रस पर इन दिनों तकरीबन बातें नहीं हो रही हैं।जबकि रसशास्त्र ने 18सौ साल तक रचना और आलोचना को प्रभावित किया,हमारे सौंदर्यबोध के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की ।सवाल यह है कि वह अचानक गायब कैसे हो गया ? क्या रस आज भी प्रासंगिक है ? क्या रसशास्त्र के जरिए नाटक, साहित्य और समाज का नया मूल्यांकन संभव है ? बकौल नामवर सिंह “रसःजस का तस या बस ?” हमें इस लक्ष्मणरेखा का मूल्यांकन करना चाहिए।अनेकबार अकादमिक आलस्य के कारण हम परंपरा में जाना बंद कर देते हैं और यही बड़ी वजह है कि रस पर हमने बातें बंद कर दी हैं।
सवाल उठता है रचना लिखने के बाद और रचना लिखने के दौरान लेखक अपनी रचना का आनंद लेता है या नहीं ? कुछ कह रहे हैं रचना लिखने के बाद रचना स्वायत्त हो जाती है। यह भी कहा जा रहा है कि रचना कभी स्वायत्त नहीं होती,वह पाठक से हमेशा जुड़ी रहती है,पाठक के आत्मगतबोध से जुड़ी रहती है। सृजन के बाद लेखक से रचना अपने को स्वायत्त कर लेती है , लेखक अपनी रचना का लिखने के दौरान आस्वाद भी लेता है लेकिन असल आस्वाद तो पाठक लेता है। लेखक को तो लिखकर ही शांति मिलती है,सुख मिलता है। रचना कैसी है यह तो पाठक ही बेहतर ढ़ंग से बता सकता है। संस्कृत कवि कहते हैं कवि को तो सहृदय की अवस्था में ही आनंद की प्राप्ति होती है।लेखक लिखता जरुर है लेकिन लेखन के सार का आनंद तो सहृदय लेता है। इस नजरिए से देखें तो संस्कृत का कवि रचना को ‘एक तैयार माल’ मानकर चलता है।इससे रचना का गतिशील आनंद उपेक्षित होता है। मसलन्,इसमें भोक्ता के आनंद का तो महत्व है लेकिन कवि के आनंद का कोई महत्व नहीं है। जबकि लेखक लिखते समय आनंद लेता है और रचना के संपूर्ण होने के बाद भी आनंद लेता है।इस प्रक्रिया में रचना के गतिशील पक्ष की उपेक्षा होती है और रचना के बाह्य स्थिर या जड़ उपकरणों के साज-संवार पर लेखक ज्यादा जोर देने लगता है।
आज लेखक के सामने सामाजिक सरोकारों को व्यक्त करने की चुनौती है,लेकिन इस तरह की कोई चुनौती रसयुग में नहीं थी,रसयुग में तो रचनाकार का एकमात्र लक्ष्य था रसग्राही सहृदय जुगाड़ करना और लेखक को अजर-अमर बनाने के सूत्रों की खोज करना। इसलिए उसने रचना बाह्य उपकरणों के सजाने-संवारने पर ज्यादा ध्यान दिया। नए विषयों की खोज पर कम ध्यान दिया।फलतः रचना में बड़े पैमाने पर अभिव्यक्ति के नए उपकरणों का सृजन तो हुआ लेकिन नई विषयवस्तु का प्रवेश नहीं हो पाया।इसने रचना के उपकरणों का निर्वैक्तिक तंत्र निर्मित किया। यह ऐसा तंत्र है जिसका सतह पर समाज से कोई संबंध नजर नहीं आता लेकिन गहराई में जाकर देखें तो रचना के उपकरणों के निर्वैयक्तिक तंत्र का गहरा संबंध वस्तुतःराज दरबार,राजस्तुति,सुभाषित और समाज की अगतिशीलता के साथ है।इस प्रक्रिया में सर्जना के गतिशील पक्ष की ओर लेखक ने ध्यान देना ही जरुरी नहीं समझा। यही वह बिंदु है जहाँ से खड़े होकर कवि के निरंकुश भावबोध का जन्म होता है। कवि निरंकुश होता है यह धारणा जन्म लेती है।
रचना में बाह्य उपकरणों,रुढ़िगत प्रतिमानों और सरस विषयों का आग्रह रहेगा तो कवि के निरंकुश होने की संभावनाएं ज्यादा होंगी।खासकर जब लेखक भावविशेष पर ही केन्द्रित होकर बार-बार रचना लिखेगा तो उसके रुपवादी होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। कहने के लिए नौ रस थे लेकिन लिखा गया श्रृंगार रस पर ही,खोज-खोज कर उससे संबंधित विषयों पर नई शैली,नई भाषा,नए अलंकारों में रचनाएं लिखी गयीं इसके कारण आलोचना में रुपवादी रुझानों का आरंभ हुआ। साहित्य और समाज के बीचमें अलगाव की सृष्टि हुई।लेखक और प्रकृति में अलगाव का आरंभ हुआ। “समग्रालक्ष्मी” की अवधारणा से क्रमशःलेखक दूर होता चला गया। आरंभ में समग्र व्यक्ति के बोध पर जोर था लेकिन बाद में व्यक्ति के भावविशेष पर जोर दिया गया।शास्त्रज्ञान पर जोर दिया गया।पहले प्रकृति को जानने और चित्रित करने पर जोर था बाद में शास्त्र जानने पर जोर दिया गया।इसके कारण आलोचना में रुपवादी तत्वों की जमकर सृष्टि हुई।
पहले लेखक के लिए प्रकृति प्रमुख थी,बाद में लेखक को ब्रह्मानंद सहोदर कहा गया,बाद में इन सबसे दूर निकलकर लेखक ने स्थिर विषयों और परब्रह्म के रुपों पर लिखना आरंभ करना दिया ।इस क्रम में मनुष्य उपेक्षित हो गया परंपराएं निर्जीव हो गयीं और रचना के बाह्य उपकरण प्रमुख हो गए। रचनाकार के अंदर आए इन बदलावों का रचनाकार के सामाजिक नजरिए से गहरा संबंध है। रचनाकार पहले प्रकृति से जुड़ने के कारण समाज से जुड़ा हुआ था,बाद में ज्योंही उसने दरबार की ओर रुख किया वह प्रकृति से कट गया और अभिव्यक्ति के लिए उसने रुढ़िबद्ध रुपों को अपना लिया,साहित्य में यहीं से स्टीरियोटाइप चीजों का प्रवेश होता है। उसके इस तरह के रुख का एक अन्य कारण था लेखक का मूल्यबोध और सामाजिक सरोकारों का अभाव।यह भी सच्चाई है कि संस्कृत में कोई विद्रोही कवि नहीं हुआ और न विद्रोही साहित्य ही लिखा गया। इन दोनों के अभाव के कारण के रुप में हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अंधविश्वास,कर्मफल के सिद्धांत और पुनर्जन्म की धारणा के असर को जिम्मेदार ठहराया।
सवाल यह है इन मूल्यों और विचारों का लोकभाषा के साहित्य और कवियों पर असर क्यों नहीं पड़ा ? जनभाषाओं में ऐसे लेखक है जिनकी रचनाओं में अंधविश्वास,कर्मफल के सिद्धांत आदि का न्यूनतम असर है। जबकि संस्कृत के लेखकों में व्यापक असर है। उन लेखकों पर इन मूल्यों का ज्यादा असर था जिन्होंने अपने लिए विषयवस्तु “रामायण” और “महाभारत” से चुनी। क्योंकि इन दोनों महाकाव्यों में अंधविश्वास आदि से जुड़ी बातें बड़ी संख्या में नजर आती हैं। इस प्रसंग में हमें देखना चाहिए कि लेखक रचना के लिए विषय कहां से चुनता है ? लोकभाषाओं के अनेक लेखकों ने साहित्यिक रुढ़ियों और रुढ़िगत प्रतिमानों का जमकर विरोध किया और अभिव्यक्त के लिए संस्कृत परंपरा से भिन्न विकल्पों की खोज की, “रामायण” और “महाभारत” जैसे महाकाव्यों से विषय न चुनकर जीवन से विषय चुने। यही वजह है उनके साहित्य में संस्कृत साहित्य की तुलना में सर्जनात्मकता का विकास बेहतर ढ़ंग से हुआ। उनके साहित्य को आम जनता में जनप्रियता मिली। इसके विपरीत संस्कृत साहित्य शिक्षित संस्कृत समाज तक ही सीमित रहा।इसका एक आशय यह भी है कि संस्कृत के लेखकों पर अंधविश्वास,पुनर्जन्म और कर्मफल के सिद्धांत का ज्यादा असरथा।यही वजह है कि वहां साहित्यिक रूढ़ियों का व्यापक रूप में विकास हुआ।
इसके अलावा संस्कृत के अधिकांश लेखक आस्तिक थे ,फलतःउनमें स्वतंत्र चिन्तन के प्रति कोई आग्रह या पहल नजर नहीं आती। साहित्य में स्वतंत्र चिन्तन,नए विषय पर लिखने की इच्छा का लेखक के स्वतंत्र भावबोध से गहरा संबंध है। लोकभाषाओं के लेखकों ने स्वतंत्र चिन्तन का परिचय देते हुए कविता के फॉर्म से जुड़े रुपों को चुनौती दी। यह भी कह सकते हैं कि लोकभाषा के कवियों में संस्कृतकाव्य के फॉर्म से बाहर निकलकर लिखने की जो छटपटाहट है वह असल में उनके अंदर सामाजिक और दार्शनिक बंधनों से बाहर निकलने की स्वतंत्र चिंतन की प्रक्रिया से जुड़ी है। इनमें अनेक लेखक ऐसे भी हैं जो ईश्वर के परंपरागत रुप को सीधे चुनौती देते हैं।
संस्कृत काव्य लेखकों को धर्मशास्त्र प्रभावित कर रहा था जबकि लोकभाषा के लेखकों में धर्मशास्त्र के प्रति बगावत के भाव नजर आते हैं।धार्मिक और सामाजिक रुढ़ियों के प्रति बगावत नजर आती है।वे ईश्वर और राजा की सत्ता बनाए रखते हैं,लेकिन काव्य जगत में परिवर्तन की लहर पैदा कर देते हैं। कहने का अर्थ यह है कि संस्कृत साहित्य के लेखक और लोकभाषा साहित्य के लेखक के नजरिए में बुनियादी अंतर है।इसका अर्थ यह भी है मध्यकाल में साहित्य की कई परंपराएं थीं।इन परंपराओं में गहरे वैचारिक अंतर्विरोध हैं,इन परंपराओं से जुड़े लेखकों के नजरिए,साहित्य प्रयोजन,सामाजिक आधार और सामाजिक सरोकार भिन्न हैं।
संस्कृत लेखक की बौद्धिक-सांस्कृतिक संरचना और लोकभाषा लेखक की बौद्धिक-सांस्कृतिक संरचना की धुरी है उनकी समाजदृष्टि।संस्कृतलेखक हमेशा राजा को इकाई मानकर लिखते रहे।जबकि जनभाषा के लेखकों ने भगवान को आधार बनाकर लिखा। इसलिए राजा बनाम भगवान का द्वंद्व वहां सहज ही देख सकते हैं। संस्कृत लेखकों ने राजा की आड़ में सामाजिक-दार्शनिक अंतर्विरोधों को छिपाने की कोशिश की वहीं जनभाषा के लेखको ने भगवान के बहाने सामाजिक-दार्शनिक अंतर्विरोधों और सामाजिक पीड़ाओं को चित्रित किया। संस्कृत के लेखक के नजरिया रस और काव्यनियमों से संचालित है।
रस और काव्यनियम वस्तुतः धर्मशास्त्रीय मूल्यों और मान्यताओं के आवरण का काम करते हैं। रस के नाम पर वह वस्तुतःमध्यकालीन रूढ़ियों का पल्लवन हुआ।खासकर 5वीं शताब्दी के बाद से यह प्रवृत्ति ज्यादा प्रबल रुप में सामने आती है। इसके कारण संस्कृत लेखकों का साहित्यबोध और साहित्यशिल्प दोनों प्रभावित हुए।साहित्य को शाश्वत मानने की धारणा बलवती हुई।अधिकांश कवियों ने कविता के शिल्प पर इस कदर जोर दिया कि लेखक के विचारों में स्वतंत्र पहलकदमी एकदम खत्म हो गयी, अब लेखक गढ़िया होकर रह गया। यह गढ़िया लेखक भावहीन शिल्प-साधना में निरंतर बढ़ता चला गया।फलतः अभिव्यक्ति के वास्तविक रुपों और विषयों के ऊपर से उसकी पकड़ एकसिरे से खत्म हो गयी।यह ऐसा लेखक है जिस पर जीवन की यथार्थ घटनाओं का कोई असर नजर नहीं आता। वह जीवन की सच्चाई को न तो देखता है और न उससे प्रभावित ही होता है।
संस्कृत के लेखकों ने जिन विषयों पर लिखा है उससे कुछ समय तक पाठक का मनोरंजन तो होता है लेकिन इस तरह के साहित्य का समाज पर कोई असर नहीं पड़ता।इस तरह के साहित्य को ही वे लोग “शाश्वत साहित्य”, “शाश्वत चिंतन” और “शाश्वत मूल्य” कहते हैं। इन लेखकों ने बड़े पैमाने साहित्यिक और कलात्मक रचनाओं के सिद्धांत,नियम और संरचना की विधियों को खोजने का प्रयत्न किया। आंचलिक,व्यक्तिपरक,देशज सांकृस्तिक रुपों का बहिष्कार किया।रचनाओं में “प्रतिनिधि” और “सार्वभौम” की बड़े पैमाने पर सृष्टि की।सामान्य चरित्रों को न्यूनतम स्थान दिया।मसलन्, राजा जिस भाषा में बोलता है वह उसी में बोलेगा,आमजन जिस भाषा में बोलते हैं,वे उसी भाषा में बोलेगा ।राजा को राजा की तरह और रंक को जनभाषा में बोलना चाहिए।यह भी धारणा रही है कि “प्रतिनिधि” और “सार्वभौम” चरित्रों के रुपायन से ही महान साहित्य की सृष्टि होती है।इसी समझ ने शास्त्रीय रचनाओं के अनुकरण करने पर जोर दिया।फलतः सामाजिक यथार्थ से संस्कृत साहित्य का संपर्क संबंध कट गया। यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसमें रस सिद्धांत का जन्म और विकास हुआ।
नामवर सिंह ने ‘रसःजस का तस या बस?’ इस शीर्षक से एक सम्पादकीय ‘आलोचना’ (जनवरी-मार्च1990)में लिखा था,यह उनकी किताब ‘कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता’(2010) में शामिल है। उल्लेखनीय है “कविता के नये प्रतिमान” में नामवरजी ने 1968 में पहलीबार रस पर विचार किया था उसके बाद 1990 में उनकी नजर रस पर पड़ी। देखना यह है कि उनके नजरिए में रस के के प्रसंग में क्या बदलाव आया ? “कविता के नये प्रतिमान” में नामवरजी ने प्रतिमान के रूप में रस की पुनर्व्याख्या या पुनरूद्धार को अप्रासंगिक माना है,महत्वपूर्ण माना है आस्वाद प्रक्रिया और कविता की अर्थमीमांसा को।क्या आस्वाद के सवाल बदले हैं ?क्या आस्वाद की प्रक्रिया में बदलाव आया है ?क्या कविता वही है जो 1968 में थी? कविता के चरित्र में किस तरह का परिवर्तन आया है ? क्या 1968 में नामवरजी के जो विचार थे वे 1990 में बने रहे या बदल गए ? नामवरजी ने अभिनवगुप्त की रस संबंधित समझ का व्यापक उपयोग किया है और भरत वर्णित रसों से भिन्न शांतरस की ओर ध्यान खींचा है, लेकिन लिखा नहीं।
‘रसःजस का तस या बस?’ शीर्षक लेख में नामवरजी ने कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं। उनमें पहली बात यह कि ‘चिन्तन के क्षेत्र में पूर्वजों से उऋण होने का एक तरीका यह है कि उनकी मान्यताओं की पुनःप्रस्तुति स्वयं उनकी प्रस्तुति से बेहतर की जाए।’ इस क्रम में नामवरजी ने प्रो.अशोक रामचन्द्र केलकर के ‘प्राचीन भारतीय साहित्य मीमांसा’में प्रस्तुत रस संबंधी विचारों को पेश किया है।नामवरजी के लेख के शीर्षक में प्रश्नवाचक चिह्न अर्थपूर्ण है। यह अनेक रास्ते खोलता है।इस लेख में केलकरजी के विचारों को जस का तस रख दिया गया है ,वहीं दूसरी ओर संभावनाओं के लिए रास्ता खुला छोड़ा गया है। नामवरजी ने लिखा है ‘बेडेकर ने रस-विमर्श की उस प्रचलित प्रवृत्ति पर प्रहार किया था,जिसमें रस की चर्चा एक ‘मनोवैज्ञानिक सिद्धांत’ के रूप में की जा रही थी।इसके विपरीत बेडेकर ने इस प्रस्थान-बिन्दु से अपनी चिन्तन-यात्रा का प्रारम्भ किया कि रस-व्यवस्था ‘कलास्वरूप शास्त्रों’का भारतीय प्रमेय है और विशिष्ट सांस्कृतिक सन्दर्भ में ही उसके सच्चे स्वरूप की पहचान सम्भव है।’(कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता,2010,पृ.11)
नामवरजी ने केलकर के विचारों को अधूरे ढ़ंग से पेश किया है उसके कारण रस पर सुसंगत नजरिया बनाने में मदद कम मिलती है।लेकिन नामवरजी की स्वयं की टिप्पणियां काफी महत्वपूर्ण हैं।नामवरजी ने लिखा ‘कहने की आवश्यकता नहीं कि अन्य कल्पकथाओं की तरह नाट्योत्पत्ति की इस देवासुर-कथा में भी ‘नाट्यवेद’निहित है।नाट्यवेद अर्थात् नाट्य सिद्धांत।इसलिए समस्या एक ‘मिथक’ के ऊपर दूसरा ‘मिथक’ गढ़ने की नहीं,बल्कि उसी ‘मिथक’ को उधेड़ने की है।कल्पसृष्टि एक और पुनर्निर्माण नहीं चाहती,मीमांसा माँगती है।आज की भाषा में कहें तो ‘रिकंस्ट्रक्शन’ नहीं ,’डिकंस्ट्रक्शन’।असंगतियों के बीच सुसंगति लगाने से कहीं ज्यादा जरूरी है सुसंगत प्रतीत होनेवाली रचना में छिपी हुई असंगतियों का उद्घाटन।’(वही,पृ.15)
सवाल यह है नाटक हो या यज्ञ हो,देवासुर संग्राम पर कल्पसृष्टि हो या रसों के सृजन की समस्या हो इसका लक्ष्य क्या है ?यदि हम ‘डिकंस्ट्रक्शन’ करें तो इसके केन्द्र को खोला जा सकता है। रस शास्त्र की समूची चर्चा के केन्द्र में दो बातें सबसे महत्व की हैं। पहली है चीजों को देखने और प्रस्तुत करने की पद्धति और दूसरा है लक्ष्य। दि.के.बेडेकर ने ‘प्राचीन साहित्य मीमांसा’ नामक अपनी लेखमाला में इन दो बातों को रेखांकित किया है इनमें से एक का नामवरजी ने जिक्र किया है,यानी पद्धति का जिक्र किया है लेकिन लक्ष्य को वे छिपा गए।नामवरजी ने लिखा है ‘बहरहाल यह’यज्ञ-नाट्य’देवासुर-कथा ही है और बेडेकर ने विस्तृत विश्लेषण के द्वारा दिखला दिया कि भरत-निर्दिष्ट आठ रसों का अधिष्ठान देवासुर-द्वन्द्व में स्थित है।उन्हीं के शब्दों में, “मनोविज्ञान को एकतरफ रखकर स्थायित्व का अर्थ आठ रसों के स्थिर सम्बन्ध ही लगाना चाहिए।इसी प्रकार इन आठ रसों के पीछे जाकर श्रृंगारादि रस-चतुष्टय पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।श्रृंगारादि चतुष्ट्य का पुनःश्रृंगार-वीर और रौद्र-वीभत्स ऐसा द्वन्द्व ध्यान में रखना चाहिए।यह द्वन्द्व देव और असुर द्वन्द्व का नाट्यमय रसात्मक स्वरूप है।यह निश्चित रूप से जान लेने पर भरत प्रणीत रस-व्यवस्था का सब अर्थ अच्छी तरह से लग जाता है।” ’(16-17)
रस-निष्पत्ति’ के प्रसंग में नामवरजी ने लिखा ‘इसी प्रकार ‘रस-निष्पत्ति’ की प्रक्रिया यज्ञ की प्रक्रिया के अनुसार समझाई गई है।‘रस-निष्पत्ति’ के स्वरूप की चर्चा में अन्य विद्वान जहाँ’षाडव रस’ तथा ‘पानक रस’ में उलझे रहे,बेडेकर की निर्भ्रान्त दृष्टि ‘नाट्यशास्त्र’ की इस पंक्ति पर गई-
‘शरीरं व्याप्यते तेन शुष्कं काष्ठमिवाग्निना।’
लकड़ी में सुप्त अग्नि मन्थन-प्रयोग से व्यक्त होती है और उस लकड़ी को ही व्याप्त कर लेती है।यज्ञ की अग्नि पुराकाल में(और परम्परा-निर्वाह के लिए आज भी)इसी विधि से पैदा की जाती थी।लकड़ी में सुप्त अग्नि को लकड़ी की ओखली में दूसरी लकड़ी की मथानी घुमाने से व्यक्त किया जा सकता है।यज्ञ-क्रिया में ऐसी ही सिद्ध अग्नि ही काम में लाते थे।एक प्रकार से देखें तो देवासुर-कथा का द्वंन्द्व यहाँ भी सक्रिय है।रस-व्यवस्था के मूल में द्वन्द्व है।बेडेकर की क्रांतिकारी खोज यही थी।’(पृ.17) कहने का आशय यह कि नाटक में ‘द्वन्द्व’ के नजरिए के जनक भरत हैं।‘दवन्द्व’ के बिना सृजन नहीं होता। यह हमारी परंपरा का सबसे मूल्यवान नजरिया है और पद्धति भी है।यह आज भी सृजन के लिए प्रासंगिक है। रही बात काठ के घर्षण से अग्नि पैदा करने की तो अग्नि तो लकड़ी में होती है।घर्षण उससे जन्म देता है।इसे तीव्र भावोर्मि कह सकते हैं,रचना के निर्माण में भावोर्मि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।जब कोई विषय लेखक को उद्वेलित करता है तब ही रचना की पहली चिंगारी फूटती है।वहीं से लेखक के भावानुभवों की सृष्टि होती है।यही चीज बाद में रचना के रूप में प्रकाश पाती है।
नामवरजी ने बेडेकर की धारणाओं का विस्तार से विवेचन करने के बाद लिखा ‘सारी युक्ति का सार यह है कि नाट्य प्रयोग न देवों की विजय प्रदर्शित करता है, न असुरों की पराजय;वह तो त्रैलोक्य का भावानुकीर्तन है।अभिनव ने इस भावानुकीर्तन का एक लम्बा-चौड़ा दर्शन पेश कर दिया है,जिसे भारतीय साहित्य मीमांसा का अमरसिद्धांत समझा जाता है।’
आगे लिखा ,‘किन्तु क्या यह काव्य- सिद्धांत ‘जर्जर’का ही दूसरा रूप नहीं है ?जो कार्य बड़े डंडे से न सधे,उसे साधने के लिए सिद्धांत का सहारा लिया जाए तो उस सिद्धांत को क्या नाम दिया जाएगा ?इस सन्दर्भ में अभिनवगुप्त के दो वाक्य उल्लेखनीय हैं।नाट्यशास्त्र के 1/70 पर अभिनवगुप्त अपनी ओर से जोड़ते हैं- एवं राज्ञा सिद्धिविघातका दण्डया इति।अर्थात् इस प्रकार राजा को नाट्य सिद्धि में विघ्न डालनेवालों को दंड देना चाहिए।नाट्यशास्त्र के 1/99श्लोक में ब्रह्मा द्वारा शान्तिपूर्वक समझाने के प्रसंग पर- नाशक्तस्य सामाङ्गीकरोति दुर्जन इति पूर्वरक्षाकरणम्।अर्थात् असक्त के साम को दुर्जन नहीं मानता इसलिए (साम से पहले)रक्षा-विधान दृढ़ कर लिया जाए।तात्पर्य यह कि ब्रह्मा के मुख से कहलाया गया ‘नाट्य दर्शन’ ‘शक्त का साम’अर्थात् ताकतवर का शान्ति-पाठ है।इस प्रकार क्या रस का दर्शन शक्ति का प्रदर्शन नहीं लगता ?आजकल जिसे ‘आइडियोलॉजी’ कहते हैं वह और क्या होती है ?क्या रस-सिद्धान्त ने शुरू से ही एक ‘आइडियोलॉजी’ अथवा ‘दिट्ठ’ की भूमिका नहीं निभाई है ।’
नामवरजी ने बेडेकर का विवेचन करने के साथ ही अंतमें यह भी लिखा , ‘आशंका सिर्फ यही है कि नया आकलन भी कहीं इसी लम्बी श्रृंखला की एक कड़ी न साबित हो ! बेडेकर ने शायद इसीलिए सभी सम्भाव्य संस्करणों को सन्दिग्ध समझा और रस को संग्रहालय में सुरक्षित रखने का प्रस्ताव रखा।इसीलिए आज भी यह प्रश्न है कि रसःजस का तस अथवा बस?’ दिलचस्प बात यह है नामवरजी रस की विचारधारा के पहलू को खोलते ही नहीं हैं और सवाल उठाकर छोड़ देते हैं। रस की विचारधारा का पहलू तब खुलता है जह हम शान्तरस के अंदर प्रवेश करते हैं।बेडेकर ने शान्तरस का जिक्र तक नहीं किया और नामवरजी जिक्र तो करते हैं लेकिन विवेचन से कन्नी काटते हैं। अभिनवगुप्त ने शान्तरस का श्रृंगार के साथ अन्तर्विरोध दिखाकर रस की विचारधारा में निहित जनविरोधी भावों को उद्घाटित किया है।सवाल यह है शान्त रस क्या है और उसे कैसे देखें ?
शांतरस पर जोर देकर अभिनवगुप्त ने असल में रस के समूचे ढ़ांचे और विचारधारा को निशाना बनाया है। अभिनवगुप्त जिस समय लिख रहे थे उस समय समाज में कला,साहित्य,संस्कृति आदि विभिन्न क्षेत्रों में ह्रासशील प्रवृत्तियां चरम पर थीं।रस की सृष्टि और संरचना ने ह्रासशील प्रवृत्तियों को जमकर बढ़ावा दिया,कलाएं सामाजिक उन्नति की बजाय समाज में अवरोध पैदा करने का काम कर रही थीं।रसों की संरचना और विचारधारा पर विचार करें तो पाएंगे कि रसों में गहरा अंतर्विरोध है।मसलन्,रति है तो वैराग्य भी है।रसों में एक-दूसरे के विरोधी भावों का होना यह दरशाता है कि रसों का चरित्र अंतर्विरोधपूर्ण और ह्राशशील है,यह चित्तवृत्तियों का शमन नहीं करता बल्कि उनको तनावयुक्त बनाता है।यह संभव नहीं है कि शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए उत्साहित भी हो और शत्रु से डरे भी।लेकिन इस तरह के अंतर्विरोध रसों में हैं।रसों में अंतर्निहित अंतर्विरोधों की अभिनवगुप्त ने नाटयशास्त्र की अभिनवभारती टीका में विस्तार से चर्चा है।
भरत वर्णित 8रसों के इस समूचे ढ़ांचे से बाहर निकले बिना रस के प्रति नए नजरिए और नई भूमिका का विकास संभव नहीं है। यह आयरनी है कि अभिनवगुप्त की रस संबंधी आलोचना को संस्कृतकवियों और आलोचकों ने गंभीरता से ग्रहण नहीं किया। भरत के यहा रस के अंतर्विरोध से निकलने का उपाय है एक रस से निकलो और दूसरे की शरण लो।इसके लिए ‘ऐकाधिकरण्य’ की पद्धति के प्रयोग पर जोर दिया,ऐकाधिकरण्य का अर्थ है एक आश्रय से सम्बन्ध होना।अभिनवगुप्त ने लिखा है भय और उत्साह का एक आश्रय में सहभाव दूषित होता है।किन्तु उनके आश्रय बदल देने से उनका विरोध जाता रहता है।इसके लिए एकाश्रयत्व में निर्दोष और नैरंतर्य पर जोर दिया गया।इससे रसो में व्याप्त अंतर्विरोधों का समाधान नहीं हुआ।
उल्लेखनीय है अभिनवगुप्त ने नागानन्द का उदाहरण दिया है और उसके संदर्भ में श्रृंगार और शांत रस के अंतर्विरोध का विश्लेषण करते हुए शांतरस की स्थापना की है।अभिनवगुप्त के मूल्यांकन यह वह बिंदु है जहां पर भोगवाद,पुंसवाद और रस के अंतस्संबंध को वे निशाना बनाते हैं।इस अंतस्संबंध को समझाने के लिए उन्होंने सांख्य दर्शन के दो तत्वों ‘चित्तवृत्ति का प्रसार’ और ‘लिङ्गशरीर’ की अवधारणा का इस्तेमाल किया है। वे विस्तार के साथ नागानन्द की कथा का विवेचन करते हैं और इन दोनों धारणाओं का खुलासा करते हैं।
साहित्य में श्रृंगार को रसराज कहा गया और उसका साहित्य में वर्चस्व था।अभिनवगुप्त ने इस वर्चस्व को चुनौती देने के लिए शांतरस की सृष्टि की।श्रृंगार और शांत के अंतर्विरोध पर जोर डाला।श्रृंगार रस का मूलाधार है तृष्णा ,जबकि शांतरस का मूलाधार है तृष्णाक्षय।तृष्णाक्षय में जो आनंद है वह किसी और में नहीं है। रसों की भूमिका रही है तृष्णा पैदा करने की और अभिनवगुप्त ने इसी को आधार बनाकर समूची सामंती व्यवस्था और श्रृंगार रस का विरोध किया। तृष्णाक्षय आज के युग के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण तत्व है।यह सामाजिक विकास का सकारात्मक तत्व है।भरत के 8रसों में तृष्णा जगाकर रसनिष्पति होती है जबकि अभिनवगुप्त के शांतरस में तृष्णाक्षय के जरिए रसनिष्पत्ति और आनंद की सृष्टि की है। श्रृंगारादि रसों के जरिए विषयाभिलाष पैदा किया जाता था उसका अभिनवगुप्त ने विरोध करते हुए विषयाभिलाष के निर्वेद पर जोर दिया है,उस निर्वेद में अभूतपूर्व आनंद होता है।निर्वेद ही शांतरस का स्थायीभाव है। जब उसका परितोष आस्वाद में हो जाता है तभी शान्तरस होता है।ठेस भाषा में इसे वैराग्य यानी नागरिकचेतना कहते हैं।
रसों के विकल्प के रूप में वैराग्य यानी नागरिकचेतना की वकालत वस्तुतःदरबारी सभ्यता-संस्कृति और उनके साथ जुड़े कलारूपों का निषेध है,यह संयासवाद नहीं है।यह लोकचेतना है। तृष्णा और लोकचेतना या नागरिकचेतना में अंतर्विरोध है। उल्लेखनीय है जनभाषा के लेखकों ने श्रृंगारादि रसों और काव्य के नियमों के आधार पर काव्यसृजन का भी विरोध किया था।काव्यसृजन के नियम और रस ये दोनों एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हैं।अभिनवगुप्त ने रसों के मूलाधार पर प्रहार करते हुए जब तृष्णाक्षय की स्थापना की तो उन्होंने वस्तुतःलोक कामना से साहित्य को जोड़ने पर जोर दिया। रसों का आधार तृष्णा होने के कारण भरत वर्णित 8रसों पर आधारित समूचा साहित्य क्रमशःलोक से कटता चला गया । अभिनवगुप्त जब श्रृंगार का विरोध कर रहे थे तो वस्तुतःसाहित्य को नागरिकचेतना से जोड़ने पर जोर दे रहे थे। उन्होंने लिखा है-
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतःषोडशीं कलाम्।।
यानी लोक में कामना से जो सुख प्राप्त होता है और जो स्वर्गीय महान् सुख होता है,वे दोनों प्रकार के सुख तृष्णाक्षय से उत्पन्न होनेवाले सुख का सोलहवाँ भाग भी नहीं होते। इस प्रसंग में भरत के पक्षधरों का मानना है भरत ने शान्त को कभी अस्वीकार नहीं किया,बल्कि भरत के यहां तो शांन्तरस सभी रसों के मूल में रहता है।सभी रसों की शान्तावस्था ही शान्त रस कहलाती है।असल में मामला इतना सरल नहीं है। अभिनवगुप्त ने रेखांकित किया है कि रसों के पक्षधर और भरत के यहां रस के आने के पहले शांतरस रहता है उसके बाद अन्य रस पैदा होते हैं। यानी तृष्णाभाव के पहले शान्त भाव रहता है और रसों के जरिए उस भाव को नष्ट करके तृष्णाभाव पैदा होता है,इसके विपरीत अभिनवगुप्त के नजरिए से तृष्णाभाव को नष्ट करके शान्तरस पैदा होता है।यानी वीतराग या वैराग्य वह है जहां तृष्णा का विध्वंस हो जाय। सवाल यह है क्या आज के उपभोगतावादी समाज में हमें शांतरस चाहिए या नहीं ? अथवा रस चाहिए ? नामवरजी जब रस की हिमायत करते हैं तो वे शान्तरस में निहित इस समूचे दृष्टिकोण को भूल जाते हैं। “कविता के नए प्रतिमान’ में कहने के लिए वे नगेन्द्र की आलोचना करते हैं लेकिन वस्तुतः वे नगेन्द्र के साथ ही खड़े रहते हैं। नगेन्द्र के नजरिए में रस-सिद्धान्त शाश्वत और सार्वभौम सिद्धान्त है वहीं नामवरजी के लिए भरत की रस संबंधी धारणा में प्रसंगानुकूल प्रतिमान मिल जाते हैं।इस प्रसंग में वे रस के आंतरिक तत्वों की विवेचना करके नगेन्द्र के मत का खंडन करते हैं लेकिन वैचारिकतौर पर दोनों एक ही धरातल पर खड़े रहते हैं।यहां तक कि 1990 में भी उनके बुनियादी विचारों में कोई परिवर्तन नहीं आता।
अभिनवगुप्त ने एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू की ओर ध्यान खींचा है वह है रस का चरम।सवाल है क्या रस का चित्रण करते हुए उसको चरम तक चित्रित करें ? भरत चरम तक चित्रण के पक्षधर हैं लेकिन अभिनवगुप्त ऐसा नहीं मानते.शान्तरस के पक्ष,विपक्ष,स्थायीभाव आदि का अभिनवभारती टीका में विस्तार के साथ विश्लेषण किया है। मसलन् रौद्र रस का चरम तो हत्या है लेकिन उसकी प्रस्तुति से बचा जाना चाहिए,प्रतीत हो कि हत्या हो गयी। इसलिए “प्रतीति” और “प्रतीयमान अर्थ” इनका बड़ा महत्व है।इसी प्रकार भरत ने वीररस के तीन उपभेदों का जिक्र किया है,ये हैं, दानवीर,धर्मवीर और युद्धवीर। इसी प्रसंग में अभिनव ने कहा है कि दयावीर को शान्तरस का प्रभेद तब मान सकते हैं जब उसमें सब प्रकार के अहंकार का अभाव हो। यदि उत्साह के साथ अहंकार आ जाता है तो दयावीर को शान्तरस का प्रभेद नहीं मान सकते।इसी तरह कुछ लोग शान्तरस को वीभत्सरस में समाहित करके देखते हैं लेकिन अभिनवगुप्त ने इसका भी खंडन किया है।क्योंकि शान्तरस का मूलाधार या स्थायीभाव घृणा नहीं है। वह तो व्यभिचारी भाव है। अंत में सबसे बड़ी बात जो शान्तरस से जुड़ी है वह है उसका लक्ष्य।भरत वर्णित 8रसों का लक्ष्य है आनंद और रस की सृष्टि करना,लेकिन शांतरस का लक्ष्य है मोक्ष प्रदान करना। 8रसों के लिए पुरूषार्थ की जरूरत है लेकिन शान्तरस के लिए लोकनिष्ठा और नागरिकचेतना होनी चाहिए।
रस के प्रसंग में बुनियादी सवाल यह है कि रस किसके लिए ?आनंद के लिए या दुख के लिए ?नाटक किसके लिए आनंद के लिए या दुख के लिए ? रस को मानें या न मानें लेकिन कलाओं के प्रसंग में यह सवाल तो हमेशा उठा है कि कलाओं का लक्ष्य क्या है ?रसों की जब सृष्टि हुई तब भी यह प्रश्न केन्द्र में था ,नामवरजी इस सवाल से कन्नी काटकर निकल जाते हैं।इस प्रसंग में आर.बी,पाटणकर की कृति ‘सौंदर्य मीमांसा’ में विस्तार के साथ विचार किया है। पाटणकर मराठी साहित्य के प्रमुख आलोचक हैं और उनकी कृति ‘सौंदर्य मीमांसा’ को साहित्य अकादमी ने 1975 में पुरस्कृत भी किया है।नामवरजी ने बेडेकर के बहाने रस की सृजन प्रक्रिया के सवालों पर विचार किया है लेकिन रस का संबंध तो आस्वाद से है और कला के क्षेत्र में सृजन प्रक्रिया से ज्यादा व्यापक फलक आस्वाद प्रक्रिया का है।आस्वाद प्रक्रिया के सवाल कला-साहित्य के बुनियादी सवाल हैं उनसे हिन्दी के मार्क्सवादी आलोचक भागते रहे हैं।रस हमारे ऐंद्रिय सुख से जुड़ा है।यही विमर्श का प्रमुख बिंदु है जिसके जरिए रचना के विमर्श को अमूर्तन में ले जाने से रोक सकते हैं।
नाटक या कला या साहित्य का लक्ष्य है ‘आनंद’,और रस का भी लक्ष्य है ‘आनंद’। ‘आनंद’ के बिना कला रूप अपना विकास नहीं करते।‘आनंद’ से हमें ‘सुख’ मिलता है यही वजह है कि ‘आनंद’ और ‘सुख’ को पर्यायवाची समझना चाहिए। मराठी साहित्य में भी अनेक बड़े विद्वानों ने ‘आनंद’ और ‘सुख को पर्यायवाची माना है। नाट्यशास्त्र में यह भी माना गया है कि रचना में वैयक्तिक दुख और सुख का अनुभव करने से रसनिष्पत्ति में बाधा पड़ती है।
नाट्यशास्त्र पर विचार विमर्श के दौरान अमूमन अभिनवगुप्त लिखित भाष्य का बार-बार जिक्र होता है। अभिनवगुप्त ने नाट्यशास्त्र के रचे जाने के सात-आठ सौ वर्ष के बाद ‘अभिनव-भारती’ नामक टीका लिखी.इसे सबसे प्रामाणिक टीका माना जाता है।अपनी टीका में अभिनवगुप्त ने अनेक बातें अपनी कही हैं उन बातों का भरत के नाट्यशास्त्र से कोई संबंध नहीं है। इस पहलू को टी.जी.माईणकर ने “दि थियरी ऑफ संधीज ऐंड संध्यंगाज”(1960) नामक कृति में विस्तार के साथ रेखांकित किया है।रा.भा.पाटणकर ने सवाल भी उठाया है कि क्या ‘सुख’ को सौंदर्यानुभव का आवश्यक घटक माना जा सकता है ? दूसरा प्रश्न यह कि ऐसा सुख लौकिक है या अलौकिक है ? क्या रचनाएं भावनाओं पर प्रभाव ड़ालती हैं ? अथवा कलास्वाद का भावना और भावनात्मकता से संबंध है ?क्या रचना पढ़ते समय भाव जागृति होती है ?भावना और भावनात्मकता को क्या भावनात्मक मनोदशाओं या मूड से अलग रखा जा सकता है ?मनोदशाएं कितनी अवधि तक टिकी रहती हैं ?क्या इस सबका भावनात्मक स्वभाव वैशिष्ट्य से संबंध जुड़ता है? पाटणकर के अनुसार ‘भावनात्मक स्वभाव वैशिष्ट्य प्रायःजीवन-भर हमारा साथ देते हैं।वे हमारे व्यक्तित्व का भाग बनते हैं।जब हम किसी व्यक्ति को ,निराशावादी और दूसरे को आशावादी कहते हैं,तब हमारे मन में उन मनुष्यों के स्वभाव वैशिष्ट्य ही होते हैं।लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि निराशावादी मनुष्य सारे समय के लिए म्लान पड़ा रहता है और आशावादी सदैव उछल-कूद करता रहता है।’(सौंदर्य- मीमांसा,पृ.238)
दिलचस्प बात यह है कि अभिनवगुप्त जब रस पर विचार कर रहे थे तो उनके नजरिए के केन्द्र में “सुख” या “आनन्द” नहीं था बल्कि “मोक्ष” था। यही वजह है कि लिखा ‘मोक्षफलत्वेन चायं परमपुरूषार्थनिष्ठत्वात् सर्वरसेभ्यःप्रधानतमः।’ कहने का आशय यह कि शान्तरस का फल मोक्ष होता है जो कि सबसे बड़ा फल है।अतएव इस रस की निष्ठा पुरूषार्थ में भी सबसे अधिक होनी चाहिए।
रस पर विचार करते समय तीन तत्वों की खूब चर्चा होती है।1.स्थायीभाव,2.व्यभिचारी या संचारी भाव और 3.सात्त्विक भाव।कई आलोचकों ने इस विवेचन के लिए मनोविज्ञान का सहारा लिया है। इस समूचे प्रसंग में यही कहना समीचीन होगा कि स्थायी भावों का संबंध रंगमंच से है,दृश्य अभिनय में इनकी भूमिका है।वाच्य में इनकी भूमिका नही होती। रा.भा,पाटणकर ने लिखा है स्थिरभावों के लिए भावनात्मक भाषा की जरूरत होती है जिसे अभिनय में बेहतर ढ़ंग से व्यक्त किया जा सकता है।मसलन्,क्रोध का वर्णन करने से वह व्यक्त होगा ?उसका वर्णन किया जा सकता है।यह सही है।लेकिन जिस अर्थ में दाँत,ओंठ चबाना,मुट्ठियाँ भींचना,आँखें लाल होना आदि के जरिए क्रोध व्यक्त होता है उस अर्थ में किसी कृति के जरिए क्रोध व्यक्त नहीं होगा।भावनात्मक भाषा का स्थान वर्णनात्मक भाषा नहीं ले सकती। नाटक में भावों को वाच्य के स्तर पर नहीं दिखाया जाता बल्कि उसकी अभिव्यंजना करनी होती है। नाटककार भावों की अभिव्यंजना के लिए विभावादि का उपयोग करता है।यहाँ भावों का वर्णन नहीं होता।भावों की अभिव्यंजना साधी जाती है। इसलिए नाटक में भाव व्यंजक भाषा और विभावादि का इतना महत्त्व है।यदि विभावादि का नाटक में महत्व है तो यह तय है ये चीजें दृश्य अभिनय के माध्यमों के प्रसंग में आज भी प्रासंगिक हैं। हमारे साहित्यालोचकों की मुश्किल यह है कि वे नाटक को केन्द्र में रखकर लिखे शास्त्र को काव्य आदि विधाओं पर लागू करके उसकी प्रासंगिकता पर विचार करते रहे हैं ,खासकर नामवरजी ने भी इस कृति पर काव्यादि के संदर्भ में ही विचार किया है जो सही नहीं है। दृश्यमाध्यम की सैद्धांतिकी पर लिखी धारणाओं को मुख्य रूप से दृश्यमाध्यमों के संदर्भ में ही पढ़ा जाना चाहिए।
रस के विवेचन के क्रम में एक सवाल यह भी उठा है कि रस का किस वर्ग के साथ संबंध था ? रस के जो वर्गीकरण 8रसों में भरत ने किए उसके पीछे क्या कोई वर्गीयदृष्टि थी या फिर मनमौजी ढ़ंग से वर्गीकरण कर दिया गया था। वर्गीयदृष्टिकोण के सवाल पर इसलिए भी विचार करना चाहिए क्योंकि रसों के सामाजिक आधार को तय करने में मदद मिलेगी। रस का गहरा संबंध दरबारी सभ्यता के साथ था और रस कभी भी गैर-अभिजनवर्ग के उपभोग की चीज नहीं था.इसलिए जितनी भी बार रस पर बहस हुई है तो वह उसकी प्रशंसा और गुणों पर ही केन्द्रित रही है। उसके वर्गीय चरित्र को लेकर चर्चाएं नहीं हुई हैं। रस के समाज से कटे होने का बड़ा कारण यह था कि यह जन्म से अभिजन का शास्त्र रहा है।अभिजन के वैचारिक वर्चस्व को स्थापित करने का शास्त्र रहा है,यही वजह है आमजन ने कभी भी रसों को अपनी काव्याभिव्यक्ति या नाट्याभिव्यक्ति का आधार नहीं बनाया।
रस को दरबारी लेखकों ने अपनी रचनाओं में सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया और अभिजनों की अभिरूचि निर्मित करने के लिए उसके तमाम उपकरण निर्मित किए। इसके कारण रस के अंदर एक खास तरह की अगतिशीलता या अपरिवर्तनीयता भी है। फलतः रस के मूल अवधारणात्मक ढ़ांचे में कोई परिवर्तन सैंकड़ों सालों नहीं हुआ। रस में अभिरूचि के स्तर पर सौंदर्यबोधीय विभाजन भी है जो लंबे समय से अपरिवर्तनीय है.इसका अर्थ है कि रस में ज्ञान का विकास नहीं हुआ।यह सच भी है कि नाट्यशास्त्र में वर्णित रसों के बारे में नई चीज तब आई जब अभिनवगुप्त ने अभिनव भारती नामक टीका लिखी,लेकिन रस की पूर्वधारणाओं को पूरी तरह खारिज करने की उनकी भी हिम्मत नहीं हुई।
रस पर दार्शनिक तौर पर आदर्शवादी दर्शन का असर था जिसके कारण रस की व्याख्याएं तो हुईं लेकिन मूलगामी परिवर्तन नहीं हुआ। अभिनवगुप्त के पहले तक तकरीबन 1000साल तक आठ रस ही प्रचलन में रहे,अभिनवगुप्त ने कहा कि नया रस शान्तरस हो सकता है। लेकिन अभिनवगुप्त के बाद तो फिर से रस जगत में सन्नाटा पसरा हुआ है। इससे पता चलता है कि रसों के उपभोक्ता के रूप में अथवा सर्जक के रूप में या रस के लेखक के रूप में जो लोग काम करते रहे हैं उनमें नई अवधारणाएं निर्मित करने की क्षमता ही नहीं थी,इस दृष्टि से रस एक तरह का बांझ शास्त्र है। उसमें नए को रचने की क्षमता नहीं है। जबकि कायदे से रस के ढ़ांचे से नाभिनालबद्ध वर्ग को नए के खोज की दिशा में प्रयास करना चाहिए लेकिन यह न हो सका।सवाल रस की व्याख्या का नहीं है बल्कि रस को बदलने का है रस जैसा है उसे वैसा ही रखने का अर्थ है कि रस की अपरिवर्तनीयता को मानना।जबकि सच यह है कि रस की उत्पत्ति जब हुई तब से लेकर आज तक तकरीबन दो हजार साल का लंबा सफर गुजर चुका है इसके बावजूद हमने नए की खोज का काम आरंभ नहीं किया है। रस का संरचनात्मक ढांचा इस तरह का है कि उसमें नए की खोज नहीं कर सकते।वह अपरिवर्तनीय उत्पादन संबंधों से बंधा है।
रस में एक खास किस्म का यांत्रिक संरचनात्मक ढ़ांचा है जिसमें रंगमंच काम करता रहा है।इसमें बाह्य हस्तक्षेप की संभावनाओं का अभाव है। रस हमारे पुराने प्राचीनकालीन सामूहिक कलात्मक अनुभवों का हिस्सा है। स्थिर भाव,स्थिर दर्शक और अगतिशील अभिनेता ये तीन इसके संरचनात्मक साथी हैं। फलतःइसकी ह्रासशील सामंती समाज में आकर भूमिका पहले की तुलना में और भी खराब हुई।
सवाल यह है कि रस को आधार बनाकर कोई मुक्तिकामी या परिवर्तनकामी नाटक क्यों नहीं लिखा गया ?रस का चूंकि नाटक के क्षेत्र में इस्तेमाल होता था अतःरस ने सार्वजनिक स्पेस और निजी स्पेस का विकास क्यों नहीं किया ? मध्यकाल में नाटक या रंगमंच हमारे समाज में जनमंच क्यों नहीं बन पाया ?समस्त नाटक उन्हीं वर्गों पर लिखे गए जो दरबारी सभ्यता से जुड़े थे।रस में विभिन्न किस्म के भावों का वस्तुगत वर्गीकरण मिलेगा और मंचन में इनकी वस्तुगत प्रस्तुतियों पर ही जोर रहा।वस्तुगत प्रस्तुतियां समाज के ऊपर आवरण डाले रखने का काम करती हैं,इस तरह की प्रस्तुतियों के कारण समाज की नाटक में यथार्थ प्रस्तुति नजर नहीं आती।समाज पर छदम आवरण पड़ा रहता है.इस तरह की प्रस्तुतियां शोषित और शोषक के बीच के संबंध को छिपाए रखती हैं।दबे-कुचले लोगों और अभिजन के बीच के अंतर्विरोधों को छिपाए रखती हैं।प्रस्तुतियों में मिथकीयचरित्रों के वर्चस्व की वजह से नाटकों के जरिए युगीन समाज को समझना बेहद मुश्किल है।यानी रसों के आधार पर ऐसा साहित्य रचा गया जो सतह पर देखने में सुंदर था लेकिन अंदर से प्राणहीन था।वह रहस्यों के आवरण में बंधा था।
रस को यदि मोक्ष का शास्त्र बनना है तो उसकी पहली सीढ़ी है नाटक में यथार्थ विषयों का प्रवेश हो।रस के नायक के तौर पर कथानक में सामान्यजन की प्रतिष्ठा हो।ऐसे लोगों की प्रतिष्ठा हो जो समाज में हाशिए के लोग कहलाते हैं। यह विलक्षण संयोग है कि रसकेन्द्रित नाटकों का समूचा चरित्र सवर्णवादी है। कथानक के मूल पात्र सवर्ण हैं और वे कथानक की धुरी हैं। असवर्ण पात्र सिर्फ दिल बहलाने के लिए दाखिल होते हैं। वे सारवान गतिविधियों में शामिल नहीं होते।
भरत के ‘नाट्यशास्त्र’ में रस की चर्चा रंगमंच के प्रसंग में है लेकिन कालांतर में काव्यशास्त्रियों और आलोचकों ने इसे साहित्य की विभिन्न विधाओं और खासकर काव्य के मूल्यांकन के संदर्भ में विस्तार दे दिया। इसने रसों के बारे में सबसे ज्यादा विभ्रम खड़े किए।रसों का संबंध यदि नाटक से है और नाटक का संबंध अभिनय से है,अभिनय का भाल-भंगिमाओं से और भाव-भंगिमाओं का सामयिक यथार्थ से संबंध है इस नजरिए से देखें तो नाटक-रस और यथार्थ के अन्तस्संबंध को समझने में मदद मिलेगी।लेकिन हमने पद्धति पुरानी चुनी,हम रसों की धारणाओं की मीमांसा कर रहे हैं और उसके आगे देखने को तैयार नहीं हैं। इसके बाद तो रस और बस ही निकलेगा !
रस,भाव-भंगिमाएं और यथार्थ के रिश्ते में रसमीमांसकों ने रसों पर खूब काम किया लेकिन यथार्थ के साथ उसके अन्तस्संबंध को छोड़ दिया।फलतःरसमीमांसा में भाष्य ही प्रमुख हो गए,व्याख्याएं ही प्रमुख हो गयीं।इस प्रसंग में वाल्टर बेंजामिन याद आते हैं ,वह कहते हैं भाव-भंगिमाएं तो यथार्थ में होती हैं।वे तो आज के यथार्थ में अवस्थित हैं।मसलन्,आपको ऐतिहासिक नाटक लिखना है तो अतीत की घटना का वहीं तक निर्वाह करना है जहां तक उसे आज की भाव-भंगिमाओं के साथ संयोजित करके पेश करने में सफलता मिले।इसका मतलब यह भी है कि ऐतिहासिक नाटक में अनुकरणात्मक भाव-भंगिमाएं तब तक अर्थहीन होती हैं जब तक वे भाव-भंगिमा की साधारण प्रक्रिया का उद्घाटन न करें।ये भंगिमाएं एक्शन की हो सकती हैं या फिर एक्शन का अनुकरण हो सकता है।यदि भाव-भंगिमाओं की पुनरावृत्ति होती है तो वे कृत्रिम रूप ग्रहण कर लेती हैं। वस्तुगत तौर पर देखें तो हमारी भाव-भंगिमाएं अत्यन्त उदार माहौल में बनती-बिगड़ती हैं।अगर कोई व्यक्ति सामाजिक भूमिका के दौरान भाव-भंगिमाओं में हस्तक्षेप करता है या उनका इस्तेमाल करता है तो उसे ज्यादा से ज्यादा सर्जनात्मक ढ़ंग से भाव-भंगिमाओं को सृजित करने की जरूरत पड़ती है।
भरत के नाट्यशास्त्र में रंगमंच और रस के अन्तस्संबंध को जिस तरह विश्लेषित किया उसमें पाठकेन्द्रित रसनिष्पत्ति पर जोर है और उससे रस का सर्जनात्मक विकास नहीं होता। यह दृष्टिकोण ठहरे हुए समाज में तो ग्राह्य है लेकिन जो समाज गतिशील है और ,वहां यह संबंध अप्रासंगिक हो जाता है, यही वजह है रसशास्त्र अगतिशील अवस्था में तो ध्यान खींचता है लेकिन समाज ज्यों ही विकास की अगली दशा में दाखिल हुआ उसकी ओर अधिकांश लेखकों का ध्यान ही नहीं गया अथवा जिन लेखकों ने रसकेन्द्रित होकर लिखा उनको अप्रासंगिकता का सामना करना पड़ा।
रस में आए ठहराव का एक बहुत बड़ा कारण है उसकी समाजनिरपेक्ष परिकल्पना और अवधारणाएं। समाज निरपेक्ष अवधारणाएं उन नाटकों में सही प्रतीत होती हैं जिन नाटकों का कोई सामाजिक लक्ष्य नहीं होता,जो मात्र मनोरंजन या आनंद के लिए लिखे गए हैं। अभिनवगुप्त ने जब भरत वर्णित रसों से भिन्न शान्तरस को स्थापित किया तो उनके जेहन में यही धारणा रही होगी।रस का काम है लोकचेतना से जोड़ना,यानी नाटक में पात्रों की सामाजिक भूमिका में बार-बार व्यवधान पैदा किया जाय,व्यवधान के लिए ही ज्यादा से ज्यादा गानों की जरूरत महसूस की गयी।रस के प्रसंग में भरत जिस रंगमंच की परिकल्पना पेश करते हैं वहां पाठ के विस्तार पर जोर है . उसी पर केन्द्रित अभिनय पर जोर है।लेकिन अभिनेता का काम पाठ को मंच पर हू-ब-हू उतारना नहीं है बल्कि उसका काम है हस्तक्षेप करना,व्यवधान पैदा करना,क्रमभंग करना।कलाकार रससृष्टि करे इसके लिए जरूरी है कि वह भाव-भंगिमा और परिस्थितियों के द्वंद्वात्मक संबंध को उदघाटित करे।इसी क्रम में अभिनेता के एटीट्यूट और पाठ के प्रति उसके रवैय्ये से बहुत कुछ तय होगा।इस प्रसंग में सबसे महत्वपूर्ण है पाठ पर अभिनेता का अधिकार।पाठ को अभिनेता जितनी गहराई में जाकर आत्मसात करेगा उतना ही बेहतर सृजन कर पाएगा।इसके कारण ही वह दर्शक के साथ बेहतर संबंध भी बना पाएगा।
भरत ने नाट्यशास्त्र में नाटक में रस की भूमिका पर ही मूलतः केन्द्रित किया है। उनके लिए रस और उसकी रंगमंचीय प्रक्रिया ही महत्वपूर्ण है। नाट्यशास्त्र की समूची व्याख्या इसी पहलू के इर्दगिर्द घूमती है।इसके जरिए जहां एक ओर नाटक की समीक्षा का पेट भरा गया वहीं काव्यशास्त्र के नाम पर आलोचना की क्षतिपूर्ति करने की कोशिश की गयी।इससे शास्त्र तो निर्मित हुआ लेकिन रंगमंच समृद्ध नहीं हुआ।रंगमंच की समृद्धि के लिए जरूरी है नाटक खेले जाएं,अफसोस है कि नाट्यशास्त्र के प्रभाववश नाटक कम खेले गए,लिखे खूब गए।नाटक खेले गए होते तो रंगमंच का शास्त्र आज अभावग्रस्त न होता। सवाल उठता है जहां नाट्यशास्त्र रचा गया वहां नाटक की आधुनिक समीक्षा का विकास क्यों नहीं हो पाया ? जिस क्षेत्र में नाट्यशास्त्र रचा गया उस क्षेत्र में नाटक कम क्यों खेले गए?
भरत का नाट्यशास्त्र अभिनेता को दर्शक से भिन्न इकाई के रूप में देखता है।दर्शक से अभिनेता को काटकर देखने के कारण हमारे यहां रंगमंच दुर्दशाग्रस्त हुआ।दर्शक से अभिनेता को काटने का अर्थ है शरीर से प्राण निकाल लेना।जींवंत रंगमंच तब ही संभव है जब अभिनेता और दर्शक का संबंध बना रहे।फलतःसंस्कृत साहित्य में विधा रूप में नाटक है लेकिन फॉर्म से ज्यादा उसकी कोई भूमिका नहीं है।विधागत रूप से ज्यादा उसकी कोई भूमिका नहीं है।यह ऐसा नाटक है जो पाठ केन्द्रित है, लेकिन उसमें सामयिक सामाजिक परिस्थितियों की अभिव्यंजना कहीं पर भी नजर नहीं आती।यह ऐसा नाटक है जिसका रचयिता दरबारी है।इस तरह नाटक पूरी तरह दरबारी ताकतों के नियंत्रण में है। इसी संदर्भ में यह सवाल उठता है कि नाटक पर किसका नियंत्रण है ? संयोग की बात है कि संस्कृत नाटकों पर राज्य एपरेटस का नियंत्रण था और उसकी ओर कभी समीक्षकों ने ध्यान ही नहीं दिया। इस प्रसंग में दूसरी समस्या यह पैदा हुई कि आलोचकों ने नाटक को साहित्य की अन्य विधाओं के साथ जोड़ दिया। हम सब जानते हैं नाटक दृश्य माध्यम है जबकि अन्य विधाएं दृश्यमाध्यम नहीं हैं।वे श्रव्यमाध्यम हैं। इसलिए काव्य या साहित्य के साथ नाटक को जोड़कर देखना सही नहीं है,नाटक के शास्त्र को काव्यालोचना बनाना उचित नहीं है।
भरत ने नाट्यशास्त्र की जो परिकल्पना पेश की उसमें पाठ तैयार करना महत्वपूर्ण है,नाटक का सार्वजनिक प्लेटफॉर्म तैयार करना लक्ष्य नहीं है। रंगमंच का सार्वजनिक प्लेटफॉर्म बनाना लक्ष्य होता तो नाट्यशास्त्र की विचारधारात्मक भूमिका भी होती लेकिन नामवरजी नेउसकी व्यापक विचारधारात्मक भूमिका खोज ली।जो कि गलत है। भरत के लिए नाटक रसव्यंजना की विधा है, नाटक उनके लिए विश्व को व्यंजित करने का मंच नहीं है।वे अभिनय की कलात्मक व्याख्या पेश करते हैं लेकिन अभिनय तो कलात्मक व्याख्या नहीं है।अपितु यथार्थ नियंत्रण है।भरत के यहां पाठ ही निर्धारक है लेकिन अभिनय में पाठ निर्धारक नहीं है,वहां से आरंभ जरूर होता लेकिन वहां तो यथार्थ का सृजन करना लक्ष्य होता इस क्रम में ब्याज में पाठ का दायित्व पूरा हो जाता है साथ में अभिनय भी हो जाता है। कहने का अर्थ है अभिनेता कठपुतली नहीं होता।वह पाठ की देन नहीं है, बल्कि सृजन की देन है।
भरत जिस रंगमंच की परिकल्पना करते हैं उसके प्रसंग में सवाल उठता है कि दर्शक जब नाटक देखने जाता है तो क्या उसे नाटक के बारे में पहले से जानकारी होती है ? प्राचीन और मध्यकाल में जिस तरह के महाकाव्यात्मक नाटक लिखे गए उनमें मूल कथानक की दर्शक को पहले से जानकारी हुआ करती थी। इस प्रसंग में बर्तोल्त ब्रेख्त का इस स्मरण करना समीचीन होगा,उनका मानना है कि ऐतिहासिक घटनाओं पर केन्द्रित नाटकों में रंगकर्मी को यह लाईसेंस दिया जाना चाहिए कि वह अपने महान निर्णय कुछ इस तरह पेश करे कि लगे कि वे इतिहास की मुख्यधारा के अनुरूप हैं।साथ ही “ऐसा भी हो सकता था ,वैसे भी हो सकता था”,इस फ्रेमवर्क को न भूले।उसका अपनी रचना से वैसा ही संबंध होना चाहिए जैसा नृत्य शिक्षक का अपने शिष्य से होता है।उसका पहला लक्ष्य होता है उसके बंधनों को जहाँ तक संभव हो ढ़ीला करे।उसे ऐतिहासिक-मनोवैज्ञानिक रूढियों से मुक्त करे।ब्रेख्त का मानना है परिस्थितियों को स्वयं बोलने दो,इसी से वे एक-दूसरे से द्वंद्वात्मक मुठभेड़ करती हैं।नाटक के तत्व तार्किक ढ़ंग से एक-दूसरे के खिलाफ संघर्ष करते हैं।
अभिनवगुप्त ने जब भरत वर्णित 8रसों से भिन्न नौवां शान्त रस पेश किया तो प्रकारान्तर से रसों के लक्ष्य पर ही प्रश्न लगाया।भरत का लक्ष्य था आनंद की सृष्टि करना,इसके विपरीत अभिनवगुप्त का लक्ष्य था वैराग्य यानी लोकचेतना पैदा करना। शान्तरस को पेश करके अभिनवगुप्त ने रसों की प्रामाणिकता पर भी प्रश्नचिह्न लगाया था।साथ ही रसविशेषज्ञ की भूमिका पर को सवालों के दायरे में खड़ा कर दिया।उनके लिए रसविशेषज्ञ या क्रिटिक की आलोचना में चली आ रही वरीयता का भी कोई महत्व नहीं था।रसविशेषज्ञों की राय साहित्य में लगातार अप्रासंगिक बनी रही,इसका प्रधान कारण है रस का समाज से कटा होना।रस के नाम पर या काव्यशास्त्र के ज्ञाता या विशेषज्ञ के नाम पर जो आलोचक सामने आया वह समाज से पूरी तरह कटा हुआ था।यही वजह है कि उसका समाज पर कोई असर नहीं हुआ।
भरत के नाट्यशास्त्र में पारदर्शिता पर जोर है लेकिन इसे सरल प्रस्तुति न समझा जाए।पारदर्शिता वस्तुतःसरलता का विलोम है।पारदर्शिता में निर्माता की वास्तविक कलात्मक क्षमता का उदघाटन होता है।भरत के लिए दर्शक की भूमिका मात्र देखने तक है,वे इसके आगे सोचते ही नहीं है।यह ऐसा दर्शक है जो नाटक देखने पर ही कुछ क्षण के लिए सोचता है। इस तरह के नाटक का लक्ष्य जनता के भावों,विचारों और भावनाओं को अभिव्यक्त करना नहीं है। संस्कृत नाटकों में चिन्तनशील हीरो नहीं मिलेगा।बल्कि विस्मयकारी हीरो मिलेगा।संस्कृत नाटकों में जो कथानक होता है वह परिस्थितियों को खोलने पर जोर नहीं देता।परिस्थितियां वहां सिर्फ संदर्भ के रूप में ऊपर से चिपकायी हुई प्रतीत होती हैं।नाटककार परिस्थितियों को जब तक खोलता नहीं है तब तक वह समाज का उदघाटन नहीं कर पाता। समाज का उदघाटन किए बगैर यह संभव ही नहीं है सामाजिक परिवर्तन हो।
सवाल उठता है रचना लिखने के बाद और रचना लिखने के दौरान लेखक अपनी रचना का आनंद लेता है या नहीं ? कुछ कह रहे हैं रचना लिखने के बाद रचना स्वायत्त हो जाती है। यह भी कहा जा रहा है कि रचना कभी स्वायत्त नहीं होती,वह पाठक से हमेशा जुड़ी रहती है,पाठक के आत्मगतबोध से जुड़ी रहती है। सृजन के बाद लेखक से रचना अपने को स्वायत्त कर लेती है , लेखक अपनी रचना का लिखने के दौरान आस्वाद भी लेता है लेकिन असल आस्वाद तो पाठक लेता है। लेखक को तो लिखकर ही शांति मिलती है,सुख मिलता है। रचना कैसी है यह तो पाठक ही बेहतर ढ़ंग से बता सकता है। संस्कृत कवि कहते हैं कवि को तो सहृदय की अवस्था में ही आनंद की प्राप्ति होती है।लेखक लिखता जरुर है लेकिन लेखन के सार का आनंद तो सहृदय लेता है। इस नजरिए से देखें तो संस्कृत का कवि रचना को ‘एक तैयार माल’ मानकर चलता है।इससे रचना का गतिशील आनंद उपेक्षित होता है। मसलन्,इसमें भोक्ता के आनंद का तो महत्व है लेकिन कवि के आनंद का कोई महत्व नहीं है। जबकि लेखक लिखते समय आनंद लेता है और रचना के संपूर्ण होने के बाद भी आनंद लेता है।इस प्रक्रिया में रचना के गतिशील पक्ष की उपेक्षा होती है और रचना के बाह्य स्थिर या जड़ उपकरणों के साज-संवार पर लेखक ज्यादा जोर देने लगता है।
आज लेखक के सामने सामाजिक सरोकारों को व्यक्त करने की चुनौती है,लेकिन इस तरह की कोई चुनौती रसयुग में नहीं थी,रसयुग में तो रचनाकार का एकमात्र लक्ष्य था रसग्राही सहृदय जुगाड़ करना और लेखक को अजर-अमर बनाने के सूत्रों की खोज करना। इसलिए उसने रचना बाह्य उपकरणों के सजाने-संवारने पर ज्यादा ध्यान दिया। नए विषयों की खोज पर कम ध्यान दिया।फलतः रचना में बड़े पैमाने पर अभिव्यक्ति के नए उपकरणों का सृजन तो हुआ लेकिन नई विषयवस्तु का प्रवेश नहीं हो पाया।इसने रचना के उपकरणों का निर्वैक्तिक तंत्र निर्मित किया। यह ऐसा तंत्र है जिसका सतह पर समाज से कोई संबंध नजर नहीं आता लेकिन गहराई में जाकर देखें तो रचना के उपकरणों के निर्वैयक्तिक तंत्र का गहरा संबंध वस्तुतःराज दरबार,राजस्तुति,सुभाषित और समाज की अगतिशीलता के साथ है।इस प्रक्रिया में सर्जना के गतिशील पक्ष की ओर लेखक ने ध्यान देना ही जरुरी नहीं समझा। यही वह बिंदु है जहाँ से खड़े होकर कवि के निरंकुश भावबोध का जन्म होता है। कवि निरंकुश होता है यह धारणा जन्म लेती है।
रचना में बाह्य उपकरणों,रुढ़िगत प्रतिमानों और सरस विषयों का आग्रह रहेगा तो कवि के निरंकुश होने की संभावनाएं ज्यादा होंगी।खासकर जब लेखक भावविशेष पर ही केन्द्रित होकर बार-बार रचना लिखेगा तो उसके रुपवादी होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। कहने के लिए नौ रस थे लेकिन लिखा गया श्रृंगार रस पर ही,खोज-खोज कर उससे संबंधित विषयों पर नई शैली,नई भाषा,नए अलंकारों में रचनाएं लिखी गयीं इसके कारण आलोचना में रुपवादी रुझानों का आरंभ हुआ। साहित्य और समाज के बीचमें अलगाव की सृष्टि हुई।लेखक और प्रकृति में अलगाव का आरंभ हुआ। “समग्रालक्ष्मी” की अवधारणा से क्रमशःलेखक दूर होता चला गया। आरंभ में समग्र व्यक्ति के बोध पर जोर था लेकिन बाद में व्यक्ति के भावविशेष पर जोर दिया गया।शास्त्रज्ञान पर जोर दिया गया।पहले प्रकृति को जानने और चित्रित करने पर जोर था बाद में शास्त्र जानने पर जोर दिया गया।इसके कारण आलोचना में रुपवादी तत्वों की जमकर सृष्टि हुई।
पहले लेखक के लिए प्रकृति प्रमुख थी,बाद में लेखक को ब्रह्मानंद सहोदर कहा गया,बाद में इन सबसे दूर निकलकर लेखक ने स्थिर विषयों और परब्रह्म के रुपों पर लिखना आरंभ करना दिया ।इस क्रम में मनुष्य उपेक्षित हो गया परंपराएं निर्जीव हो गयीं और रचना के बाह्य उपकरण प्रमुख हो गए। रचनाकार के अंदर आए इन बदलावों का रचनाकार के सामाजिक नजरिए से गहरा संबंध है। रचनाकार पहले प्रकृति से जुड़ने के कारण समाज से जुड़ा हुआ था,बाद में ज्योंही उसने दरबार की ओर रुख किया वह प्रकृति से कट गया और अभिव्यक्ति के लिए उसने रुढ़िबद्ध रुपों को अपना लिया,साहित्य में यहीं से स्टीरियोटाइप चीजों का प्रवेश होता है। उसके इस तरह के रुख का एक अन्य कारण था लेखक का मूल्यबोध और सामाजिक सरोकारों का अभाव।यह भी सच्चाई है कि संस्कृत में कोई विद्रोही कवि नहीं हुआ और न विद्रोही साहित्य ही लिखा गया। इन दोनों के अभाव के कारण के रुप में हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अंधविश्वास,कर्मफल के सिद्धांत और पुनर्जन्म की धारणा के असर को जिम्मेदार ठहराया।
सवाल यह है इन मूल्यों और विचारों का लोकभाषा के साहित्य और कवियों पर असर क्यों नहीं पड़ा ? जनभाषाओं में ऐसे लेखक है जिनकी रचनाओं में अंधविश्वास,कर्मफल के सिद्धांत आदि का न्यूनतम असर है। जबकि संस्कृत के लेखकों में व्यापक असर है। उन लेखकों पर इन मूल्यों का ज्यादा असर था जिन्होंने अपने लिए विषयवस्तु “रामायण” और “महाभारत” से चुनी। क्योंकि इन दोनों महाकाव्यों में अंधविश्वास आदि से जुड़ी बातें बड़ी संख्या में नजर आती हैं। इस प्रसंग में हमें देखना चाहिए कि लेखक रचना के लिए विषय कहां से चुनता है ? लोकभाषाओं के अनेक लेखकों ने साहित्यिक रुढ़ियों और रुढ़िगत प्रतिमानों का जमकर विरोध किया और अभिव्यक्त के लिए संस्कृत परंपरा से भिन्न विकल्पों की खोज की, “रामायण” और “महाभारत” जैसे महाकाव्यों से विषय न चुनकर जीवन से विषय चुने। यही वजह है उनके साहित्य में संस्कृत साहित्य की तुलना में सर्जनात्मकता का विकास बेहतर ढ़ंग से हुआ। उनके साहित्य को आम जनता में जनप्रियता मिली। इसके विपरीत संस्कृत साहित्य शिक्षित संस्कृत समाज तक ही सीमित रहा।इसका एक आशय यह भी है कि संस्कृत के लेखकों पर अंधविश्वास,पुनर्जन्म और कर्मफल के सिद्धांत का ज्यादा असरथा।यही वजह है कि वहां साहित्यिक रूढ़ियों का व्यापक रूप में विकास हुआ।
इसके अलावा संस्कृत के अधिकांश लेखक आस्तिक थे ,फलतःउनमें स्वतंत्र चिन्तन के प्रति कोई आग्रह या पहल नजर नहीं आती। साहित्य में स्वतंत्र चिन्तन,नए विषय पर लिखने की इच्छा का लेखक के स्वतंत्र भावबोध से गहरा संबंध है। लोकभाषाओं के लेखकों ने स्वतंत्र चिन्तन का परिचय देते हुए कविता के फॉर्म से जुड़े रुपों को चुनौती दी। यह भी कह सकते हैं कि लोकभाषा के कवियों में संस्कृतकाव्य के फॉर्म से बाहर निकलकर लिखने की जो छटपटाहट है वह असल में उनके अंदर सामाजिक और दार्शनिक बंधनों से बाहर निकलने की स्वतंत्र चिंतन की प्रक्रिया से जुड़ी है। इनमें अनेक लेखक ऐसे भी हैं जो ईश्वर के परंपरागत रुप को सीधे चुनौती देते हैं।
संस्कृत काव्य लेखकों को धर्मशास्त्र प्रभावित कर रहा था जबकि लोकभाषा के लेखकों में धर्मशास्त्र के प्रति बगावत के भाव नजर आते हैं।धार्मिक और सामाजिक रुढ़ियों के प्रति बगावत नजर आती है।वे ईश्वर और राजा की सत्ता बनाए रखते हैं,लेकिन काव्य जगत में परिवर्तन की लहर पैदा कर देते हैं। कहने का अर्थ यह है कि संस्कृत साहित्य के लेखक और लोकभाषा साहित्य के लेखक के नजरिए में बुनियादी अंतर है।इसका अर्थ यह भी है मध्यकाल में साहित्य की कई परंपराएं थीं।इन परंपराओं में गहरे वैचारिक अंतर्विरोध हैं,इन परंपराओं से जुड़े लेखकों के नजरिए,साहित्य प्रयोजन,सामाजिक आधार और सामाजिक सरोकार भिन्न हैं।
संस्कृत लेखक की बौद्धिक-सांस्कृतिक संरचना और लोकभाषा लेखक की बौद्धिक-सांस्कृतिक संरचना की धुरी है उनकी समाजदृष्टि।संस्कृतलेखक हमेशा राजा को इकाई मानकर लिखते रहे।जबकि जनभाषा के लेखकों ने भगवान को आधार बनाकर लिखा। इसलिए राजा बनाम भगवान का द्वंद्व वहां सहज ही देख सकते हैं। संस्कृत लेखकों ने राजा की आड़ में सामाजिक-दार्शनिक अंतर्विरोधों को छिपाने की कोशिश की वहीं जनभाषा के लेखको ने भगवान के बहाने सामाजिक-दार्शनिक अंतर्विरोधों और सामाजिक पीड़ाओं को चित्रित किया। संस्कृत के लेखक के नजरिया रस और काव्यनियमों से संचालित है।
रस और काव्यनियम वस्तुतः धर्मशास्त्रीय मूल्यों और मान्यताओं के आवरण का काम करते हैं। रस के नाम पर वह वस्तुतःमध्यकालीन रूढ़ियों का पल्लवन हुआ।खासकर 5वीं शताब्दी के बाद से यह प्रवृत्ति ज्यादा प्रबल रुप में सामने आती है। इसके कारण संस्कृत लेखकों का साहित्यबोध और साहित्यशिल्प दोनों प्रभावित हुए।साहित्य को शाश्वत मानने की धारणा बलवती हुई।अधिकांश कवियों ने कविता के शिल्प पर इस कदर जोर दिया कि लेखक के विचारों में स्वतंत्र पहलकदमी एकदम खत्म हो गयी, अब लेखक गढ़िया होकर रह गया। यह गढ़िया लेखक भावहीन शिल्प-साधना में निरंतर बढ़ता चला गया।फलतः अभिव्यक्ति के वास्तविक रुपों और विषयों के ऊपर से उसकी पकड़ एकसिरे से खत्म हो गयी।यह ऐसा लेखक है जिस पर जीवन की यथार्थ घटनाओं का कोई असर नजर नहीं आता। वह जीवन की सच्चाई को न तो देखता है और न उससे प्रभावित ही होता है।
संस्कृत के लेखकों ने जिन विषयों पर लिखा है उससे कुछ समय तक पाठक का मनोरंजन तो होता है लेकिन इस तरह के साहित्य का समाज पर कोई असर नहीं पड़ता।इस तरह के साहित्य को ही वे लोग “शाश्वत साहित्य”, “शाश्वत चिंतन” और “शाश्वत मूल्य” कहते हैं। इन लेखकों ने बड़े पैमाने साहित्यिक और कलात्मक रचनाओं के सिद्धांत,नियम और संरचना की विधियों को खोजने का प्रयत्न किया। आंचलिक,व्यक्तिपरक,देशज सांकृस्तिक रुपों का बहिष्कार किया।रचनाओं में “प्रतिनिधि” और “सार्वभौम” की बड़े पैमाने पर सृष्टि की।सामान्य चरित्रों को न्यूनतम स्थान दिया।मसलन्, राजा जिस भाषा में बोलता है वह उसी में बोलेगा,आमजन जिस भाषा में बोलते हैं,वे उसी भाषा में बोलेगा ।राजा को राजा की तरह और रंक को जनभाषा में बोलना चाहिए।यह भी धारणा रही है कि “प्रतिनिधि” और “सार्वभौम” चरित्रों के रुपायन से ही महान साहित्य की सृष्टि होती है।इसी समझ ने शास्त्रीय रचनाओं के अनुकरण करने पर जोर दिया।फलतः सामाजिक यथार्थ से संस्कृत साहित्य का संपर्क संबंध कट गया। यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसमें रस सिद्धांत का जन्म और विकास हुआ।
नामवर सिंह ने ‘रसःजस का तस या बस?’ इस शीर्षक से एक सम्पादकीय ‘आलोचना’ (जनवरी-मार्च1990)में लिखा था,यह उनकी किताब ‘कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता’(2010) में शामिल है। उल्लेखनीय है “कविता के नये प्रतिमान” में नामवरजी ने 1968 में पहलीबार रस पर विचार किया था उसके बाद 1990 में उनकी नजर रस पर पड़ी। देखना यह है कि उनके नजरिए में रस के के प्रसंग में क्या बदलाव आया ? “कविता के नये प्रतिमान” में नामवरजी ने प्रतिमान के रूप में रस की पुनर्व्याख्या या पुनरूद्धार को अप्रासंगिक माना है,महत्वपूर्ण माना है आस्वाद प्रक्रिया और कविता की अर्थमीमांसा को।क्या आस्वाद के सवाल बदले हैं ?क्या आस्वाद की प्रक्रिया में बदलाव आया है ?क्या कविता वही है जो 1968 में थी? कविता के चरित्र में किस तरह का परिवर्तन आया है ? क्या 1968 में नामवरजी के जो विचार थे वे 1990 में बने रहे या बदल गए ? नामवरजी ने अभिनवगुप्त की रस संबंधित समझ का व्यापक उपयोग किया है और भरत वर्णित रसों से भिन्न शांतरस की ओर ध्यान खींचा है, लेकिन लिखा नहीं।
‘रसःजस का तस या बस?’ शीर्षक लेख में नामवरजी ने कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं। उनमें पहली बात यह कि ‘चिन्तन के क्षेत्र में पूर्वजों से उऋण होने का एक तरीका यह है कि उनकी मान्यताओं की पुनःप्रस्तुति स्वयं उनकी प्रस्तुति से बेहतर की जाए।’ इस क्रम में नामवरजी ने प्रो.अशोक रामचन्द्र केलकर के ‘प्राचीन भारतीय साहित्य मीमांसा’में प्रस्तुत रस संबंधी विचारों को पेश किया है।नामवरजी के लेख के शीर्षक में प्रश्नवाचक चिह्न अर्थपूर्ण है। यह अनेक रास्ते खोलता है।इस लेख में केलकरजी के विचारों को जस का तस रख दिया गया है ,वहीं दूसरी ओर संभावनाओं के लिए रास्ता खुला छोड़ा गया है। नामवरजी ने लिखा है ‘बेडेकर ने रस-विमर्श की उस प्रचलित प्रवृत्ति पर प्रहार किया था,जिसमें रस की चर्चा एक ‘मनोवैज्ञानिक सिद्धांत’ के रूप में की जा रही थी।इसके विपरीत बेडेकर ने इस प्रस्थान-बिन्दु से अपनी चिन्तन-यात्रा का प्रारम्भ किया कि रस-व्यवस्था ‘कलास्वरूप शास्त्रों’का भारतीय प्रमेय है और विशिष्ट सांस्कृतिक सन्दर्भ में ही उसके सच्चे स्वरूप की पहचान सम्भव है।’(कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता,2010,पृ.11)
नामवरजी ने केलकर के विचारों को अधूरे ढ़ंग से पेश किया है उसके कारण रस पर सुसंगत नजरिया बनाने में मदद कम मिलती है।लेकिन नामवरजी की स्वयं की टिप्पणियां काफी महत्वपूर्ण हैं।नामवरजी ने लिखा ‘कहने की आवश्यकता नहीं कि अन्य कल्पकथाओं की तरह नाट्योत्पत्ति की इस देवासुर-कथा में भी ‘नाट्यवेद’निहित है।नाट्यवेद अर्थात् नाट्य सिद्धांत।इसलिए समस्या एक ‘मिथक’ के ऊपर दूसरा ‘मिथक’ गढ़ने की नहीं,बल्कि उसी ‘मिथक’ को उधेड़ने की है।कल्पसृष्टि एक और पुनर्निर्माण नहीं चाहती,मीमांसा माँगती है।आज की भाषा में कहें तो ‘रिकंस्ट्रक्शन’ नहीं ,’डिकंस्ट्रक्शन’।असंगतियों के बीच सुसंगति लगाने से कहीं ज्यादा जरूरी है सुसंगत प्रतीत होनेवाली रचना में छिपी हुई असंगतियों का उद्घाटन।’(वही,पृ.15)
सवाल यह है नाटक हो या यज्ञ हो,देवासुर संग्राम पर कल्पसृष्टि हो या रसों के सृजन की समस्या हो इसका लक्ष्य क्या है ?यदि हम ‘डिकंस्ट्रक्शन’ करें तो इसके केन्द्र को खोला जा सकता है। रस शास्त्र की समूची चर्चा के केन्द्र में दो बातें सबसे महत्व की हैं। पहली है चीजों को देखने और प्रस्तुत करने की पद्धति और दूसरा है लक्ष्य। दि.के.बेडेकर ने ‘प्राचीन साहित्य मीमांसा’ नामक अपनी लेखमाला में इन दो बातों को रेखांकित किया है इनमें से एक का नामवरजी ने जिक्र किया है,यानी पद्धति का जिक्र किया है लेकिन लक्ष्य को वे छिपा गए।नामवरजी ने लिखा है ‘बहरहाल यह’यज्ञ-नाट्य’देवासुर-कथा ही है और बेडेकर ने विस्तृत विश्लेषण के द्वारा दिखला दिया कि भरत-निर्दिष्ट आठ रसों का अधिष्ठान देवासुर-द्वन्द्व में स्थित है।उन्हीं के शब्दों में, “मनोविज्ञान को एकतरफ रखकर स्थायित्व का अर्थ आठ रसों के स्थिर सम्बन्ध ही लगाना चाहिए।इसी प्रकार इन आठ रसों के पीछे जाकर श्रृंगारादि रस-चतुष्टय पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।श्रृंगारादि चतुष्ट्य का पुनःश्रृंगार-वीर और रौद्र-वीभत्स ऐसा द्वन्द्व ध्यान में रखना चाहिए।यह द्वन्द्व देव और असुर द्वन्द्व का नाट्यमय रसात्मक स्वरूप है।यह निश्चित रूप से जान लेने पर भरत प्रणीत रस-व्यवस्था का सब अर्थ अच्छी तरह से लग जाता है।” ’(16-17)
रस-निष्पत्ति’ के प्रसंग में नामवरजी ने लिखा ‘इसी प्रकार ‘रस-निष्पत्ति’ की प्रक्रिया यज्ञ की प्रक्रिया के अनुसार समझाई गई है।‘रस-निष्पत्ति’ के स्वरूप की चर्चा में अन्य विद्वान जहाँ’षाडव रस’ तथा ‘पानक रस’ में उलझे रहे,बेडेकर की निर्भ्रान्त दृष्टि ‘नाट्यशास्त्र’ की इस पंक्ति पर गई-
‘शरीरं व्याप्यते तेन शुष्कं काष्ठमिवाग्निना।’
लकड़ी में सुप्त अग्नि मन्थन-प्रयोग से व्यक्त होती है और उस लकड़ी को ही व्याप्त कर लेती है।यज्ञ की अग्नि पुराकाल में(और परम्परा-निर्वाह के लिए आज भी)इसी विधि से पैदा की जाती थी।लकड़ी में सुप्त अग्नि को लकड़ी की ओखली में दूसरी लकड़ी की मथानी घुमाने से व्यक्त किया जा सकता है।यज्ञ-क्रिया में ऐसी ही सिद्ध अग्नि ही काम में लाते थे।एक प्रकार से देखें तो देवासुर-कथा का द्वंन्द्व यहाँ भी सक्रिय है।रस-व्यवस्था के मूल में द्वन्द्व है।बेडेकर की क्रांतिकारी खोज यही थी।’(पृ.17) कहने का आशय यह कि नाटक में ‘द्वन्द्व’ के नजरिए के जनक भरत हैं।‘दवन्द्व’ के बिना सृजन नहीं होता। यह हमारी परंपरा का सबसे मूल्यवान नजरिया है और पद्धति भी है।यह आज भी सृजन के लिए प्रासंगिक है। रही बात काठ के घर्षण से अग्नि पैदा करने की तो अग्नि तो लकड़ी में होती है।घर्षण उससे जन्म देता है।इसे तीव्र भावोर्मि कह सकते हैं,रचना के निर्माण में भावोर्मि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।जब कोई विषय लेखक को उद्वेलित करता है तब ही रचना की पहली चिंगारी फूटती है।वहीं से लेखक के भावानुभवों की सृष्टि होती है।यही चीज बाद में रचना के रूप में प्रकाश पाती है।
नामवरजी ने बेडेकर की धारणाओं का विस्तार से विवेचन करने के बाद लिखा ‘सारी युक्ति का सार यह है कि नाट्य प्रयोग न देवों की विजय प्रदर्शित करता है, न असुरों की पराजय;वह तो त्रैलोक्य का भावानुकीर्तन है।अभिनव ने इस भावानुकीर्तन का एक लम्बा-चौड़ा दर्शन पेश कर दिया है,जिसे भारतीय साहित्य मीमांसा का अमरसिद्धांत समझा जाता है।’
आगे लिखा ,‘किन्तु क्या यह काव्य- सिद्धांत ‘जर्जर’का ही दूसरा रूप नहीं है ?जो कार्य बड़े डंडे से न सधे,उसे साधने के लिए सिद्धांत का सहारा लिया जाए तो उस सिद्धांत को क्या नाम दिया जाएगा ?इस सन्दर्भ में अभिनवगुप्त के दो वाक्य उल्लेखनीय हैं।नाट्यशास्त्र के 1/70 पर अभिनवगुप्त अपनी ओर से जोड़ते हैं- एवं राज्ञा सिद्धिविघातका दण्डया इति।अर्थात् इस प्रकार राजा को नाट्य सिद्धि में विघ्न डालनेवालों को दंड देना चाहिए।नाट्यशास्त्र के 1/99श्लोक में ब्रह्मा द्वारा शान्तिपूर्वक समझाने के प्रसंग पर- नाशक्तस्य सामाङ्गीकरोति दुर्जन इति पूर्वरक्षाकरणम्।अर्थात् असक्त के साम को दुर्जन नहीं मानता इसलिए (साम से पहले)रक्षा-विधान दृढ़ कर लिया जाए।तात्पर्य यह कि ब्रह्मा के मुख से कहलाया गया ‘नाट्य दर्शन’ ‘शक्त का साम’अर्थात् ताकतवर का शान्ति-पाठ है।इस प्रकार क्या रस का दर्शन शक्ति का प्रदर्शन नहीं लगता ?आजकल जिसे ‘आइडियोलॉजी’ कहते हैं वह और क्या होती है ?क्या रस-सिद्धान्त ने शुरू से ही एक ‘आइडियोलॉजी’ अथवा ‘दिट्ठ’ की भूमिका नहीं निभाई है ।’
नामवरजी ने बेडेकर का विवेचन करने के साथ ही अंतमें यह भी लिखा , ‘आशंका सिर्फ यही है कि नया आकलन भी कहीं इसी लम्बी श्रृंखला की एक कड़ी न साबित हो ! बेडेकर ने शायद इसीलिए सभी सम्भाव्य संस्करणों को सन्दिग्ध समझा और रस को संग्रहालय में सुरक्षित रखने का प्रस्ताव रखा।इसीलिए आज भी यह प्रश्न है कि रसःजस का तस अथवा बस?’ दिलचस्प बात यह है नामवरजी रस की विचारधारा के पहलू को खोलते ही नहीं हैं और सवाल उठाकर छोड़ देते हैं। रस की विचारधारा का पहलू तब खुलता है जह हम शान्तरस के अंदर प्रवेश करते हैं।बेडेकर ने शान्तरस का जिक्र तक नहीं किया और नामवरजी जिक्र तो करते हैं लेकिन विवेचन से कन्नी काटते हैं। अभिनवगुप्त ने शान्तरस का श्रृंगार के साथ अन्तर्विरोध दिखाकर रस की विचारधारा में निहित जनविरोधी भावों को उद्घाटित किया है।सवाल यह है शान्त रस क्या है और उसे कैसे देखें ?
शांतरस पर जोर देकर अभिनवगुप्त ने असल में रस के समूचे ढ़ांचे और विचारधारा को निशाना बनाया है। अभिनवगुप्त जिस समय लिख रहे थे उस समय समाज में कला,साहित्य,संस्कृति आदि विभिन्न क्षेत्रों में ह्रासशील प्रवृत्तियां चरम पर थीं।रस की सृष्टि और संरचना ने ह्रासशील प्रवृत्तियों को जमकर बढ़ावा दिया,कलाएं सामाजिक उन्नति की बजाय समाज में अवरोध पैदा करने का काम कर रही थीं।रसों की संरचना और विचारधारा पर विचार करें तो पाएंगे कि रसों में गहरा अंतर्विरोध है।मसलन्,रति है तो वैराग्य भी है।रसों में एक-दूसरे के विरोधी भावों का होना यह दरशाता है कि रसों का चरित्र अंतर्विरोधपूर्ण और ह्राशशील है,यह चित्तवृत्तियों का शमन नहीं करता बल्कि उनको तनावयुक्त बनाता है।यह संभव नहीं है कि शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए उत्साहित भी हो और शत्रु से डरे भी।लेकिन इस तरह के अंतर्विरोध रसों में हैं।रसों में अंतर्निहित अंतर्विरोधों की अभिनवगुप्त ने नाटयशास्त्र की अभिनवभारती टीका में विस्तार से चर्चा है।
भरत वर्णित 8रसों के इस समूचे ढ़ांचे से बाहर निकले बिना रस के प्रति नए नजरिए और नई भूमिका का विकास संभव नहीं है। यह आयरनी है कि अभिनवगुप्त की रस संबंधी आलोचना को संस्कृतकवियों और आलोचकों ने गंभीरता से ग्रहण नहीं किया। भरत के यहा रस के अंतर्विरोध से निकलने का उपाय है एक रस से निकलो और दूसरे की शरण लो।इसके लिए ‘ऐकाधिकरण्य’ की पद्धति के प्रयोग पर जोर दिया,ऐकाधिकरण्य का अर्थ है एक आश्रय से सम्बन्ध होना।अभिनवगुप्त ने लिखा है भय और उत्साह का एक आश्रय में सहभाव दूषित होता है।किन्तु उनके आश्रय बदल देने से उनका विरोध जाता रहता है।इसके लिए एकाश्रयत्व में निर्दोष और नैरंतर्य पर जोर दिया गया।इससे रसो में व्याप्त अंतर्विरोधों का समाधान नहीं हुआ।
उल्लेखनीय है अभिनवगुप्त ने नागानन्द का उदाहरण दिया है और उसके संदर्भ में श्रृंगार और शांत रस के अंतर्विरोध का विश्लेषण करते हुए शांतरस की स्थापना की है।अभिनवगुप्त के मूल्यांकन यह वह बिंदु है जहां पर भोगवाद,पुंसवाद और रस के अंतस्संबंध को वे निशाना बनाते हैं।इस अंतस्संबंध को समझाने के लिए उन्होंने सांख्य दर्शन के दो तत्वों ‘चित्तवृत्ति का प्रसार’ और ‘लिङ्गशरीर’ की अवधारणा का इस्तेमाल किया है। वे विस्तार के साथ नागानन्द की कथा का विवेचन करते हैं और इन दोनों धारणाओं का खुलासा करते हैं।
साहित्य में श्रृंगार को रसराज कहा गया और उसका साहित्य में वर्चस्व था।अभिनवगुप्त ने इस वर्चस्व को चुनौती देने के लिए शांतरस की सृष्टि की।श्रृंगार और शांत के अंतर्विरोध पर जोर डाला।श्रृंगार रस का मूलाधार है तृष्णा ,जबकि शांतरस का मूलाधार है तृष्णाक्षय।तृष्णाक्षय में जो आनंद है वह किसी और में नहीं है। रसों की भूमिका रही है तृष्णा पैदा करने की और अभिनवगुप्त ने इसी को आधार बनाकर समूची सामंती व्यवस्था और श्रृंगार रस का विरोध किया। तृष्णाक्षय आज के युग के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण तत्व है।यह सामाजिक विकास का सकारात्मक तत्व है।भरत के 8रसों में तृष्णा जगाकर रसनिष्पति होती है जबकि अभिनवगुप्त के शांतरस में तृष्णाक्षय के जरिए रसनिष्पत्ति और आनंद की सृष्टि की है। श्रृंगारादि रसों के जरिए विषयाभिलाष पैदा किया जाता था उसका अभिनवगुप्त ने विरोध करते हुए विषयाभिलाष के निर्वेद पर जोर दिया है,उस निर्वेद में अभूतपूर्व आनंद होता है।निर्वेद ही शांतरस का स्थायीभाव है। जब उसका परितोष आस्वाद में हो जाता है तभी शान्तरस होता है।ठेस भाषा में इसे वैराग्य यानी नागरिकचेतना कहते हैं।
रसों के विकल्प के रूप में वैराग्य यानी नागरिकचेतना की वकालत वस्तुतःदरबारी सभ्यता-संस्कृति और उनके साथ जुड़े कलारूपों का निषेध है,यह संयासवाद नहीं है।यह लोकचेतना है। तृष्णा और लोकचेतना या नागरिकचेतना में अंतर्विरोध है। उल्लेखनीय है जनभाषा के लेखकों ने श्रृंगारादि रसों और काव्य के नियमों के आधार पर काव्यसृजन का भी विरोध किया था।काव्यसृजन के नियम और रस ये दोनों एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हैं।अभिनवगुप्त ने रसों के मूलाधार पर प्रहार करते हुए जब तृष्णाक्षय की स्थापना की तो उन्होंने वस्तुतःलोक कामना से साहित्य को जोड़ने पर जोर दिया। रसों का आधार तृष्णा होने के कारण भरत वर्णित 8रसों पर आधारित समूचा साहित्य क्रमशःलोक से कटता चला गया । अभिनवगुप्त जब श्रृंगार का विरोध कर रहे थे तो वस्तुतःसाहित्य को नागरिकचेतना से जोड़ने पर जोर दे रहे थे। उन्होंने लिखा है-
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतःषोडशीं कलाम्।।
यानी लोक में कामना से जो सुख प्राप्त होता है और जो स्वर्गीय महान् सुख होता है,वे दोनों प्रकार के सुख तृष्णाक्षय से उत्पन्न होनेवाले सुख का सोलहवाँ भाग भी नहीं होते। इस प्रसंग में भरत के पक्षधरों का मानना है भरत ने शान्त को कभी अस्वीकार नहीं किया,बल्कि भरत के यहां तो शांन्तरस सभी रसों के मूल में रहता है।सभी रसों की शान्तावस्था ही शान्त रस कहलाती है।असल में मामला इतना सरल नहीं है। अभिनवगुप्त ने रेखांकित किया है कि रसों के पक्षधर और भरत के यहां रस के आने के पहले शांतरस रहता है उसके बाद अन्य रस पैदा होते हैं। यानी तृष्णाभाव के पहले शान्त भाव रहता है और रसों के जरिए उस भाव को नष्ट करके तृष्णाभाव पैदा होता है,इसके विपरीत अभिनवगुप्त के नजरिए से तृष्णाभाव को नष्ट करके शान्तरस पैदा होता है।यानी वीतराग या वैराग्य वह है जहां तृष्णा का विध्वंस हो जाय। सवाल यह है क्या आज के उपभोगतावादी समाज में हमें शांतरस चाहिए या नहीं ? अथवा रस चाहिए ? नामवरजी जब रस की हिमायत करते हैं तो वे शान्तरस में निहित इस समूचे दृष्टिकोण को भूल जाते हैं। “कविता के नए प्रतिमान’ में कहने के लिए वे नगेन्द्र की आलोचना करते हैं लेकिन वस्तुतः वे नगेन्द्र के साथ ही खड़े रहते हैं। नगेन्द्र के नजरिए में रस-सिद्धान्त शाश्वत और सार्वभौम सिद्धान्त है वहीं नामवरजी के लिए भरत की रस संबंधी धारणा में प्रसंगानुकूल प्रतिमान मिल जाते हैं।इस प्रसंग में वे रस के आंतरिक तत्वों की विवेचना करके नगेन्द्र के मत का खंडन करते हैं लेकिन वैचारिकतौर पर दोनों एक ही धरातल पर खड़े रहते हैं।यहां तक कि 1990 में भी उनके बुनियादी विचारों में कोई परिवर्तन नहीं आता।
अभिनवगुप्त ने एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू की ओर ध्यान खींचा है वह है रस का चरम।सवाल है क्या रस का चित्रण करते हुए उसको चरम तक चित्रित करें ? भरत चरम तक चित्रण के पक्षधर हैं लेकिन अभिनवगुप्त ऐसा नहीं मानते.शान्तरस के पक्ष,विपक्ष,स्थायीभाव आदि का अभिनवभारती टीका में विस्तार के साथ विश्लेषण किया है। मसलन् रौद्र रस का चरम तो हत्या है लेकिन उसकी प्रस्तुति से बचा जाना चाहिए,प्रतीत हो कि हत्या हो गयी। इसलिए “प्रतीति” और “प्रतीयमान अर्थ” इनका बड़ा महत्व है।इसी प्रकार भरत ने वीररस के तीन उपभेदों का जिक्र किया है,ये हैं, दानवीर,धर्मवीर और युद्धवीर। इसी प्रसंग में अभिनव ने कहा है कि दयावीर को शान्तरस का प्रभेद तब मान सकते हैं जब उसमें सब प्रकार के अहंकार का अभाव हो। यदि उत्साह के साथ अहंकार आ जाता है तो दयावीर को शान्तरस का प्रभेद नहीं मान सकते।इसी तरह कुछ लोग शान्तरस को वीभत्सरस में समाहित करके देखते हैं लेकिन अभिनवगुप्त ने इसका भी खंडन किया है।क्योंकि शान्तरस का मूलाधार या स्थायीभाव घृणा नहीं है। वह तो व्यभिचारी भाव है। अंत में सबसे बड़ी बात जो शान्तरस से जुड़ी है वह है उसका लक्ष्य।भरत वर्णित 8रसों का लक्ष्य है आनंद और रस की सृष्टि करना,लेकिन शांतरस का लक्ष्य है मोक्ष प्रदान करना। 8रसों के लिए पुरूषार्थ की जरूरत है लेकिन शान्तरस के लिए लोकनिष्ठा और नागरिकचेतना होनी चाहिए।
रस के प्रसंग में बुनियादी सवाल यह है कि रस किसके लिए ?आनंद के लिए या दुख के लिए ?नाटक किसके लिए आनंद के लिए या दुख के लिए ? रस को मानें या न मानें लेकिन कलाओं के प्रसंग में यह सवाल तो हमेशा उठा है कि कलाओं का लक्ष्य क्या है ?रसों की जब सृष्टि हुई तब भी यह प्रश्न केन्द्र में था ,नामवरजी इस सवाल से कन्नी काटकर निकल जाते हैं।इस प्रसंग में आर.बी,पाटणकर की कृति ‘सौंदर्य मीमांसा’ में विस्तार के साथ विचार किया है। पाटणकर मराठी साहित्य के प्रमुख आलोचक हैं और उनकी कृति ‘सौंदर्य मीमांसा’ को साहित्य अकादमी ने 1975 में पुरस्कृत भी किया है।नामवरजी ने बेडेकर के बहाने रस की सृजन प्रक्रिया के सवालों पर विचार किया है लेकिन रस का संबंध तो आस्वाद से है और कला के क्षेत्र में सृजन प्रक्रिया से ज्यादा व्यापक फलक आस्वाद प्रक्रिया का है।आस्वाद प्रक्रिया के सवाल कला-साहित्य के बुनियादी सवाल हैं उनसे हिन्दी के मार्क्सवादी आलोचक भागते रहे हैं।रस हमारे ऐंद्रिय सुख से जुड़ा है।यही विमर्श का प्रमुख बिंदु है जिसके जरिए रचना के विमर्श को अमूर्तन में ले जाने से रोक सकते हैं।
नाटक या कला या साहित्य का लक्ष्य है ‘आनंद’,और रस का भी लक्ष्य है ‘आनंद’। ‘आनंद’ के बिना कला रूप अपना विकास नहीं करते।‘आनंद’ से हमें ‘सुख’ मिलता है यही वजह है कि ‘आनंद’ और ‘सुख’ को पर्यायवाची समझना चाहिए। मराठी साहित्य में भी अनेक बड़े विद्वानों ने ‘आनंद’ और ‘सुख को पर्यायवाची माना है। नाट्यशास्त्र में यह भी माना गया है कि रचना में वैयक्तिक दुख और सुख का अनुभव करने से रसनिष्पत्ति में बाधा पड़ती है।
नाट्यशास्त्र पर विचार विमर्श के दौरान अमूमन अभिनवगुप्त लिखित भाष्य का बार-बार जिक्र होता है। अभिनवगुप्त ने नाट्यशास्त्र के रचे जाने के सात-आठ सौ वर्ष के बाद ‘अभिनव-भारती’ नामक टीका लिखी.इसे सबसे प्रामाणिक टीका माना जाता है।अपनी टीका में अभिनवगुप्त ने अनेक बातें अपनी कही हैं उन बातों का भरत के नाट्यशास्त्र से कोई संबंध नहीं है। इस पहलू को टी.जी.माईणकर ने “दि थियरी ऑफ संधीज ऐंड संध्यंगाज”(1960) नामक कृति में विस्तार के साथ रेखांकित किया है।रा.भा.पाटणकर ने सवाल भी उठाया है कि क्या ‘सुख’ को सौंदर्यानुभव का आवश्यक घटक माना जा सकता है ? दूसरा प्रश्न यह कि ऐसा सुख लौकिक है या अलौकिक है ? क्या रचनाएं भावनाओं पर प्रभाव ड़ालती हैं ? अथवा कलास्वाद का भावना और भावनात्मकता से संबंध है ?क्या रचना पढ़ते समय भाव जागृति होती है ?भावना और भावनात्मकता को क्या भावनात्मक मनोदशाओं या मूड से अलग रखा जा सकता है ?मनोदशाएं कितनी अवधि तक टिकी रहती हैं ?क्या इस सबका भावनात्मक स्वभाव वैशिष्ट्य से संबंध जुड़ता है? पाटणकर के अनुसार ‘भावनात्मक स्वभाव वैशिष्ट्य प्रायःजीवन-भर हमारा साथ देते हैं।वे हमारे व्यक्तित्व का भाग बनते हैं।जब हम किसी व्यक्ति को ,निराशावादी और दूसरे को आशावादी कहते हैं,तब हमारे मन में उन मनुष्यों के स्वभाव वैशिष्ट्य ही होते हैं।लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि निराशावादी मनुष्य सारे समय के लिए म्लान पड़ा रहता है और आशावादी सदैव उछल-कूद करता रहता है।’(सौंदर्य- मीमांसा,पृ.238)
दिलचस्प बात यह है कि अभिनवगुप्त जब रस पर विचार कर रहे थे तो उनके नजरिए के केन्द्र में “सुख” या “आनन्द” नहीं था बल्कि “मोक्ष” था। यही वजह है कि लिखा ‘मोक्षफलत्वेन चायं परमपुरूषार्थनिष्ठत्वात् सर्वरसेभ्यःप्रधानतमः।’ कहने का आशय यह कि शान्तरस का फल मोक्ष होता है जो कि सबसे बड़ा फल है।अतएव इस रस की निष्ठा पुरूषार्थ में भी सबसे अधिक होनी चाहिए।
रस पर विचार करते समय तीन तत्वों की खूब चर्चा होती है।1.स्थायीभाव,2.व्यभिचारी या संचारी भाव और 3.सात्त्विक भाव।कई आलोचकों ने इस विवेचन के लिए मनोविज्ञान का सहारा लिया है। इस समूचे प्रसंग में यही कहना समीचीन होगा कि स्थायी भावों का संबंध रंगमंच से है,दृश्य अभिनय में इनकी भूमिका है।वाच्य में इनकी भूमिका नही होती। रा.भा,पाटणकर ने लिखा है स्थिरभावों के लिए भावनात्मक भाषा की जरूरत होती है जिसे अभिनय में बेहतर ढ़ंग से व्यक्त किया जा सकता है।मसलन्,क्रोध का वर्णन करने से वह व्यक्त होगा ?उसका वर्णन किया जा सकता है।यह सही है।लेकिन जिस अर्थ में दाँत,ओंठ चबाना,मुट्ठियाँ भींचना,आँखें लाल होना आदि के जरिए क्रोध व्यक्त होता है उस अर्थ में किसी कृति के जरिए क्रोध व्यक्त नहीं होगा।भावनात्मक भाषा का स्थान वर्णनात्मक भाषा नहीं ले सकती। नाटक में भावों को वाच्य के स्तर पर नहीं दिखाया जाता बल्कि उसकी अभिव्यंजना करनी होती है। नाटककार भावों की अभिव्यंजना के लिए विभावादि का उपयोग करता है।यहाँ भावों का वर्णन नहीं होता।भावों की अभिव्यंजना साधी जाती है। इसलिए नाटक में भाव व्यंजक भाषा और विभावादि का इतना महत्त्व है।यदि विभावादि का नाटक में महत्व है तो यह तय है ये चीजें दृश्य अभिनय के माध्यमों के प्रसंग में आज भी प्रासंगिक हैं। हमारे साहित्यालोचकों की मुश्किल यह है कि वे नाटक को केन्द्र में रखकर लिखे शास्त्र को काव्य आदि विधाओं पर लागू करके उसकी प्रासंगिकता पर विचार करते रहे हैं ,खासकर नामवरजी ने भी इस कृति पर काव्यादि के संदर्भ में ही विचार किया है जो सही नहीं है। दृश्यमाध्यम की सैद्धांतिकी पर लिखी धारणाओं को मुख्य रूप से दृश्यमाध्यमों के संदर्भ में ही पढ़ा जाना चाहिए।
रस के विवेचन के क्रम में एक सवाल यह भी उठा है कि रस का किस वर्ग के साथ संबंध था ? रस के जो वर्गीकरण 8रसों में भरत ने किए उसके पीछे क्या कोई वर्गीयदृष्टि थी या फिर मनमौजी ढ़ंग से वर्गीकरण कर दिया गया था। वर्गीयदृष्टिकोण के सवाल पर इसलिए भी विचार करना चाहिए क्योंकि रसों के सामाजिक आधार को तय करने में मदद मिलेगी। रस का गहरा संबंध दरबारी सभ्यता के साथ था और रस कभी भी गैर-अभिजनवर्ग के उपभोग की चीज नहीं था.इसलिए जितनी भी बार रस पर बहस हुई है तो वह उसकी प्रशंसा और गुणों पर ही केन्द्रित रही है। उसके वर्गीय चरित्र को लेकर चर्चाएं नहीं हुई हैं। रस के समाज से कटे होने का बड़ा कारण यह था कि यह जन्म से अभिजन का शास्त्र रहा है।अभिजन के वैचारिक वर्चस्व को स्थापित करने का शास्त्र रहा है,यही वजह है आमजन ने कभी भी रसों को अपनी काव्याभिव्यक्ति या नाट्याभिव्यक्ति का आधार नहीं बनाया।
रस को दरबारी लेखकों ने अपनी रचनाओं में सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया और अभिजनों की अभिरूचि निर्मित करने के लिए उसके तमाम उपकरण निर्मित किए। इसके कारण रस के अंदर एक खास तरह की अगतिशीलता या अपरिवर्तनीयता भी है। फलतः रस के मूल अवधारणात्मक ढ़ांचे में कोई परिवर्तन सैंकड़ों सालों नहीं हुआ। रस में अभिरूचि के स्तर पर सौंदर्यबोधीय विभाजन भी है जो लंबे समय से अपरिवर्तनीय है.इसका अर्थ है कि रस में ज्ञान का विकास नहीं हुआ।यह सच भी है कि नाट्यशास्त्र में वर्णित रसों के बारे में नई चीज तब आई जब अभिनवगुप्त ने अभिनव भारती नामक टीका लिखी,लेकिन रस की पूर्वधारणाओं को पूरी तरह खारिज करने की उनकी भी हिम्मत नहीं हुई।
रस पर दार्शनिक तौर पर आदर्शवादी दर्शन का असर था जिसके कारण रस की व्याख्याएं तो हुईं लेकिन मूलगामी परिवर्तन नहीं हुआ। अभिनवगुप्त के पहले तक तकरीबन 1000साल तक आठ रस ही प्रचलन में रहे,अभिनवगुप्त ने कहा कि नया रस शान्तरस हो सकता है। लेकिन अभिनवगुप्त के बाद तो फिर से रस जगत में सन्नाटा पसरा हुआ है। इससे पता चलता है कि रसों के उपभोक्ता के रूप में अथवा सर्जक के रूप में या रस के लेखक के रूप में जो लोग काम करते रहे हैं उनमें नई अवधारणाएं निर्मित करने की क्षमता ही नहीं थी,इस दृष्टि से रस एक तरह का बांझ शास्त्र है। उसमें नए को रचने की क्षमता नहीं है। जबकि कायदे से रस के ढ़ांचे से नाभिनालबद्ध वर्ग को नए के खोज की दिशा में प्रयास करना चाहिए लेकिन यह न हो सका।सवाल रस की व्याख्या का नहीं है बल्कि रस को बदलने का है रस जैसा है उसे वैसा ही रखने का अर्थ है कि रस की अपरिवर्तनीयता को मानना।जबकि सच यह है कि रस की उत्पत्ति जब हुई तब से लेकर आज तक तकरीबन दो हजार साल का लंबा सफर गुजर चुका है इसके बावजूद हमने नए की खोज का काम आरंभ नहीं किया है। रस का संरचनात्मक ढांचा इस तरह का है कि उसमें नए की खोज नहीं कर सकते।वह अपरिवर्तनीय उत्पादन संबंधों से बंधा है।
रस में एक खास किस्म का यांत्रिक संरचनात्मक ढ़ांचा है जिसमें रंगमंच काम करता रहा है।इसमें बाह्य हस्तक्षेप की संभावनाओं का अभाव है। रस हमारे पुराने प्राचीनकालीन सामूहिक कलात्मक अनुभवों का हिस्सा है। स्थिर भाव,स्थिर दर्शक और अगतिशील अभिनेता ये तीन इसके संरचनात्मक साथी हैं। फलतःइसकी ह्रासशील सामंती समाज में आकर भूमिका पहले की तुलना में और भी खराब हुई।
सवाल यह है कि रस को आधार बनाकर कोई मुक्तिकामी या परिवर्तनकामी नाटक क्यों नहीं लिखा गया ?रस का चूंकि नाटक के क्षेत्र में इस्तेमाल होता था अतःरस ने सार्वजनिक स्पेस और निजी स्पेस का विकास क्यों नहीं किया ? मध्यकाल में नाटक या रंगमंच हमारे समाज में जनमंच क्यों नहीं बन पाया ?समस्त नाटक उन्हीं वर्गों पर लिखे गए जो दरबारी सभ्यता से जुड़े थे।रस में विभिन्न किस्म के भावों का वस्तुगत वर्गीकरण मिलेगा और मंचन में इनकी वस्तुगत प्रस्तुतियों पर ही जोर रहा।वस्तुगत प्रस्तुतियां समाज के ऊपर आवरण डाले रखने का काम करती हैं,इस तरह की प्रस्तुतियों के कारण समाज की नाटक में यथार्थ प्रस्तुति नजर नहीं आती।समाज पर छदम आवरण पड़ा रहता है.इस तरह की प्रस्तुतियां शोषित और शोषक के बीच के संबंध को छिपाए रखती हैं।दबे-कुचले लोगों और अभिजन के बीच के अंतर्विरोधों को छिपाए रखती हैं।प्रस्तुतियों में मिथकीयचरित्रों के वर्चस्व की वजह से नाटकों के जरिए युगीन समाज को समझना बेहद मुश्किल है।यानी रसों के आधार पर ऐसा साहित्य रचा गया जो सतह पर देखने में सुंदर था लेकिन अंदर से प्राणहीन था।वह रहस्यों के आवरण में बंधा था।
रस को यदि मोक्ष का शास्त्र बनना है तो उसकी पहली सीढ़ी है नाटक में यथार्थ विषयों का प्रवेश हो।रस के नायक के तौर पर कथानक में सामान्यजन की प्रतिष्ठा हो।ऐसे लोगों की प्रतिष्ठा हो जो समाज में हाशिए के लोग कहलाते हैं। यह विलक्षण संयोग है कि रसकेन्द्रित नाटकों का समूचा चरित्र सवर्णवादी है। कथानक के मूल पात्र सवर्ण हैं और वे कथानक की धुरी हैं। असवर्ण पात्र सिर्फ दिल बहलाने के लिए दाखिल होते हैं। वे सारवान गतिविधियों में शामिल नहीं होते।
भरत के ‘नाट्यशास्त्र’ में रस की चर्चा रंगमंच के प्रसंग में है लेकिन कालांतर में काव्यशास्त्रियों और आलोचकों ने इसे साहित्य की विभिन्न विधाओं और खासकर काव्य के मूल्यांकन के संदर्भ में विस्तार दे दिया। इसने रसों के बारे में सबसे ज्यादा विभ्रम खड़े किए।रसों का संबंध यदि नाटक से है और नाटक का संबंध अभिनय से है,अभिनय का भाल-भंगिमाओं से और भाव-भंगिमाओं का सामयिक यथार्थ से संबंध है इस नजरिए से देखें तो नाटक-रस और यथार्थ के अन्तस्संबंध को समझने में मदद मिलेगी।लेकिन हमने पद्धति पुरानी चुनी,हम रसों की धारणाओं की मीमांसा कर रहे हैं और उसके आगे देखने को तैयार नहीं हैं। इसके बाद तो रस और बस ही निकलेगा !
रस,भाव-भंगिमाएं और यथार्थ के रिश्ते में रसमीमांसकों ने रसों पर खूब काम किया लेकिन यथार्थ के साथ उसके अन्तस्संबंध को छोड़ दिया।फलतःरसमीमांसा में भाष्य ही प्रमुख हो गए,व्याख्याएं ही प्रमुख हो गयीं।इस प्रसंग में वाल्टर बेंजामिन याद आते हैं ,वह कहते हैं भाव-भंगिमाएं तो यथार्थ में होती हैं।वे तो आज के यथार्थ में अवस्थित हैं।मसलन्,आपको ऐतिहासिक नाटक लिखना है तो अतीत की घटना का वहीं तक निर्वाह करना है जहां तक उसे आज की भाव-भंगिमाओं के साथ संयोजित करके पेश करने में सफलता मिले।इसका मतलब यह भी है कि ऐतिहासिक नाटक में अनुकरणात्मक भाव-भंगिमाएं तब तक अर्थहीन होती हैं जब तक वे भाव-भंगिमा की साधारण प्रक्रिया का उद्घाटन न करें।ये भंगिमाएं एक्शन की हो सकती हैं या फिर एक्शन का अनुकरण हो सकता है।यदि भाव-भंगिमाओं की पुनरावृत्ति होती है तो वे कृत्रिम रूप ग्रहण कर लेती हैं। वस्तुगत तौर पर देखें तो हमारी भाव-भंगिमाएं अत्यन्त उदार माहौल में बनती-बिगड़ती हैं।अगर कोई व्यक्ति सामाजिक भूमिका के दौरान भाव-भंगिमाओं में हस्तक्षेप करता है या उनका इस्तेमाल करता है तो उसे ज्यादा से ज्यादा सर्जनात्मक ढ़ंग से भाव-भंगिमाओं को सृजित करने की जरूरत पड़ती है।
भरत के नाट्यशास्त्र में रंगमंच और रस के अन्तस्संबंध को जिस तरह विश्लेषित किया उसमें पाठकेन्द्रित रसनिष्पत्ति पर जोर है और उससे रस का सर्जनात्मक विकास नहीं होता। यह दृष्टिकोण ठहरे हुए समाज में तो ग्राह्य है लेकिन जो समाज गतिशील है और ,वहां यह संबंध अप्रासंगिक हो जाता है, यही वजह है रसशास्त्र अगतिशील अवस्था में तो ध्यान खींचता है लेकिन समाज ज्यों ही विकास की अगली दशा में दाखिल हुआ उसकी ओर अधिकांश लेखकों का ध्यान ही नहीं गया अथवा जिन लेखकों ने रसकेन्द्रित होकर लिखा उनको अप्रासंगिकता का सामना करना पड़ा।
रस में आए ठहराव का एक बहुत बड़ा कारण है उसकी समाजनिरपेक्ष परिकल्पना और अवधारणाएं। समाज निरपेक्ष अवधारणाएं उन नाटकों में सही प्रतीत होती हैं जिन नाटकों का कोई सामाजिक लक्ष्य नहीं होता,जो मात्र मनोरंजन या आनंद के लिए लिखे गए हैं। अभिनवगुप्त ने जब भरत वर्णित रसों से भिन्न शान्तरस को स्थापित किया तो उनके जेहन में यही धारणा रही होगी।रस का काम है लोकचेतना से जोड़ना,यानी नाटक में पात्रों की सामाजिक भूमिका में बार-बार व्यवधान पैदा किया जाय,व्यवधान के लिए ही ज्यादा से ज्यादा गानों की जरूरत महसूस की गयी।रस के प्रसंग में भरत जिस रंगमंच की परिकल्पना पेश करते हैं वहां पाठ के विस्तार पर जोर है . उसी पर केन्द्रित अभिनय पर जोर है।लेकिन अभिनेता का काम पाठ को मंच पर हू-ब-हू उतारना नहीं है बल्कि उसका काम है हस्तक्षेप करना,व्यवधान पैदा करना,क्रमभंग करना।कलाकार रससृष्टि करे इसके लिए जरूरी है कि वह भाव-भंगिमा और परिस्थितियों के द्वंद्वात्मक संबंध को उदघाटित करे।इसी क्रम में अभिनेता के एटीट्यूट और पाठ के प्रति उसके रवैय्ये से बहुत कुछ तय होगा।इस प्रसंग में सबसे महत्वपूर्ण है पाठ पर अभिनेता का अधिकार।पाठ को अभिनेता जितनी गहराई में जाकर आत्मसात करेगा उतना ही बेहतर सृजन कर पाएगा।इसके कारण ही वह दर्शक के साथ बेहतर संबंध भी बना पाएगा।
भरत ने नाट्यशास्त्र में नाटक में रस की भूमिका पर ही मूलतः केन्द्रित किया है। उनके लिए रस और उसकी रंगमंचीय प्रक्रिया ही महत्वपूर्ण है। नाट्यशास्त्र की समूची व्याख्या इसी पहलू के इर्दगिर्द घूमती है।इसके जरिए जहां एक ओर नाटक की समीक्षा का पेट भरा गया वहीं काव्यशास्त्र के नाम पर आलोचना की क्षतिपूर्ति करने की कोशिश की गयी।इससे शास्त्र तो निर्मित हुआ लेकिन रंगमंच समृद्ध नहीं हुआ।रंगमंच की समृद्धि के लिए जरूरी है नाटक खेले जाएं,अफसोस है कि नाट्यशास्त्र के प्रभाववश नाटक कम खेले गए,लिखे खूब गए।नाटक खेले गए होते तो रंगमंच का शास्त्र आज अभावग्रस्त न होता। सवाल उठता है जहां नाट्यशास्त्र रचा गया वहां नाटक की आधुनिक समीक्षा का विकास क्यों नहीं हो पाया ? जिस क्षेत्र में नाट्यशास्त्र रचा गया उस क्षेत्र में नाटक कम क्यों खेले गए?
भरत का नाट्यशास्त्र अभिनेता को दर्शक से भिन्न इकाई के रूप में देखता है।दर्शक से अभिनेता को काटकर देखने के कारण हमारे यहां रंगमंच दुर्दशाग्रस्त हुआ।दर्शक से अभिनेता को काटने का अर्थ है शरीर से प्राण निकाल लेना।जींवंत रंगमंच तब ही संभव है जब अभिनेता और दर्शक का संबंध बना रहे।फलतःसंस्कृत साहित्य में विधा रूप में नाटक है लेकिन फॉर्म से ज्यादा उसकी कोई भूमिका नहीं है।विधागत रूप से ज्यादा उसकी कोई भूमिका नहीं है।यह ऐसा नाटक है जो पाठ केन्द्रित है, लेकिन उसमें सामयिक सामाजिक परिस्थितियों की अभिव्यंजना कहीं पर भी नजर नहीं आती।यह ऐसा नाटक है जिसका रचयिता दरबारी है।इस तरह नाटक पूरी तरह दरबारी ताकतों के नियंत्रण में है। इसी संदर्भ में यह सवाल उठता है कि नाटक पर किसका नियंत्रण है ? संयोग की बात है कि संस्कृत नाटकों पर राज्य एपरेटस का नियंत्रण था और उसकी ओर कभी समीक्षकों ने ध्यान ही नहीं दिया। इस प्रसंग में दूसरी समस्या यह पैदा हुई कि आलोचकों ने नाटक को साहित्य की अन्य विधाओं के साथ जोड़ दिया। हम सब जानते हैं नाटक दृश्य माध्यम है जबकि अन्य विधाएं दृश्यमाध्यम नहीं हैं।वे श्रव्यमाध्यम हैं। इसलिए काव्य या साहित्य के साथ नाटक को जोड़कर देखना सही नहीं है,नाटक के शास्त्र को काव्यालोचना बनाना उचित नहीं है।
भरत ने नाट्यशास्त्र की जो परिकल्पना पेश की उसमें पाठ तैयार करना महत्वपूर्ण है,नाटक का सार्वजनिक प्लेटफॉर्म तैयार करना लक्ष्य नहीं है। रंगमंच का सार्वजनिक प्लेटफॉर्म बनाना लक्ष्य होता तो नाट्यशास्त्र की विचारधारात्मक भूमिका भी होती लेकिन नामवरजी नेउसकी व्यापक विचारधारात्मक भूमिका खोज ली।जो कि गलत है। भरत के लिए नाटक रसव्यंजना की विधा है, नाटक उनके लिए विश्व को व्यंजित करने का मंच नहीं है।वे अभिनय की कलात्मक व्याख्या पेश करते हैं लेकिन अभिनय तो कलात्मक व्याख्या नहीं है।अपितु यथार्थ नियंत्रण है।भरत के यहां पाठ ही निर्धारक है लेकिन अभिनय में पाठ निर्धारक नहीं है,वहां से आरंभ जरूर होता लेकिन वहां तो यथार्थ का सृजन करना लक्ष्य होता इस क्रम में ब्याज में पाठ का दायित्व पूरा हो जाता है साथ में अभिनय भी हो जाता है। कहने का अर्थ है अभिनेता कठपुतली नहीं होता।वह पाठ की देन नहीं है, बल्कि सृजन की देन है।
भरत जिस रंगमंच की परिकल्पना करते हैं उसके प्रसंग में सवाल उठता है कि दर्शक जब नाटक देखने जाता है तो क्या उसे नाटक के बारे में पहले से जानकारी होती है ? प्राचीन और मध्यकाल में जिस तरह के महाकाव्यात्मक नाटक लिखे गए उनमें मूल कथानक की दर्शक को पहले से जानकारी हुआ करती थी। इस प्रसंग में बर्तोल्त ब्रेख्त का इस स्मरण करना समीचीन होगा,उनका मानना है कि ऐतिहासिक घटनाओं पर केन्द्रित नाटकों में रंगकर्मी को यह लाईसेंस दिया जाना चाहिए कि वह अपने महान निर्णय कुछ इस तरह पेश करे कि लगे कि वे इतिहास की मुख्यधारा के अनुरूप हैं।साथ ही “ऐसा भी हो सकता था ,वैसे भी हो सकता था”,इस फ्रेमवर्क को न भूले।उसका अपनी रचना से वैसा ही संबंध होना चाहिए जैसा नृत्य शिक्षक का अपने शिष्य से होता है।उसका पहला लक्ष्य होता है उसके बंधनों को जहाँ तक संभव हो ढ़ीला करे।उसे ऐतिहासिक-मनोवैज्ञानिक रूढियों से मुक्त करे।ब्रेख्त का मानना है परिस्थितियों को स्वयं बोलने दो,इसी से वे एक-दूसरे से द्वंद्वात्मक मुठभेड़ करती हैं।नाटक के तत्व तार्किक ढ़ंग से एक-दूसरे के खिलाफ संघर्ष करते हैं।
अभिनवगुप्त ने जब भरत वर्णित 8रसों से भिन्न नौवां शान्त रस पेश किया तो प्रकारान्तर से रसों के लक्ष्य पर ही प्रश्न लगाया।भरत का लक्ष्य था आनंद की सृष्टि करना,इसके विपरीत अभिनवगुप्त का लक्ष्य था वैराग्य यानी लोकचेतना पैदा करना। शान्तरस को पेश करके अभिनवगुप्त ने रसों की प्रामाणिकता पर भी प्रश्नचिह्न लगाया था।साथ ही रसविशेषज्ञ की भूमिका पर को सवालों के दायरे में खड़ा कर दिया।उनके लिए रसविशेषज्ञ या क्रिटिक की आलोचना में चली आ रही वरीयता का भी कोई महत्व नहीं था।रसविशेषज्ञों की राय साहित्य में लगातार अप्रासंगिक बनी रही,इसका प्रधान कारण है रस का समाज से कटा होना।रस के नाम पर या काव्यशास्त्र के ज्ञाता या विशेषज्ञ के नाम पर जो आलोचक सामने आया वह समाज से पूरी तरह कटा हुआ था।यही वजह है कि उसका समाज पर कोई असर नहीं हुआ।
भरत के नाट्यशास्त्र में पारदर्शिता पर जोर है लेकिन इसे सरल प्रस्तुति न समझा जाए।पारदर्शिता वस्तुतःसरलता का विलोम है।पारदर्शिता में निर्माता की वास्तविक कलात्मक क्षमता का उदघाटन होता है।भरत के लिए दर्शक की भूमिका मात्र देखने तक है,वे इसके आगे सोचते ही नहीं है।यह ऐसा दर्शक है जो नाटक देखने पर ही कुछ क्षण के लिए सोचता है। इस तरह के नाटक का लक्ष्य जनता के भावों,विचारों और भावनाओं को अभिव्यक्त करना नहीं है। संस्कृत नाटकों में चिन्तनशील हीरो नहीं मिलेगा।बल्कि विस्मयकारी हीरो मिलेगा।संस्कृत नाटकों में जो कथानक होता है वह परिस्थितियों को खोलने पर जोर नहीं देता।परिस्थितियां वहां सिर्फ संदर्भ के रूप में ऊपर से चिपकायी हुई प्रतीत होती हैं।नाटककार परिस्थितियों को जब तक खोलता नहीं है तब तक वह समाज का उदघाटन नहीं कर पाता। समाज का उदघाटन किए बगैर यह संभव ही नहीं है सामाजिक परिवर्तन हो।
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