काव्यशास्त्र की प्रमुख समस्या है नए अर्थ की
खोज।नए अर्थ की खोज के लिए आलोचकों ने रूपतत्वों को मूलाधार बनाया,जबकि
वास्तविकता यह है कि नया अर्थ रूप में नहीं समाज में होता है।रूप के जरिए नए अर्थ
की खोज के कारण संस्कृतकाव्यशास्त्र भाववादी दर्शन की गिरफ्त में चला गया।इसके लिए
रूपकेन्द्रित मॉडल को चुना गया,समाज को अर्थ की खोज में शामिल ही नहीं
किया गया। इस अर्थ में काव्यशास्त्र का समूचा कार्य-व्यापार रूपों तक ही सिमटकर रह
गया।मसलन् ,संस्कृत के किसी आलोचक ने किसी कृति का विस्तार
के साथ मूल्यांकन नहीं किया।इसके कारण संस्कृत काव्यशास्त्र आरंभ से ही एक समस्या
रही है वह रूपों के प्रयोगों का शास्त्र है।नए-नए रूपों की खोज और निर्माण की
जितनी कोशिशें काव्यशास्त्रियों ने की हैं उतनी कोशिशें उन्होंने नई अंतर्वस्तु को
खोजने में नहीं की। काव्यशास्त्र की सबसे सुंदर बात यह है कि इसके सभी स्कूल
आवयविक तौर पर एक-दूसरे से जुड़े हैं।
मसलन्,आरंभ रस से हुआ,जो अलंकार,रीति,
ध्वनि
और वक्रोति सिद्धांत तक पहुँचा ।पूर्ववर्ती आलोचना से नई आलोचना अपने को अलग तो
करती है लेकिन पुराने को अंदर समेटे रहती है। नई और पुरानी आलोचना में अंतर्कियाएं
चलती रहती हैं।इस तरह काव्यशास्त्र में
आवयविक एकता बनाए रखते हैं। यह आवयविक एकता बेहद जटिल है।इसमें सामाजिक यथार्थ के
सत्य गुंथे हुए हैं।दिलचस्प बात यह है कि सतह पर विभिन्न आलोचना स्कूलों में जो
भेद दिखते हैं वे मूलतःरूपों के प्रयोगों को लेकर हैं।लेकिन इनमें भेदों में युगीन
वैचारिक अंतर्विरोध चले आए हैं।
काव्यशास्त्र के रूपों के विवाद में जाने का अर्थ है भाषिक संरचनाओं में
प्रवेश करना और भाषिक संरचनाओं के भेद के जरिए अर्थभेद की खोज करना।यही वजह है
शब्दार्थ सबके यहां अपनी सुनिश्चित जगह बनाए रखता है।पुराने काव्यशास्त्रियों ने
प्रभावशाली भाषा के प्रयोग पर खासतौर पर जोर दिया है। राममूर्ति त्रिपाठी के
अनुसार प्रभावशाली भाषा का जन्म होता है प्रयुक्त शब्द में ´क्षमता´भर
देने से।इसी ´क्षमता´को काव्यशास्त्रियों ने ´व्यंजना´कहा
है।इसी ´क्षमता´को ´आत्मा´कहते हैं। यहां
प्रभावी का अर्थ यह है कि रचनाकार की ´क्षमता´के सामने सारे
नियम नत-मस्तक रहें।रचनाकार वही है जो विशिष्ट अर्थ की सृष्टि करे।´सामान्य´अर्थ
की उक्ति को रचना नहीं कहते।´सामान्य´जब तक ´विशिष्ट´से
मंडित होकर सामने नहीं आता तब तक रचना प्रभावशाली नहीं बनती।यह शास्त्र रचना में
अंतर्निहित अर्थ की विभिन्न स्कूलों के जरिए खोज तो करता है।रचना में अंतर्निहित
अर्थ को उद्घाटित करता है, लेकिन भाववादी नजरिए से।
आलोचना का काम में रचना में छिपे तत्वों की खोज करना,साथ ही सत्य की
खोज करना।रचना में जिस तरह सत्य छिपा रहता है उसी तरह झूठ भी छिपा रहता है।संस्कृत
काव्यशस्त्रियों ने छिपे अर्थ को खोजा लेकिन सत्य को नहीं खोजा,वे
झूठ को ही बार बार बताते रहे।जिनको साहित्यिक रूढ़ियां कहा जाता है वे असल में
आलोचना के झूठ हैं।प्रत्येक आलोचना स्कूल ने अपने तरीके से इन रूढ़ियों को निर्मित
किया,ज्योंही आलोचना रूढ़ि बनने लगी,नए आलोचना स्कूल
का जन्म हुआ,उसने भी नए पर जोर दिया लेकिन सत्य को स्थापित
नहीं किया,फलतःवह भी एक अवधि के बाद रूढि बन गया।
काव्यशास्त्रियों की आयरनी यह है कि वे अर्थ खोजते हैं,सत्य
नहीं ।सत्य से रहित आलोचना क्रमशःप्रासंगिकता खो देती है। संस्कृत की रचनाकार और
आलोचक दोनों के साथ यह मुश्किल यह है कि वे सत्य से जुड़े सवालों को सम्बोधित ही
नहीं करते। इसी तरह हर रचना में अनेक स्तर होते हैं। आलोचक अपने तरीके से इन
स्तरों पर विचरण करता है,आलोचना लिखता है।इस क्रम में प्रत्येक
स्तर पर छिपे अर्थ की खोज करता है।सवाल यह है छिपे को खोजते समय वह सत्य को क्यों
नहीं खोजता ॽ वह काल्पनिक चीजों और काल्पनिक अर्थों की विभिन्न रूपों में व्याख्या
करने पर क्यों जोर देता है ॽ इसका एक ही उत्तर है काव्यशास्त्री और लेखक दोनों का
समाज से अलगाव है।वे समाज से कटे हुए हैं। इसलिए वहां रचना के सुंदर प्रयोग
मिलेंगे,सुंदर संरचनाएं मिलेंगी,नए-नए छंदों,अलंकारों और नई
चमत्कृत करने वाली भाषा मिलेगी लेकिन सत्य को खोजने की कोई पहल दिखाई नहीं देगी।वे
कल्पना में निपुण हैं लेकिन कल्पना के साथ समाज के संबंध को लेकर अनभिज्ञ हैं।
रूप और विचारधारा- संस्कृत काव्यशास्त्र को
सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक परिस्थितियों को जोड़कर देखने से सतह पर लगता है कि उसकी
भौतिकवादी व्याख्या हो गयी,लेकिन वस्तुतःयह व्याख्या किसी खास
निष्कर्ष पर नहीं पहुँचाती।इसमें रचना के रूपो का अक्षय भंडार है अभिव्यक्ति के
लिए अनंत विकल्प हैं।सवाल उठता है रूपों के विकल्पों पर इतना क्यों जोर दिया गया ॽ
क्या रूप-संरचना की कोई विचारधारा होती है ॽइस प्रसंग में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह
है रूप का सामाजिक आधार क्या है ॽदिलचस्प
बात है भरत से लेकर पण्डित जगन्नाथ कविराज तक रूप का आधार भाषा है। भरत ने लिखा ´छन्दोहीनो
न शब्दोस्ति नछन्दःशब्दवर्जितम्´ यानी उन्होंने शब्दमात्र को छन्द
माना।इस क्रम में उन्होंने छन्द और शब्द को अन्योन्याश्रित माना।भरत ने 36काव्यलक्षण,
10काव्यदोष,
इनके
अभाव में 10काव्यगुण,4अलंकार आदि का
विवेचन किया।´प्रवृत्ति´का जिक्र किया
जिसे कालान्तर में ´रीति´के नाम से विस्तार दिया।इसके अलावा रस
और उसके विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से विचार किया।
किसी भी कृति और उसकी रूप-संरचनाओं का आस्वाद पाठक सुनिश्चित सांस्कृतिक
परिस्थितियों और सांस्कृतिक परंपराओं में रहकर ही लेता है,ये परंपराएं
लगातार बदलती रही हैं,इनको सांस्कृतिक आदतें कहें तो समीचीन
होगा।सांस्कृतिक आदतों के निर्माण की प्रक्रिया विचारधारा से बनती है लेकिन
क्रमशःविचारधारा से मुक्त हो जाती है,जिसे हिन्दी वाले संस्कार भी कहते
हैं।सवाल यह है कि आदतों और रूपों के बीच की अन्तर्क्रिया को कैसे देखें ॽ हमने
भाषा,रूप और विचारधारा पर तो विचार भी किया है लेकिन आदतों के संदर्भ में
विचार नहीं किया है।सच्चाई यह है भरत ने जिन तत्वों की नाट्य के संदर्भ में
व्याख्या की,जिन धारणाओं का प्रतिपादन किया उन सभी ने एक
तरह से रचना और आलोचना में काव्य संस्कार के रूप में जगह को बना ली। आलोचना की
धारणाएं जब काव्यशास्त्र की परंपरा में आईं तो वे संस्कार के रूप में आईं,नए
काव्यरूपों को भी इन्ही आदतों के फ्रेमवर्क में विकसित किया गया। इनमें सतह पर
एक-दूसरे की मूल मान्यताओं को अपदस्थ करने की कोशिश दिखती है लेकिन पुराने रूपों
और अवधारणाओं को समाहित करते हुए।इससे काव्यशास्त्र में नई ऊर्जा का संचार हुआ
है।काव्यशास्त्र के नए रूप और नई अवधारणाएं सामने आईं।ये वस्तुतःआलोचना के नए
ऊर्जा स्रोत हैं,पुरानी अवधारणाएं जब ऊर्जारहित होने लगीं तो
आलोचकों ने नए ऊर्जा स्रोत खोजे और उस क्रम में नए सिद्धांत सामने आए।इन तमाम
परिवर्तनों की मुख्य विशेषता यह है रूप-तत्व ही मूलाधार है।रूप –तत्व
को सजाने-संवारने में जितनी ऊर्जा खर्च की गयी वह प्रशंसनीय है और सारी समस्याओं,
आलोचनात्मक
जड़ता या रूढ़िगत प्रतिमानों और रूढ़िगत लक्षणों का गोमुख भी यही
है।प्रच्छन्नतःसंकेत है कि आलोचना शाश्वत नहीं, परिवर्तनीय है।
संस्कृत काव्यशास्त्र की धुरी है ´रस´,इसके ही आधार पर
सारी धारणाएं काव्य के संदर्भ में निर्मित की गयीं।पुरानी धारणाओं पर सवाल उठाए गए,उन
सवालों को खासतौर पर उठाया गया जो अनदेखे थे। नए आलोचना स्कूल सामने आए।आलोचना में
परम्परा शुरू हुई।लेकिन मुख्य जोर नई अवधारणों की खोज पर था।पुरानी आलोचना के सभी
पहलुओं पर निरंतर हर आलोचक ने बात की है लेकिन उसका मुख्य लक्ष्य है नए की ओर
चलो।सतह पर विभिन्न आलोचना स्कूल पुराने रूपों की आलोचना करते हैं लेकिन उनका मूल
जोर नए रूप तत्व की खोज पर है।सारे आलोचक अपनी एकल धारणा पर जोर देते हैं।किसी के
लिए रस प्रमुख है,किसी के लिए अलंकार प्रमुख,किसी
के लिए रीति,किसी के लिए वक्रोक्ति।इस क्रम में रस के बाद
जो धारणाएं आई हैं वे अपने साथ किसी न किसी तरह की शब्द इमेज लेकर आईं।मसलन्,अलंकार,रीति,ध्वनि
और वक्रोक्ति में भाषिक इमेज महत्वपूर्ण है।इस क्रम में बड़े पैमाने पर प्रतीकों
और बिम्बों की रचनाकारों ने सृष्टि की। सभी आलोचना स्कूल विस्तार से जब अपनी धारणाओं
का विवेचन करते हैं तो उस समय प्रतीक-बिम्ब आदि का सबसे ज्यादा प्रयोग करते हैं।इस
क्रम में वे अपरिवर्तनीयता के नियम को चुनौती देते हैं,गैर-द्वंद्वांतमक
चीजों को चुनौती देते हैं।इस तरह संस्कृत काव्यशास्त्र में रूप महज रूप के तौर पर
नहीं आते,बल्कि रूपों के बहाने शाश्वत आलोचना की अवधारणा खंडित होती
है।प्रत्येक स्कूल निष्पन्न ढ़ंग से आलोचना की अवधारणाओं और उसके रूपों पर विचार
करता है लेकिन अगला आलोचक उस निष्पन्नता को ही निशाना बनाता है,फलतःआलोचना
में परिवर्तन का नियम दाखिल हो जाता है।संस्कृत आलोचना में ´आत्मा´की
खोज मूलतःगैर-द्वंद्ववादी दृष्टियों का निषेध,शाश्वत आलोचना,अपरिवर्तनीय
आलोचना की धारणा का निषेध है,ये 6स्कूल बताते हैं
कि आलोचना परिवर्तनीय होती,आलोचना में बहुलता अंतर्निहित है,वह
शाश्वत या रूढ या जड़ नहीं होती।परिवर्तन की प्रक्रिया भी एकायामी नहीं होती बल्कि
बहुआयामी होती है। आनंदवर्धन मानते हैं एक शब्द के अनेक व्यंग्य अर्थ होते हैं।उसी
तरह शब्द का वाच्य अर्थ एक नहीं बल्कि अनेक होते हैं,मसलन्, देह,
शरीर
दोनों का वाच्यार्थ एक ही नहीं है,बल्कि भिन्न- भिन्न हैं। राममूर्ति
त्रिपाठी ने सही लिखा है ´शरीर´ एक सामान्य अर्थ
व्यंजित करता है।जो ´देह´,´काम’, ´तन´सबका
वाच्य है।यहां शरीर सामान्य है और देह,तन,काम आदि विशिष्ट
है.बिम्ब में इसके प्रयोग से चारूता पैदा होती है।इस अर्थ में माना गया कि शब्द का
वाच्य अर्थ एक ही नहीं होता बल्कि भिन्न होता है। शरीर और देह कहने को पर्यायवाची
हैं लेकिन इनमें अर्थभिन्नता भी है,इसलिए कहा गया वाच्यार्थ एक ही प्रकार
के नहीं होते।अपनी विशिष्टता के कारण वाच्य का अर्थ कभी सहृद्यश्लाघ्य होता है और
कभी नहीं। इसलिए आनंदवर्धन ने कहा ´योsर्थःसहृद्यश्लाघ्यःकाव्यात्मेति
व्यवस्थितः।वाच्यप्रतीयमानारव्यौ तस्य भेदावुभौ स्मृतौ।´
संस्कृत काव्यशास्त्र का मॉडल एकल अवधारणा केन्द्रित है। लेकिन यह आलोचना
में पूर्वापर संबंध मानते हुए विकास करता है।सतह पर आलोचना स्कूल में एक व्यक्ति
का योगदान लगेगा लेकिन विस्तार में जाकर अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा उसमें एकाधिक
आलोचकों की धारणाओं का उपयोग किया गया है, इस नजरिए से देखेंगे तो संस्कृत
काव्यशास्त्र एकल नहीं सामूहिक रूप में निर्मित आलोचना स्कूल है।
काव्यशास्त्रियों ने जो मॉडल चुने उनको देखें तो परिवर्तनों के नए क्षित्ज
नजर आएंगे।मसलन् ,अलंकारशास्त्री भामह ने ´काव्यालंकार´में
सबसे क्रांतिकारी अवधारणा दी,उन्होंने कहा ´शब्दार्थौ सहितौ
काव्यम्´,अर्थात् शब्द और अर्थ सम्मिलित रूप से एक ही काव्य के घटक होते
हैं।भामह ने दूसरी महत्वपूर्ण क्रांतिकारी धारणा यह दी कि सभी काव्यतत्व अलंकार
हैं।इसक्रम में उन्होंने उक्ति की वक्रता से लेकर,रीति,गुण,रस
आदि सबको अलंकार में समायोजित कर लिया।यह समायोजन की कला असल में आलोचना को परंपरा
से वर्तमान को जोड़ने की कला है।आलोचना कभी भी पूर्ववर्ती आलोचना के योगदान की
अनदेखी करके अपना विकास नहीं करती।यही वह क्रांतिकारी समझ है जिसको सबसे पहले भामह
ने प्रतिपादित किया।उसके बाद से समूची आलोचना आजतक इस नजरिए का पालन कर रही है।
युगबदल गए,व्यवस्थाएं बदल गयीं,लेकिन आलोचना का
परंपरा के साथ जो रिश्ता भामह ने तय किया वह अभी भी जारी है। एक अन्य चीज जो भामह
ने की वह है सामान्य बोलचाल की भाषा से काव्यभाषा को अलग किया।सामान्य बोलचाल की
भाषा से काव्यभाषा अलग होती है वक्रता के आधार पर।अभिव्यक्ति के बॉकपन को चारूता
कहा गया,उसे रसवत् अलंकार की सज्ञा दी गयी।भाषा में साहित्य या काव्य के लिए
वही मूल्यवान भाषा है जो लोकातिक्रान्त उक्ति है,जिसे काव्यशास्त्री
अतिशयोक्ति कहते हैं।यही अतिशयोक्ति अलंकार का मूलाधार है। कालान्तर में इसे दण्डी
ने काव्यशोभा के नाम से व्याख्यायित किया।भामह ने ´काव्यालंकार´लिखा
तो रीति के आचार्य वामन ने ´काव्यालंकार-सूत्र´नामक
ग्रंथ लिखा।यह ग्रंथ भामह के नजरिए को और ज्यादा विस्तार के साथ पेश करता है।इसमें
´अलंकार´ और ´अलंकार्य´में भेद किया
गया है। वामन ने अपने नजरिए का भामह के नजरिए के साथ संबंध बनाते हुए बड़े कौशल के
साथ आलोचना का विकास किया।वे अलंकार को ही सर्वस्व नहीं मानते।वे पहले आचार्य है
जो गुण या संरचना को महत्वपूर्ण मानते हैं।उनका मानना है काव्य में सौंदर्य के जनक तत्व गुण हैं क्योंकि
इनके बिना काव्य—शोभा असंभव है।वे अलंकारों के बिना भी शोभा-जनक
होते हैं जबकि अलंकार गुणों के बिना नहीं हो सकते।लिखा है ´काव्य-शोभायाः
कर्तारो धर्मा गुणाः।ये खलु शब्दारर्थयोर्धर्माः काव्यशोभां कुर्वन्ति ते गुणाः।´
वामन ने भरत प्रतिपादित दस गुणों को ही अपने नजरिए का मूलाधार बनाया और
उनको बीस गुणों में वर्गीकृत करके दस शब्द गुण और दस अर्थ गुण नाम दे दिया।यहां पर
प्रतिपादन शैली या चीजें कैसे पेश की जाएं इस पर मुख्य जोर है।ये ही गुण वामन के
यहां रीति का मूलाधार हैं।यह ´संरचना´की अवधारणा का
प्रयोग करने वाला सबसे पहला सैद्धांतिक स्कूल है । वामन ने लिखा ´विशिष्ट
पदरचना´ही रीति है।यहां वस्तुतःगुणों के समवाय का नाम रीति है।वामन के पास
कई मायनों में भरत से विकसित नजरिया था,यह चीज उनके विवेकपूर्ण वर्गीकरण में
नजर आती है।मसलन्,भरत के यहां दोषाभाव को सर्वप्रथम गुण माना गया
है।जबकि वामन ने एकदम उलट जाकर कहा गुणाभाव दोष है।वामन पहले आलोचक हैं जो संतुलन
से काम लेते हैं और रेखांकित करते हैं गुण रहते हुए भी दोष हो सकते हैं।दोष का
अभाव एकदम दुर्लभ चीज है।इसी क्रम में वामन ने काव्य के स्वरूप पर लिखा,´काव्यशब्दोSयं
गुणालंकार –संस्कृतयोःशब्दार्थयोर्वर्तते।भक्त्या तु
शब्दार्थमात्रवचनोsत्न गृह्यते।´अर्थात्
गुणालंकार-संपन्न शब्दार्थ ही काव्य है,लक्षणा से केवल शब्दार्थसंघात को काव्य
कहा जाता है।
सवाल उठता है वामन के यहां काव्य क्या है ॽ राममूर्ति त्रिपाठी ने लिखा ´लाक्षणिक
रूप से शब्दार्थ-समूह काव्य है,पर मुख्यार्थ में काव्य किसे कहा
जायॽअलंकार-रहित काव्य को मान्य करके वामन परिभाषा में अलंकार का ग्रहण क्यों करते
हैंॽ गुण भी स्वरूपनिर्धारक तत्व नहीं,गुणहीन भी मनुष्य हो सकता है।वामन
गुणों को ही काव्य का अंगसंघात मानते हैं।तब कहा जायगा कि अंगों(गुणों)की यथोचित
योजना होनी चाहिए।,इस पर वामन का विचार क्षीण है।´ इसके
अलावा त्रिपाठीजी ने सही रेखांकित किया है कि ´वामन कवि –प्रयत्न
के शैली पक्ष पर बल देकर विचार करते हैं।´ऱस´ पर खास जोर नहीं
देते। वामन ने रीति के मूलाधार में गुणों
को महत्व न देकर रीतियों को महत्व दिया और यह उनके नजरिए का सबसे बड़ा
अंतर्विरोध है।सवाल यह है जब वे गुणों को काव्य के लिए अनिवार्य मानते हैं तो उनको
काव्यात्मा के रूप में गुणों की चर्चा करने की बजाय रीति को काव्यात्मा क्यों कहते
हैं ॽ
सवाल यह है ´काव्यात्मा´किसे कहते हैं ॽ
संस्कृत काव्यशास्त्री इस सवाल पर विचार नहीं करते की काव्य का सर्वोत्तम तत्व
क्या है ,बल्कि वे इस सवाल पर विचार
करते हैं काव्य-स्वरूप विवेचन में किसे प्राथमिकता दी जाय ॽ ´आत्मा´का
यहां अलंकारिक तौर पर प्रयोग किया गया है। यह ´आत्मा´ काव्यशास्त्रियों
के यहां एक जैसी नहीं है।काव्य-स्वरूप निर्धारण में उनकी प्राथमिकताएं एक जैसी
नहीं हैं,बल्कि वे एक से अधिक चीजों को प्राथमिकता देते हैं।मसलन्, आनन्दवर्धन
आरंभ में ध्वनि (व्यंग्य) को काव्यात्मा मानते हैं लेकिन बाद में अंग-संघटना को
प्राथमिक मानते हुए अंग-संघटना की तुलना लावण्य से करते हैं।जबकि लावण्य तो गुण है,इसलिए
काव्यात्मा तो गुण को मानना चाहिए।
काव्यात्मा की समूची बहस एक ही चीज रेखांकित करती है कि काव्यात्मा में
एकाधिक तत्व होते हैं,यानी काव्य-स्वरूप का विवेचन करते हुए
अंतर्विषयवर्ती पद्धति से देखने की जरूरत है।आनंदवर्धन की तरह वक्रोक्तिजीवितम्
कार ने अलंकार को काव्यात्मा माना,यानी उक्ति की वक्रता या अतिशयता को
प्राथमिकता दी, यही बात भामह ने कही कि वक्रोक्ति अलंकारों का
मूलाधार है।ठीक यही काम दण्डी ने किया, उन्होंने लिखा ´काव्य-शोभा-करान्-धर्मान्
अलंकारान् प्रचक्षते´, यानी दण्डी अलंकार का फलक व्यापक बनाते हैं और
उसमें गुण,रस,रीति,रस आदि सबको समाहित कर लेते हैं।जबकि
वामन ने गुण और अलंकार में अन्तर किया।उन्होंने अलंकार को बहिर्भूत तत्व माना।जबकि
गुण को कृति में विशिष्टता अदा करने वाला तत्व माना।शब्दकृत और अर्थकृत विशिष्टता
पैदा करने में गुण की केन्द्रीय भूमिका होती है। इसी के आधार पर लेखक विशिष्ट पद
रचना करता है और यही रीतियों का आधार है।इसलिए रीतियों पर नजर रखो। इसी तरह
आनंदवर्धन ने ध्वनिमत में रीति का विरोध नहीं किया।बल्कि रीतियाँ सभी
काव्शास्त्रियों के यहां मान्य हैं।इसी तरह वामन भी रसविरोधी आचार्य नहीं हैं वे
रस का विस्तृत विवेचन ´कान्ति´गुण में करते हैं।उनके अनुसार सरस
रीतियाँ दो ही हैं-वैदर्भी और गौडी।रसेतर वस्तुओ के वर्णन के लिए उन्होंने पांचाली
रीति को प्रमुखता दी है।इसी प्रकार ध्वनिकार ने तीन सन्दर्भों में ´काव्यात्मा´
का
प्रयोग किया है।लिखा है-
1.काव्यस्यात्मा ध्वनिः।यानी ध्वनि ही काव्य सार
है।जो काव्य को काव्येतर से पृथक करता है।
2.काव्यस्यात्मा स एवार्खस्तथा चादिकवेःपुरा।
क्रौंचद्वंद्वं-वियोगोत्थःशोकःश्लोकत्वमागतः।
यहां पर रस को ही काव्यात्मा माना
है।अभिनवगुप्त ने इस पर लिखा वस्तु और
अलंकार ध्वनियाँ रस-परिणत होकर ही चमत्कार लाती हैं,फिर भी ´वाच्य´अर्थ
से विशिष्टता के कारण उन्हें ´जीवित´माना गया है।´जीवित´यानी
आत्मा अर्थात् श्रेष्ठ माना गया है।
3.अर्थःसहृदयश्लाघ्यःकाव्यात्मा यो व्यवस्थितः।
वाच्य-प्रतीयमानाख्यौ तस्य भेदावुमौ स्मृतौ।।
उपरोक्त की व्याख्या करते हुए अभिनवगुप्त ने
साफ लिखा कि वाच्य भाग काव्यात्मा नहीं है।प्रतीयमान अर्थ ही काव्यात्मा है।वे मानते
हैं सहृदय का चरम प्राप्य तो प्रतीयमान अर्थ ही है।
आचार्य कुन्तक ने ´आत्मा´के
स्थान पर ´जीवित´का प्रयोग किया,यह उनके ग्रंथ
के नाम ´वक्रोक्तिजीवितम्´से ही स्पष्ट है।कुन्तक ने ´जीवित´का
तीन संदर्भों में इस्तेमाल किया है।वे ग्रंथ के आरंभ में ही घोषित कर देते हैं कि
अलंकार ही काव्य-स्वरूप-निर्धारक हैं।इसको वे वक्रता के परिप्रेक्ष्य से
व्याख्यायित करते हैं।इसमें वे कविकौशल को उभारते हैं।कवि कौशल के कारण ही रस,स्वभाव
और अलंकार इन तीनों में सामंजस्य स्थापित करने में मदद मिलती है।जबकि क्षेमेन्द्र
ध्वनिवादी होकर भी ´औचित्य´ को ´काव्यजीवित´मानते
हैं।
इस
समूचे विमर्श में मुख्य चीज है बोलचाल की भाषा और प्रस्तुतियों से काव्यभाषा और
उसकी प्रस्तुतियों को अलग करना।यही वह बिंदु है जहां से समूचा काव्यशास्त्र विकसित
हुआ।इस क्रम में कविता क्या है और उसको कैसे पेश किया जाय,किन उपकरणों के
जरिए रचा जाय आदि सवालों पर मूलतःविचार किया गया। काव्य प्रस्तुति के एकाधिक रूपों
का निर्माण किया गया, रेखांकित किया गया कि दैनंदिन बोलचाल की भाषा
से काव्यभाषा को भिन्न होना चाहिए,उसको व्याकरण की कसौटी पर खरा उतरना
चाहिए।जबकि बोलचाल की भाषा में हम इस पहलू का ख्याल नहीं रखते। बोलचाल की भाषा में
आमतौर पर भाषा और विवेकवाद के अन्तस्संबंध का ख्याल रखा जाता है,सिर्फ
असामान्य स्थितियों में भाषा और विवेकवाद के संबंध से विचलन नजर आता है,लेकिन
सामान्य स्थितियों में यह संबंध बनाए रखते हैं।लेकिन काव्यभाषा का जो मॉडल
काव्यशास्त्रियों ने विकसित किया उसमें रूढियों,रूढ़िगत
प्रतिमानों आदि के प्रयोग की जो परंपरा आरंभ हुई उसने भाषा और अविवेकवाद के
अन्तस्संबंध को बड़े पैमाने पर विकसित किया।यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से
काव्यभाषा और काव्यशास्त्र का आम लेखकों और पाठकों से अलगाव आरंभ होता है।
क्रमशःकाव्यशास्त्र के विकास के साथ संस्कृत का जीवन से अलगाव बढ़ा,संस्क-त
लेखकों का अलगाव गहरा हुआ, फलतःजीवन की समस्याओं से कविता दूर
होती चली गयी।
काव्यभाषा में प्रयुक्त रूढिगत प्रतिमानों और रूढिगत भाषिक प्रयोगों का गहरा
संबंध लेखक के दिमाग की बनाबट से भी है।कवियों ने कभी जीवन के ज्वलंत प्रश्नों को
कविता में नहीं उठाया,ये लोग काव्यरूपों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी सृष्टि
करने में इस कदर मशगूल रहे और यह भूल गए
कि जो रच रहे हैं उसका यथार्थ से संबंध टूट चुका है।फलतःकाव्यभाषा में काव्य-रूढ़ियों
का ढ़ेर लग गया।इसका गंभीर परिणाम यह निकला कि भाषा और सामाजिकचेतना में अलगाव
बढ़ा।काव्यभाषा से संवेदनाएं और भावुकता गायब होती चली गयी,सब कुछ परिष्कृत
सजी-संवरी भाषा में आने लगा।भाषा के अमूर्त्तन में कवि खो गया।कवियों के यहां
काव्यभाषा के वे ही रूप प्रचलन में रह गए जो उनके ज्ञान-भंडार का हिस्सा थे
यथार्थजीवन की नई भाषा और नए शब्दों का काव्यभाषा में न्यूनतम प्रवेश हुआ।यह एक
तरह का काव्यभाषा में व्याप्त अविवेकवाद है इसका समाज में प्रचलित अंधविश्वास,पुनर्जन्म
और कर्मफल के सिद्धात से वैचारिक तौर पर गहरा संबंध है,इस पहलू की ओर
हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ´मध्यकालीन बोध का स्वरूप´किताब
में ध्यान खींचा है। कहने का आशय यह है संस्कृत की काव्यभाषा के रूप में अपनी
विचारधारात्मक परिणतियां भी हैं जिनकी आलोचकों ने अनदेखी की है।काव्यभाषा के रूप
में इन लोगों ने ऐसी भाषा रची है जो रहस्यात्मक,रूढिबद्ध और
अविवेकवादी है।
संस्कृत की काव्य भाषा में भाषा और जीवन का अंतराल इस हद तक फैला हुआ है कि
काव्यरूढियों और यथार्थरूपों के बीच कोई संगति नहीं है।यानी लेखक जिस भाषा में लिख रहा है और जिस भाषा में जी
रहा है उसके बीच में महा-अंतराल है।मसलन्,किसी लेखक ने लिख दिया कि चकवा-चकवी
रात में एक-दूसरे से नहीं मिलते तो हमने मान लिया,कभी उसने यथार्थ
में यह जानने की कोशिश ही नहीं की क्या वास्तव में ऐसा होता है ! काव्यभाषा के रूप
में यांत्रिक विचारधारारहित भाषा का पीढ़ी-दर-पीढ़ी उत्पादन होता रहा,कभी
इस पर रोककर विचार नहीं किया गया,यही वजह है कि संस्कृत काव्यशास्त्र
काव्यभाषा और विवेकवाद के अन्तस्संबंध से जुड़े सवालों पर दार्शनिक और व्यवहारिक
तौर पर विचार नहीं करता।वहां सिर्फ काव्य प्रस्तुति पर जोर है,प्रस्तुति
की प्राथमिकताओं पर बहस है।वे यह जानने की कोशिश नहीं करते कि आम जनता के बीच में
या सहृदय के बीच में इस तरह की भाषिक प्रस्तुतियों का क्या असर हो रहा है।वह सहृदय
के काव्यभाषा से बढ़ रहे अलगाव को नोटिस ही नहीं लेते। इसके चलते काव्यभाषा में
लगातार बेहतरीन प्रयोगों की बाढ़ आ गयी लेकिन इन प्रयोगों का आम जनता और सहृदय के
साथ अपरिचय रहा।इस प्रक्रिया में ऐसी काव्यभाषा ने जन्म लिया जिसे अपरिचित भाषा
कहना समीचीन होगा।
कला या काव्य का मूल लक्ष्य है सचेत अनुभवों को बरकरार रखना,उनको
पुख्ता बनाना,लेकिन काव्यभाषा के इस तरह के रूढिगत,परंपरागत
प्रयोगों ने जीवनानुभवों से भाषा को पूरी तरह काट दिया। सैंकड़ों साल हम इस तरह के
प्रयोगों को संस्कृतकाव्य में देखते हैं।नए-नए अलंकार,छंद और रूपकों
की सृष्टि ने यांत्रिक भाषा को समृद्ध किया,यह ऐसी भाषा है
जिसमें सम-सामयिक युग नदारत है।सम-सामयिक परिस्थितियां नदारत हैं।इसने संस्कृत के
लेखकों की आदत में शामिल भाषा के रूपों और प्रयोगों का उत्पादन और पुनरूत्पादन
बहुत किया।
संस्कृत काव्यशास्त्रियों की आलोचना का मूल ढांचा कुछ इस प्रकार है- मसलन्,वे
पहले चिर-परिचित अवधारणाओं को उठाते हैं फिर उससे भिन्न प्रस्तुति रूपों को पेश
करते हैं।इस तरह वे पहले वाली धारणाओं के प्रति अपनी सचेतनता प्रकट करते हैं लेकिन
नए रूपों के जरिए अवधारणात्मक भेद पैदा करते हैं।इस क्रम में काव्य प्रस्तुति के
अनेक विकल्प पेश करते हैं।इस क्रम में वे काव्यशास्त्र के नए सिद्धांत को निर्मित
करते हैं। आलोचनात्मक हायरार्की को निर्मित करते हैं।आलोचना में हायरार्की सबसे
खराब तत्व है।हायरार्की का प्रवेश कुछ तरह होता है,मसलन्,प्रचलित
अवधारणा को पेश करते हुए अप्रासंगिक बनाओ और उसके स्थान पर नई अवधारणा पेश करो,पुरानी
अवधारणा को अपनी धारणा के अंग के रूप में पेश करो और नई धारणा को प्राथमिकता से
पेश करो।आलोचना में इस क्रम में नई धारणा प्राथमिक और पुरानी धारणा गौण होती चली
गयी,यही वह समस्या है जिसने आलोचना में भेद की संस्कृति को जन्म दिया।इस
तरह की प्रस्तुति का प्रधान लक्ष्य था प्रस्तुत विषय को चमत्कृत भाव से नई अवधारणा
में पेश करना।नई अवधारणा पेश करते समय आलोचक पुरानी अवधारणा का जिक्र करना नहीं
भूलता,इसके जरिए वह आलोचना में परंपरा क्रम को बनाए रखता है।यह एक तरह से
आलोचना परंपरा को पेश करने का यह भाववादी ढ़ंग है क्योंकि पुरानी आलोचना का विवेचन
करते हुए अचानक वह नई अवधारणा पेश करता है,नई अवधारणा में उसका हठात् स्थानान्तरण
और पुरानी अवधारणा के वर्चस्व से अपने को मुक्त करना वस्तुतःअपनी परंपरा से पृथक
करना है।यह नया रचने का मनोविज्ञान भी है।प्रस्तुति के नए रूपों की निरंतर खोज
वस्तुतःनए को तो पेश करती है साथ ही ´सामंजस्य´के ऊपर बल देती
है।जब भी नई आलोचना जन्म लेती है तो नए सिरे से सामंजस्य बिठाने की कोशिश करती है,समूचे
साहित्यिक ढांचे का पुनर्मूल्यांकन करते हुए सामंजस्य बिठाने की कोशिश करती है।इस
क्रम में नए वर्गीकरण,नए किस्म के रूपगत प्रभुत्व और नए काल विभाजन
को भी जन्म देती है।यहां परंपरा का विकास वंशानुगत भाव से होता है।वे जिस नए की
बात करते हैं वह पहले से परंपरा में उपलब्ध होता है ,चाहे वो
गैर-महत्व का हो।यही वजह है आलोचना परंपरा
में ´वंश´ की अवधारणा को वे बचाए रखते हैं।यही वजह है
हमारे यहां वही नया मान्य है जो पहले परंपरा में हो,चाहे उपेक्षित
हो।ऐसा नया जल्दी स्वीकार्य नहीं होता जो परंपरा के बाहर से आया हो।इसने आलोचना
में ठहराव को पैदा किया, आलोचना में नया तो आया लेकिन उसमें
बदलाव की क्षमता नहीं थी।यही वजह है
आलोचना में नए तत्व दाखिल तो होते हैं लेकिन देर से,तब तक वे
अप्रासंगिक हो चुके होते हैं।
काव्यशास्त्र पर विचार करते हुए हमें तयशुदा निष्कर्ष निकाले वाली पद्धति
से बचना चाहिए।आलोचना का काम पहले से लिखे हुए को बताभर देना नहीं है,आलोचना की समस्या यह है कि उपलब्ध
काव्यशास्त्रीय अवधारणाओं का पुनर्मूल्यांकन करे,उसके अंदर की
दरारों या अंतरालों का उद्घाटन करे। आलोचना को पुराने मानकों के आधार पर न
देखे।आलोचना पुरानी हो लेकिन उसके परखने के पैमाने आधुनिक होने चाहिए।पुरानी
आलोचना यदि नए मानकों पर खरी उतरती है तो उसकी धारणाओं का नई अंतर्वस्तु के साथ
इस्तेमाल करना चाहिए।इसके लिए जरूरी है कि प्रत्येक धारणा को नए सिरे से आलोचना की
कसौटी पर कसा जाय।पुरानी और नई आलोचना में कहां संवाद हो सकता है उन बिंदुओं को
निर्धारित किया जाय।हमें इस सवाल पर भी सोचना चाहिए कि साहित्यालोचकों ने
काव्यशास्त्र का उपयोग क्यों बंद कर दिया
ॽ जबकि यूरोप में आज भी कोई भी आलोचनात्मक विमर्श अरस्तू,प्लेटो
आदि के बिना नहीं होता।लेकिन हिन्दी में त्रासदी है कि काव्यशास्त्र का अंत घोषित
कर दिया गया ।इसे परंपरा के साथ असंतुलन कहें तो बेहतर होगा। संस्कृत काव्यशास्त्र
में पुनरावृत्ति बहुत है।उससे बचा जाना
एक अन्य समस्या यह है कि अधिकांश आलोचकों के
केन्द्र में काव्य है,अन्य विधाओं में इस आलोचना का कैसे प्रयोग होगा
इस पर विचार नहीं हुआ।महाकाव्य,प्रबन्ध काव्य आदि को केन्द्र में रखकर
आलोचना का समूचा ढांचा बनाया गया । नाटक,संस्कृत गद्य आदि पर विचार नहीं किया
गया। दृश्य माध्यम को आधार बनाकर भरत ने नाट्यशास्त्र रचा लेकिन काव्यशास्त्रियों
ने बिना कारण बताए दृश्य के नियमों को श्रव्य पर लागू कर दिया। सवाल उठता है
क्या दृश्य के नियम श्रव्य पर लागू होते
हैं ॽ
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