शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

'आदिवासी' अवधारणा की तलाश में -1-

     ‘आदिवासी’ पदबंध के बारे में पहली बात यह कि यह हिन्दी का नाम है और हिन्दी क्षेत्र में इसकी एक सीमा तक प्रासंगिकता है। लेकिन अन्यत्र कोई प्रासंगिकता नहीं है। ‘आदिवासी’ पदबंध विभ्रम पैदा करता है। यह मूल जनजातियों के साथ अनेय जनजातियों के बीच तनाव पैदा करता है। ‘आदिवासी’ पदबंध के पीछे स्वयंसेवी संगठनों की जनजातियों के बीच में विभाजनकारी की भूमिका रही है।  इसने अंग्रेजी के ‘ट्राइवल’पदबंध को समूचे विमर्श से अपदस्थ किया है। अंग्रेजी ने नाम में नकारात्मक अर्थ था जबकि हिन्दी का नाम उन्हें मूल बाशिंदे के रूप में देखता है। जब ‘ट्राइवल’ कहते थे तो यह अर्थ संप्रेषित होता था कि समाज से बाहर सामाजिक समूह। मातहत लोग। इसके विपरीत ‘आदिवासी’ पदबंध की अर्थध्वनि एकदम अलग है। आदिवासी कहते ही उनके अधिकारों का बात ज़ेहन में आती है। उनके प्रतिरोध, उभार, संघर्ष,आंदोलन,सशक्तिकरण की बातें मन में आती हैं। 
     भारत में 67.7 मिलियन आदिवासी रहते हैं। आदिवासी को प्रशासनिक भाषा में शिड्यूल ट्राइव भी ये शिड्यूल ट्राइव जातियां आदिवासी की केटेगरी में आती हैं। इन्हें ‘ इंडिजिनस पीपुल’ माना जाता है। इन्हें एसटी कहते हैं। भारत में 5653 विशिष्ट किस्म की जातियां रहती हैं इनमें से 635 जातियां हैं जिन्हें ‘आदिवासी’ की कोटि में रखा गया है। इसके कारण भारत में जनजातियों के समूहों की संख्या 250 से 593 के बीच में है।
     भारत के संविधान में ‘आदिवासी’ पदबंध का प्रयोग नहीं मिलता,बल्कि ‘अनुसूचित जनजाति’ पदबंध का प्रयोग मिलता है। यह ज्यादा सटीक अर्थ को व्यक्त करने वाला पदबंध है। हिन्दीजगत में  ‘जन’ पदबंध सैंकड़ों सालों से बेहद जनप्रिय रहा है। आदिवासियों को आदि बाशिंदा मानने के पीछे प्रधान कारण था उनके जमीन,क्षेत्र और कच्चे संसाधनों पर अधिकारों को स्वीकार करना।
      आरएसएस के संगठन उन्हें ‘वनवासी’ के नाम से पुकारते हैं। ‘वनवासी’ पदबंध उनके पुराने निवासी का अर्थ व्यंजित करता है लेकिन उनके क्षेत्रगत अधिकारों की व्यंजना नहीं करता। यही स्थिति गांधीजी की है वे उन्हें ‘वन्यजाति’ मानते थे। इसमें भी सांस्कृतिक अर्थ की व्यंजना होती है ,क्षेत्रगत आधिकार को वे भी नहीं मानते थे। यही वजह है 60 साल तक कांग्रेस पार्टी ने कभी भी आदिवासियों के अपने इलाके और उसके संसाधनों के स्वामित्व के अधिकारों को स्वीकृति नहीं दी।
  पहलीबार ‘यूपीए -1’ सरकार के शासन में वामपंथियों के दबाब के चलते आदिवासियों के अपने क्षेत्र और संसाधनों पर अधिकार की बात को कानूनी तौर पर मान्यता मिली। आदिवासी संरक्षण के लिए नया कानून बना जिसके द्वारा ब्रिटिश जमाने के समस्त नकारात्मक प्रावधानों की विदाई हुई। 
      आदिवासियों के विशेषज्ञ जे.जे. राय बर्मन के अनुसार आदिवासियों में सभी जातियां मूल आदिवासी जाति की केटेगरी में नहीं आतीं, इसी तरह मूल आदिवासियों में अनेक जनजातियां बाहर से आयी हैं। आज इन जनजातियों के लोग जहां रहते हैं वहां वे मूल रूप से नहीं रहते थे। मसलन मणिपुर के कूकी आदिवासी,मिजोरम के लूसिस जनजाति के लोग मूलतः दक्षिण चीन और चिन पर्वत के निवासी हैं। ये लोग कुछ सौ साल पहले ही स्थानान्तरित होकर भारत में आए हैं। कूकी को ब्रिटिश शासकों ने नागा बहुल इलाकों में बसाया था। जिससे नागा और वैष्णवपंथी मैइती जनजाति के बीच में बफर जॉन पैदा किया जाए। लूसी जनजाति से सैलो का संबंध है इसके मुखिया को ब्रिटिश शासकों ने ठेकेदार के रूप में बढ़ावा दिया जिससे वह मिजोरम में सड़कें बनाए। इस तरह अन्य जगह से लाकर बसाए गए आदिवासियों की बस्तियों का दायरा धीरे-धीरे त्रिपुरा तक फैल गया। जिसे इन दिनों तुइकुक के नाम से जानते हैं।  यहा त्रिपुरा के राजा की नीति थी ,उसने अपने राज्य में रियांग और चकमा जनजाति के लोगों को बाहर से लाकर बसाया। जिससे कॉटन मिलों के लिए झूम की खेती के जरिए कॉटन का अबाधित प्रवाह बनाए रखा जा सके।
    बोडो जनजाति के लोग मूलतः भूटान के हैं और बाद में वे असम में आकर बस गए। टोटोपारा इलाके के टोटो जनजाति के लोग भूटान से आकर उत्तर बंगाल की सीमा पर आकर बस गए। इनमें अनेक ऐसी जनजातियां भी हैं जो एक जमाने में अपराधी जाति के रूप में ही जानी जाती थीं उन्हें भूटान के राजा ने अपने राज्य से निष्कासित कर दिया था। मेघालय में रहने वाली खासी जनजाति के लोग मूलतः कम्पूचिया के हैं और माइग्रेट होकर कुछ सौ वर्ष पहले ही मेघालय में आकर बसे हैं। ये खमेर जनजाति का अंग हैं। देंजोंग भूटिया जनजाति जो सिक्किम की वफादार जनजाति है ,वह तिब्बत से आकर बसे हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल के वीरभूम और मिदनापुर जिले से माइग्रेट करके संथाल जनजाति के लोग झाररखण्ड के संथाल परगना में जाकर बस गए हैं। ये ऐतिहासिक तथ्य हैं।   
    मजेदार बात यह है कि जिस तरह आदिवासी अपने को भारत का मूल या आदि बाशिंदा मानते हैं, वैसे ही कुछ दलित विचारक भी दलितों को भारत का आदि बाशिंदा मानते हैं। लेकिन भारत सरकार उन्हें आदि बाशिंदा मानने को तैयार नहीं है। कुछ ब्राह्मण,राजपूत का नाम जनजाति सूची में वैसे ही है जैसे उत्तराखंड में जौनसारी जाति के लोगों का नाम जनजाति सूची में है यही स्थिति हिमाचल प्रदेश के कनौर जनजाति की भी है।
    आदिवासी पदबंध का उत्तर बंगाल,सिक्किम,अरूणाचल प्रदेश,असम,मेघालय, नागालैण्ड, त्रिपुरा में चायबागानों में काम करने वाले मजदूरों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इन इलाकों में संथाल,मुण्डा,ओरांव आदि ब्रिटिश जमाने में माइग्रेट करके आए थे। इन इलाकों के मूल आदिवासी अपने को इससे अपमानित महसूस करते हैं। क्योंकि उन्हें भी आदिवासी के रूप में जाना जाता है। इसके कारण उत्तर बंगाल के मूल आदिवासी अपने को आदिवासी के नाम से नहीं बल्कि अपनी मूल जाति के नाम से पुकारते हैं ,वे अपने को राभा,मिच,राजवंशी जनजाति या एथनिक ग्रुप के नाम से पुकारते हैं। वे इस बात का विरोध करते हैं कि उन्हें आदिवासी कहा जाए। सिक्किम के आदिवासी अपने यहां छोटा नागपुर से माइग्रेट करके आए पर्वतीय मजदूरों को आदिवासी मानते हैं वे उन्हें उनकी जनजाति के नाम से नहीं पुकारते। उत्तर बंगाल के सुंदरवन में माइग्रेट करके आए संथाल,उरांव,मुण्डा, हो जनजाति के कृषि मजदूरों और छोटी जोत के किसानों को आदिवासी के नाम से पुकारते हैं ,उनकी जनजाति के नाम से नहीं। इनमें से ज्यादातर अनुसूचित जनजाति में आते हैं। कहने का अर्थ यह है कि आदिवासी पदबंध उत्तर-पूर्वी भारत में उत्पत्तिमूलक है और उससे मध्य भारत के माइग्रेटेड आदिवासी मजदूर,छोटे किसानों की पहचान बनती है। इस बात को रखने का प्रधान मकसद है कि ‘ट्राइवल’, ‘जनजाति’ और ‘आदिवासी’ इन तीनों पदबंधों के अर्थ में अंतर है। ‘आदिवासी’ पदबंध के भारत में स्वयंसेवी संगठनों ने जनप्रिय बनाया है। इससे मूल जनजातियों और माइग्रेटेड जनजातियों में टकराव बढ़ा है। जे.जे, राय बर्मन ने सही रेखांकित किया है कि हमें ‘आदिवासी’ पदबंध को ‘ट्राइवल’ के वजन का नहीं समझना चाहिए। ‘आदिवासी’ के नाम से परिचित जातियों को आदि जातियां नहीं कहा जा सकता। ‘आदिवासी’ पदबंध का प्रयोग जनजातियों में भारत विरोधी भावनाएं भड़काने का काम करता है। खासकर उत्तर बंगाल,सिक्किम और अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों में इस पदबंध के प्रयोग से अधिकांश मूल जनजातियां अपने को अपमानित महसूस करती हैं। यहां उल्लेखनीय है कि ‘ट्राइवल’ पदबंध स्वयं में समस्यामूलक है और इसे ब्रिटिश संस्कृति के जनजातियों पर हमले के रूप में देखा जाता है। भारत में कुछ नए विचारक आए हैं जो ‘फ्रेण्डस ऑफ ट्राइव’ (आदिवासी बंधु) के नाम से काम कर रहे हैं। वे आदिवासियों को रोमांटिसाइज करते हैं। वे आदिवासियों के क्रांतिकारी सशक्तिकरण का हल्ला करते हैं। (क्रमशः)
  

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