो वह जाता नहीं है। अभी तक इतिहासकार और आलोचक की दिलचस्पी जिन बातों में थी,तुलनात्मक साहित्य उसके परे जाता है। इतिहासकार की दिलचस्पी इतिहास और साहित्य की सामाजिकता में थी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने यह कार्य बेहतर ढ़ंग से किया। आलोचना की दिलचस्पी मूल्य की खोज में रही है। इन दोनों से भिन्न तुलनात्मक साहित्य की दिलचस्पी सामान्य सांस्कृतिक इतिहास में होती है। इसे वह समस्त मानवता के इतिहास के रूप में पेश करता है।







शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

फेसबुक और नार्सिसिज़्म -

  मैकलुहान के शब्दों में कहें तो मनुष्य तो मशीनजगत का सेक्स ऑर्गन है। डिजिटल मानवाधिकार इससे आगे जाता है और गहराई में ले जाकर मानवीय शिरकत को बढ़ावा देता है। हिन्दी के जो साहित्यकार फेसबुक पर हंगामा मचाए हुए हैं वे गंभीरता से सोचें कि सैंकड़ों की तादाद में जो लाइक आ रहे हैं वे कम्युनिकेशन को गहरा बना रहे या उथला ?
कम्युनिकेशन गहरा बने इसके लिए जरूरी है डिजिटल रूढ़िवाद से बचें। डिजिटल रूढ़िवाद मशीन प्रेम पैदा करता है,तकनीक की खपत बढ़ाता है । लेकिन कम्युनिकेशन में गहराई नहीं पैदा करता। डिजिटलरूढ़िवाद की मुश्किल है कि उसके कान नहीं हैं। वह इकतरफा बोलता रहता है,वह सिर्फ अपनी कही बातें ही सुनता है अन्य की नहीं सुनता। मसलन्, मैंने यह कहा,मैंने यह किया,मैं ऐसा हूँ,मैं यहां हूँ,मैं यह कर रहा हूँ,वह कर रहा हूँ आदि।
हिन्दी के फेसबुकरूढ़िवादी जब फोटो के जरिए अभिव्यक्ति का जश्न मनाते हैं तो वे भूल जाते हैं कि वे वैचारिक तौर पर क्या कर रहे हैं। फेसबुक या किसी भी डिजिटल मीडियम का गहरा संबंध मानवीय क्रियाकलापों और संचार से है। फेसबुक पर लाइक या फोटो लगाने के बहाने हम अपने भाव-भंगिमाओं और गतिविधियों का बतर्ज मैकलहान मशीनीकरण करते हैं,इस क्रम में पेश की गयी हर चीज अपना विलोम बनाती है। हमें मैकलुहान की यह बात याद रखनी चाहिए-
All media work us over completely. They are so persuasive in their personal, political, economic, aesthetic, psychological, moral, ethical, and social consequences that they leave no part of us untouched, unaffected, unaltered. The medium is the massage. Any understanding of social and cultural change is impossible without a knowledge of the way media work as environments .
हिन्दी के बौद्धिकों में एक बड़ा वर्ग है जो अभी मानवाधिकारचेतना को महत्वहीन मानता है। उनमें संयोग से उन लेखकों की संख्या भी अच्छी खासी है जो साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हैं। नया दौर डिजिटल ह्यूमनिज्म का है। वे लोग जो मानवाधिकारों न समझे वे डिजिटल मानवाधिकार को समझेंगे इसमें संदेह है। मेरा इशारा उन लेखकों की ओर है जो हिन्दी में है और फेसबुक पर आएदिन फोटोबाजी करते रहते हैं। लेकिन मानवाधिकारों के प्रति कभी नहीं बोलते। डिजिटल मानवाधिकार विलासिता के लिए नहीं है। फेसबुक पर सिर्फ फोटो लगाना,आत्मगान करना विलासिता है,हिन्दी में इसे फेसबुक रूढ़िवाद कहते हैं।असल में हम ऐसे युग में हैं जहां व्यापार ही हमारी संस्कृति है । यह वह युग है जहां संस्कृति ही हमारा व्यापार है।
फेकबुक कम्युनिकेशन के दौर में सामाजिक-सांस्कृतिक त्रासदियां सबसे ज्यादा घट रही हैं लेकिन हिन्दी फेसबुक में यह सब नदारत है। अति-कनेक्टविटी वालों का यथार्थजीवन से अलगाव है। दूरसंचार कम्युनिकेशन पर बढ़ती निर्भरता ने सामाजिक जीवन के अर्थपूर्ण संपर्क को तोड़ दिया है। इसके कारण टाइम और स्पेस का शासन भी खत्म हो गया है। अब हम बिना जाने तत्क्षण राय देने लगे हैं,लाइक करने लगे हैं।अनजान लोगों की लाइकलाइन पगलाती रहती है।अनजान का लाइक अब पैमाना है लोकप्रियता का। अब लाइक करने वाला भी लेखक बन गया है ,उसे लेखक के बराबर दर्जा मिल गया है। फलतःलेखक और लाइककर्ता दोनों मित्र हो गए हैं। अब हम लेखक के आन्तरिक और निजी विवरणों में ज्यादा रूचि लेने लगे हैं।
फेसबुक टाइमलाइन की खूबी है कि यूनीफॉर्म,कंटीनुअस और कनेक्टेड है।नार्सिस्ट लोग (फेसबुक पर लिखी उनकी पोस्टों के संदर्भ में) इस तत्व की जानते हुए अनदेखी करते रहे हैं। नार्सिसिज़्म यानी आत्ममुग्धता और अहर्निश असत्य का प्रचार। हिन्दी लेखकों को इससे बचना चाहिए। फेसबुक पर इस बात को लिखना इसलिए जरूरी लगा कि क्योंकि फेसबुक पर यह नार्सिसिज़्म खूब चल रहा है। किसी के भी बारे में अनाप-शनाप लिखने की बाढ़ आई हुई है। इसमें एक पहलू वह भी जिसमें व्यक्ति अपने बारे खूब काल्पनिक बातें लिखता है। इस तरह की काल्पनिक और बे-सिपैर की बातें लिखना नार्सिसिज़्म का वैचारिक धर्म है।
मसलन् किसी के फोटो का दुरूपयोग,विकृतिकरण,कैरीकेचर,पर्सनल हमला करना,किसी को गलत उद्धृत करना, विषयान्तर करके निजी जीवन पर हमला करना, किसी के नाम से असत्य बोलना आदि फेसबुक पर नार्सिसिज़्म की सामान्य प्रवृत्तियां हैं और इसमें हमारे नामी और सुधीजन बाजी मारे हुए हैं। नार्सिसिज़्म वैचारिक एड्स है।
फेसबुक टाइमलाइन में आप मानवीय जीवन के अनंतरूपों को देख सकते हैं। यहां पर विभिन्न किस्म की घटनाओं जैसे निजी अनुभव,निजी राय,जन्मदिन,मृत्यु दिवस,शादी,ब्याह, तलाक, दलीय नीतियां आदि को देख सकते हैं।फेसबुक में अर्थवान और अर्थहीन दोनों ही किस्म की चीजें देखते हैं। फेसबुक एक तरह से तयशुदा संभावित समय और स्थान है जहां पर कम्युनिकेट कर सकते हैं।यहां वातावरण अदृश्य है।इसकी संरचनाएं और बुनियादी नियम पर्वेसिव हैं।सतह पर यह सहज कम्युनिकेशन का मीडियम है। लेकिन यह सीधे व्यक्ति के अन्तर्मन और धमनियों या नसों को प्रभावित करता है। अनेक फेसबुक लेखक इस बुनियादी तथ्य को नहीं समझते और अंट-शंट लिखते रहते हैं। अंटशंट लेखन,आत्मश्लाघा, आत्मप्रशंसा कम्युनिकेशन में पर्वर्जन है।नार्सिज्म है।फेसबुक संवाद का माध्यम है,संवाद के आरंभ होने का अर्थ है प्रौपेगैण्डा का अंत। फेसबुक पर किसी भी विचारधारात्मक सवाल पर विचार विमर्श कम्युनिकेशन में रूपान्तरित हो जाता है। वह प्रौपेगैण्डा नहीं रहता।
भारत का मीडिया इस अर्थ में अ-मानवीय है कि वह रीजन,रेशनेलिटी और जीवन के सारवान सवालों को बुनियादी तौर पर नहीं उठाता। वह मनुष्य और पशु में भेद नहीं जानता। वह विश्वसनीय ज्ञान और सूचना का स्रोत अभी तक नहीं बन पाया है। वहां बार-बार नियंत्रण के विभिन्न रूपों का अभ्यास किया जाता है। वहां मोटे तौर पर विज्ञापनदाता,राजनीतिज्ञ और चोंचलबाजों की गणित और नियंत्रण का ख्याल रखा जाता है। अप्रत्यक्षतौर वे राज्य-कारपोरेट घरानों के भोंपू की तरह काम करते हैं। मानवीय और गैर-मानवीय जीवनशैली के पहलुओं में अंतर करने तमीज अभी तक पैदा नहीं कर पाए हैं।भारत और यूरोप के मीडिया में एक अंतर है। यूरोप में मानवोत्तर दौर की ओर मीडिया प्रयाण कर रहा है ,वहां सारवान मानवीय मसले उठाए जा रहे हैं।मानवीय त्रासदी और मानवाधिकारों के सवालों पर ध्यान दिया जा रहा है। भारत में इसके उलट अमानवीय ,बोगस,मृत विषयों को व्यापक कवरेज दिया जा रहा है।

नामवर सिंह और रसशास्त्र का विखंडन

        रस पर इन दिनों तकरीबन बातें नहीं हो रही हैं।जबकि रसशास्त्र ने 18सौ साल तक रचना और आलोचना को प्रभावित किया,हमारे सौंदर्यबोध के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की ।सवाल यह है कि वह अचानक गायब कैसे हो गया ? क्या रस आज भी प्रासंगिक है ? क्या रसशास्त्र के जरिए नाटक, साहित्य और समाज का नया मूल्यांकन संभव है ? बकौल नामवर सिंह “रसःजस का तस या बस ?” हमें इस लक्ष्मणरेखा का मूल्यांकन करना चाहिए।अनेकबार अकादमिक आलस्य के कारण हम परंपरा में जाना बंद कर देते हैं और यही बड़ी वजह है कि रस पर हमने बातें बंद कर दी हैं।

सवाल उठता है रचना लिखने के बाद और रचना लिखने के दौरान लेखक अपनी रचना का आनंद लेता है या नहीं ? कुछ कह रहे हैं रचना लिखने के बाद रचना स्वायत्त हो जाती है। यह भी कहा जा रहा है कि रचना कभी स्वायत्त नहीं होती,वह पाठक से हमेशा जुड़ी रहती है,पाठक के आत्मगतबोध से जुड़ी रहती है। सृजन के बाद लेखक से रचना अपने को स्वायत्त कर लेती है , लेखक अपनी रचना का लिखने के दौरान आस्वाद भी लेता है लेकिन असल आस्वाद तो पाठक लेता है। लेखक को तो लिखकर ही शांति मिलती है,सुख मिलता है। रचना कैसी है यह तो पाठक ही बेहतर ढ़ंग से बता सकता है। संस्कृत कवि कहते हैं कवि को तो सहृदय की अवस्था में ही आनंद की प्राप्ति होती है।लेखक लिखता जरुर है लेकिन लेखन के सार का आनंद तो सहृदय लेता है। इस नजरिए से देखें तो संस्कृत का कवि रचना को ‘एक तैयार माल’ मानकर चलता है।इससे रचना का गतिशील आनंद उपेक्षित होता है। मसलन्,इसमें भोक्ता के आनंद का तो महत्व है लेकिन कवि के आनंद का कोई महत्व नहीं है। जबकि लेखक लिखते समय आनंद लेता है और रचना के संपूर्ण होने के बाद भी आनंद लेता है।इस प्रक्रिया में रचना के गतिशील पक्ष की उपेक्षा होती है और रचना के बाह्य स्थिर या जड़ उपकरणों के साज-संवार पर लेखक ज्यादा जोर देने लगता है।

आज लेखक के सामने सामाजिक सरोकारों को व्यक्त करने की चुनौती है,लेकिन इस तरह की कोई चुनौती रसयुग में नहीं थी,रसयुग में तो रचनाकार का एकमात्र लक्ष्य था रसग्राही सहृदय जुगाड़ करना और लेखक को अजर-अमर बनाने के सूत्रों की खोज करना। इसलिए उसने रचना बाह्य उपकरणों के सजाने-संवारने पर ज्यादा ध्यान दिया। नए विषयों की खोज पर कम ध्यान दिया।फलतः रचना में बड़े पैमाने पर अभिव्यक्ति के नए उपकरणों का सृजन तो हुआ लेकिन नई विषयवस्तु का प्रवेश नहीं हो पाया।इसने रचना के उपकरणों का निर्वैक्तिक तंत्र निर्मित किया। यह ऐसा तंत्र है जिसका सतह पर समाज से कोई संबंध नजर नहीं आता लेकिन गहराई में जाकर देखें तो रचना के उपकरणों के निर्वैयक्तिक तंत्र का गहरा संबंध वस्तुतःराज दरबार,राजस्तुति,सुभाषित और समाज की अगतिशीलता के साथ है।इस प्रक्रिया में सर्जना के गतिशील पक्ष की ओर लेखक ने ध्यान देना ही जरुरी नहीं समझा। यही वह बिंदु है जहाँ से खड़े होकर कवि के निरंकुश भावबोध का जन्म होता है। कवि निरंकुश होता है यह धारणा जन्म लेती है।

रचना में बाह्य उपकरणों,रुढ़िगत प्रतिमानों और सरस विषयों का आग्रह रहेगा तो कवि के निरंकुश होने की संभावनाएं ज्यादा होंगी।खासकर जब लेखक भावविशेष पर ही केन्द्रित होकर बार-बार रचना लिखेगा तो उसके रुपवादी होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। कहने के लिए नौ रस थे लेकिन लिखा गया श्रृंगार रस पर ही,खोज-खोज कर उससे संबंधित विषयों पर नई शैली,नई भाषा,नए अलंकारों में रचनाएं लिखी गयीं इसके कारण आलोचना में रुपवादी रुझानों का आरंभ हुआ। साहित्य और समाज के बीचमें अलगाव की सृष्टि हुई।लेखक और प्रकृति में अलगाव का आरंभ हुआ। “समग्रालक्ष्मी” की अवधारणा से क्रमशःलेखक दूर होता चला गया। आरंभ में समग्र व्यक्ति के बोध पर जोर था लेकिन बाद में व्यक्ति के भावविशेष पर जोर दिया गया।शास्त्रज्ञान पर जोर दिया गया।पहले प्रकृति को जानने और चित्रित करने पर जोर था बाद में शास्त्र जानने पर जोर दिया गया।इसके कारण आलोचना में रुपवादी तत्वों की जमकर सृष्टि हुई।

पहले लेखक के लिए प्रकृति प्रमुख थी,बाद में लेखक को ब्रह्मानंद सहोदर कहा गया,बाद में इन सबसे दूर निकलकर लेखक ने स्थिर विषयों और परब्रह्म के रुपों पर लिखना आरंभ करना दिया ।इस क्रम में मनुष्य उपेक्षित हो गया परंपराएं निर्जीव हो गयीं और रचना के बाह्य उपकरण प्रमुख हो गए। रचनाकार के अंदर आए इन बदलावों का रचनाकार के सामाजिक नजरिए से गहरा संबंध है। रचनाकार पहले प्रकृति से जुड़ने के कारण समाज से जुड़ा हुआ था,बाद में ज्योंही उसने दरबार की ओर रुख किया वह प्रकृति से कट गया और अभिव्यक्ति के लिए उसने रुढ़िबद्ध रुपों को अपना लिया,साहित्य में यहीं से स्टीरियोटाइप चीजों का प्रवेश होता है। उसके इस तरह के रुख का एक अन्य कारण था लेखक का मूल्यबोध और सामाजिक सरोकारों का अभाव।यह भी सच्चाई है कि संस्कृत में कोई विद्रोही कवि नहीं हुआ और न विद्रोही साहित्य ही लिखा गया। इन दोनों के अभाव के कारण के रुप में हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अंधविश्वास,कर्मफल के सिद्धांत और पुनर्जन्म की धारणा के असर को जिम्मेदार ठहराया।

सवाल यह है इन मूल्यों और विचारों का लोकभाषा के साहित्य और कवियों पर असर क्यों नहीं पड़ा ? जनभाषाओं में ऐसे लेखक है जिनकी रचनाओं में अंधविश्वास,कर्मफल के सिद्धांत आदि का न्यूनतम असर है। जबकि संस्कृत के लेखकों में व्यापक असर है। उन लेखकों पर इन मूल्यों का ज्यादा असर था जिन्होंने अपने लिए विषयवस्तु “रामायण” और “महाभारत” से चुनी। क्योंकि इन दोनों महाकाव्यों में अंधविश्वास आदि से जुड़ी बातें बड़ी संख्या में नजर आती हैं। इस प्रसंग में हमें देखना चाहिए कि लेखक रचना के लिए विषय कहां से चुनता है ? लोकभाषाओं के अनेक लेखकों ने साहित्यिक रुढ़ियों और रुढ़िगत प्रतिमानों का जमकर विरोध किया और अभिव्यक्त के लिए संस्कृत परंपरा से भिन्न विकल्पों की खोज की, “रामायण” और “महाभारत” जैसे महाकाव्यों से विषय न चुनकर जीवन से विषय चुने। यही वजह है उनके साहित्य में संस्कृत साहित्य की तुलना में सर्जनात्मकता का विकास बेहतर ढ़ंग से हुआ। उनके साहित्य को आम जनता में जनप्रियता मिली। इसके विपरीत संस्कृत साहित्य शिक्षित संस्कृत समाज तक ही सीमित रहा।इसका एक आशय यह भी है कि संस्कृत के लेखकों पर अंधविश्वास,पुनर्जन्म और कर्मफल के सिद्धांत का ज्यादा असरथा।यही वजह है कि वहां साहित्यिक रूढ़ियों का व्यापक रूप में विकास हुआ।

इसके अलावा संस्कृत के अधिकांश लेखक आस्तिक थे ,फलतःउनमें स्वतंत्र चिन्तन के प्रति कोई आग्रह या पहल नजर नहीं आती। साहित्य में स्वतंत्र चिन्तन,नए विषय पर लिखने की इच्छा का लेखक के स्वतंत्र भावबोध से गहरा संबंध है। लोकभाषाओं के लेखकों ने स्वतंत्र चिन्तन का परिचय देते हुए कविता के फॉर्म से जुड़े रुपों को चुनौती दी। यह भी कह सकते हैं कि लोकभाषा के कवियों में संस्कृतकाव्य के फॉर्म से बाहर निकलकर लिखने की जो छटपटाहट है वह असल में उनके अंदर सामाजिक और दार्शनिक बंधनों से बाहर निकलने की स्वतंत्र चिंतन की प्रक्रिया से जुड़ी है। इनमें अनेक लेखक ऐसे भी हैं जो ईश्वर के परंपरागत रुप को सीधे चुनौती देते हैं।

संस्कृत काव्य लेखकों को धर्मशास्त्र प्रभावित कर रहा था जबकि लोकभाषा के लेखकों में धर्मशास्त्र के प्रति बगावत के भाव नजर आते हैं।धार्मिक और सामाजिक रुढ़ियों के प्रति बगावत नजर आती है।वे ईश्वर और राजा की सत्ता बनाए रखते हैं,लेकिन काव्य जगत में परिवर्तन की लहर पैदा कर देते हैं। कहने का अर्थ यह है कि संस्कृत साहित्य के लेखक और लोकभाषा साहित्य के लेखक के नजरिए में बुनियादी अंतर है।इसका अर्थ यह भी है मध्यकाल में साहित्य की कई परंपराएं थीं।इन परंपराओं में गहरे वैचारिक अंतर्विरोध हैं,इन परंपराओं से जुड़े लेखकों के नजरिए,साहित्य प्रयोजन,सामाजिक आधार और सामाजिक सरोकार भिन्न हैं।

संस्कृत लेखक की बौद्धिक-सांस्कृतिक संरचना और लोकभाषा लेखक की बौद्धिक-सांस्कृतिक संरचना की धुरी है उनकी समाजदृष्टि।संस्कृतलेखक हमेशा राजा को इकाई मानकर लिखते रहे।जबकि जनभाषा के लेखकों ने भगवान को आधार बनाकर लिखा। इसलिए राजा बनाम भगवान का द्वंद्व वहां सहज ही देख सकते हैं। संस्कृत लेखकों ने राजा की आड़ में सामाजिक-दार्शनिक अंतर्विरोधों को छिपाने की कोशिश की वहीं जनभाषा के लेखको ने भगवान के बहाने सामाजिक-दार्शनिक अंतर्विरोधों और सामाजिक पीड़ाओं को चित्रित किया। संस्कृत के लेखक के नजरिया रस और काव्यनियमों से संचालित है।

रस और काव्यनियम वस्तुतः धर्मशास्त्रीय मूल्यों और मान्यताओं के आवरण का काम करते हैं। रस के नाम पर वह वस्तुतःमध्यकालीन रूढ़ियों का पल्लवन हुआ।खासकर 5वीं शताब्दी के बाद से यह प्रवृत्ति ज्यादा प्रबल रुप में सामने आती है। इसके कारण संस्कृत लेखकों का साहित्यबोध और साहित्यशिल्प दोनों प्रभावित हुए।साहित्य को शाश्वत मानने की धारणा बलवती हुई।अधिकांश कवियों ने कविता के शिल्प पर इस कदर जोर दिया कि लेखक के विचारों में स्वतंत्र पहलकदमी एकदम खत्म हो गयी, अब लेखक गढ़िया होकर रह गया। यह गढ़िया लेखक भावहीन शिल्प-साधना में निरंतर बढ़ता चला गया।फलतः अभिव्यक्ति के वास्तविक रुपों और विषयों के ऊपर से उसकी पकड़ एकसिरे से खत्म हो गयी।यह ऐसा लेखक है जिस पर जीवन की यथार्थ घटनाओं का कोई असर नजर नहीं आता। वह जीवन की सच्चाई को न तो देखता है और न उससे प्रभावित ही होता है।

संस्कृत के लेखकों ने जिन विषयों पर लिखा है उससे कुछ समय तक पाठक का मनोरंजन तो होता है लेकिन इस तरह के साहित्य का समाज पर कोई असर नहीं पड़ता।इस तरह के साहित्य को ही वे लोग “शाश्वत साहित्य”, “शाश्वत चिंतन” और “शाश्वत मूल्य” कहते हैं। इन लेखकों ने बड़े पैमाने साहित्यिक और कलात्मक रचनाओं के सिद्धांत,नियम और संरचना की विधियों को खोजने का प्रयत्न किया। आंचलिक,व्यक्तिपरक,देशज सांकृस्तिक रुपों का बहिष्कार किया।रचनाओं में “प्रतिनिधि” और “सार्वभौम” की बड़े पैमाने पर सृष्टि की।सामान्य चरित्रों को न्यूनतम स्थान दिया।मसलन्, राजा जिस भाषा में बोलता है वह उसी में बोलेगा,आमजन जिस भाषा में बोलते हैं,वे उसी भाषा में बोलेगा ।राजा को राजा की तरह और रंक को जनभाषा में बोलना चाहिए।यह भी धारणा रही है कि “प्रतिनिधि” और “सार्वभौम” चरित्रों के रुपायन से ही महान साहित्य की सृष्टि होती है।इसी समझ ने शास्त्रीय रचनाओं के अनुकरण करने पर जोर दिया।फलतः सामाजिक यथार्थ से संस्कृत साहित्य का संपर्क संबंध कट गया। यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसमें रस सिद्धांत का जन्म और विकास हुआ।

नामवर सिंह ने ‘रसःजस का तस या बस?’ इस शीर्षक से एक सम्पादकीय ‘आलोचना’ (जनवरी-मार्च1990)में लिखा था,यह उनकी किताब ‘कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता’(2010) में शामिल है। उल्लेखनीय है “कविता के नये प्रतिमान” में नामवरजी ने 1968 में पहलीबार रस पर विचार किया था उसके बाद 1990 में उनकी नजर रस पर पड़ी। देखना यह है कि उनके नजरिए में रस के के प्रसंग में क्या बदलाव आया ? “कविता के नये प्रतिमान” में नामवरजी ने प्रतिमान के रूप में रस की पुनर्व्याख्या या पुनरूद्धार को अप्रासंगिक माना है,महत्वपूर्ण माना है आस्वाद प्रक्रिया और कविता की अर्थमीमांसा को।क्या आस्वाद के सवाल बदले हैं ?क्या आस्वाद की प्रक्रिया में बदलाव आया है ?क्या कविता वही है जो 1968 में थी? कविता के चरित्र में किस तरह का परिवर्तन आया है ? क्या 1968 में नामवरजी के जो विचार थे वे 1990 में बने रहे या बदल गए ? नामवरजी ने अभिनवगुप्त की रस संबंधित समझ का व्यापक उपयोग किया है और भरत वर्णित रसों से भिन्न शांतरस की ओर ध्यान खींचा है, लेकिन लिखा नहीं।

‘रसःजस का तस या बस?’ शीर्षक लेख में नामवरजी ने कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं। उनमें पहली बात यह कि ‘चिन्तन के क्षेत्र में पूर्वजों से उऋण होने का एक तरीका यह है कि उनकी मान्यताओं की पुनःप्रस्तुति स्वयं उनकी प्रस्तुति से बेहतर की जाए।’ इस क्रम में नामवरजी ने प्रो.अशोक रामचन्द्र केलकर के ‘प्राचीन भारतीय साहित्य मीमांसा’में प्रस्तुत रस संबंधी विचारों को पेश किया है।नामवरजी के लेख के शीर्षक में प्रश्नवाचक चिह्न अर्थपूर्ण है। यह अनेक रास्ते खोलता है।इस लेख में केलकरजी के विचारों को जस का तस रख दिया गया है ,वहीं दूसरी ओर संभावनाओं के लिए रास्ता खुला छोड़ा गया है। नामवरजी ने लिखा है ‘बेडेकर ने रस-विमर्श की उस प्रचलित प्रवृत्ति पर प्रहार किया था,जिसमें रस की चर्चा एक ‘मनोवैज्ञानिक सिद्धांत’ के रूप में की जा रही थी।इसके विपरीत बेडेकर ने इस प्रस्थान-बिन्दु से अपनी चिन्तन-यात्रा का प्रारम्भ किया कि रस-व्यवस्था ‘कलास्वरूप शास्त्रों’का भारतीय प्रमेय है और विशिष्ट सांस्कृतिक सन्दर्भ में ही उसके सच्चे स्वरूप की पहचान सम्भव है।’(कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता,2010,पृ.11)

नामवरजी ने केलकर के विचारों को अधूरे ढ़ंग से पेश किया है उसके कारण रस पर सुसंगत नजरिया बनाने में मदद कम मिलती है।लेकिन नामवरजी की स्वयं की टिप्पणियां काफी महत्वपूर्ण हैं।नामवरजी ने लिखा ‘कहने की आवश्यकता नहीं कि अन्य कल्पकथाओं की तरह नाट्योत्पत्ति की इस देवासुर-कथा में भी ‘नाट्यवेद’निहित है।नाट्यवेद अर्थात् नाट्य सिद्धांत।इसलिए समस्या एक ‘मिथक’ के ऊपर दूसरा ‘मिथक’ गढ़ने की नहीं,बल्कि उसी ‘मिथक’ को उधेड़ने की है।कल्पसृष्टि एक और पुनर्निर्माण नहीं चाहती,मीमांसा माँगती है।आज की भाषा में कहें तो ‘रिकंस्ट्रक्शन’ नहीं ,’डिकंस्ट्रक्शन’।असंगतियों के बीच सुसंगति लगाने से कहीं ज्यादा जरूरी है सुसंगत प्रतीत होनेवाली रचना में छिपी हुई असंगतियों का उद्घाटन।’(वही,पृ.15)

सवाल यह है नाटक हो या यज्ञ हो,देवासुर संग्राम पर कल्पसृष्टि हो या रसों के सृजन की समस्या हो इसका लक्ष्य क्या है ?यदि हम ‘डिकंस्ट्रक्शन’ करें तो इसके केन्द्र को खोला जा सकता है। रस शास्त्र की समूची चर्चा के केन्द्र में दो बातें सबसे महत्व की हैं। पहली है चीजों को देखने और प्रस्तुत करने की पद्धति और दूसरा है लक्ष्य। दि.के.बेडेकर ने ‘प्राचीन साहित्य मीमांसा’ नामक अपनी लेखमाला में इन दो बातों को रेखांकित किया है इनमें से एक का नामवरजी ने जिक्र किया है,यानी पद्धति का जिक्र किया है लेकिन लक्ष्य को वे छिपा गए।नामवरजी ने लिखा है ‘बहरहाल यह’यज्ञ-नाट्य’देवासुर-कथा ही है और बेडेकर ने विस्तृत विश्लेषण के द्वारा दिखला दिया कि भरत-निर्दिष्ट आठ रसों का अधिष्ठान देवासुर-द्वन्द्व में स्थित है।उन्हीं के शब्दों में, “मनोविज्ञान को एकतरफ रखकर स्थायित्व का अर्थ आठ रसों के स्थिर सम्बन्ध ही लगाना चाहिए।इसी प्रकार इन आठ रसों के पीछे जाकर श्रृंगारादि रस-चतुष्टय पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।श्रृंगारादि चतुष्ट्य का पुनःश्रृंगार-वीर और रौद्र-वीभत्स ऐसा द्वन्द्व ध्यान में रखना चाहिए।यह द्वन्द्व देव और असुर द्वन्द्व का नाट्यमय रसात्मक स्वरूप है।यह निश्चित रूप से जान लेने पर भरत प्रणीत रस-व्यवस्था का सब अर्थ अच्छी तरह से लग जाता है।” ’(16-17)

रस-निष्पत्ति’ के प्रसंग में नामवरजी ने लिखा ‘इसी प्रकार ‘रस-निष्पत्ति’ की प्रक्रिया यज्ञ की प्रक्रिया के अनुसार समझाई गई है।‘रस-निष्पत्ति’ के स्वरूप की चर्चा में अन्य विद्वान जहाँ’षाडव रस’ तथा ‘पानक रस’ में उलझे रहे,बेडेकर की निर्भ्रान्त दृष्टि ‘नाट्यशास्त्र’ की इस पंक्ति पर गई-

‘शरीरं व्याप्यते तेन शुष्कं काष्ठमिवाग्निना।’

लकड़ी में सुप्त अग्नि मन्थन-प्रयोग से व्यक्त होती है और उस लकड़ी को ही व्याप्त कर लेती है।यज्ञ की अग्नि पुराकाल में(और परम्परा-निर्वाह के लिए आज भी)इसी विधि से पैदा की जाती थी।लकड़ी में सुप्त अग्नि को लकड़ी की ओखली में दूसरी लकड़ी की मथानी घुमाने से व्यक्त किया जा सकता है।यज्ञ-क्रिया में ऐसी ही सिद्ध अग्नि ही काम में लाते थे।एक प्रकार से देखें तो देवासुर-कथा का द्वंन्द्व यहाँ भी सक्रिय है।रस-व्यवस्था के मूल में द्वन्द्व है।बेडेकर की क्रांतिकारी खोज यही थी।’(पृ.17) कहने का आशय यह कि नाटक में ‘द्वन्द्व’ के नजरिए के जनक भरत हैं।‘दवन्द्व’ के बिना सृजन नहीं होता। यह हमारी परंपरा का सबसे मूल्यवान नजरिया है और पद्धति भी है।यह आज भी सृजन के लिए प्रासंगिक है। रही बात काठ के घर्षण से अग्नि पैदा करने की तो अग्नि तो लकड़ी में होती है।घर्षण उससे जन्म देता है।इसे तीव्र भावोर्मि कह सकते हैं,रचना के निर्माण में भावोर्मि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।जब कोई विषय लेखक को उद्वेलित करता है तब ही रचना की पहली चिंगारी फूटती है।वहीं से लेखक के भावानुभवों की सृष्टि होती है।यही चीज बाद में रचना के रूप में प्रकाश पाती है।

नामवरजी ने बेडेकर की धारणाओं का विस्तार से विवेचन करने के बाद लिखा ‘सारी युक्ति का सार यह है कि नाट्य प्रयोग न देवों की विजय प्रदर्शित करता है, न असुरों की पराजय;वह तो त्रैलोक्य का भावानुकीर्तन है।अभिनव ने इस भावानुकीर्तन का एक लम्बा-चौड़ा दर्शन पेश कर दिया है,जिसे भारतीय साहित्य मीमांसा का अमरसिद्धांत समझा जाता है।’

आगे लिखा ,‘किन्तु क्या यह काव्य- सिद्धांत ‘जर्जर’का ही दूसरा रूप नहीं है ?जो कार्य बड़े डंडे से न सधे,उसे साधने के लिए सिद्धांत का सहारा लिया जाए तो उस सिद्धांत को क्या नाम दिया जाएगा ?इस सन्दर्भ में अभिनवगुप्त के दो वाक्य उल्लेखनीय हैं।नाट्यशास्त्र के 1/70 पर अभिनवगुप्त अपनी ओर से जोड़ते हैं- एवं राज्ञा सिद्धिविघातका दण्डया इति।अर्थात् इस प्रकार राजा को नाट्य सिद्धि में विघ्न डालनेवालों को दंड देना चाहिए।नाट्यशास्त्र के 1/99श्लोक में ब्रह्मा द्वारा शान्तिपूर्वक समझाने के प्रसंग पर- नाशक्तस्य सामाङ्गीकरोति दुर्जन इति पूर्वरक्षाकरणम्।अर्थात् असक्त के साम को दुर्जन नहीं मानता इसलिए (साम से पहले)रक्षा-विधान दृढ़ कर लिया जाए।तात्पर्य यह कि ब्रह्मा के मुख से कहलाया गया ‘नाट्य दर्शन’ ‘शक्त का साम’अर्थात् ताकतवर का शान्ति-पाठ है।इस प्रकार क्या रस का दर्शन शक्ति का प्रदर्शन नहीं लगता ?आजकल जिसे ‘आइडियोलॉजी’ कहते हैं वह और क्या होती है ?क्या रस-सिद्धान्त ने शुरू से ही एक ‘आइडियोलॉजी’ अथवा ‘दिट्ठ’ की भूमिका नहीं निभाई है ।’

नामवरजी ने बेडेकर का विवेचन करने के साथ ही अंतमें यह भी लिखा , ‘आशंका सिर्फ यही है कि नया आकलन भी कहीं इसी लम्बी श्रृंखला की एक कड़ी न साबित हो ! बेडेकर ने शायद इसीलिए सभी सम्भाव्य संस्करणों को सन्दिग्ध समझा और रस को संग्रहालय में सुरक्षित रखने का प्रस्ताव रखा।इसीलिए आज भी यह प्रश्न है कि रसःजस का तस अथवा बस?’ दिलचस्प बात यह है नामवरजी रस की विचारधारा के पहलू को खोलते ही नहीं हैं और सवाल उठाकर छोड़ देते हैं। रस की विचारधारा का पहलू तब खुलता है जह हम शान्तरस के अंदर प्रवेश करते हैं।बेडेकर ने शान्तरस का जिक्र तक नहीं किया और नामवरजी जिक्र तो करते हैं लेकिन विवेचन से कन्नी काटते हैं। अभिनवगुप्त ने शान्तरस का श्रृंगार के साथ अन्तर्विरोध दिखाकर रस की विचारधारा में निहित जनविरोधी भावों को उद्घाटित किया है।सवाल यह है शान्त रस क्या है और उसे कैसे देखें ?

शांतरस पर जोर देकर अभिनवगुप्त ने असल में रस के समूचे ढ़ांचे और विचारधारा को निशाना बनाया है। अभिनवगुप्त जिस समय लिख रहे थे उस समय समाज में कला,साहित्य,संस्कृति आदि विभिन्न क्षेत्रों में ह्रासशील प्रवृत्तियां चरम पर थीं।रस की सृष्टि और संरचना ने ह्रासशील प्रवृत्तियों को जमकर बढ़ावा दिया,कलाएं सामाजिक उन्नति की बजाय समाज में अवरोध पैदा करने का काम कर रही थीं।रसों की संरचना और विचारधारा पर विचार करें तो पाएंगे कि रसों में गहरा अंतर्विरोध है।मसलन्,रति है तो वैराग्य भी है।रसों में एक-दूसरे के विरोधी भावों का होना यह दरशाता है कि रसों का चरित्र अंतर्विरोधपूर्ण और ह्राशशील है,यह चित्तवृत्तियों का शमन नहीं करता बल्कि उनको तनावयुक्त बनाता है।यह संभव नहीं है कि शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए उत्साहित भी हो और शत्रु से डरे भी।लेकिन इस तरह के अंतर्विरोध रसों में हैं।रसों में अंतर्निहित अंतर्विरोधों की अभिनवगुप्त ने नाटयशास्त्र की अभिनवभारती टीका में विस्तार से चर्चा है।

भरत वर्णित 8रसों के इस समूचे ढ़ांचे से बाहर निकले बिना रस के प्रति नए नजरिए और नई भूमिका का विकास संभव नहीं है। यह आयरनी है कि अभिनवगुप्त की रस संबंधी आलोचना को संस्कृतकवियों और आलोचकों ने गंभीरता से ग्रहण नहीं किया। भरत के यहा रस के अंतर्विरोध से निकलने का उपाय है एक रस से निकलो और दूसरे की शरण लो।इसके लिए ‘ऐकाधिकरण्य’ की पद्धति के प्रयोग पर जोर दिया,ऐकाधिकरण्य का अर्थ है एक आश्रय से सम्बन्ध होना।अभिनवगुप्त ने लिखा है भय और उत्साह का एक आश्रय में सहभाव दूषित होता है।किन्तु उनके आश्रय बदल देने से उनका विरोध जाता रहता है।इसके लिए एकाश्रयत्व में निर्दोष और नैरंतर्य पर जोर दिया गया।इससे रसो में व्याप्त अंतर्विरोधों का समाधान नहीं हुआ।

उल्लेखनीय है अभिनवगुप्त ने नागानन्द का उदाहरण दिया है और उसके संदर्भ में श्रृंगार और शांत रस के अंतर्विरोध का विश्लेषण करते हुए शांतरस की स्थापना की है।अभिनवगुप्त के मूल्यांकन यह वह बिंदु है जहां पर भोगवाद,पुंसवाद और रस के अंतस्संबंध को वे निशाना बनाते हैं।इस अंतस्संबंध को समझाने के लिए उन्होंने सांख्य दर्शन के दो तत्वों ‘चित्तवृत्ति का प्रसार’ और ‘लिङ्गशरीर’ की अवधारणा का इस्तेमाल किया है। वे विस्तार के साथ नागानन्द की कथा का विवेचन करते हैं और इन दोनों धारणाओं का खुलासा करते हैं।

साहित्य में श्रृंगार को रसराज कहा गया और उसका साहित्य में वर्चस्व था।अभिनवगुप्त ने इस वर्चस्व को चुनौती देने के लिए शांतरस की सृष्टि की।श्रृंगार और शांत के अंतर्विरोध पर जोर डाला।श्रृंगार रस का मूलाधार है तृष्णा ,जबकि शांतरस का मूलाधार है तृष्णाक्षय।तृष्णाक्षय में जो आनंद है वह किसी और में नहीं है। रसों की भूमिका रही है तृष्णा पैदा करने की और अभिनवगुप्त ने इसी को आधार बनाकर समूची सामंती व्यवस्था और श्रृंगार रस का विरोध किया। तृष्णाक्षय आज के युग के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण तत्व है।यह सामाजिक विकास का सकारात्मक तत्व है।भरत के 8रसों में तृष्णा जगाकर रसनिष्पति होती है जबकि अभिनवगुप्त के शांतरस में तृष्णाक्षय के जरिए रसनिष्पत्ति और आनंद की सृष्टि की है। श्रृंगारादि रसों के जरिए विषयाभिलाष पैदा किया जाता था उसका अभिनवगुप्त ने विरोध करते हुए विषयाभिलाष के निर्वेद पर जोर दिया है,उस निर्वेद में अभूतपूर्व आनंद होता है।निर्वेद ही शांतरस का स्थायीभाव है। जब उसका परितोष आस्वाद में हो जाता है तभी शान्तरस होता है।ठेस भाषा में इसे वैराग्य यानी नागरिकचेतना कहते हैं।

रसों के विकल्प के रूप में वैराग्य यानी नागरिकचेतना की वकालत वस्तुतःदरबारी सभ्यता-संस्कृति और उनके साथ जुड़े कलारूपों का निषेध है,यह संयासवाद नहीं है।यह लोकचेतना है। तृष्णा और लोकचेतना या नागरिकचेतना में अंतर्विरोध है। उल्लेखनीय है जनभाषा के लेखकों ने श्रृंगारादि रसों और काव्य के नियमों के आधार पर काव्यसृजन का भी विरोध किया था।काव्यसृजन के नियम और रस ये दोनों एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हैं।अभिनवगुप्त ने रसों के मूलाधार पर प्रहार करते हुए जब तृष्णाक्षय की स्थापना की तो उन्होंने वस्तुतःलोक कामना से साहित्य को जोड़ने पर जोर दिया। रसों का आधार तृष्णा होने के कारण भरत वर्णित 8रसों पर आधारित समूचा साहित्य क्रमशःलोक से कटता चला गया । अभिनवगुप्त जब श्रृंगार का विरोध कर रहे थे तो वस्तुतःसाहित्य को नागरिकचेतना से जोड़ने पर जोर दे रहे थे। उन्होंने लिखा है-

यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।

तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतःषोडशीं कलाम्।।

यानी लोक में कामना से जो सुख प्राप्त होता है और जो स्वर्गीय महान् सुख होता है,वे दोनों प्रकार के सुख तृष्णाक्षय से उत्पन्न होनेवाले सुख का सोलहवाँ भाग भी नहीं होते। इस प्रसंग में भरत के पक्षधरों का मानना है भरत ने शान्त को कभी अस्वीकार नहीं किया,बल्कि भरत के यहां तो शांन्तरस सभी रसों के मूल में रहता है।सभी रसों की शान्तावस्था ही शान्त रस कहलाती है।असल में मामला इतना सरल नहीं है। अभिनवगुप्त ने रेखांकित किया है कि रसों के पक्षधर और भरत के यहां रस के आने के पहले शांतरस रहता है उसके बाद अन्य रस पैदा होते हैं। यानी तृष्णाभाव के पहले शान्त भाव रहता है और रसों के जरिए उस भाव को नष्ट करके तृष्णाभाव पैदा होता है,इसके विपरीत अभिनवगुप्त के नजरिए से तृष्णाभाव को नष्ट करके शान्तरस पैदा होता है।यानी वीतराग या वैराग्य वह है जहां तृष्णा का विध्वंस हो जाय। सवाल यह है क्या आज के उपभोगतावादी समाज में हमें शांतरस चाहिए या नहीं ? अथवा रस चाहिए ? नामवरजी जब रस की हिमायत करते हैं तो वे शान्तरस में निहित इस समूचे दृष्टिकोण को भूल जाते हैं। “कविता के नए प्रतिमान’ में कहने के लिए वे नगेन्द्र की आलोचना करते हैं लेकिन वस्तुतः वे नगेन्द्र के साथ ही खड़े रहते हैं। नगेन्द्र के नजरिए में रस-सिद्धान्त शाश्वत और सार्वभौम सिद्धान्त है वहीं नामवरजी के लिए भरत की रस संबंधी धारणा में प्रसंगानुकूल प्रतिमान मिल जाते हैं।इस प्रसंग में वे रस के आंतरिक तत्वों की विवेचना करके नगेन्द्र के मत का खंडन करते हैं लेकिन वैचारिकतौर पर दोनों एक ही धरातल पर खड़े रहते हैं।यहां तक कि 1990 में भी उनके बुनियादी विचारों में कोई परिवर्तन नहीं आता।

अभिनवगुप्त ने एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू की ओर ध्यान खींचा है वह है रस का चरम।सवाल है क्या रस का चित्रण करते हुए उसको चरम तक चित्रित करें ? भरत चरम तक चित्रण के पक्षधर हैं लेकिन अभिनवगुप्त ऐसा नहीं मानते.शान्तरस के पक्ष,विपक्ष,स्थायीभाव आदि का अभिनवभारती टीका में विस्तार के साथ विश्लेषण किया है। मसलन् रौद्र रस का चरम तो हत्या है लेकिन उसकी प्रस्तुति से बचा जाना चाहिए,प्रतीत हो कि हत्या हो गयी। इसलिए “प्रतीति” और “प्रतीयमान अर्थ” इनका बड़ा महत्व है।इसी प्रकार भरत ने वीररस के तीन उपभेदों का जिक्र किया है,ये हैं, दानवीर,धर्मवीर और युद्धवीर। इसी प्रसंग में अभिनव ने कहा है कि दयावीर को शान्तरस का प्रभेद तब मान सकते हैं जब उसमें सब प्रकार के अहंकार का अभाव हो। यदि उत्साह के साथ अहंकार आ जाता है तो दयावीर को शान्तरस का प्रभेद नहीं मान सकते।इसी तरह कुछ लोग शान्तरस को वीभत्सरस में समाहित करके देखते हैं लेकिन अभिनवगुप्त ने इसका भी खंडन किया है।क्योंकि शान्तरस का मूलाधार या स्थायीभाव घृणा नहीं है। वह तो व्यभिचारी भाव है। अंत में सबसे बड़ी बात जो शान्तरस से जुड़ी है वह है उसका लक्ष्य।भरत वर्णित 8रसों का लक्ष्य है आनंद और रस की सृष्टि करना,लेकिन शांतरस का लक्ष्य है मोक्ष प्रदान करना। 8रसों के लिए पुरूषार्थ की जरूरत है लेकिन शान्तरस के लिए लोकनिष्ठा और नागरिकचेतना होनी चाहिए।

रस के प्रसंग में बुनियादी सवाल यह है कि रस किसके लिए ?आनंद के लिए या दुख के लिए ?नाटक किसके लिए आनंद के लिए या दुख के लिए ? रस को मानें या न मानें लेकिन कलाओं के प्रसंग में यह सवाल तो हमेशा उठा है कि कलाओं का लक्ष्य क्या है ?रसों की जब सृष्टि हुई तब भी यह प्रश्न केन्द्र में था ,नामवरजी इस सवाल से कन्नी काटकर निकल जाते हैं।इस प्रसंग में आर.बी,पाटणकर की कृति ‘सौंदर्य मीमांसा’ में विस्तार के साथ विचार किया है। पाटणकर मराठी साहित्य के प्रमुख आलोचक हैं और उनकी कृति ‘सौंदर्य मीमांसा’ को साहित्य अकादमी ने 1975 में पुरस्कृत भी किया है।नामवरजी ने बेडेकर के बहाने रस की सृजन प्रक्रिया के सवालों पर विचार किया है लेकिन रस का संबंध तो आस्वाद से है और कला के क्षेत्र में सृजन प्रक्रिया से ज्यादा व्यापक फलक आस्वाद प्रक्रिया का है।आस्वाद प्रक्रिया के सवाल कला-साहित्य के बुनियादी सवाल हैं उनसे हिन्दी के मार्क्सवादी आलोचक भागते रहे हैं।रस हमारे ऐंद्रिय सुख से जुड़ा है।यही विमर्श का प्रमुख बिंदु है जिसके जरिए रचना के विमर्श को अमूर्तन में ले जाने से रोक सकते हैं।

नाटक या कला या साहित्य का लक्ष्य है ‘आनंद’,और रस का भी लक्ष्य है ‘आनंद’। ‘आनंद’ के बिना कला रूप अपना विकास नहीं करते।‘आनंद’ से हमें ‘सुख’ मिलता है यही वजह है कि ‘आनंद’ और ‘सुख’ को पर्यायवाची समझना चाहिए। मराठी साहित्य में भी अनेक बड़े विद्वानों ने ‘आनंद’ और ‘सुख को पर्यायवाची माना है। नाट्यशास्त्र में यह भी माना गया है कि रचना में वैयक्तिक दुख और सुख का अनुभव करने से रसनिष्पत्ति में बाधा पड़ती है।

नाट्यशास्त्र पर विचार विमर्श के दौरान अमूमन अभिनवगुप्त लिखित भाष्य का बार-बार जिक्र होता है। अभिनवगुप्त ने नाट्यशास्त्र के रचे जाने के सात-आठ सौ वर्ष के बाद ‘अभिनव-भारती’ नामक टीका लिखी.इसे सबसे प्रामाणिक टीका माना जाता है।अपनी टीका में अभिनवगुप्त ने अनेक बातें अपनी कही हैं उन बातों का भरत के नाट्यशास्त्र से कोई संबंध नहीं है। इस पहलू को टी.जी.माईणकर ने “दि थियरी ऑफ संधीज ऐंड संध्यंगाज”(1960) नामक कृति में विस्तार के साथ रेखांकित किया है।रा.भा.पाटणकर ने सवाल भी उठाया है कि क्या ‘सुख’ को सौंदर्यानुभव का आवश्यक घटक माना जा सकता है ? दूसरा प्रश्न यह कि ऐसा सुख लौकिक है या अलौकिक है ? क्या रचनाएं भावनाओं पर प्रभाव ड़ालती हैं ? अथवा कलास्वाद का भावना और भावनात्मकता से संबंध है ?क्या रचना पढ़ते समय भाव जागृति होती है ?भावना और भावनात्मकता को क्या भावनात्मक मनोदशाओं या मूड से अलग रखा जा सकता है ?मनोदशाएं कितनी अवधि तक टिकी रहती हैं ?क्या इस सबका भावनात्मक स्वभाव वैशिष्ट्य से संबंध जुड़ता है? पाटणकर के अनुसार ‘भावनात्मक स्वभाव वैशिष्ट्य प्रायःजीवन-भर हमारा साथ देते हैं।वे हमारे व्यक्तित्व का भाग बनते हैं।जब हम किसी व्यक्ति को ,निराशावादी और दूसरे को आशावादी कहते हैं,तब हमारे मन में उन मनुष्यों के स्वभाव वैशिष्ट्य ही होते हैं।लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि निराशावादी मनुष्य सारे समय के लिए म्लान पड़ा रहता है और आशावादी सदैव उछल-कूद करता रहता है।’(सौंदर्य- मीमांसा,पृ.238)

दिलचस्प बात यह है कि अभिनवगुप्त जब रस पर विचार कर रहे थे तो उनके नजरिए के केन्द्र में “सुख” या “आनन्द” नहीं था बल्कि “मोक्ष” था। यही वजह है कि लिखा ‘मोक्षफलत्वेन चायं परमपुरूषार्थनिष्ठत्वात् सर्वरसेभ्यःप्रधानतमः।’ कहने का आशय यह कि शान्तरस का फल मोक्ष होता है जो कि सबसे बड़ा फल है।अतएव इस रस की निष्ठा पुरूषार्थ में भी सबसे अधिक होनी चाहिए।

रस पर विचार करते समय तीन तत्वों की खूब चर्चा होती है।1.स्थायीभाव,2.व्यभिचारी या संचारी भाव और 3.सात्त्विक भाव।कई आलोचकों ने इस विवेचन के लिए मनोविज्ञान का सहारा लिया है। इस समूचे प्रसंग में यही कहना समीचीन होगा कि स्थायी भावों का संबंध रंगमंच से है,दृश्य अभिनय में इनकी भूमिका है।वाच्य में इनकी भूमिका नही होती। रा.भा,पाटणकर ने लिखा है स्थिरभावों के लिए भावनात्मक भाषा की जरूरत होती है जिसे अभिनय में बेहतर ढ़ंग से व्यक्त किया जा सकता है।मसलन्,क्रोध का वर्णन करने से वह व्यक्त होगा ?उसका वर्णन किया जा सकता है।यह सही है।लेकिन जिस अर्थ में दाँत,ओंठ चबाना,मुट्ठियाँ भींचना,आँखें लाल होना आदि के जरिए क्रोध व्यक्त होता है उस अर्थ में किसी कृति के जरिए क्रोध व्यक्त नहीं होगा।भावनात्मक भाषा का स्थान वर्णनात्मक भाषा नहीं ले सकती। नाटक में भावों को वाच्य के स्तर पर नहीं दिखाया जाता बल्कि उसकी अभिव्यंजना करनी होती है। नाटककार भावों की अभिव्यंजना के लिए विभावादि का उपयोग करता है।यहाँ भावों का वर्णन नहीं होता।भावों की अभिव्यंजना साधी जाती है। इसलिए नाटक में भाव व्यंजक भाषा और विभावादि का इतना महत्त्व है।यदि विभावादि का नाटक में महत्व है तो यह तय है ये चीजें दृश्य अभिनय के माध्यमों के प्रसंग में आज भी प्रासंगिक हैं। हमारे साहित्यालोचकों की मुश्किल यह है कि वे नाटक को केन्द्र में रखकर लिखे शास्त्र को काव्य आदि विधाओं पर लागू करके उसकी प्रासंगिकता पर विचार करते रहे हैं ,खासकर नामवरजी ने भी इस कृति पर काव्यादि के संदर्भ में ही विचार किया है जो सही नहीं है। दृश्यमाध्यम की सैद्धांतिकी पर लिखी धारणाओं को मुख्य रूप से दृश्यमाध्यमों के संदर्भ में ही पढ़ा जाना चाहिए।

रस के विवेचन के क्रम में एक सवाल यह भी उठा है कि रस का किस वर्ग के साथ संबंध था ? रस के जो वर्गीकरण 8रसों में भरत ने किए उसके पीछे क्या कोई वर्गीयदृष्टि थी या फिर मनमौजी ढ़ंग से वर्गीकरण कर दिया गया था। वर्गीयदृष्टिकोण के सवाल पर इसलिए भी विचार करना चाहिए क्योंकि रसों के सामाजिक आधार को तय करने में मदद मिलेगी। रस का गहरा संबंध दरबारी सभ्यता के साथ था और रस कभी भी गैर-अभिजनवर्ग के उपभोग की चीज नहीं था.इसलिए जितनी भी बार रस पर बहस हुई है तो वह उसकी प्रशंसा और गुणों पर ही केन्द्रित रही है। उसके वर्गीय चरित्र को लेकर चर्चाएं नहीं हुई हैं। रस के समाज से कटे होने का बड़ा कारण यह था कि यह जन्म से अभिजन का शास्त्र रहा है।अभिजन के वैचारिक वर्चस्व को स्थापित करने का शास्त्र रहा है,यही वजह है आमजन ने कभी भी रसों को अपनी काव्याभिव्यक्ति या नाट्याभिव्यक्ति का आधार नहीं बनाया।

रस को दरबारी लेखकों ने अपनी रचनाओं में सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया और अभिजनों की अभिरूचि निर्मित करने के लिए उसके तमाम उपकरण निर्मित किए। इसके कारण रस के अंदर एक खास तरह की अगतिशीलता या अपरिवर्तनीयता भी है। फलतः रस के मूल अवधारणात्मक ढ़ांचे में कोई परिवर्तन सैंकड़ों सालों नहीं हुआ। रस में अभिरूचि के स्तर पर सौंदर्यबोधीय विभाजन भी है जो लंबे समय से अपरिवर्तनीय है.इसका अर्थ है कि रस में ज्ञान का विकास नहीं हुआ।यह सच भी है कि नाट्यशास्त्र में वर्णित रसों के बारे में नई चीज तब आई जब अभिनवगुप्त ने अभिनव भारती नामक टीका लिखी,लेकिन रस की पूर्वधारणाओं को पूरी तरह खारिज करने की उनकी भी हिम्मत नहीं हुई।

रस पर दार्शनिक तौर पर आदर्शवादी दर्शन का असर था जिसके कारण रस की व्याख्याएं तो हुईं लेकिन मूलगामी परिवर्तन नहीं हुआ। अभिनवगुप्त के पहले तक तकरीबन 1000साल तक आठ रस ही प्रचलन में रहे,अभिनवगुप्त ने कहा कि नया रस शान्तरस हो सकता है। लेकिन अभिनवगुप्त के बाद तो फिर से रस जगत में सन्नाटा पसरा हुआ है। इससे पता चलता है कि रसों के उपभोक्ता के रूप में अथवा सर्जक के रूप में या रस के लेखक के रूप में जो लोग काम करते रहे हैं उनमें नई अवधारणाएं निर्मित करने की क्षमता ही नहीं थी,इस दृष्टि से रस एक तरह का बांझ शास्त्र है। उसमें नए को रचने की क्षमता नहीं है। जबकि कायदे से रस के ढ़ांचे से नाभिनालबद्ध वर्ग को नए के खोज की दिशा में प्रयास करना चाहिए लेकिन यह न हो सका।सवाल रस की व्याख्या का नहीं है बल्कि रस को बदलने का है रस जैसा है उसे वैसा ही रखने का अर्थ है कि रस की अपरिवर्तनीयता को मानना।जबकि सच यह है कि रस की उत्पत्ति जब हुई तब से लेकर आज तक तकरीबन दो हजार साल का लंबा सफर गुजर चुका है इसके बावजूद हमने नए की खोज का काम आरंभ नहीं किया है। रस का संरचनात्मक ढांचा इस तरह का है कि उसमें नए की खोज नहीं कर सकते।वह अपरिवर्तनीय उत्पादन संबंधों से बंधा है।

रस में एक खास किस्म का यांत्रिक संरचनात्मक ढ़ांचा है जिसमें रंगमंच काम करता रहा है।इसमें बाह्य हस्तक्षेप की संभावनाओं का अभाव है। रस हमारे पुराने प्राचीनकालीन सामूहिक कलात्मक अनुभवों का हिस्सा है। स्थिर भाव,स्थिर दर्शक और अगतिशील अभिनेता ये तीन इसके संरचनात्मक साथी हैं। फलतःइसकी ह्रासशील सामंती समाज में आकर भूमिका पहले की तुलना में और भी खराब हुई।

सवाल यह है कि रस को आधार बनाकर कोई मुक्तिकामी या परिवर्तनकामी नाटक क्यों नहीं लिखा गया ?रस का चूंकि नाटक के क्षेत्र में इस्तेमाल होता था अतःरस ने सार्वजनिक स्पेस और निजी स्पेस का विकास क्यों नहीं किया ? मध्यकाल में नाटक या रंगमंच हमारे समाज में जनमंच क्यों नहीं बन पाया ?समस्त नाटक उन्हीं वर्गों पर लिखे गए जो दरबारी सभ्यता से जुड़े थे।रस में विभिन्न किस्म के भावों का वस्तुगत वर्गीकरण मिलेगा और मंचन में इनकी वस्तुगत प्रस्तुतियों पर ही जोर रहा।वस्तुगत प्रस्तुतियां समाज के ऊपर आवरण डाले रखने का काम करती हैं,इस तरह की प्रस्तुतियों के कारण समाज की नाटक में यथार्थ प्रस्तुति नजर नहीं आती।समाज पर छदम आवरण पड़ा रहता है.इस तरह की प्रस्तुतियां शोषित और शोषक के बीच के संबंध को छिपाए रखती हैं।दबे-कुचले लोगों और अभिजन के बीच के अंतर्विरोधों को छिपाए रखती हैं।प्रस्तुतियों में मिथकीयचरित्रों के वर्चस्व की वजह से नाटकों के जरिए युगीन समाज को समझना बेहद मुश्किल है।यानी रसों के आधार पर ऐसा साहित्य रचा गया जो सतह पर देखने में सुंदर था लेकिन अंदर से प्राणहीन था।वह रहस्यों के आवरण में बंधा था।

रस को यदि मोक्ष का शास्त्र बनना है तो उसकी पहली सीढ़ी है नाटक में यथार्थ विषयों का प्रवेश हो।रस के नायक के तौर पर कथानक में सामान्यजन की प्रतिष्ठा हो।ऐसे लोगों की प्रतिष्ठा हो जो समाज में हाशिए के लोग कहलाते हैं। यह विलक्षण संयोग है कि रसकेन्द्रित नाटकों का समूचा चरित्र सवर्णवादी है। कथानक के मूल पात्र सवर्ण हैं और वे कथानक की धुरी हैं। असवर्ण पात्र सिर्फ दिल बहलाने के लिए दाखिल होते हैं। वे सारवान गतिविधियों में शामिल नहीं होते।

भरत के ‘नाट्यशास्त्र’ में रस की चर्चा रंगमंच के प्रसंग में है लेकिन कालांतर में काव्यशास्त्रियों और आलोचकों ने इसे साहित्य की विभिन्न विधाओं और खासकर काव्य के मूल्यांकन के संदर्भ में विस्तार दे दिया। इसने रसों के बारे में सबसे ज्यादा विभ्रम खड़े किए।रसों का संबंध यदि नाटक से है और नाटक का संबंध अभिनय से है,अभिनय का भाल-भंगिमाओं से और भाव-भंगिमाओं का सामयिक यथार्थ से संबंध है इस नजरिए से देखें तो नाटक-रस और यथार्थ के अन्तस्संबंध को समझने में मदद मिलेगी।लेकिन हमने पद्धति पुरानी चुनी,हम रसों की धारणाओं की मीमांसा कर रहे हैं और उसके आगे देखने को तैयार नहीं हैं। इसके बाद तो रस और बस ही निकलेगा !

रस,भाव-भंगिमाएं और यथार्थ के रिश्ते में रसमीमांसकों ने रसों पर खूब काम किया लेकिन यथार्थ के साथ उसके अन्तस्संबंध को छोड़ दिया।फलतःरसमीमांसा में भाष्य ही प्रमुख हो गए,व्याख्याएं ही प्रमुख हो गयीं।इस प्रसंग में वाल्टर बेंजामिन याद आते हैं ,वह कहते हैं भाव-भंगिमाएं तो यथार्थ में होती हैं।वे तो आज के यथार्थ में अवस्थित हैं।मसलन्,आपको ऐतिहासिक नाटक लिखना है तो अतीत की घटना का वहीं तक निर्वाह करना है जहां तक उसे आज की भाव-भंगिमाओं के साथ संयोजित करके पेश करने में सफलता मिले।इसका मतलब यह भी है कि ऐतिहासिक नाटक में अनुकरणात्मक भाव-भंगिमाएं तब तक अर्थहीन होती हैं जब तक वे भाव-भंगिमा की साधारण प्रक्रिया का उद्घाटन न करें।ये भंगिमाएं एक्शन की हो सकती हैं या फिर एक्शन का अनुकरण हो सकता है।यदि भाव-भंगिमाओं की पुनरावृत्ति होती है तो वे कृत्रिम रूप ग्रहण कर लेती हैं। वस्तुगत तौर पर देखें तो हमारी भाव-भंगिमाएं अत्यन्त उदार माहौल में बनती-बिगड़ती हैं।अगर कोई व्यक्ति सामाजिक भूमिका के दौरान भाव-भंगिमाओं में हस्तक्षेप करता है या उनका इस्तेमाल करता है तो उसे ज्यादा से ज्यादा सर्जनात्मक ढ़ंग से भाव-भंगिमाओं को सृजित करने की जरूरत पड़ती है।

भरत के नाट्यशास्त्र में रंगमंच और रस के अन्तस्संबंध को जिस तरह विश्लेषित किया उसमें पाठकेन्द्रित रसनिष्पत्ति पर जोर है और उससे रस का सर्जनात्मक विकास नहीं होता। यह दृष्टिकोण ठहरे हुए समाज में तो ग्राह्य है लेकिन जो समाज गतिशील है और ,वहां यह संबंध अप्रासंगिक हो जाता है, यही वजह है रसशास्त्र अगतिशील अवस्था में तो ध्यान खींचता है लेकिन समाज ज्यों ही विकास की अगली दशा में दाखिल हुआ उसकी ओर अधिकांश लेखकों का ध्यान ही नहीं गया अथवा जिन लेखकों ने रसकेन्द्रित होकर लिखा उनको अप्रासंगिकता का सामना करना पड़ा।

रस में आए ठहराव का एक बहुत बड़ा कारण है उसकी समाजनिरपेक्ष परिकल्पना और अवधारणाएं। समाज निरपेक्ष अवधारणाएं उन नाटकों में सही प्रतीत होती हैं जिन नाटकों का कोई सामाजिक लक्ष्य नहीं होता,जो मात्र मनोरंजन या आनंद के लिए लिखे गए हैं। अभिनवगुप्त ने जब भरत वर्णित रसों से भिन्न शान्तरस को स्थापित किया तो उनके जेहन में यही धारणा रही होगी।रस का काम है लोकचेतना से जोड़ना,यानी नाटक में पात्रों की सामाजिक भूमिका में बार-बार व्यवधान पैदा किया जाय,व्यवधान के लिए ही ज्यादा से ज्यादा गानों की जरूरत महसूस की गयी।रस के प्रसंग में भरत जिस रंगमंच की परिकल्पना पेश करते हैं वहां पाठ के विस्तार पर जोर है . उसी पर केन्द्रित अभिनय पर जोर है।लेकिन अभिनेता का काम पाठ को मंच पर हू-ब-हू उतारना नहीं है बल्कि उसका काम है हस्तक्षेप करना,व्यवधान पैदा करना,क्रमभंग करना।कलाकार रससृष्टि करे इसके लिए जरूरी है कि वह भाव-भंगिमा और परिस्थितियों के द्वंद्वात्मक संबंध को उदघाटित करे।इसी क्रम में अभिनेता के एटीट्यूट और पाठ के प्रति उसके रवैय्ये से बहुत कुछ तय होगा।इस प्रसंग में सबसे महत्वपूर्ण है पाठ पर अभिनेता का अधिकार।पाठ को अभिनेता जितनी गहराई में जाकर आत्मसात करेगा उतना ही बेहतर सृजन कर पाएगा।इसके कारण ही वह दर्शक के साथ बेहतर संबंध भी बना पाएगा।

भरत ने नाट्यशास्त्र में नाटक में रस की भूमिका पर ही मूलतः केन्द्रित किया है। उनके लिए रस और उसकी रंगमंचीय प्रक्रिया ही महत्वपूर्ण है। नाट्यशास्त्र की समूची व्याख्या इसी पहलू के इर्दगिर्द घूमती है।इसके जरिए जहां एक ओर नाटक की समीक्षा का पेट भरा गया वहीं काव्यशास्त्र के नाम पर आलोचना की क्षतिपूर्ति करने की कोशिश की गयी।इससे शास्त्र तो निर्मित हुआ लेकिन रंगमंच समृद्ध नहीं हुआ।रंगमंच की समृद्धि के लिए जरूरी है नाटक खेले जाएं,अफसोस है कि नाट्यशास्त्र के प्रभाववश नाटक कम खेले गए,लिखे खूब गए।नाटक खेले गए होते तो रंगमंच का शास्त्र आज अभावग्रस्त न होता। सवाल उठता है जहां नाट्यशास्त्र रचा गया वहां नाटक की आधुनिक समीक्षा का विकास क्यों नहीं हो पाया ? जिस क्षेत्र में नाट्यशास्त्र रचा गया उस क्षेत्र में नाटक कम क्यों खेले गए?

भरत का नाट्यशास्त्र अभिनेता को दर्शक से भिन्न इकाई के रूप में देखता है।दर्शक से अभिनेता को काटकर देखने के कारण हमारे यहां रंगमंच दुर्दशाग्रस्त हुआ।दर्शक से अभिनेता को काटने का अर्थ है शरीर से प्राण निकाल लेना।जींवंत रंगमंच तब ही संभव है जब अभिनेता और दर्शक का संबंध बना रहे।फलतःसंस्कृत साहित्य में विधा रूप में नाटक है लेकिन फॉर्म से ज्यादा उसकी कोई भूमिका नहीं है।विधागत रूप से ज्यादा उसकी कोई भूमिका नहीं है।यह ऐसा नाटक है जो पाठ केन्द्रित है, लेकिन उसमें सामयिक सामाजिक परिस्थितियों की अभिव्यंजना कहीं पर भी नजर नहीं आती।यह ऐसा नाटक है जिसका रचयिता दरबारी है।इस तरह नाटक पूरी तरह दरबारी ताकतों के नियंत्रण में है। इसी संदर्भ में यह सवाल उठता है कि नाटक पर किसका नियंत्रण है ? संयोग की बात है कि संस्कृत नाटकों पर राज्य एपरेटस का नियंत्रण था और उसकी ओर कभी समीक्षकों ने ध्यान ही नहीं दिया। इस प्रसंग में दूसरी समस्या यह पैदा हुई कि आलोचकों ने नाटक को साहित्य की अन्य विधाओं के साथ जोड़ दिया। हम सब जानते हैं नाटक दृश्य माध्यम है जबकि अन्य विधाएं दृश्यमाध्यम नहीं हैं।वे श्रव्यमाध्यम हैं। इसलिए काव्य या साहित्य के साथ नाटक को जोड़कर देखना सही नहीं है,नाटक के शास्त्र को काव्यालोचना बनाना उचित नहीं है।

भरत ने नाट्यशास्त्र की जो परिकल्पना पेश की उसमें पाठ तैयार करना महत्वपूर्ण है,नाटक का सार्वजनिक प्लेटफॉर्म तैयार करना लक्ष्य नहीं है। रंगमंच का सार्वजनिक प्लेटफॉर्म बनाना लक्ष्य होता तो नाट्यशास्त्र की विचारधारात्मक भूमिका भी होती लेकिन नामवरजी नेउसकी व्यापक विचारधारात्मक भूमिका खोज ली।जो कि गलत है। भरत के लिए नाटक रसव्यंजना की विधा है, नाटक उनके लिए विश्व को व्यंजित करने का मंच नहीं है।वे अभिनय की कलात्मक व्याख्या पेश करते हैं लेकिन अभिनय तो कलात्मक व्याख्या नहीं है।अपितु यथार्थ नियंत्रण है।भरत के यहां पाठ ही निर्धारक है लेकिन अभिनय में पाठ निर्धारक नहीं है,वहां से आरंभ जरूर होता लेकिन वहां तो यथार्थ का सृजन करना लक्ष्य होता इस क्रम में ब्याज में पाठ का दायित्व पूरा हो जाता है साथ में अभिनय भी हो जाता है। कहने का अर्थ है अभिनेता कठपुतली नहीं होता।वह पाठ की देन नहीं है, बल्कि सृजन की देन है।

भरत जिस रंगमंच की परिकल्पना करते हैं उसके प्रसंग में सवाल उठता है कि दर्शक जब नाटक देखने जाता है तो क्या उसे नाटक के बारे में पहले से जानकारी होती है ? प्राचीन और मध्यकाल में जिस तरह के महाकाव्यात्मक नाटक लिखे गए उनमें मूल कथानक की दर्शक को पहले से जानकारी हुआ करती थी। इस प्रसंग में बर्तोल्त ब्रेख्त का इस स्मरण करना समीचीन होगा,उनका मानना है कि ऐतिहासिक घटनाओं पर केन्द्रित नाटकों में रंगकर्मी को यह लाईसेंस दिया जाना चाहिए कि वह अपने महान निर्णय कुछ इस तरह पेश करे कि लगे कि वे इतिहास की मुख्यधारा के अनुरूप हैं।साथ ही “ऐसा भी हो सकता था ,वैसे भी हो सकता था”,इस फ्रेमवर्क को न भूले।उसका अपनी रचना से वैसा ही संबंध होना चाहिए जैसा नृत्य शिक्षक का अपने शिष्य से होता है।उसका पहला लक्ष्य होता है उसके बंधनों को जहाँ तक संभव हो ढ़ीला करे।उसे ऐतिहासिक-मनोवैज्ञानिक रूढियों से मुक्त करे।ब्रेख्त का मानना है परिस्थितियों को स्वयं बोलने दो,इसी से वे एक-दूसरे से द्वंद्वात्मक मुठभेड़ करती हैं।नाटक के तत्व तार्किक ढ़ंग से एक-दूसरे के खिलाफ संघर्ष करते हैं।

अभिनवगुप्त ने जब भरत वर्णित 8रसों से भिन्न नौवां शान्त रस पेश किया तो प्रकारान्तर से रसों के लक्ष्य पर ही प्रश्न लगाया।भरत का लक्ष्य था आनंद की सृष्टि करना,इसके विपरीत अभिनवगुप्त का लक्ष्य था वैराग्य यानी लोकचेतना पैदा करना। शान्तरस को पेश करके अभिनवगुप्त ने रसों की प्रामाणिकता पर भी प्रश्नचिह्न लगाया था।साथ ही रसविशेषज्ञ की भूमिका पर को सवालों के दायरे में खड़ा कर दिया।उनके लिए रसविशेषज्ञ या क्रिटिक की आलोचना में चली आ रही वरीयता का भी कोई महत्व नहीं था।रसविशेषज्ञों की राय साहित्य में लगातार अप्रासंगिक बनी रही,इसका प्रधान कारण है रस का समाज से कटा होना।रस के नाम पर या काव्यशास्त्र के ज्ञाता या विशेषज्ञ के नाम पर जो आलोचक सामने आया वह समाज से पूरी तरह कटा हुआ था।यही वजह है कि उसका समाज पर कोई असर नहीं हुआ।

भरत के नाट्यशास्त्र में पारदर्शिता पर जोर है लेकिन इसे सरल प्रस्तुति न समझा जाए।पारदर्शिता वस्तुतःसरलता का विलोम है।पारदर्शिता में निर्माता की वास्तविक कलात्मक क्षमता का उदघाटन होता है।भरत के लिए दर्शक की भूमिका मात्र देखने तक है,वे इसके आगे सोचते ही नहीं है।यह ऐसा दर्शक है जो नाटक देखने पर ही कुछ क्षण के लिए सोचता है। इस तरह के नाटक का लक्ष्य जनता के भावों,विचारों और भावनाओं को अभिव्यक्त करना नहीं है। संस्कृत नाटकों में चिन्तनशील हीरो नहीं मिलेगा।बल्कि विस्मयकारी हीरो मिलेगा।संस्कृत नाटकों में जो कथानक होता है वह परिस्थितियों को खोलने पर जोर नहीं देता।परिस्थितियां वहां सिर्फ संदर्भ के रूप में ऊपर से चिपकायी हुई प्रतीत होती हैं।नाटककार परिस्थितियों को जब तक खोलता नहीं है तब तक वह समाज का उदघाटन नहीं कर पाता। समाज का उदघाटन किए बगैर यह संभव ही नहीं है सामाजिक परिवर्तन हो।











































गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

- संस्कृत आलोचना के अनुत्तरित सवाल -

         इन दिनों प्रशंसा महान है और आलोचना गुम ! आलोचना के गुम होने की स्थिति में उन पक्षों को देखना जरुरी है जिनके कारणो से आलोचना गुम हुई है। आलोचना गुम तब होती है जब समाज पर साहित्यकार-आलोचक की पकड़ ढ़ीली पड़ जाती है अथवा आलोचना रुपवादी मार्ग पर चल निकले।आधुनिककाल में आलोचना का रुपवादी मार्ग सीधे सर्वसत्तावाद तक ले जाता है। जिन देशों में रुपवादी आलोचना आई वहां पर आगे-पीछे सर्वसत्तावाद या अधिनायकवादी शासन भी आया,रुपवादी आलोचना के राजनीतिक आयामों को हमने कभी खोलकर देखने की कोशिश ही नहीं की।रुपवादी समीक्षा का श्रेष्ठतम रुप देखना हो तो हमें संस्कृत काव्यशास्त्र की यात्रा करनी चाहिए।आलोचना के ह्रास के मर्म को समझने में संस्कृत काव्यशास्त्र का पुनर्मूल्यांकन हमारी बेहतर ढ़ंग से मदद कर सकता है। इससे हमें उन विचार-सरणियों को समझने में भी मदद मिलेगी जिन पर चलकर संस्कृत काव्यशास्त्र का मूल्यांकन विगत दो सौ सालों में विकसित हुआ है।

भरत कृत नाट्यशास्त्र और समाज-

संस्कृत काव्यशास्त्र को देखने के कई दृष्टिकोण मिलते हैं। पहला, विंटरनित्स,मैक्समूलर,कीथ आदि पाश्चात्य भारतविदों का नजरिया है, जिसमें बद्धमूल धारणाओं के आधार पर संस्कृत परंपरा को देखने की कोशिश की गयी है। इन लोगों ने भारत के अतीत को अत्यधिक सहानुभूति के रुप में देखा। प्रजातिगत श्रेष्ठता और आध्यात्मिक श्रेष्ठता के आधार पर आदर्श समाज के तत्वों को संस्कृत परंपरा में खोजने की कोशिश की और इन्हीं लोगों ने आर्य जाति की परिकल्पना भी पेश की। इन लोगों ने पुराने समाज में वर्गसंघर्ष और तनाव देखने की बजाय आपसी मेलजोल को प्रमुखता से पेश किया। प्राच्यविदों ने तुलनात्मक भाषा के सिद्धान्त का निर्माण किया ,भाषा को प्रजाति से जोड़ा।इस क्रम में आर्य-अनार्य,आर्य-द्रविड का भेद पैदा किया।एक ऐसा यूटोपिया निर्मित किया जिसमें सांस्कृतिक पुनरुत्थानवाद और धार्मिक पुनरुत्थानवाद के बीज छिपे थे। दूसरा, संस्कृत काव्य परंपरा को रूपवादी नजरिए से देखने का दृष्टिकोण है। ये लोग सिर्फ अवधारणाओं की व्याख्याओं में मशगूल हैं।वे अवधारणाओं के साथ जुड़ी सांस्कृतिक प्रक्रियाओं की एकसिरे से उपेक्षा करते हैं।वे समाज और आलोचना के अन्तस्संबंध को नहीं मानते।वे बौद्धिक उत्पादन और भौतिक उत्पादन के अन्तस्संबंधों की ओर ध्यान ही नहीं देते। इन लोगों ने एक खास किस्म का सुविधावाद विकसित कर लिया है।इस सुविधावाद का आदर्शलेखन राममूर्ति त्रिपाठी के लेखन में मिलता है।इस संबंध में उनकी आदर्श कृति है “भारतीय काव्यशास्त्र के नए क्षितिज” ।

संस्कृत काव्यशास्त्रीय आलोचना का आरंभ भरत कृत ‘नाट्यशास्त्र’ से माना जाता है। जिस दौर में यह रचना लिखी गयी वह दौर बहुत ही रोचक है और महान कृतियों के सृजन से भरा है।सतह पर देखें तो यह दौर सामाजिक विकास की दृष्टि से पिछड़ा हुआ है। लेकिन इस दौर में बेहतरीन रचनाओं का जन्म हुआ है। यहीं पर हमें साहित्य और समाज के अन्तस्संबंध के आधार पर देखने की यांत्रिक दृष्टि की असफलता नजर आती है,समाज के अनुरुप यदि साहित्य की अभिव्यक्ति होती है तो हमें इस सवाल का उत्तर खोजना होगा कि पिछड़े समाज में बेहतरीन कलारुप और साहित्य का जन्म क्यों और कैसे हुआ ?और यहीं हमें कार्ल मार्क्स सबसे प्रासंगिक लगते हैं। जिस दौर में ‘नाट्यशास्त्र’ का जन्म होता है उसी दौर में ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जैसे महाकाव्य रचे गए। मजेदार बात यह है कि इन तीनों रचनाओं ने कालांतर में रचना और आलोचना को सैंकड़ों साल तक प्रभावित रखा।‘नाट्यशास्त्र’ में रंगमंच से जुड़े सभी पहलुओं पर विचार किया गया,इसे ‘पंचमवेद’ कहा गया,वहीं पर ‘महाभारत’ सभी के लिए सम्बोधित रचना है और इसे भी ‘पंचमवेद’ कहा गया।जबकि ‘रामायण’ शहरीजनों को सम्बोधित रचना है।

‘नाट्यशास्त्र’ को उत्तर वैदिककाल की रचना माना जाता है।इसका रचनाकाल ईसापूर्व दूसरी सदी से लेकर ईसा की दूसरी शताब्दी के मध्य का माना जाता है।यह वह दौर है जब वैदिक समाज टूट रहा था,वैदिक धर्म और ब्राह्मण धर्म के खिलाफ संघर्ष तेज हो चुका था। लोहे की उत्पत्ति,धान की रोपाई और अतिरिक्त धन की उत्पत्ति के कारण अनेक किस्म के व्यवसायी वर्गों का उदय हो चुका था।निजी संपत्ति का उदय हो चुका था और कबीलाई समाज समाज का अंत हो रहा था।अनेक विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों का जन्म हो चुका था। ये वे वर्ग थे जो अतिरिक्त उत्पादन का उपयोग करते थे तथा राजनीति से लेकर समाज तक उनका वर्चस्व था। वहीं दूसरी ओर पैदावार के साधनों को नियमित करने के लिए धर्मशास्त्रों की मदद ली जा रही थी।

उल्लेखनीय है कि ईसापूर्व पाँचवीं शताब्दी के आसपास ‘राज्य’ का उदय हुआ और इसी के आसपास धर्मशास्त्र रचे गए। इसी युग में नाट्यशास्त्र,कौटिल्य कृत ‘अर्थशास्त्र’(ईसा की पहली शताब्दी) ,पाणिनी कृत ‘अष्टाध्यायी’(ईसापूर्व पांचवीं शताब्दी) ,ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में पतंजलि भाष्य,मनुस्मृति (ईसा की पहली या दूसरी शताब्दी) आदि ग्रंथ आ चुके थे, इसके अलावा अनेक महत्वपूर्ण रचनाएं लिखी जा चुकी थीं।

भरत का ‘नाट्यशास्त्र’ जिन परिस्थितियों में रचा गया वे परिस्थितियां बेहद तनावपूर्ण और अंतर्विरोधपूर्ण थीं।‘तनाव’ और ‘अन्तर्विरोध’ का भरत पर गहरा असर था,इसीलिए उन्होंने ‘सहमेल’ की धारणा पर जोर दिया।भरत पर कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ का ज्यादा असर था।भरत ने जिस दृष्टिकोण को ‘नाट्यशास्त्र’ में व्यक्त किया वह सम्राट अशोक के नजरिए से काफी मेल खाता है।क्योंकि जब इस कृति रचना हुई है उस समय अशोक का शासन समाप्ति की ओर था या समाप्त हो चुका था। अशोक ने सभी वर्गों के ‘सहमेल’ पर जोर दिया,भरत ने भी सभी वर्गों के ‘सहमेल’ पर जोर दिया।डी.डी.कोशाम्बी ने ‘प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता’ में लिखा जिस युग में ‘समन्वय’ की धारणा आई ,वह युग खेत मजदूरों,दासों,छोटे किसानों का था,जिसमें अधिकतर शूद्र थे।दूसरी ओर प्रभुवर्गों के रुप में प्रभावशाली तबका सामने आ चुका था। इन दोनों के बीच में गहरा तनाव था,जिससे बचने के लिए ‘समन्वय’ की प्रक्रिया राज्य ने शुरु की।प्रजा को नए दृष्टिकोण से देखा गया।नये प्रयत्नों को सार्वभौमिक अर्थ देने वाले ‘धम्म’ पदबंध का चलन भी इसी दौर में आरंभ हुआ।

‘नाट्यशास्त्र’ में उस दौर के संकट के संकेत मिलते हैं।मसलन्, उस समय नाटकों में देव-दानव संघर्ष पर केन्द्रित रचनाएं ही लिखी जाती थीं और उनका ही मंचन होता था।ऐसी ही एक घटना का जिक्र वहां पर है। जिसमें नाटक देखते समय दर्शकों में जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई और वे देव-दानव संघर्ष केन्द्रित नाटक का विरोध करने लगे, मंचन के दौरान हंगामा हो गया। इस विषय की रचनाओं में आमतौर पर देवता जीतते थे और दानव हारते थे और यही बात दर्शकों को नागवार लगी। तथ्य बताते हैं कि देव-दानव संघर्ष केन्द्रित रचनाओं का विरोध करने वाले लोग वे थे जो वंचित थे,वे लोग परेशान थे कि आमतौर दानव ही नाटक में हारते हुए दिखाए जाते हैं। इस तरह की एक प्रस्तुति और हंगामे का भरत ने वर्णन किया है, जिसमें जनता भड़क उठी थी और काबू के बाहर हो गयी, बाद में इन्द्र के हस्तक्षेप और प्रहारों के बात जनता नियंत्रण में आई। यही वह संदर्भ है जिसको ध्यान में रखकर भरत ने लिखा कि भविष्य में नाटक देव-दानव संघर्ष पर ही नहीं लिखे जाएंगे बल्कि त्रैलोक्य के सभी विषयों पर लिखे जाएंगे। उन्होंने नाट्यकारों से अपील की है कि वे देव-दानव संघर्ष पर रचना न लिखें,बल्कि इस प्रवृत्ति से बचना चाहिए। नाट्यकारों को त्रैलोक्य के विषयों को अपने लेखन का आधार बनाना चाहिए। असल में देव-दानव संघर्ष पर जब नाटककार लिखता था तो वह स्वयं तो देवताओं का पक्षधर होता ही था ,दर्शकों को भी देवताओं का पक्षधर बनाता था।आम जनता में इसे लेकर गंभीर प्रतिक्रिया हुई। इस तनाव को दूर करने के लिहाज से भरत ने त्रैलोक्य को अभिव्यक्ति का आधार बनाने पर जोर दिया।पहले नाटककार देवताओं का पक्षधर था इससे जनता रुष्ट थी। जनता की नाराजगी को दूर करने के लिए त्रैलोक्य के विषयों पर लिखने की अपील की गयी। इससे जनता और रंगमंच के नए रिश्ते की शुरुआत हुई। भरत ने लिखा नाटककार को विभिन्न वर्गों के शुभ-अशुभ कर्मों का रुपायन करना चाहिए। जनता के उत्तम-मध्यम और अधम स्वभावों को भी नाट्यकला की परिधि में रखना चाहिए।इससे रंगकर्म का ही नहीं बल्कि साहित्य का भी दायरा बढ़ा। इससे कला और समाज के अन्तस्संबंध की शुरुआत हुई। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पाएंगे कि संस्कृत काव्यशास्त्र के उदय के पीछे ठोस भौतिक परिस्थितियां सक्रिय थीं।दूसरी बात यह कि संस्कृत काव्यशास्त्र का प्रेरक कोई ‘विचार’ या ‘भगवान’ नहीं है।बल्कि सामाजिक उत्प्रेरणा के गर्भ से ही इसका जन्म हुआ।आमतौर पर संस्कृत काव्यशास्त्र पर जब भी चर्चा होती है तो उसे समाज से काटकर पेश किया जाता है। समाज और आलोचना के बीच की अन्तर्क्रियाओं पर हमने कभी गंभीरता से विचार ही नहीं किया।

संस्कृत काव्यशास्त्र और लिंगदृष्टि-

संस्कृत काव्यशास्त्र वस्तुतःपुंस साहित्यशास्त्र है, इसमें स्त्री हाशिए पर है।आलोचना पुंसत्व के आधार पर देखने की परंपरा पहले नहीं थी,पहलीबार पुंसत्व के आधार पर आलोचना का श्रीगणेश होता है। काव्यशास्त्र में पुंसत्व का संबंध तत्कालीन पशुपालक अवस्था से है।पशुपालक समाजों में रचितशास्त्र में पुंसवाद का प्रभुत्व सहज और स्वाभाविक लगता है। पशुपालन और युद्ध ये दो महत्वपूर्ण काम थे जिनकी धुरी पुंसवाद है,इनके साथ अंतर्क्रियाएं करते हुए नाट्यकर्म से लेकर काव्यशास्त्र तक का समूचा आलोचना ढ़ांचा पुंसवादी पैमानों के आधार पर खड़ा किया गया,यह उस समय की व्यवस्था की संगति में सबसे बेहतर विकल्प था। आलोचना के पुंसवादी चरित्र के विकास में कालान्तर में जाति और वंश पर आधारित संरचनाओं ने भी मदद की।

कबीलाई सरदारतंत्र वस्तुतःअसमान तंत्र था।इस तंत्र की धुरी है राजन् । राजन् यानी चमकने वाला। राजन् को ही उस समय समस्त उपहार आदि दिए जाते थे।समाज में श्रम-विभाजन का विकास हुआ,लेकिन राजन् की सत्ता अक्षुण्ण रही। संस्कृत काव्यशास्त्र के विकास का लोहे के विकास की प्रक्रिया से भी संबंध बनता है। लोहे की तकनीक इस दौर में विकसित हुई और लोहे से बने तमाम नए उपकरणों का उदय हुआ। लोहे के उपकरणों के जन्म और संस्कृतकाव्यशास्त्र के रिश्ते पर हम कभी गौर करें कि संस्कृत काव्यशास्त्र उस दौर में ज्यादा जनप्रिय और प्रासंगिक रहा है जब समाज पूरी तरह लोहे के यंत्रों पर निर्भर था,अन्य धातुओं के उदय के बाद जो उपकरण सामने आए उन्होंने धीरे-धीरे संस्कृत काव्यशास्त्र को हाशिए पर ठेला। इसने संस्कृत काव्यशास्त्र को ही नहीं बल्कि व्याकरण को भी प्रभावित किया। पाणिनी का व्याकरण वैचारिकतौर पर पुंसवाद के वर्चस्वशाली दृष्टिकोण का आदर्श नमूना है। इसी तरह रस के प्रसंग में जितनी भी बहस है कहने को नव रस हैं,लेकिन अधिकांश संस्कृत साहित्य श्रृंगार रस केन्द्रित है ,जिसमें पुंसवादी विचारधारा का वर्चस्व है ।

रस के पुंसवादी चरित्र का मूलाधार है रस-निष्पत्ति में लिंग की अनुपस्थिति,खासकर स्त्री लिंग की अनुपस्थिति खासतौर पर उल्लेखनीय है।भरत जब रस को लिंगरहित बनाकर पेश कर रहे थे तो वस्तुतःस्त्री को अदृश्य बना रहे थे।मजेदार बात यह है रस की भरत की अवधारणा को लेकर सभी आलोचक एकमत हैं। भरत ने लिखा ‘ न रसाद् ऋते कश्चिदर्थःप्रवर्त्तते’, यानी रस से रहित कोई काव्यार्थ नहीं होता। लेकिन रस का आस्वाद लिंगाधारित है,वह इकसार नहीं है। पुरुष को जिस चीज में रस आता है स्त्री को उसमें रस नहीं आता। यदि रस का आधार लिंग-निरपेक्ष मानकर चलेंगे तो इससे स्त्री की अनुभूतियों का मूल्यांकन नहीं हो पाएगा। भरत ने कहा , ‘रस्यते(आस्वाद्यते)इति रसः’ यानी जो आस्वाद का विषय हो,वह रस है।काव्य में स्थायी भाव ही आस्वाद्य होता है,अतःवही रस है।

भरत ने ‘नाट्यशास्त्र’ में संरचनात्मक तौर पर जिस रंगमंच संरचना और रस संरचना को अपने ग्रंथ का मूलाधार बनाया उसमें दो चीजों पर विचार करने की जरुरत है,पहली समस्या यह है कि रस और रंगमंच के लिए किस तरह के मॉडल को वैचारिक तौर पर आधार बनाया जाय ? समाज में सम्प्रेषण के दो तरह के मॉडल हैं एक तरफ माध्यम केन्द्रित मॉडल है तो दूसरा समाजकेन्द्रित मॉडल है। भरत ने कला संचार के लिए माध्यमकेन्द्रित मॉडल को चुना और समाजकेन्द्रित मॉडल को छोड़ दिया। माध्यमकेन्द्रित मॉडल चुनते हुए नाटक को आधार बनाया गया और उसमें ही विभिन्न स्तरों पर संरचनात्मक परिवर्तनों की खोज की। रंगमंचके नए उपकरणों की खोज पर जोर दिया। कालान्तर में इससे जो काव्यशास्त्र पैदा हुआ वह भी काव्य के आंतरिक तत्वों ,शैली,रुपतत्व और बाह्य उपकरणों के विकल्पों की खोज में व्यस्त हो गया । इसका परिणाम यह निकलला कि समूचा काव्यशास्त्र रुपतत्वों की खोज का पुंज बनकर रह गया।

सवाल उठता है कि संस्कृत काव्यशास्त्र के रुपवादी चिन्तन की पद्धति क्या है ? इसमें आलोचक –लेखक के स्वतःस्फूर्त्त चिन्तन के लिए कोई जगह नहीं है।यहां ‘शिल्पी’ या ‘गढ़िया’ रुप की प्रतिष्ठा पर जोर है। कवि या आलोचक की स्वतःस्फूर्त्तता का यह विरोध करता है। यहां अलंकार और भाषायी चमत्कारों को दिखाने पर जोर है। यही वजह है आरंभ में नाट्यशास्त्र में 4अलंकार थे जो बढ़ते बढ़ते 300 से ऊपर हो गए। दूसरी बात यह कि संस्कृत का लेखक –आलोचक अपने भावों को व्यक्त करने के लिए वास्तविक घटनाओं ,अभिव्यक्ति रुपों और विषयों की मदद नहीं लेता ,वास्तविक घटनाओं से प्रेरित होकर रचना नहीं करता। वह तो भावहीन शिल्प साधना को श्रेष्ठतम उपलब्धि मानता है। सवाल उठता है कि रस के क्षेत्र में स्थायी भाव को आधार बनाकर जो शास्त्र रचा गया उसके पीछे मंशा क्या है ? क्या जीवन और साहित्य में स्थायीभाव जैसी कोई चीज होती है ? स्थायी भाव के आधार पर ही शाश्वत साहित्य,शाश्वत चिन्तन,शाश्वत विचार,शाश्वत धर्म,शाश्वत राजा के विचार का प्रतिपादन किया गया। शाश्वत को सामान्य ,स्वाभाविक और अपरिवर्तनीय बनाकर पेश किया गया। यहां शास्त्र निर्माण का जो तरीका चुना गया वह अपने आपमें विलक्षण और रोचक है। पहलीबार बारीकी से ‘विचार’ से ‘विचार’, ‘शैली’ के गर्भ से ‘शैली’ का जन्म होता है। विचार या शैली की हूबहू नकल करने और उसके ही विभिन्न विकल्पों की सृष्टि पर जोर दिया गया।प्रिफॉर्मेंश के यांत्रिक रुपों की काव्यशास्त्र में एक तरह से बाढ़ पैदा कर दी। नाटक में शास्त्र बनाते समय इस बात जोर दिया गया कि ‘टिपिकल’(प्रतिनिधि पात्र) और ‘यूनीवर्सल’(सार्वभौम) पात्र का निर्माण किया जाय़ । मसलन्, राजा को राजा की ही तरह बोलना चाहिए,दिखना चाहिए। उसी तरह कृपण को कृपण की तरह ही दिखना चाहिए। इसी का लगातार अनुसरण करते हुए महान साहित्य के सृजन की कल्पना की गयी। रंगमंच में सार्वभौम प्रकृति का बार बार अनुकरण करने का यह दुष्परिणाम निकला कि चरित्र स्टीरियोटाइप होते चले गए,विचार और प्रस्तुतियां रुढ़िबद्ध होती चली गयीं। “सार्वभौम” को स्थापित करने के पीछे यह धारणा काम कर रही थी कि “सार्वभौम” तो सब समय और सभी तरह के समाजों में अच्छा होता है। इसका दुष्परिणाम यह निकला कि रचना से यथार्थ ओझल होता चला गया। “सार्वभौम” को चित्रित करने क्रम में यह भी संकट पैदा हुआ कि जो सामाजिक यथार्थ , युग की संगति में न आए उसे खारिज करो। इससे मनुष्य की भिन्न स्थिति,भिन्न विचार,भिन्न अनुभूति आदि की प्रस्तुतियों का लोप होता चला गया। साहित्य से विविधता का लोप होता चला गया।कहने के लिए साहित्य में नौ रस हैं ,लेकिन अधिकांश रचनाएं श्रृंगार रस पर ही लिखी गयीं, कहने के लिए वायदा किया गया था कि त्रैलोक्य के विषयों पर लिखा जाएगा लेकिन अंततःलेखकों ने देव-दानव संघर्ष पर ही अधिकांश रचनाएं लिखीं। रचनाओं में विषयों का वैविध्य गायब हो गया।“सार्वभौम” और “प्रातिनिधिकता” की धारणा का आदर्शीकरण किया गया और इसने साहित्यिक रुढ़ियों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इसी क्रम में प्राकृतिक न्याय,प्राकृतिक अधिकार,प्राकृतिक अध्यात्म आदि धारणाएं सामने आईं जिनके कारण मनुष्य की ‘अन्य स्थिति’ की उपेक्षा हुई। साथ ही कला-साहित्य का नैतिक मूल्यों से संबंध भी कट गया। यही वह प्रस्थान बिन्दु है जहां पर पितृसत्ता का कलाओं में वर्चस्व स्थापित हुआ और “अन्या” की उपेक्षा हुई। साहित्य में “सार्वभौम” की स्थापना का अर्थ है स्त्री की उपेक्षा। साहित्य में आदर्श रुपों की स्थापना का अर्थ है वैविध्य का अस्वीकार,बनाव -श्रृंगार पर जोर और स्त्री का अदृश्य हो जाना।नैतिक और सामाजिक मूल्यों से आलोचना और साहित्य को परे ले जाना। आलोचक और रचनाकार का इस प्रक्रिया के दौरान समाज में घट रहे परिवर्तनों,ज्ञान-विज्ञान, राजनीति, अर्थनीति आदि से संबंध पूरी तरह कट गया।

रसशास्त्रियों से लेकर काव्यशास्त्रियों तक सभी ने “सामान्य मानवीय प्रकृति” को सम्बोधित करने की पद्धति के तहत मनुष्य को एक तरह अमूर्त्त बना दिया। इस मनुष्य को “सार्वभौम” मनुष्य न समझा जाय। यहां जिस मनुष्य को लेखक सम्बोधित करता है वह तो लेखक का पसंदीदा व्यक्ति है, वह तो एक तरह से स्वयं है। इसमें बहुसंख्यक जनता के वैविध्य की अनदेखी की गयी है। रंगकर्म में अभिरुचि के आधार पर चित्रण करने और सम्बोधित करने की जो प्रक्रिया शुरु हुई उसने नए किस्म के निर्वैयक्तिक सौंदर्यबोध को पैदा किया।

सहृदय या लक्ष्यीभूत श्रोता-

भरत ने ‘लक्ष्यीभूत श्रोता’ की अवधारणा पेश की जो इन दिनों प्रचलित ‘क्रिटिकल ऑडिएंस’ की अवधारणा से मिलती –जुलती है। सामान्य तौर पर उसे ‘सहृदय’ कहते हैं। इस श्रोता को भाषा,शिल्प,कला,छंदशास्त्र, शब्दशास्त्र आदि का ज्ञान होना चाहिए और इसकी इन्द्रियां दुरुस्त हों। भरत यह भी मानते थे कि सभी में ये गुण नहीं होते,इसमें फर्क होता है,रुचिभेद भी होता है,पर इनमें से अधिक से अधिक गुण श्रोता-दर्शक में होने चाहिए। ‘नाट्यशास्त्र‘ रुचिभेद स्वीकार करता है और आशा करता है कि प्रेक्षक इतना सहृदय होगा कि अभिनय के अनुकूल अपने को रसग्राही बना सकेगा।फिर भी एक बात साफ है कि ‘नाट्यशास्त्र‘ सुशिक्षित-प्रबुद्ध को ही लक्ष्यीभूत श्रोता मानता है।

‘लक्ष्यीभूत श्रोता’ की अवधारणा के विकास की प्रक्रिया को रेखांकित करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सही रेखांकित किया है कि सन् ईसवी की चौथी-पांचवीं शताब्दी तक के संस्कृत काव्यों के अध्ययन से यह बात जाहिर होती है कि कविगण अपनी कविता के लक्ष्यीभूत श्रोता के ‘समझदार’ होने की बात तो करते थे लेकिन उसके पंडित या शास्त्रज्ञ होने का दावा किसी ने पेश नहीं किया। लेकिन कालाम्तर में मध्यकालीन कवियों में पाठक के शास्त्र निष्णात होने का दावा उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया।जिस सहृदय की परिकल्पना भरत या कालिदास ने की थी उसे ‘समग्रानरलक्ष्मी’ के नाम से सम्बोधित किया गया।यानी भारवि तक ‘समग्र मनुष्य’ की धारणा आलोचना के केन्द्र में थी।लेकिन बाद के वर्षों में यह धारणा निरंतर खंडित होती चली गयी।अब ‘समग्र मनुष्य’ की बजाय ‘खण्डित मनुष्य’ का रस के साथ विवेचन होने लगा। उल्लेखनीय है कि रस विवेचन में जिन दो महत्वपूर्ण धारणाओं की केन्द्रीय भूमिका थी उन पर हमने कम विचार किया ,ये हैं,कामदेवता और सहृदय। दिलचस्प बात यह है भरत द्वारा प्रतिपादित सहृदय की अवधारणा को वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ ने अपदस्थ कर दिया। इन धारणाओं का श्रृंगार रस संबंधी विमर्श में बहुत बड़ा योगदान है।

भारवि के बाद परवर्त्ती काव्यों में लक्ष्यीभूत श्रोता वह सहृदय है जिसे छंदों और अलंकारों का अच्छा ज्ञान हो,वात्स्यायन की बताई विधियों की जानकारी हो,नागरिक जीवन का ठीक-ठीक ज्ञान हो,रामायण और महाभारत के आदर्शों की ग्राहकता हो,साथ ही उसकी रुचियां परिष्कृत हों।

भरत के यहां जो ‘सहृदय’ है ,कालिदास के यहां वो ‘सचेता’है।‘सहृदय’ बहुत अधिक संवेदनशील तो था ,साथ ही रुप,वर्ण,प्रभा,आभिजात्य,विलासिता,माल्य,वस्त्र,उपलेपन आदि का निपुण जानकार भी होता था।सबसे बड़ी बात यह कि इसमें अधिकांश रसिक युवावर्ग होता था,इसके कारण ही साहित्य में श्रृंगार रस पर केन्द्रित सबसे ज्यादा रचनाएं लिखी गयीं।यही समुदाय श्रृंगार रचनाओं का मुख्य सामाजिक आधार है। राममूर्ति त्रिपाठी ने अभिनवगुप्त के यहां सहृदय की अवधारणा का विवेचन करते हुए लिखा है परात्रींशिका या परात्रिशिंका में अभिनवगुप्त ने कहा है कि ‘वीर्यविक्षोभात्मा हि सहृदयता’, शुक्र शरीर के स्तर पर मूल शक्ति का ही सार है-काव्यानन्द की अभिव्यक्ति उसके निष्क्रिय होने में नहीं,उत्तेजित होने में नहीं,अपितु’चल’ (स्पन्दित) होने में है।यह स्थिति संयम से ही संभव है। सवाल यह है संयम का उपदेश किस वर्ग को दिया जा रहा है ?

संस्कृतकाव्य के संदर्भ में एक पहलू गुलामों की भूमिका से भी जुड़ा है। मध्यकाल में गुलाम न होते तो संस्कृत और संस्कृति महान वैभव निर्मित न होता।दासों के श्रम और शोषण की इस संस्कृति के निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका है। आमतौर पर कवियों-लेखकों-विचारकों-दार्शनिकों के योगदान की बात की जाती है लेकिन मध्यकाल में गुलामों की भूमिका की अनदेखी हुई हुई है। यह समूची प्रक्रिया यूनान के सांस्कृतिक वैभव से काफी हद तक मिलती -जुलती है।

फ्रेडरिक एंगेल्स ने ‘ड्यूहरिंग मत-खंडन’ में लिखा है ‘दासप्रथा न होती तो यूनानी राज्य,कला और विज्ञान भी न होते।दासप्रथा न होती तो रोमन साम्राज्य कभी अस्तित्व में न आता।और यदि यूनानी कला तथा रोमन साम्राज्य उसकी नींव न डालते तो आधुनिक यूरोप भी न होता। हमें यह भी कभी नहीं भूलना चाहिए कि हमारा समस्त आर्थिक, राजनीतिक और बौद्धिक विकास एक सी अवस्था की नींव पर खड़ा हुआ है,जिसमें दास प्रथा उतनी ही आवश्यक थी,जितनी उसे सार्वत्रिक मान्यता प्राप्त थी।इसी अर्थ में हमें यह कहने का भी अधिकार है कि प्राचीन काल में दासप्रथा न होती तो आधुनिक काल में समाजवाद भी न होता।’

हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘मध्यकालीन बोध का स्वरुप’ में रेखांकित किया है कि नाट्य में वस्तु,नेता और रस को नाटक का आवश्यक अंग माना है, इसमें रस को ही प्रधानता दी गयी है। रस सिद्धि के लिए ही वस्तु और नेता की योजना की जाती है। रस आकाश में टिका नहीं रहता।उसके लिए ठोस आधार चाहिए।विभाव,अनुभाव और संचारी के संयोग से नेता या नायक के चित्त में रस का संचार होता है।बाद में अनेक आचार्यों ने इस बात पर विचार किया है कि रस की स्थिति वस्तुतः कहाँ होती है-कथा नायक में,अभिनेता में या दर्शक में। इस क्रम में उठी आलोचनाओं में यह मान लिया गया कि रसानुभूति में पाठक या श्रोता आवश्यक उपादान है।जोकि पहले नहीं था।

राममूर्ति त्रिपाठी के अनुसार भरत ने यह भी कहा कि नाट्यानुभूति का कोई स्वायत्त संसार नहीं होता।पर,अभिनवगुप्त ने ‘नाट्यानुभूति या काव्यानुभूति को सर्वथा स्वायत्त सिद्ध किया। सवाल यह है कि ऐसा परिवर्तन क्यों घटित हुआ ? इसकी प्रक्रिया क्या थी ? राममूर्ति त्रिपाठी ने लिखा है ‘काव्य या नाटक अपनी प्रस्तुति प्रक्रिया और परिणति में सर्वत्र,अर्जन,विसर्जन,प्रवण व्यावहारिक अनुभूति से सर्वथा भिन्न है।उनको व्यवहार तथा शास्त्रसिद्ध किसी भी अनुभूति के खाने में नहीं रखा जा सकता।भरत ने जहाँ रस को ‘आस्वाद्य’कहकर वस्तुगत कहा था,वहां अभिनव ने ‘आस्वादनात्मानुभवःरसःकाव्यार्थ इष्यते’ कहकर उसे आत्मगत बताया। सवाल उठता है जो वस्तुगत धारणा थी वह आत्मगत धारणा में रुपान्तरित कैसे हो गयी ? इसके पीछे कौन सा दार्शनिक मतवाद था,जो प्रेरक के रुप में काम कर रहा था।अभिनवगुप्त आदर्शवादी दार्शनिक नजरिए में विश्वास करते थे तथा कश्मीरी शैवागम के अद्वैतवादी प्रत्यभिज्ञा प्रस्थान के आचार्य थे।त्रिपाठी के अनुसार उन्होंने ‘वस्तुसत्ता एवं आत्मसत्ता में पृथकत्व को नहीं माना।’

श्रृंगार ही सर्वस्व है-

छठी शताब्दी के आसपास जब देश में सामंतवाद का आरंभ होता है तो उसके समानान्तर संस्कृत काव्यशास्त्र का भी उदय होता है।जिस समय इस आलोचना का जन्म होता है वह वस्तुतःसंस्कृत साहित्य का ह्रासकाल है।सामंतवाद के पहले चरण(300-650ईस्वी) की सामाजिक स्थिति का इतिहासकार रामशरण शर्मा ने ‘सामंतवाद’ में रेखांकित किया है , ‘सामंतवाद की कुछ मोटी-मोटी विशेषताएं गुप्तकाल और विशेषकर गुप्तोत्तर काल में दिखाई देने लगी थीं।वे विशेषताएँ इस प्रकार थीं-परती और आबाद दोनों ही तरह की जमीनें अनुदान में देना,अनुदान में दी गई भूमि के साथ-साथ किसानों का हस्तान्तरण,बेगारी प्रथा का प्रसार,किसानों,शिल्पियों और व्यापारियों के अपनी इच्छानुसार जहां चाहें वहाँ जाकर बसने पर रोक लगाना,मुद्रा का अभाव,व्यापार का ह्रास,राजस्व व्यवस्था तथा दंड प्रशासन का धार्मिक अनुदान भोगियों के हाथों सौंप दिया जाना,अधिकारियों को वेतन स्वरुप अलग क्षेत्रों के राजस्व सौंप देने की प्रवृत्ति का प्रारंभ,और सामंती दायित्वों का विकास।’ सामंतवाद के बाद के दौर में (750-1000ईस्वी) में इन सब बातों के अलावा जो चीजें सामने आती हैं वह है राजाओं और राज कर्मचारियों की उपाधियों का सामंतीकरण,राजधानियों में बहुधा परिवर्तन,पुराने गांवों का राजपूत परिवारो के बीच विभाजन आदि।

रामशरण शर्मा के अनुसार पूर्व-मध्यकालीन अर्थव्यवस्था में चार प्रमुख विशेषताएं दिखाई देती हैं। प्रथम,भूमि पर राजकीय तथा सामुदायिक स्वामित्व का ह्रास,व्यक्तिगत स्वामित्व का विकास,दूसरा,उपसामंतीकरण,बेदखली,नए-नए करों का आरोपण तथा बेगार के कारण किसानों की दशा का दासवत् होते जाना,तीसरे,व्यापार और शिल्प कारीगरी आदि से होने वाली आमदनी से कुछ लोगों की जागीर का बनना।चौथा,आत्मनिर्भर आर्थिक जीवन। यानी ग्रामीण लोगों के भूमि विषयक तथा सामुदायिक अधिकारों का ह्रास और उसके परिणाम स्वरुप निजी अधिकारों का विकास,शिल्प उद्योग तथा व्यापार का सामंतीकरण और मुद्रा का अभाव आदि।

राममूर्ति त्रिपाठी ने सवाल उठाया है कि कालिदास के कवित्व का उत्कर्ष श्रृंगार में है या करुण में ? फिर उन्होंने इस सवाल का जवाब भी दिया है और लिखा है कि वे श्रृंगार रस के रचयिता हैं। साथ ही उन्होंने बताया है कि ‘रस’ शब्द बिना किसी विशेषण की अपेक्षा रखे,सहज ही कोई अर्थ देता है तो वह है श्रृंगार। सवाल यह है कि आखिरकार श्रृंगार को ही रस का पर्याय क्यों बनाया गया ? इसके पीछे प्रमुख कारण तो ‘सहृदय युवक का रसिक और श्रृंगार प्रिय होना है’,प्रत्येक कवि अपनी वाणी को सरस बनाने के लिए ऐसे प्रयोगों की ओर अभिमुख हुआ जो श्रृंगार के द्योतक थे। दूसरा सवाल यह है कि श्रृंगार क्या है ? हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस सवाल के जवाब में ‘मध्यकालीन बोध का स्वरुप’ में लिखा है कि श्रृंग का अर्थ है मन्मथोद्भेद अर्थात् कामदेव नामक अशरीरी देवता का सक्रिय होना। श्रृंगार उस देवता की प्रभावशाली शक्ति को व्यक्त करने वाला रस ही है। भारतीय परंपरा में कामदेवताके दो रुप मिलते हैं एक रुप वैरागी का है तो दूसरा रुप भोगी का है,कालिदास के यहाँ दोनों रुप हैं, लेकिन उनको भोगी रुप ज्यादा पसंद है।कामदेवता के रुपायन के दो वैचारिक आयाम हैं,पहला है,सामाजिक, इस रस के अधिकांश भोक्ता वे हैं जो उस युग के अभिजन हुआ करते थे। श्रृंगार का भोगी रुप इन अभिजनो को ही सम्बोधित है।दूसरा, इसमें सामाजिक नियमों के अवहेलना की भावना भी निहित है। इसके विपरीत रस को लेकर दूसरी परंपरा वह है जिसे जनकवियो ने बनाया। इन कवियों ने ऱस और सरसता को हरि स्मरण के बहाने भगवान की ओर मोड़ दिया। दरबारी सभ्यता के असर के कारण साहित्य में लंबे समय तक पहले श्रृंगार रस प्रमुख रहा बाद में उसके अंग के रुप में वीर रस ने अपना प्रसार किया। अपभ्रंश और परवर्त्ती लोकभाषाओं की कविताओं में वीर रस की दर्पोक्तियां प्रायःप्रेमिका या वीर पत्नियों द्वारा करायी गयी हैं या फिर वीर रस की योजना अनूढ़ा रुपवती कन्याओं के हरण के लिए की गयी है।पृथ्वीराज रासो की अधिकतर लड़ाईयों के मूल में यही प्रेम है। इसके कारण संस्कृत साहित्य और समाज,संस्कृत रचनाकार और समाज,संस्कृत आलोचना और समाज के बीच में क्रमशः दूरी बढ़ती चली गयी। यही वजह है संस्कृत साहित्य से लेकर संस्कृत आलोचना तक कहीं पर सम-सामयिक ज्वलंत सामाजिक समस्याओं का कोई जिक्र नहीं मिलता।इससे साहित्य में रुपवादी दृष्टिकोण का पल्लवन हुआ।

राममूर्ति त्रिपाठी ने श्रृंगार बनाम करण रस की बहस में जो तर्क रखे वे बड़े ही दिलचस्प और एकांगी हैं। खासकर बाल्मीकि के संदर्भ में वे एकांगी हैं और समस्या के मूल सिरे से काफी दूर हैं। त्रिपाठी का मानना है आदिकाव्य ‘रामायण’ करुण रस की अपेक्षा क्रोध से सीधे उत्पन्न हुआ था। इस समूचे प्रसंग में पहली बात यह कि बाल्मीकि की रचना के उद्देश्य को नैतिकतावादी नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए और नहीं उसे रस विशेष के खाने में रखकर देखा जाना चाहिए। बाल्मीकि कृत ‘रामायण’ को लिखने के पीछे महत्तर साहित्यिक उद्देश्य था ,यह उद्देश्य क्या था ? इस सवाल का सही जवाब हजारीप्रसाद द्विवेदी ने खोजा है। ‘मध्यकालीन बोधका स्वरुप’ में द्विवेदीजी के अनुसार बाल्मीकि ने प्रथम अध्याय में नारद से पूछे गए प्रश्न में उन्होंने कहा कि वे महान और उदात्त चरित्र को अपनी रचना का विषय बनाना चाहते थे,वे किसी आदर्श व्यक्तित्व की तलाश में थे,जिसमें ‘समग्रालक्ष्मी‘ (संपूर्ण मनुष्य) का निवास हो।वे पूरे मनुष्य का चित्रण करना चाहते थे।ऐसा उदात्त व्यक्तित्व संपन्न मनुष्य जो विपत्ति में म्लान न हो,संपत्ति में इतरा न उठे,विजय दर्प में क्षमा करना न भूल जाय,शक्ति पाने पर विनम्र होने में न चूके,और जीवन के उपरले तल की सफलताओं से अभिभूत होकर जीवन के अतल गांभीर्य में बहने वाली चरितार्थता की धारा की उपेक्षा न कर बैठे।यही वह मूल उद्देश्य था। न कि करुण या वीर या श्रृंगार इत्यादि रस से प्रेरित होकर लिखना।अगर हम यदि करुण या क्रोध को बाल्मीकि की ‘रामायण’ का मूल प्रेरक तत्व मानेंगे तो नैतिकतावादी दृष्टिकोण के शिकार होकर रह जाएंगे।

हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार बाल्मीकि ने रस संचार को जीवन से जोड़ा,नायक की खोज की।नायक उनके यहाँ ‘नरचन्द्रमा’ है जिसमें मनुष्य की ‘समग्रालक्ष्मी‘ निवास करती है।बाल्मीकि पहले लेखक हैं जो नायक की खोज करते हैं।यही उनका प्रेरक है।संस्कृत साहित्य में छठवीं शताब्दी के बाद इस ‘संपूर्ण मनुष्य’ का लोप हो जाता है।रचना के स्तर पर ह्रासशील प्रवृत्तियों की शुरुआत होती है।आलोचना में रुपवादी अवधारणाओं की बाढ़ आ जाती है। संस्कृत साहित्य में मनुष्य के प्रति उपेक्षा भाव के कारण समाजरहित रस और आनंद की सृष्टि का जो सिलसिला आरंभ हुआ उसने नए किस्म के समाजरहित साहित्य, साहित्यबोध और आलोचनात्मक विवेक को जन्म दिया।फलतःसंस्कृत साहित्य का सामाजिक आधार संकुचित होने लगा। संस्कृत भाषा उच्चवर्ग की भाषा बनकर रह गयी।इसे शिक्षित लोग ही समझ पाते थे।इस भाषा में दी जाने वाली शिक्षा पर ब्राह्मणों का ही अधिकार था।इस भाषा में लिखे ग्रंथों के आधार पर उच्चवर्ग –उच्चवर्ण के लोगों में सांस्कृतिक एकीकरण की प्रक्रिया को संचालित करने में मदद मिली।इससे वर्गभेद और वर्ग-व्यवस्था को बनाए रखने में मदद मिली।आदिवासियों के संस्कृति,पूजा,व्रत-उपवास आदि के तौर-तरीकों से सवर्णों और अभिजनवर्ग को दूर रखने में मदद मिली।समाज और साहित्य में वर्ग संरचनाओं और वर्गभेद का तेजी से विकास हुआ।

बाल्मीकि के यहां मनुष्य की ‘समग्रालक्ष्मी’ और प्रकृति की ‘समग्रालक्ष्मी’ का सम्मिश्रित रुप देखने को मिलता है।इसी के गर्भ से नए रस का जन्म हुआ। इसके पहले एक ही रस की चर्चा मिलती है।लेखक जब एक ही रस को केन्द्र में रखकर लिखते थे तब रचना के केन्द्र में संपूर्ण मनुष्य नहीं था।द्विवेदीजी के अनुसार यह समग्र मनुष्य का ऐसा उद्बोध नहीं है जो उदात्त रुप में समाज का प्रतिनिधित्व करता हो और उसका उन्नयन करता हो।उसमें मनुष्य द्वारा उद्भावित शास्त्रज्ञान प्रमुख स्थान ग्रहण करता चला गया और ‘भावविशेष’ की प्रबलता जीवन के विविध क्षेत्रों को अभिभूत कर लेती है।यद्यपि इस भाव विशेष की पुष्टि को ब्रह्मानंद सहोदर कहा गया।पर,परब्रह्म के उस रुप की जो प्रकृति और जगत के अनेक तत्वों में अद्वय तत्व खोजने की धारणा को जिससे रस बनता है,भुला दिया गया।कालिदास तक यह भुलाया नहीं गया था,पर बाद में भुला दिया गया।कालान्तर में ‘ब्रह्म’ ही प्रमुख हो गया तथा मनुष्य उपेक्षित। साहित्य के क्षेत्र में मनुष्य के प्रति उपेक्षा भाव ने एक ऐसे साहित्य के जन्म को संभव बनाया ,जिसमें जीवन की समस्याओं एवं स्पन्दन की गूंज दिखाई नहीं देती,पर,मानवीय जीवन के उदात्त मूल्यों का रुपायन मिलता है।समाज से बेखबर संस्कृत कारचनाकार लगातार अपनी रचनाओं में आनंद एवं रस की सृष्टि करता रहा,पर,इस सृष्टि का अभिजात्यवर्गीय सौन्दर्याभिरुचि के साथ संबंध था। यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसमें संस्कृत काव्यशास्त्र का आरंभ हुआ। इसी प्रसंग ये सवाल भी उठे हैं कि रचनाकार और आलोचक किस तरह के मनुष्य को सम्बोधित करके लिख रहा है ? तथा साहित्य में किस तरह के मनुष्य की स्थापना करना चाहता है ? रचनाकार का लक्ष्य क्या है ? अपने अभीप्सित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए रचनाकार कहीं समाज से दूर तो नहीं जा रहा ? भरत की धारणाओं और छठवीं शताब्दी से आए संस्कृत काव्यशास्त्र की धारणाओं में रस क्या है ? ‘समग्रालक्ष्मी’ का ह्रास क्यों और कैसे हुआ? आदि सवालों के उत्तर हमें खोजने चाहिए।













बुधवार, 15 फ़रवरी 2017

संस्कृत काव्यशास्त्र की समस्याएं


          काव्यशास्त्र की प्रमुख समस्या है नए अर्थ की खोज।नए अर्थ की खोज के लिए आलोचकों ने रूपतत्वों को मूलाधार बनाया,जबकि वास्तविकता यह है कि नया अर्थ रूप में नहीं समाज में होता है।रूप के जरिए नए अर्थ की खोज के कारण संस्कृतकाव्यशास्त्र भाववादी दर्शन की गिरफ्त में चला गया।इसके लिए रूपकेन्द्रित मॉडल को चुना गया,समाज को अर्थ की खोज में शामिल ही नहीं किया गया। इस अर्थ में काव्यशास्त्र का समूचा कार्य-व्यापार रूपों तक ही सिमटकर रह गया।मसलन् ,संस्कृत के किसी आलोचक ने किसी कृति का विस्तार के साथ मूल्यांकन नहीं किया।इसके कारण संस्कृत काव्यशास्त्र आरंभ से ही एक समस्या रही है वह रूपों के प्रयोगों का शास्त्र है।नए-नए रूपों की खोज और निर्माण की जितनी कोशिशें काव्यशास्त्रियों ने की हैं उतनी कोशिशें उन्होंने नई अंतर्वस्तु को खोजने में नहीं की। काव्यशास्त्र की सबसे सुंदर बात यह है कि इसके सभी स्कूल आवयविक तौर पर एक-दूसरे से जुड़े हैं।
     मसलन्,आरंभ रस से हुआ,जो अलंकार,रीति, ध्वनि और वक्रोति सिद्धांत तक पहुँचा ।पूर्ववर्ती आलोचना से नई आलोचना अपने को अलग तो करती है लेकिन पुराने को अंदर समेटे रहती है। नई और पुरानी आलोचना में अंतर्कियाएं चलती रहती हैं।इस तरह  काव्यशास्त्र में आवयविक एकता बनाए रखते हैं। यह आवयविक एकता बेहद जटिल है।इसमें सामाजिक यथार्थ के सत्य गुंथे हुए हैं।दिलचस्प बात यह है कि सतह पर विभिन्न आलोचना स्कूलों में जो भेद दिखते हैं वे मूलतःरूपों के प्रयोगों को लेकर हैं।लेकिन इनमें भेदों में युगीन वैचारिक अंतर्विरोध चले आए हैं।
  काव्यशास्त्र के रूपों के विवाद में जाने का अर्थ है भाषिक संरचनाओं में प्रवेश करना और भाषिक संरचनाओं के भेद के जरिए अर्थभेद की खोज करना।यही वजह है शब्दार्थ सबके यहां अपनी सुनिश्चित जगह बनाए रखता है।पुराने काव्यशास्त्रियों ने प्रभावशाली भाषा के प्रयोग पर खासतौर पर जोर दिया है। राममूर्ति त्रिपाठी के अनुसार प्रभावशाली भाषा का जन्म होता है प्रयुक्त शब्द में ´क्षमता´भर देने से।इसी ´क्षमता´को काव्यशास्त्रियों ने ´व्यंजना´कहा है।इसी ´क्षमता´को ´आत्मा´कहते हैं। यहां प्रभावी का अर्थ यह है कि रचनाकार की ´क्षमता´के सामने सारे नियम नत-मस्तक रहें।रचनाकार वही है जो विशिष्ट अर्थ की सृष्टि करे।´सामान्य´अर्थ की उक्ति को रचना नहीं कहते।´सामान्य´जब तक ´विशिष्ट´से मंडित होकर सामने नहीं आता तब तक रचना प्रभावशाली नहीं बनती।यह शास्त्र रचना में अंतर्निहित अर्थ की विभिन्न स्कूलों के जरिए खोज तो करता है।रचना में अंतर्निहित अर्थ को उद्घाटित करता है, लेकिन भाववादी नजरिए से। 
   आलोचना का काम में रचना में छिपे तत्वों की खोज करना,साथ ही सत्य की खोज करना।रचना में जिस तरह सत्य छिपा रहता है उसी तरह झूठ भी छिपा रहता है।संस्कृत काव्यशस्त्रियों ने छिपे अर्थ को खोजा लेकिन सत्य को नहीं खोजा,वे झूठ को ही बार बार बताते रहे।जिनको साहित्यिक रूढ़ियां कहा जाता है वे असल में आलोचना के झूठ हैं।प्रत्येक आलोचना स्कूल ने अपने तरीके से इन रूढ़ियों को निर्मित किया,ज्योंही आलोचना रूढ़ि बनने लगी,नए आलोचना स्कूल का जन्म हुआ,उसने भी नए पर जोर दिया लेकिन सत्य को स्थापित नहीं किया,फलतःवह भी एक अवधि के बाद रूढि बन गया।
   काव्यशास्त्रियों की आयरनी यह है कि वे अर्थ खोजते हैं,सत्य नहीं ।सत्य से रहित आलोचना क्रमशःप्रासंगिकता खो देती है। संस्कृत की रचनाकार और आलोचक दोनों के साथ यह मुश्किल यह है कि वे सत्य से जुड़े सवालों को सम्बोधित ही नहीं करते। इसी तरह हर रचना में अनेक स्तर होते हैं। आलोचक अपने तरीके से इन स्तरों पर विचरण करता है,आलोचना लिखता है।इस क्रम में प्रत्येक स्तर पर छिपे अर्थ की खोज करता है।सवाल यह है छिपे को खोजते समय वह सत्य को क्यों नहीं खोजता ॽ वह काल्पनिक चीजों और काल्पनिक अर्थों की विभिन्न रूपों में व्याख्या करने पर क्यों जोर देता है ॽ इसका एक ही उत्तर है काव्यशास्त्री और लेखक दोनों का समाज से अलगाव है।वे समाज से कटे हुए हैं। इसलिए वहां रचना के सुंदर प्रयोग मिलेंगे,सुंदर संरचनाएं मिलेंगी,नए-नए छंदों,अलंकारों और नई चमत्कृत करने वाली भाषा मिलेगी लेकिन सत्य को खोजने की कोई पहल दिखाई नहीं देगी।वे कल्पना में निपुण हैं लेकिन कल्पना के साथ समाज के संबंध को लेकर अनभिज्ञ हैं।
रूप और विचारधारा- संस्कृत काव्यशास्त्र को सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक परिस्थितियों को जोड़कर देखने से सतह पर लगता है कि उसकी भौतिकवादी व्याख्या हो गयी,लेकिन वस्तुतःयह व्याख्या किसी खास निष्कर्ष पर नहीं पहुँचाती।इसमें रचना के रूपो का अक्षय भंडार है अभिव्यक्ति के लिए अनंत विकल्प हैं।सवाल उठता है रूपों के विकल्पों पर इतना क्यों जोर दिया गया ॽ क्या रूप-संरचना की कोई विचारधारा होती है ॽइस प्रसंग में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है  रूप का सामाजिक आधार क्या है ॽदिलचस्प बात है भरत से लेकर पण्डित जगन्नाथ कविराज तक रूप का आधार भाषा है। भरत ने लिखा ´छन्दोहीनो न शब्दोस्ति नछन्दःशब्दवर्जितम्´ यानी उन्होंने शब्दमात्र को छन्द माना।इस क्रम में उन्होंने छन्द और शब्द को अन्योन्याश्रित माना।भरत ने 36काव्यलक्षण, 10काव्यदोष, इनके अभाव में 10काव्यगुण,4अलंकार आदि का विवेचन किया।´प्रवृत्ति´का जिक्र किया जिसे कालान्तर में ´रीति´के नाम से विस्तार दिया।इसके अलावा रस और उसके विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से विचार किया।
    किसी भी कृति और उसकी रूप-संरचनाओं का आस्वाद पाठक सुनिश्चित सांस्कृतिक परिस्थितियों और सांस्कृतिक परंपराओं में रहकर ही लेता है,ये परंपराएं लगातार बदलती रही हैं,इनको सांस्कृतिक आदतें कहें तो समीचीन होगा।सांस्कृतिक आदतों के निर्माण की प्रक्रिया विचारधारा से बनती है लेकिन क्रमशःविचारधारा से मुक्त हो जाती है,जिसे हिन्दी वाले संस्कार भी कहते हैं।सवाल यह है कि आदतों और रूपों के बीच की अन्तर्क्रिया को कैसे देखें ॽ हमने भाषा,रूप और विचारधारा पर तो विचार भी किया है लेकिन आदतों के संदर्भ में विचार नहीं किया है।सच्चाई यह है भरत ने जिन तत्वों की नाट्य के संदर्भ में व्याख्या की,जिन धारणाओं का प्रतिपादन किया उन सभी ने एक तरह से रचना और आलोचना में काव्य संस्कार के रूप में जगह को बना ली। आलोचना की धारणाएं जब काव्यशास्त्र की परंपरा में आईं तो वे संस्कार के रूप में आईं,नए काव्यरूपों को भी इन्ही आदतों के फ्रेमवर्क में विकसित किया गया। इनमें सतह पर एक-दूसरे की मूल मान्यताओं को अपदस्थ करने की कोशिश दिखती है लेकिन पुराने रूपों और अवधारणाओं को समाहित करते हुए।इससे काव्यशास्त्र में नई ऊर्जा का संचार हुआ है।काव्यशास्त्र के नए रूप और नई अवधारणाएं सामने आईं।ये वस्तुतःआलोचना के नए ऊर्जा स्रोत हैं,पुरानी अवधारणाएं जब ऊर्जारहित होने लगीं तो आलोचकों ने नए ऊर्जा स्रोत खोजे और उस क्रम में नए सिद्धांत सामने आए।इन तमाम परिवर्तनों की मुख्य विशेषता यह है रूप-तत्व ही मूलाधार है।रूप तत्व को सजाने-संवारने में जितनी ऊर्जा खर्च की गयी वह प्रशंसनीय है और सारी समस्याओं, आलोचनात्मक जड़ता या रूढ़िगत प्रतिमानों और रूढ़िगत लक्षणों का गोमुख भी यही है।प्रच्छन्नतःसंकेत है कि आलोचना शाश्वत नहीं, परिवर्तनीय है।
      संस्कृत काव्यशास्त्र की धुरी है ´रस´,इसके ही आधार पर सारी धारणाएं काव्य के संदर्भ में निर्मित की गयीं।पुरानी धारणाओं पर सवाल उठाए गए,उन सवालों को खासतौर पर उठाया गया जो अनदेखे थे। नए आलोचना स्कूल सामने आए।आलोचना में परम्परा शुरू हुई।लेकिन मुख्य जोर नई अवधारणों की खोज पर था।पुरानी आलोचना के सभी पहलुओं पर निरंतर हर आलोचक ने बात की है लेकिन उसका मुख्य लक्ष्य है नए की ओर चलो।सतह पर विभिन्न आलोचना स्कूल पुराने रूपों की आलोचना करते हैं लेकिन उनका मूल जोर नए रूप तत्व की खोज पर है।सारे आलोचक अपनी एकल धारणा पर जोर देते हैं।किसी के लिए रस प्रमुख है,किसी के लिए अलंकार प्रमुख,किसी के लिए रीति,किसी के लिए वक्रोक्ति।इस क्रम में रस के बाद जो धारणाएं आई हैं वे अपने साथ किसी न किसी तरह की शब्द इमेज लेकर आईं।मसलन्,अलंकार,रीति,ध्वनि और वक्रोक्ति में भाषिक इमेज महत्वपूर्ण है।इस क्रम में बड़े पैमाने पर प्रतीकों और बिम्बों की रचनाकारों ने सृष्टि की। सभी आलोचना स्कूल विस्तार से जब अपनी धारणाओं का विवेचन करते हैं तो उस समय प्रतीक-बिम्ब आदि का सबसे ज्यादा प्रयोग करते हैं।इस क्रम में वे अपरिवर्तनीयता के नियम को चुनौती देते हैं,गैर-द्वंद्वांतमक चीजों को चुनौती देते हैं।इस तरह संस्कृत काव्यशास्त्र में रूप महज रूप के तौर पर नहीं आते,बल्कि रूपों के बहाने शाश्वत आलोचना की अवधारणा खंडित होती है।प्रत्येक स्कूल निष्पन्न ढ़ंग से आलोचना की अवधारणाओं और उसके रूपों पर विचार करता है लेकिन अगला आलोचक उस निष्पन्नता को ही निशाना बनाता है,फलतःआलोचना में परिवर्तन का नियम दाखिल हो जाता है।संस्कृत आलोचना में ´आत्मा´की खोज मूलतःगैर-द्वंद्ववादी दृष्टियों का निषेध,शाश्वत आलोचना,अपरिवर्तनीय आलोचना की धारणा का निषेध है,ये 6स्कूल बताते हैं कि आलोचना परिवर्तनीय होती,आलोचना में बहुलता अंतर्निहित है,वह शाश्वत या रूढ या जड़ नहीं होती।परिवर्तन की प्रक्रिया भी एकायामी नहीं होती बल्कि बहुआयामी होती है। आनंदवर्धन मानते हैं एक शब्द के अनेक व्यंग्य अर्थ होते हैं।उसी तरह शब्द का वाच्य अर्थ एक नहीं बल्कि अनेक होते हैं,मसलन्, देह, शरीर दोनों का वाच्यार्थ एक ही नहीं है,बल्कि भिन्न- भिन्न हैं। राममूर्ति त्रिपाठी ने सही लिखा है ´शरीर´ एक सामान्य अर्थ व्यंजित करता है।जो ´देह´,´काम’, ´तन´सबका वाच्य है।यहां शरीर सामान्य है और देह,तन,काम आदि विशिष्ट है.बिम्ब में इसके प्रयोग से चारूता पैदा होती है।इस अर्थ में माना गया कि शब्द का वाच्य अर्थ एक ही नहीं होता बल्कि भिन्न होता है। शरीर और देह कहने को पर्यायवाची हैं लेकिन इनमें अर्थभिन्नता भी है,इसलिए कहा गया वाच्यार्थ एक ही प्रकार के नहीं होते।अपनी विशिष्टता के कारण वाच्य का अर्थ कभी सहृद्यश्लाघ्य होता है और कभी नहीं। इसलिए आनंदवर्धन ने कहा ´योsर्थःसहृद्यश्लाघ्यःकाव्यात्मेति व्यवस्थितः।वाच्यप्रतीयमानारव्यौ तस्य भेदावुभौ स्मृतौ।´
     संस्कृत काव्यशास्त्र का मॉडल एकल अवधारणा केन्द्रित है। लेकिन यह आलोचना में पूर्वापर संबंध मानते हुए विकास करता है।सतह पर आलोचना स्कूल में एक व्यक्ति का योगदान लगेगा लेकिन विस्तार में जाकर अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा उसमें एकाधिक आलोचकों की धारणाओं का उपयोग किया गया है, इस नजरिए से देखेंगे तो संस्कृत काव्यशास्त्र एकल नहीं सामूहिक रूप में निर्मित आलोचना स्कूल है।
     काव्यशास्त्रियों ने जो मॉडल चुने उनको देखें तो परिवर्तनों के नए क्षित्ज नजर आएंगे।मसलन् ,अलंकारशास्त्री भामह ने ´काव्यालंकार´में सबसे क्रांतिकारी अवधारणा दी,उन्होंने कहा ´शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्´,अर्थात् शब्द और अर्थ सम्मिलित रूप से एक ही काव्य के घटक होते हैं।भामह ने दूसरी महत्वपूर्ण क्रांतिकारी धारणा यह दी कि सभी काव्यतत्व अलंकार हैं।इसक्रम में उन्होंने उक्ति की वक्रता से लेकर,रीति,गुण,रस आदि सबको अलंकार में समायोजित कर लिया।यह समायोजन की कला असल में आलोचना को परंपरा से वर्तमान को जोड़ने की कला है।आलोचना कभी भी पूर्ववर्ती आलोचना के योगदान की अनदेखी करके अपना विकास नहीं करती।यही वह क्रांतिकारी समझ है जिसको सबसे पहले भामह ने प्रतिपादित किया।उसके बाद से समूची आलोचना आजतक इस नजरिए का पालन कर रही है।
     युगबदल गए,व्यवस्थाएं बदल गयीं,लेकिन आलोचना का परंपरा के साथ जो रिश्ता भामह ने तय किया वह अभी भी जारी है। एक अन्य चीज जो भामह ने की वह है सामान्य बोलचाल की भाषा से काव्यभाषा को अलग किया।सामान्य बोलचाल की भाषा से काव्यभाषा अलग होती है वक्रता के आधार पर।अभिव्यक्ति के बॉकपन को चारूता कहा गया,उसे रसवत् अलंकार की सज्ञा दी गयी।भाषा में साहित्य या काव्य के लिए वही मूल्यवान भाषा है जो लोकातिक्रान्त उक्ति है,जिसे काव्यशास्त्री अतिशयोक्ति कहते हैं।यही अतिशयोक्ति अलंकार का मूलाधार है। कालान्तर में इसे दण्डी ने काव्यशोभा के नाम से व्याख्यायित किया।भामह ने ´काव्यालंकार´लिखा तो रीति के आचार्य वामन ने ´काव्यालंकार-सूत्र´नामक ग्रंथ लिखा।यह ग्रंथ भामह के नजरिए को और ज्यादा विस्तार के साथ पेश करता है।इसमें ´अलंकार´ और ´अलंकार्य´में भेद किया गया है। वामन ने अपने नजरिए का भामह के नजरिए के साथ संबंध बनाते हुए बड़े कौशल के साथ आलोचना का विकास किया।वे अलंकार को ही सर्वस्व नहीं मानते।वे पहले आचार्य है जो गुण या संरचना को महत्वपूर्ण मानते हैं।उनका मानना है  काव्य में सौंदर्य के जनक तत्व गुण हैं क्योंकि इनके बिना काव्यशोभा असंभव है।वे अलंकारों के बिना भी शोभा-जनक होते हैं जबकि अलंकार गुणों के बिना नहीं हो सकते।लिखा है ´काव्य-शोभायाः कर्तारो धर्मा गुणाः।ये खलु शब्दारर्थयोर्धर्माः काव्यशोभां कुर्वन्ति ते गुणाः।´
      वामन ने भरत प्रतिपादित दस गुणों को ही अपने नजरिए का मूलाधार बनाया और उनको बीस गुणों में वर्गीकृत करके दस शब्द गुण और दस अर्थ गुण नाम दे दिया।यहां पर प्रतिपादन शैली या चीजें कैसे पेश की जाएं इस पर मुख्य जोर है।ये ही गुण वामन के यहां रीति का मूलाधार हैं।यह ´संरचना´की अवधारणा का प्रयोग करने वाला सबसे पहला सैद्धांतिक स्कूल है । वामन ने लिखा ´विशिष्ट पदरचना´ही रीति है।यहां वस्तुतःगुणों के समवाय का नाम रीति है।वामन के पास कई मायनों में भरत से विकसित नजरिया था,यह चीज उनके विवेकपूर्ण वर्गीकरण में नजर आती है।मसलन्,भरत के यहां दोषाभाव को सर्वप्रथम गुण माना गया है।जबकि वामन ने एकदम उलट जाकर कहा गुणाभाव दोष है।वामन पहले आलोचक हैं जो संतुलन से काम लेते हैं और रेखांकित करते हैं गुण रहते हुए भी दोष हो सकते हैं।दोष का अभाव एकदम दुर्लभ चीज है।इसी क्रम में वामन ने काव्य के स्वरूप पर लिखाकाव्यशब्दोSयं गुणालंकार संस्कृतयोःशब्दार्थयोर्वर्तते।भक्त्या तु शब्दार्थमात्रवचनोsत्न गृह्यते।´अर्थात् गुणालंकार-संपन्न शब्दार्थ ही काव्य है,लक्षणा से केवल शब्दार्थसंघात को काव्य कहा जाता है।
      सवाल उठता है वामन के यहां काव्य क्या है ॽ राममूर्ति त्रिपाठी ने लिखा ´लाक्षणिक रूप से शब्दार्थ-समूह काव्य है,पर मुख्यार्थ में काव्य किसे कहा जायॽअलंकार-रहित काव्य को मान्य करके वामन परिभाषा में अलंकार का ग्रहण क्यों करते हैंॽ गुण भी स्वरूपनिर्धारक तत्व नहीं,गुणहीन भी मनुष्य हो सकता है।वामन गुणों को ही काव्य का अंगसंघात मानते हैं।तब कहा जायगा कि अंगों(गुणों)की यथोचित योजना होनी चाहिए।,इस पर वामन का विचार क्षीण है।´ इसके अलावा त्रिपाठीजी ने सही रेखांकित किया है कि ´वामन कवि प्रयत्न के शैली पक्ष पर बल देकर विचार करते हैं।´ऱस´ पर खास जोर नहीं देते। वामन ने रीति के मूलाधार में गुणों  को महत्व न देकर रीतियों को महत्व दिया और यह उनके नजरिए का सबसे बड़ा अंतर्विरोध है।सवाल यह है जब वे गुणों को काव्य के लिए अनिवार्य मानते हैं तो उनको काव्यात्मा के रूप में गुणों की चर्चा करने की बजाय रीति को काव्यात्मा क्यों कहते हैं ॽ
     सवाल यह है ´काव्यात्मा´किसे कहते हैं ॽ संस्कृत काव्यशास्त्री इस सवाल पर विचार नहीं करते की काव्य का सर्वोत्तम तत्व क्या है ,बल्कि वे इस सवाल  पर विचार करते हैं काव्य-स्वरूप विवेचन में किसे प्राथमिकता दी जाय ॽ ´आत्मा´का यहां अलंकारिक तौर पर प्रयोग किया गया है। यह ´आत्मा´ काव्यशास्त्रियों के यहां एक जैसी नहीं है।काव्य-स्वरूप निर्धारण में उनकी प्राथमिकताएं एक जैसी नहीं हैं,बल्कि वे एक से अधिक चीजों को प्राथमिकता देते हैं।मसलन्, आनन्दवर्धन आरंभ में ध्वनि (व्यंग्य) को काव्यात्मा मानते हैं लेकिन बाद में अंग-संघटना को प्राथमिक मानते हुए अंग-संघटना की तुलना लावण्य से करते हैं।जबकि लावण्य तो गुण है,इसलिए काव्यात्मा तो गुण को मानना चाहिए।
      काव्यात्मा की समूची बहस एक ही चीज रेखांकित करती है कि काव्यात्मा में एकाधिक तत्व होते हैं,यानी काव्य-स्वरूप का विवेचन करते हुए अंतर्विषयवर्ती पद्धति से देखने की जरूरत है।आनंदवर्धन की तरह वक्रोक्तिजीवितम् कार ने अलंकार को काव्यात्मा माना,यानी उक्ति की वक्रता या अतिशयता को प्राथमिकता दी, यही बात भामह ने कही कि वक्रोक्ति अलंकारों का मूलाधार है।ठीक यही काम दण्डी ने किया, उन्होंने लिखा ´काव्य-शोभा-करान्-धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते´, यानी दण्डी अलंकार का फलक व्यापक बनाते हैं और उसमें गुण,रस,रीति,रस आदि सबको समाहित कर लेते हैं।जबकि वामन ने गुण और अलंकार में अन्तर किया।उन्होंने अलंकार को बहिर्भूत तत्व माना।जबकि गुण को कृति में विशिष्टता अदा करने वाला तत्व माना।शब्दकृत और अर्थकृत विशिष्टता पैदा करने में गुण की केन्द्रीय भूमिका होती है। इसी के आधार पर लेखक विशिष्ट पद रचना करता है और यही रीतियों का आधार है।इसलिए रीतियों पर नजर रखो। इसी तरह आनंदवर्धन ने ध्वनिमत में रीति का विरोध नहीं किया।बल्कि रीतियाँ सभी काव्शास्त्रियों के यहां मान्य हैं।इसी तरह वामन भी रसविरोधी आचार्य नहीं हैं वे रस का विस्तृत विवेचन ´कान्ति´गुण में करते हैं।उनके अनुसार सरस रीतियाँ दो ही हैं-वैदर्भी और गौडी।रसेतर वस्तुओ के वर्णन के लिए उन्होंने पांचाली रीति को प्रमुखता दी है।इसी प्रकार ध्वनिकार ने तीन सन्दर्भों में ´काव्यात्मा´ का प्रयोग किया है।लिखा है-
1.काव्यस्यात्मा ध्वनिः।यानी ध्वनि ही काव्य सार है।जो काव्य को काव्येतर से पृथक करता है।
2.काव्यस्यात्मा स एवार्खस्तथा चादिकवेःपुरा।
 क्रौंचद्वंद्वं-वियोगोत्थःशोकःश्लोकत्वमागतः।
यहां पर रस को ही काव्यात्मा माना है।अभिनवगुप्त ने इस पर लिखा  वस्तु और अलंकार ध्वनियाँ रस-परिणत होकर ही चमत्कार लाती हैं,फिर भी ´वाच्य´अर्थ से विशिष्टता के कारण उन्हें ´जीवित´माना गया है।´जीवित´यानी आत्मा अर्थात् श्रेष्ठ माना गया है।
3.अर्थःसहृदयश्लाघ्यःकाव्यात्मा यो व्यवस्थितः।
वाच्य-प्रतीयमानाख्यौ तस्य भेदावुमौ स्मृतौ।।
उपरोक्त की व्याख्या करते हुए अभिनवगुप्त ने साफ लिखा कि वाच्य भाग काव्यात्मा नहीं है।प्रतीयमान अर्थ ही काव्यात्मा है।वे मानते हैं सहृदय का चरम प्राप्य तो प्रतीयमान अर्थ ही है।
आचार्य कुन्तक ने ´आत्मा´के स्थान पर ´जीवित´का प्रयोग किया,यह उनके ग्रंथ के नाम ´वक्रोक्तिजीवितम्´से ही स्पष्ट है।कुन्तक ने ´जीवित´का तीन संदर्भों में इस्तेमाल किया है।वे ग्रंथ के आरंभ में ही घोषित कर देते हैं कि अलंकार ही काव्य-स्वरूप-निर्धारक हैं।इसको वे वक्रता के परिप्रेक्ष्य से व्याख्यायित करते हैं।इसमें वे कविकौशल को उभारते हैं।कवि कौशल के कारण ही रस,स्वभाव और अलंकार इन तीनों में सामंजस्य स्थापित करने में मदद मिलती है।जबकि क्षेमेन्द्र ध्वनिवादी होकर भी ´औचित्य´ को ´काव्यजीवित´मानते हैं।
  इस समूचे विमर्श में मुख्य चीज है बोलचाल की भाषा और प्रस्तुतियों से काव्यभाषा और उसकी प्रस्तुतियों को अलग करना।यही वह बिंदु है जहां से समूचा काव्यशास्त्र विकसित हुआ।इस क्रम में कविता क्या है और उसको कैसे पेश किया जाय,किन उपकरणों के जरिए रचा जाय आदि सवालों पर मूलतःविचार किया गया। काव्य प्रस्तुति के एकाधिक रूपों का निर्माण किया गया, रेखांकित किया गया कि दैनंदिन बोलचाल की भाषा से काव्यभाषा को भिन्न होना चाहिए,उसको व्याकरण की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए।जबकि बोलचाल की भाषा में हम इस पहलू का ख्याल नहीं रखते। बोलचाल की भाषा में आमतौर पर भाषा और विवेकवाद के अन्तस्संबंध का ख्याल रखा जाता है,सिर्फ असामान्य स्थितियों में भाषा और विवेकवाद के संबंध से विचलन नजर आता है,लेकिन सामान्य स्थितियों में यह संबंध बनाए रखते हैं।लेकिन काव्यभाषा का जो मॉडल काव्यशास्त्रियों ने विकसित किया उसमें रूढियों,रूढ़िगत प्रतिमानों आदि के प्रयोग की जो परंपरा आरंभ हुई उसने भाषा और अविवेकवाद के अन्तस्संबंध को बड़े पैमाने पर विकसित किया।यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से काव्यभाषा और काव्यशास्त्र का आम लेखकों और पाठकों से अलगाव आरंभ होता है। क्रमशःकाव्यशास्त्र के विकास के साथ संस्कृत का जीवन से अलगाव बढ़ा,संस्क-त लेखकों का अलगाव गहरा हुआ, फलतःजीवन की समस्याओं से कविता दूर होती चली गयी। 
     काव्यभाषा में प्रयुक्त रूढिगत प्रतिमानों और रूढिगत भाषिक प्रयोगों का गहरा संबंध लेखक के दिमाग की बनाबट से भी है।कवियों ने कभी जीवन के ज्वलंत प्रश्नों को कविता में नहीं उठाया,ये लोग काव्यरूपों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी सृष्टि करने में इस कदर  मशगूल रहे और यह भूल गए कि जो रच रहे हैं उसका यथार्थ से संबंध टूट चुका है।फलतःकाव्यभाषा में काव्य-रूढ़ियों का ढ़ेर लग गया।इसका गंभीर परिणाम यह निकला कि भाषा और सामाजिकचेतना में अलगाव बढ़ा।काव्यभाषा से संवेदनाएं और भावुकता गायब होती चली गयी,सब कुछ परिष्कृत सजी-संवरी भाषा में आने लगा।भाषा के अमूर्त्तन में कवि खो गया।कवियों के यहां काव्यभाषा के वे ही रूप प्रचलन में रह गए जो उनके ज्ञान-भंडार का हिस्सा थे यथार्थजीवन की नई भाषा और नए शब्दों का काव्यभाषा में न्यूनतम प्रवेश हुआ।यह एक तरह का काव्यभाषा में व्याप्त अविवेकवाद है इसका समाज में प्रचलित अंधविश्वास,पुनर्जन्म और कर्मफल के सिद्धात से वैचारिक तौर पर गहरा संबंध है,इस पहलू की ओर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ´मध्यकालीन बोध का स्वरूप´किताब में ध्यान खींचा है। कहने का आशय यह है संस्कृत की काव्यभाषा के रूप में अपनी विचारधारात्मक परिणतियां भी हैं जिनकी आलोचकों ने अनदेखी की है।काव्यभाषा के रूप में इन लोगों ने ऐसी भाषा रची है जो रहस्यात्मक,रूढिबद्ध और अविवेकवादी है।
      संस्कृत की काव्य भाषा में भाषा और जीवन का अंतराल इस हद तक फैला हुआ है कि काव्यरूढियों और यथार्थरूपों के बीच कोई संगति नहीं है।यानी लेखक  जिस भाषा में लिख रहा है और जिस भाषा में जी रहा है उसके बीच में महा-अंतराल है।मसलन्,किसी लेखक ने लिख दिया कि चकवा-चकवी रात में एक-दूसरे से नहीं मिलते तो हमने मान लिया,कभी उसने यथार्थ में यह जानने की कोशिश ही नहीं की क्या वास्तव में ऐसा होता है ! काव्यभाषा के रूप में यांत्रिक विचारधारारहित भाषा का पीढ़ी-दर-पीढ़ी उत्पादन होता रहा,कभी इस पर रोककर विचार नहीं किया गया,यही वजह है कि संस्कृत काव्यशास्त्र काव्यभाषा और विवेकवाद के अन्तस्संबंध से जुड़े सवालों पर दार्शनिक और व्यवहारिक तौर पर विचार नहीं करता।वहां सिर्फ काव्य प्रस्तुति पर जोर है,प्रस्तुति की प्राथमिकताओं पर बहस है।वे यह जानने की कोशिश नहीं करते कि आम जनता के बीच में या सहृदय के बीच में इस तरह की भाषिक प्रस्तुतियों का क्या असर हो रहा है।वह सहृदय के काव्यभाषा से बढ़ रहे अलगाव को नोटिस ही नहीं लेते। इसके चलते काव्यभाषा में लगातार बेहतरीन प्रयोगों की बाढ़ आ गयी लेकिन इन प्रयोगों का आम जनता और सहृदय के साथ अपरिचय रहा।इस प्रक्रिया में ऐसी काव्यभाषा ने जन्म लिया जिसे अपरिचित भाषा कहना समीचीन होगा।
      कला या काव्य का मूल लक्ष्य है सचेत अनुभवों को बरकरार रखना,उनको पुख्ता बनाना,लेकिन काव्यभाषा के इस तरह के रूढिगत,परंपरागत प्रयोगों ने जीवनानुभवों से भाषा को पूरी तरह काट दिया। सैंकड़ों साल हम इस तरह के प्रयोगों को संस्कृतकाव्य में देखते हैं।नए-नए अलंकार,छंद और रूपकों की सृष्टि ने यांत्रिक भाषा को समृद्ध किया,यह ऐसी भाषा है जिसमें सम-सामयिक युग नदारत है।सम-सामयिक परिस्थितियां नदारत हैं।इसने संस्कृत के लेखकों की आदत में शामिल भाषा के रूपों और प्रयोगों का उत्पादन और पुनरूत्पादन बहुत किया।
       संस्कृत काव्यशास्त्रियों की आलोचना का मूल ढांचा कुछ इस प्रकार है- मसलन्,वे पहले चिर-परिचित अवधारणाओं को उठाते हैं फिर उससे भिन्न प्रस्तुति रूपों को पेश करते हैं।इस तरह वे पहले वाली धारणाओं के प्रति अपनी सचेतनता प्रकट करते हैं लेकिन नए रूपों के जरिए अवधारणात्मक भेद पैदा करते हैं।इस क्रम में काव्य प्रस्तुति के अनेक विकल्प पेश करते हैं।इस क्रम में वे काव्यशास्त्र के नए सिद्धांत को निर्मित करते हैं। आलोचनात्मक हायरार्की को निर्मित करते हैं।आलोचना में हायरार्की सबसे खराब तत्व है।हायरार्की का प्रवेश कुछ तरह होता है,मसलन्,प्रचलित अवधारणा को पेश करते हुए अप्रासंगिक बनाओ और उसके स्थान पर नई अवधारणा पेश करो,पुरानी अवधारणा को अपनी धारणा के अंग के रूप में पेश करो और नई धारणा को प्राथमिकता से पेश करो।आलोचना में इस क्रम में नई धारणा प्राथमिक और पुरानी धारणा गौण होती चली गयी,यही वह समस्या है जिसने आलोचना में भेद की संस्कृति को जन्म दिया।इस तरह की प्रस्तुति का प्रधान लक्ष्य था प्रस्तुत विषय को चमत्कृत भाव से नई अवधारणा में पेश करना।नई अवधारणा पेश करते समय आलोचक पुरानी अवधारणा का जिक्र करना नहीं भूलता,इसके जरिए वह आलोचना में परंपरा क्रम को बनाए रखता है।यह एक तरह से आलोचना परंपरा को पेश करने का यह भाववादी ढ़ंग है क्योंकि पुरानी आलोचना का विवेचन करते हुए अचानक वह नई अवधारणा पेश करता है,नई अवधारणा में उसका हठात् स्थानान्तरण और पुरानी अवधारणा के वर्चस्व से अपने को मुक्त करना वस्तुतःअपनी परंपरा से पृथक करना है।यह नया रचने का मनोविज्ञान भी है।प्रस्तुति के नए रूपों की निरंतर खोज वस्तुतःनए को तो पेश करती है साथ ही ´सामंजस्य´के ऊपर बल देती है।जब भी नई आलोचना जन्म लेती है तो नए सिरे से सामंजस्य बिठाने की कोशिश करती है,समूचे साहित्यिक ढांचे का पुनर्मूल्यांकन करते हुए सामंजस्य बिठाने की कोशिश करती है।इस क्रम में नए वर्गीकरण,नए किस्म के रूपगत प्रभुत्व और नए काल विभाजन को भी जन्म देती है।यहां परंपरा का विकास वंशानुगत भाव से होता है।वे जिस नए की बात करते हैं वह पहले से परंपरा में उपलब्ध होता है ,चाहे वो गैर-महत्व का हो।यही वजह है  आलोचना परंपरा में ´वंश´ की अवधारणा को वे बचाए रखते हैं।यही वजह है हमारे यहां वही नया मान्य है जो पहले परंपरा में हो,चाहे उपेक्षित हो।ऐसा नया जल्दी स्वीकार्य नहीं होता जो परंपरा के बाहर से आया हो।इसने आलोचना में ठहराव को पैदा किया, आलोचना में नया तो आया लेकिन उसमें बदलाव की क्षमता नहीं थी।यही वजह है  आलोचना में नए तत्व दाखिल तो होते हैं लेकिन देर से,तब तक वे अप्रासंगिक हो चुके होते हैं।
   काव्यशास्त्र पर विचार करते हुए हमें तयशुदा निष्कर्ष निकाले वाली पद्धति से बचना चाहिए।आलोचना का काम पहले से लिखे हुए को बताभर देना नहीं  है,आलोचना की समस्या यह है कि उपलब्ध काव्यशास्त्रीय अवधारणाओं का पुनर्मूल्यांकन करे,उसके अंदर की दरारों या अंतरालों का उद्घाटन करे। आलोचना को पुराने मानकों के आधार पर न देखे।आलोचना पुरानी हो लेकिन उसके परखने के पैमाने आधुनिक होने चाहिए।पुरानी आलोचना यदि नए मानकों पर खरी उतरती है तो उसकी धारणाओं का नई अंतर्वस्तु के साथ इस्तेमाल करना चाहिए।इसके लिए जरूरी है कि प्रत्येक धारणा को नए सिरे से आलोचना की कसौटी पर कसा जाय।पुरानी और नई आलोचना में कहां संवाद हो सकता है उन बिंदुओं को निर्धारित किया जाय।हमें इस सवाल पर भी सोचना चाहिए कि साहित्यालोचकों ने काव्यशास्त्र का उपयोग क्यों बंद कर दिया  ॽ जबकि यूरोप में आज भी कोई भी आलोचनात्मक विमर्श अरस्तू,प्लेटो आदि के बिना नहीं होता।लेकिन हिन्दी में त्रासदी है कि काव्यशास्त्र का अंत घोषित कर दिया गया ।इसे परंपरा के साथ असंतुलन कहें तो बेहतर होगा। संस्कृत काव्यशास्त्र में पुनरावृत्ति बहुत है।उससे बचा जाना
एक अन्य समस्या यह है कि अधिकांश आलोचकों के केन्द्र में काव्य है,अन्य विधाओं में इस आलोचना का कैसे प्रयोग होगा इस पर विचार नहीं हुआ।महाकाव्य,प्रबन्ध काव्य आदि को केन्द्र में रखकर आलोचना का समूचा ढांचा बनाया गया । नाटक,संस्कृत गद्य आदि पर विचार नहीं किया गया। दृश्य माध्यम को आधार बनाकर भरत ने नाट्यशास्त्र रचा लेकिन काव्यशास्त्रियों ने बिना कारण बताए दृश्य के नियमों को श्रव्य पर लागू कर दिया। सवाल उठता है क्या  दृश्य के नियम श्रव्य पर लागू होते हैं ॽ











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