शनिवार, 27 दिसंबर 2014

कॉमरेड ! कबीलावाद को जनवाद नहीं कहते !



     हिन्दी लेखकों के एक बड़े हिस्से में फेसबुक से लेकर सांगठनिक स्तर तक कबीलावादी मानसिकता बनी हुई है। वे गुट बनाकर काम करते हैं, अपने गुट के सदस्य की प्रशंसा करते हैं, गुट का सदस्य घटिया काम करे,तब भी प्रशंसा करते हैं,उसकी स्तरहीन रचना को भी महान बनाकर पेश करते हैं, हर हालत में उसके पक्ष में खड़े होते हैं, जो उनसे अससहमत हो,उनकी आलोचना लिखे, उसपर निजी हमले करते हैं। फेसबुक पर सक्रिय अधिकांश जनवादी-प्रगतिशील लेखकों की फेसबुक वॉल देखें तो पाएंगे कि ये लोग फेसबुक पर कोई गंभीर विचार-विमर्श नहीं करते, केन्द्र-राज्य सरकारों की जनविरोधी हरकतों या फैसलों की कभी तीखी आलोचना नहीं करते। साहित्य-कला के सवालों पर नहीं लिखते। इनकी दुनिया आत्म-प्रशंसकों से घिरी है। ये अपनी प्रशंसा करते हैं, जो उनकी प्रशंसा करता है, उसकी प्रशंसा करते हैं। इनकी फेसबुक वॉल पर किसी भी साहित्यिक मसले पर कोई बहस नहीं मिलेगी। ये फेसबुक में हैं लेकिन फेसबुक से जुड़े किसी भी ज्ञान-विज्ञान को पढ़ने में इनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। ये दुनियाभर की सैर कर रहे हैं लेकिन थोड़ा ठहरकर दुनिया में जो मसले उठ रहे हैं उन पर बातें नहीं करते। देश –विदेश की दुनिया से बेखबर होकर फेसबुक पर ये लोग किसलिए हैं और किस रुप में हैं इसे समझने की जरुरत है । इनसे सवाल किया जाय कि वे फेसबुक पर क्यों हैं ? वे लेखक हैं तो देश-विदेश के सवालों पर गूंगे क्यों रहते हैं ? ये कमाल के वीर हैं,सारी दुनिया के सवालों पर गूंगे रहते हैं लेकिन अपने आलोचकों से पूछते हैं पार्टनर तेरी पॉलिटिक्स क्या है ? इनको कभी कांग्रेस-माकपा-भाजपा –सपा-बसपा आदि की जनविरोधी भूमिका पर एक पंक्ति लिखते नहीं देखा गया,इनको भारतीय लेखकों की कोई समस्या नजर नहीं आती और न उस पर कोई बहस चलाते हैं, हम सवाल करना चाहते हैं आखिर वे फेसबुक पर क्यों हैं ? फेसबुक पर इस तरह की गूंगी उपस्थिति तो इनके कबीलावाद को और भी मुखर रुप में व्यंजित कर रही है।

मोदी के आगमन के पहले और बाद में आप इन प्रगतिशील-जनवादियों की फेसबुक वॉल देखें तो चौंक जाएंगे अधिकतर की वॉल पर मोदी के बारे में बमुश्किल कोई पोस्ट मिलेगी,ऊपर से तुर्रा यह कि ये फेसबुक पर धर्मनिरपेक्षता की रक्षा कर रहे हैं। असल में ये फेसबुक को जनसंपर्क के माध्यम के रुप में इस्तेमाल कर रहे हैं। हमें इस पर आपत्ति नहीं है कि वे जन-संपर्क क्यों करते हैं, हमें आपत्ति है कि ये लोग यदि सच में भाजपा विरोधी हैं,मोदी विरोधी हैं तो जमकर भाजपा सरकारों की जनविरोधी नीतियों और अमानवीयता पर लिखते क्यों नहीं ? पहले मनमोहन सिंह सरकार पर ये चुप क्यों थे ? इनकी फेसबुक वॉल पर छत्तीसगढ़ सरकार से लेकर मोदी सरकार के खिलाफ कोई पोस्ट या निरंतर पोस्ट नजर क्यों नहीं आतीं ?

ये लोग कबीले के सरदार की तरह फेसबुक पर आते हैं ,इधर-उधर लाइक करते हैं,एक-आध टिप्पणी लिखते हैं ,और 56इंट का सीना दिखाकर चले जाते हैं। फेसबुक पर उनका गूंगाभाव और सरकारी नीतियों से लेकर साहित्यिक सवालों तक चुप्पी बनाए रखना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि हिन्दी के ये लेखक कबीलावाद से बाहर नहीं निकले हैं। कबीले की तमाम बुराईयां इनके फेसबुक आचरण में साफ दिखाई देती हैं।

हम विनम्रतापूर्वक कहना चाहेंगे कबीलावाद , जनवाद नहीं है। फेसबुक से लेकर जीवन तक जनवाद का अर्थ है अन्य के व्यक्तित्व,विचार,व्यवहार,आचरण आदि का सम्मान करना.शिरकत,सहयोग और मित्रता को बनाए रखना, राज्य और अन्य संरचनाओं या अधिरचनाओं के वैचारिक सवालों पर वस्तुगत होकर तीखी बहस करना। अन्य के सही तर्क और विवेक को मानना। ''मैं सही और तुम गलत '' के फ्रेमवर्क में न सोचना। वह जनवाद बेमानी है जिसमें अन्य के लिए जगह न हो। तर्कहीन होना,गालिया बकना,गुस्सा करना,घृणा करना,चरित्र हनन करना,निजी जीवन पर हमले करना जनवाद नहीं है, यह तो कबीलावाद है। आधुनिक भाषा में कहूं तो यह मार्क्स-गांधी का नहीं नीत्शे का अनुसरण है।

इंटरनेट के युग में कबीलावाद के पक्षधर सिर्फ संग्रहालय की शोभा बढ़ाएंगे। हमारे हिन्दी लेखक कबीलावाद से निकलकर जनवाद के अनुरुप,भारत के संविधान के अनुरुप आचरण करें और लोकतंत्र को अपनी दैनन्दिन जीवन शैली में ढालें वरना वे अभी तो हाशिए पर हैं भविष्य में हाशिए के बाहर चले जाएंगे।

इंटरनेट युग कबीलावाद के अंत का युग है। इंटरनेट युग में कबीलावाद वस्तुतः एक किस्म का फंटामेंटलिज्म है। यह विलक्षण आयरनी है और सच्चाई है कि कबीलावादी लेखकों के आचरण और फंडामेंटलिस्टों के फेसबुक आचरण में बुनियादी तौर पर अनेक बातें मिलती-जुलती हैं। हम चाहते हैं हिन्दीलेखक (खासकर प्रगतिशील-जनवादी लेखक) कबीलावाद से बाहर निकलें और जनवादी आचरण करें। फेसबुक पर लिखें, विभिन्न विषयों पर बहस चलाएं और अपने नीतिगत नजरिए को पेश करें,नीत्शे के मार्ग से निकलकर मार्क्स-गांधी के मार्ग का अनुसरण करें।नीत्शे का मार्ग फासिज्म की ओर ले जाता है। यह आचरण को दुरुस्त करने वाली बात है, यदि नहीं समझे तो भविष्य में समाज में वही स्थान होगा जो नीत्शे का है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...