समस्त मानवीय संबंधों में मित्रता सबसे महत् संबंध है। यह साथ, साहचर्य, सहयोग, पारस्परिकता एवं स्वतंत्रता पर आधारित विशुध्द रूप से सकारात्मक संबंध है। जीवन की अनेकानेक पूर्णताओं के बावजूद मित्रहीन जीवन स्वीकार्य नहीं होता। स्वतंत्रता का विवेक, निजी व अन्य की अस्मिता का सहज, स्वाभाविक स्वीकार मित्रता के स्वरूप को प्रगाढ़ बनाते हैं। इसमें प्रेम के एकाकीपन, परनिर्भर संकीर्णता, ईर्ष्या से विलग व्यापकता का बोध अधिक है। अरस्तू ने 'निमोकियन एथिक्स' की आठवीं और नौवीं पुस्तकों में 'मित्रता' को नैतिक गुण माना है, जो एक जैसे उत्तम गुणधर्म वाले व्यक्तियों में होती है। आठवीं पुस्तक के तृतीय और चतुर्थ अध्यायों में मित्रता को परिभाषित करते हुए अरस्तू कहते है यह विस्तृत रूप में ऐसी अवस्था या स्थिति है जहाँ दो व्यक्ति एक दूसरे की भलाई की कामना करते हैं। वे मित्रता के तीन विभेद भी स्वीकार करते है जहाँ स्नेह का आधार भिन्न होता है। पहली प्रकार की मित्रता उपयोगिता पर आधारित है तथा दूसरे प्रकार की आनंद पर। उपयोगिता के आधार पर की गई मित्रता में हम उस व्यक्ति के मित्र होंगे तो हमारे लिए उपयोगी होगा। यहाँ स्नेह का आधार मित्र नहीं बल्कि उसकी उपयोगिता है। दूसरी प्रकार की मित्रता भी मित्रों से नहीं वरन् उनसे मिलनेवाले आनंद को आधार बनाकर विकसित होती है। यहाँ आनंद प्रधान है मित्रता नहीं। तीसरी और वास्तविक मित्रता, अरस्तू के अनुसार, नेकी या भलाई पर आधारित होती है। इसमें मित्र प्रमुख होते हैं। गुणी मित्रों की हित कामना करना ही सच्ची मित्रता है। यह हित कामना भी मित्र के स्वभाव और वास्तविक स्थिति अर्थात् वह क्या है, कैसा है, पर आधारित होनी चाहिए। यह आकस्मिक समझदारी और विचार पर आधारित नही होनी चाहिए। अत: मित्रता का वही रूप आदर्श होता है जब हम मित्र के प्रति स्नेह उसकी अच्छाई के कारण महसूस करते हैं। उनके उपयोग या आनंद के कारण नहीं।
अरस्तू आदर्श मित्रता के लिए अच्छाई के साथ समानता को भी आवश्यक मानते है। यह मान्यता बहुप्रचलित सिनेमाई मुहावरे 'विपरीतों का आकर्षण'(अपोजिट्स अटरैक्ट) से बिल्कुल उलट है। पारस्परिकता के लिए समान होना आवश्यक है। यह समानता 'नेकी'/'अच्छाई' की होनी चाहिए। जब मित्र एक-दूसरे को, उनकी अच्छाई को महत्व देते है तभी दोस्ती चिरायु होती है। इसके साथ ही वे यह रेखांकित करना नहीं भूलते कि सच्ची दोस्ती दुर्लभ है क्योंकि भले और गुणी इंसान भी विरल हैं। मित्रों को एक-दूसरे को जानने, समझने एवं चरित्र की पहचान करने में काफी समय लगता है। ताकि वे एक-दूसरे पर विश्वास कर सकें। अत: आदर्श मित्रता के लिए अच्छा दिखने से ज्यादा अच्छा होना अधिक महत्वपूर्ण है। अरस्तू ज़ोर देकर कहते है कि बुरे और दुर्गुणी लोगों के बीच सच्ची मित्रता नही हो सकती है कारण कि वे हमेशा उपयोग व आनंद के इच्छुक होते हैं।
अच्छे मित्र साथ में समय गुजारना पसंद करते हैं। एक दूसरे के साथ का आनंद लेते हैं। गौरतलब है कि मित्र के साथ मूल्यवान समय की साझेदारी ही मित्रता को प्रगाढ़ बनाती है। यदि किसी की भलाई की कामना करते हुए भी हम उसे पसंद नहीं करते या उसके साथ समय व्यतीत नही करते तो यह मित्रता नही है क्योंकि यहाँ मित्रों के बीच मूल्यवान समय की साझेदारी गायब है। वास्तविकता यही है कि हम अपने मूल्यवान समय को स्वयं के लिए चुराकर रखते है तथा बाकि बचे हुए, थके हुए मूल्यहीन समय की साझेदारी करते हैं। संबंधों के खोखले होने का रोना भी रोते हैं। मित्रता ही नही किसी भी संबंध में मूल्यवान समय की साझेदारी की ज़रूरत सबसे ज्यादा है, उसकी जगह धन, संपदा और मौखिक प्यार कभी नहीं ले सकता। आदर्श मैत्री मित्रों की निजी इयत्ता को नष्ट नही करती। मित्र निजी अस्मिता को जीते हुए उससे भी परे की अच्छाई 'गुड' की ओर उन्मुख होते हैं।
समानता को अत्यधिक महत्व देने के कारण अरस्तू धनवान-दरिद्र, राजा-रंक, बुद्धिमान-मूर्ख व्यक्तियों में आदर्श मैत्री को असम्भव मानते हैं। उनका मानना है दो व्यक्तियों में गुण, धन, स्वभाव, विवेक या किसी अन्य व्यवहार की अत्यधिक भिन्नता उन्हें मित्र नहीं रहने देती। एन वार्ड का मानना है अरस्तू के इस आदर्श मित्रता की धारणा समस्याप्रद है। ऐसा लगता है मानो यह केवल पुरूषों के लिए उपयुक्त है। कारण कि परिवार में पति-पत्नी के बीच अपूर्ण मैत्री संबंध होते हैं। इसके अलावा अच्छे पुरुष का प्रेम दूसरों की बनिस्बत स्वयं से अधिक होता है।
अरस्तू 'निमोकियन एथिक्स' की आठवीं पुस्तक के सप्तम अध्याय में शारीरिक, मानसिक धरातल पर भिन्न स्त्री व पुरुष के बीच दोषपूर्ण मैत्री को रेखांकित करते हैं। दो असमान इयत्ता वाले संबंध में वरिष्ठ संगी कनिष्ठ का ज्यादा स्नेह पाएगा जबकि कनिष्ठ को वरिष्ठ से कम प्यार मिलेगा। यह अपूर्ण मैत्री पिता-पुत्र, आयु में बड़े-छोटे, शासक-शासित और पति-पत्नी के बीच होती है। पति-पत्नी के बीच की मित्रता का सच्चा या दोशपूर्ण रूप प्रथमत: परिवार के बीच में ही उभरता है। उनका मंतव्य है कि पति-पत्नी के बीच का संबंध 'अभिजात्य' होता है। असमान संबंधों पर आधारित होता है। इस अभिजात्य संबंध में स्त्री अल्पतंत्र में होती है एवं पुरुष गुणवान, कुलीन, श्रेष्ठ शासक होता है। परिवार में औरत का कोई निर्णय अन्तिम और महत्वपूर्ण नहीं होता। अत: इस अर्थ में पति-पत्नी आदर्श मित्रता के मानकों तक नही पहुँचते।
यहाँ यह समझना जरूरी है कि अरस्तू परिवार की इकाई को राजनीतिक संबंधों से भिन्न और इतर मानते है और यह कि किसी भी राजनीतिक समुदाय से अलग परिवार के सदस्यों के बीच मित्रता अधिक स्वाभाविक व सहज होती है। उसमें किसी प्रचलित रीति या शासन पध्दति की आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि वे पति-पत्नी में गुणात्मक अंतर मानते हुए भी उनकी सहजवृत्ति तथा जैविक ज़रूरतों को चिह्नित करते हैं जिसे प्रकारान्तर से मित्रता का आधार भी माना जा सकता है। उनका कहना है कि पति-पत्नी में मित्रता स्वाभाविक रूप में होती है। पुरुष सामान्यतया जोड़े में रहना अधिक पसंद करते हैं बजाए सामाजिक या राजनीतिक इकाई के रूप में रहने के। क्योंकि घरेलू जीवन प्रारम्भिक व अपरिहार्य रूप में उनसे जुड़ा होता है और प्रजनन एक ऐसा बंधन है जो सभी जीवितों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
यह कामुक,प्रजनन संबंध स्त्री-पुरुष की मित्रता के प्राकृतिक आधार हैं। बच्चों की उपस्थिति से यह संबंध प्रगाढ़ व सुदृढ़ बनता है। बच्चे के अभाव में विवाह बंधन शीघ्र टूट जाते हैं। स्त्री-पुरुष समस्त जैविक भिन्नताओं के बावजूद पुनरुत्पादन करते हैं जो उनकी साझा उत्पत्ति है। वे साथ रहकर पुनर्रुत्पादन ही नहीं करते वरन् जीवन की आवश्यकताओं को सुरक्षित भी करते हैं। एकदूसरे को संतुष्टि और आनंद देते हुए वे नवीन निर्माण करते हैं। यह मैत्री उपयोगी तथा आनंददायक तो है ही साथ ही स्त्री-पुरुष के सद्गुणी होने पर यह उत्कृष्ट भी है।
एन वार्ड अरस्तू के आदर्श मैत्री संबंध को स्त्री-पुरुष के मध्य न देखकर माँ और बच्चे के बीच देखती हैं। अत: उनका नजरिया अन्य विचारकों जैसे ली बैरडषॉ, नैंसी तुआन, बारबरा टोवे और जार्ज टोवे, अरलेन सैक्सोन्हाउस से भिन्न है। ये सभी विचारक अरस्तू की मित्रता की अवधारणा को औरत-मर्द के संदर्भ में देखते हुए नैतिक, राजनीतिक और दार्शनिक क्रियाकलापों के परिप्रेक्ष्य में स्त्री के स्वभाव और संभावनाओं को देखते हैं। वे स्त्री को प्राकृतिक रूप में बुद्धिहीन, सांस्कृतिक तौर पर अनुकूलित, अबाधित भावनाओं एवं नैतिक दौर्बल्य से ग्रसित मानते हैं। जबकि एन वार्ड का नजरिया मैरी पी. निकोल्स, हैराल्ड एल लेवी से साम्य रखता है। जो मानते है कि अरस्तू घर-परिवार में पुरुष के समान स्त्री की समान हिस्सेदारी की माँग करते हैं। निकोल्स के अनुसार, अरस्तू दोनों लिंगों के बीच की समानता को स्वीकार करते हैं और राजनीतिक समानता व न्यायपरकता की बात करते हैं। दोनों लिंगों की भिन्नता में भी साझे नियमों के गठन की बात करते हैं। लेवी के अनुसार, अरस्तू महिलाओं के द्वारा राजनीतिक नियम का क्रियान्वयन परिवार में ही नहीं नगर में भी चाहते हैं। ताकि औरतें राजनीतिक शक्ति हासिल कर सकें।
मातृत्व के संदर्भ में सैक्सोन्हाउस और डैरेल डाब्स का मंतव्य है कि मातृत्व ही वह कारक है जिसके कारण अरस्तू स्त्री को पुंस सार्वजनिक क्षेत्रों से दूर रखना चाहते हैं। बच्चों का पालन-पोषण, घरेलू कार्य स्त्री को इतना अवकाश नहीं देते कि वह राजनीतिक विमर्श तथा नागरिक हिस्सेदारी को निभा सकें। इसके विरोध में एन वार्ड का कहना है 'अरस्तू प्रत्यक्षत: स्त्री को आदर्श मैत्री के उपयुक्त नहीं मानते किंतु मातृत्व पर दिए गए उनके वक्तव्य में मातृभाव मित्रता के एक रूप में सामने आता है। जो स्त्री को खोलता है, उसे मुक्त करता है साथ ही उसे राजनीतिक, नैतिक एवं दार्शनिक जीवन के लिए विशेष तौर पर तैयार करता है। यह औरत के स्व का सर्वोत्कृष्ट रूप है जिसके मूल में नि:स्वार्थ भलाई की कामना सन्निहित है। अत: मेरे इस विश्लेषण में आंशिक रूप में ही सही अरस्तू से इस प्रश्न का जबाव, कि महिलाएँ 'आदर्स मित्र' हो सकती हैं, मिलता है। स्त्री की मित्रता-क्षमता के प्रश्न पर पूर्ण उत्तर भले न मिला हो परन्तु मातृत्व की ज्ञानवर्ध्दक समझ जरूर मिलती है। मातृत्व औरत और मर्द को या 'स्त्री भाव' और 'पुंस तर्क' को अलगाता नहीं है बल्कि उन्हें अधिक पास खींच लाता है।'
कुछ नारीवादी दार्शनिकों ने 'जिम्मेदारी या देखरेख के ’आचारशास्त्र' 'एथिक्स ऑफ केयर' के निर्माण की बात कही जिसके मूल दृष्टांत के रूप में मातृत्व को प्रतिपादित किया। यह स्त्रीवादियों के बीच विवादित विषय है। कुछ का मत है कि यह धारणा सारतत्ववाद से प्रभावित है जिसमें पहले से ही स्त्री को पुरूषों की अपेक्षा अल्प तार्किक और अधिक भावपूर्ण, आत्मत्यागी माना जाता है। इससे यह बात भी पुष्ट होती है कि महिलाएँ नैतिक और राजनैतिक चुनाव करने में अक्षम होती हैं। अत: औरतों को घर, परिवार, बच्चे व पुरूषों के साथ असमान संबंधों में ही जीना चाहिए। सैंड्रा ली बार्टकी ने 'फेमिनिटी एंड डोमिनेशन' में माना कि 'नि:स्वार्थ देखभाल' ने स्त्री को पुरुष की तुलना में लिंगीय रूप में असमानुपातिक स्थिति में खड़ा कर दिया है। इससे वह अत्यधिक शोषित व शक्तिहीन हुई है। मर्दों का अधिनायकत्व बना रह सका है। उसकी निजी अस्मिता और यथार्थ की चेतना को हानि पहुँची है। वे पुरूषों के नैतिक मूल्यों को ग्रहण कर रहीं हैं जो बहुत खतरनाक है। सुसन मोलर ओकिन भी मातृत्व को ही स्त्री के पुंस प्रभुत्ववाले क्षेत्रों से बहिष्कार का बड़ा कारण मानती हैं। जबकि अरस्तू मातृत्व को स्त्री की सक्रियता एवं तत्वज्ञान का आधार मानते हैं जिसके कारण वह सभी क्षेत्रों का अभिन्न हिस्सा होती है।
प्लेटो ने महिलाओं को बौध्दिक तथा आध्यात्मिक स्तर पर पुरूषों से हीन माना। स्त्री-पुरुष के संबंध को वे केवल विवाह एवं प्रजनन के लिए उपयुक्त मानते हैं। जबकि मित्रता दो पुरूषों के या पुरुष और भगवान के बीच ही हो सकती है। उन्होंने मैत्री के लिए न्याय व समानता के महत्व को स्वीकार करते हुए भी अपवादों से इंकार नहीं किया हैं ''जब दो व्यक्ति गुणी एवं समान हों, उनमें बराबरी हो, तो हम कह सकते हैं कि वे एक दूसरे के मित्र हैं। लेकिन दरिद्र व्यक्ति की धनवान व्यक्ति से भी मित्रता हो सकती है, चाहे वे बिल्कुल विपरीत हों। इन दोनों ही संदर्भों में यदि मित्रता उत्कट हो तो उसे प्रेम कहते है।'' (प्लेटो, लॉज़ 873 अ)
प्रसिध्द नारीवादी लूस इरीगरी स्त्री की माँ के रूप में अतिरिक्त क्षमता को स्वीकार करती हैं। इस तरह देखा जाए तो माँ के तौर पर औरत न केवल आदर्श मित्र होती है वरन् उसका दायरा भी व्यापक होता है। बकौल लूस इरीगरी, हम जब औरतें होती हैं तो हमेशा माँ होती हैं। एक स्त्री की दिक्कत यह नही है कि वह औरत है एवं माँ हैं बल्कि उसकी परेशानी यह है कि उसे बच्चे, महिला तथा पुरुष सभी को देखना पड़ता है।
स्त्री व स्त्री की मित्रता वस्तुत: सहभाव पर आधारित होती है। देखा भी गया है कि स्त्री और पुरूष के बीच की असमानता, मर्द की तुलना में उसकी गौण स्थिति उसके उदार रूप-संरचना, स्वभाव, व्यवहार को विकृत कर देती है। वह सभी भूमिकाओं को निभाते हुए अपने प्रति सबसे ज्यादा गैरजिम्मेदार होती है। अनेक प्रकार की भिन्नताओं तथा बहुलताओं के बावजूद वे पितृसत्ताक समाज में पीड़ित, शोषित की एकजुट सहभावना से जुड़ी होती हैं। परम्परागत महिला पुरुष के सामने न केवल अभिनय करने बल्कि झूठ बोलने, आडंबर करने के लिए बाध्य होती है। यही कारण है कि वह अपने ही समान अन्य औरतों से सहभाव महसूस करती है। सीमोन द बोउवार इसे 'कुछ अंशों में समलिंगी कामुकता' मानती हैं। यहाँ स्त्री अपने संसार की छोटी-छोटी बातों, क्रियाकलापों, चंचलवृत्तियों, इच्छाओं, कई बार दमित कामुक भावों का उन्मुक्त भाव से साझा करती है। यहाँ यह भी रेखांकित करना ज़रूरी है कि भावों और वृत्तियों का यह स्वाभाविक प्रवाह पुरूषों के द्वारा स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। किंतु इस सहभाव की भी अपनी दिक्कत है जो आदर्श मित्रता के लिए बाधक है। पहली यह कि स्त्री का व्यक्तित्वहीन होना। व्यक्तित्व के अभाव में वे स्वयं को परे रखकर अपने संबंधों का चुनाव और निर्माण करती हैं। व्यक्तित्व एवं वैयक्तिकता का नकार उनमें आपसी समानता तथा सहभाव के बावजूद षत्रुता का सृजन करता है। जैसा कि सीमोन द बोउवार कहती हैं 'स्त्रियों में मुश्किल से सह-भाव सच्ची मित्रता में बदलता है। वे पुरूषों से अधिक संलग्नता अनुभव करती हैं। वे सामूहिक रूप से पुरूष-जगत का सामना करती हैं। प्रत्येक स्त्री उस विश्व की कीमत अपनी निजी मान्यता के आधार पर ऑंकना चाहती है। स्त्रियों के संबंध उनके व्यक्तित्व पर आधारित नहीं होते। वे साधारणत: एक-सा ही अनुभव करतीं हैं और इसी कारण शत्रुता के भाव का जन्म होता है। स्त्रियाँ एक-दूसरे को सहजता से समझ लेती हैं इसलिए वे आपस में समानता का अनुभव तो करती हैं, पर इसी कारण वे एक-दूसरे के विरुध्द भी हो जाती हैं।'
भारतवर्ष के संदर्भ में देखें तो पाएँगे कि विगत सैकड़ों वर्षों में मित्रता की परिभाषा बदलती रही है एवं स्त्री ने माँ, पत्नी, सहचरी, मित्र, प्रेमिका, बहन, बेटी बनकर उसे निभाया भी है। हमारे यहाँ मित्रता पारस्परिकता एवं पारदर्शी अभिव्यक्ति का माध्यम रही है। ऐसी मैत्री व्यक्तित्व के सर्जनात्मक विकास में सहायक होती है। कालिदास की पत्नी उनकी सच्ची मित्र ही नहीं बल्कि शिक्षिका भी रही। तुलसीदास की पत्नी उनसे कहीं अधिक शिक्षित तो थीं ही, वे वास्तव अर्थों में उनकी सहचरी भी थीं। शायद यही कारण रहा कि कालिदास ने अपनी कृति में दुष्यंत व शकुंतला को पति-पत्नी बनाने से पहले मित्र के रूप में चित्रित किया। पत्नी तो वह बाद में बनी। उसकी मित्रता दुरावरहित पारदर्शी मित्रता है। इसलिए दुष्यंत से बिछुड़ने के बाद वह अपनी शारीरिक पीड़ा नही छुपाती। अपने आग्रह को व्यक्त करती है।
भक्तिकाल में गोपियों में कृष्ण के साथ इसी मैत्री भाव की प्रधानता है। वे सारे बंधनों, वर्जनाओं को तोड़कर कृष्ण से मिलने जाती हैं। उनका निष्छल प्रेम संसार तथा निर्गुणी ईश्वर को नहीं मानता, वो तो कृष्ण में रमता है। भक्ति-आंदोलन की कवयित्रियों में भी गुरू के साथ यह मित्रता-बोध परिलक्षित होता है। गुरू उनका इनसाइडर है। वे जो किसी से नहीं कहती, गुरू से कहती हैं। सारे आडंबर व मिथ्याचार के विरुद्ध पारस्परिकता का बोध विकसित होता है। यह उसी प्रकार की मैत्री है जो पिता-पुत्र में, जब एक ही नाप के जूते होने लगे तो, होती है या तब जब पहली बार मासिक धर्म होने के बाद पुत्री और माँ के बीच होती है।
मित्रता अनमोल है। अत: आवश्यक है कि स्त्री स्त्रीत्व की मान्य पराधीनता से मुक्त हो। उसकी शिक्षा-दीक्षा उसे आत्मनिर्भर, व्यक्तित्व सम्पन्न बनाए ताकि वह निजी अस्मिता एवं स्वतंत्रता के महत्व को समझ सके। परनिर्भर व्यक्तित्वहीन स्त्री एकाकी, ईर्ष्यालु, संकीर्ण और मिथ्याचारी होती है। यही कारण है कि वह सालों साथ रहकर भी परिवार और सदस्यों से मित्रवत नहीं हो पाती। विवाह के पश्चात की स्थितियाँ कहीं ज्यादा भयानक और निर्मम हो जातीं हैं। अपनी माँ, बहनों के बाद पति की माँ, बहन, भाभी का लगातार साथ व साहचर्य भी उसे घनिष्ठ मित्रताबोध से वंचित रखता है। अर्थात् निज की अवहेलना पर बनाए संबंधों का खामियाजा वह उम्र भर भुगतती है। उसे स्वयं से प्यार करना सीखना होगा। खुद से द्वेषरत स्त्री किसी से प्रेम नहीं कर पाती। मित्रता नहीं कर पाती। उदासी, खिन्नता से घिरी वह निरन्तर असुरक्षित महसूस करती है। इसलिए उसे खुद की इयत्ता-चेतना से संपन्न होना होगा ताकि वह अपनी शक्ति, नि:स्वार्थ प्रेम की क्षमता को पहचान सके।
( विजया सिंह,रिसर्च स्कॉलर,कलकत्ता विश्वविद्यालय,कोलकाता)
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