गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

21वीं सदी में माकपा की चुनौतियाँ

CPIM का प्लेनम 27-31दिसम्बर2015 को कोलकाता में होने जा रहा है। माकपा अपनी सांगठनिक समस्याओं पर इसमें विस्तार से चर्चा करेगी।माकपा की सबसे बड़ी चुनौती है संगठन संचालन की पद्धति और रुढबद्ध कार्यक्रम से मुक्त होने की।इसमें सर्जनात्मकता और नए के लिए कोई जगह नहीं है। इसमें सब कुछ तयशुदा तरीकों से काम करने पर बल है, काम करने की यह पद्धति पुरानी हो चुकी है। माकपा को यदि 21वीं सदी की पार्टी के रुप में काम करना है तो उसे नए सांगठनिक ढाँचे और नए कार्यक्रम के बारे में सोचना होगा,उसे यह सोचना होगा कि समाजवाद के अंत के बाद उभरे पूंजीवाद में कैसे काम करे और किस तरह के काम करे।पार्टी कॉमरेडों का नजरिया क्या हो ,नए संचारजगत में सदस्यों को स्वतंत्र रुप से रायजाहिर करने देने की आजादी रहेगी या नहीं ,या फिर यह कहें कि माकपा क्या अपने पार्टी कार्यक्रम को भारत के संविधान में उल्लिखित व्यक्ति के अधिकारों की संगति में अपने सदस्यों को अभिव्यक्ति के अधिकार देने के पक्ष में है या नहीं,फिलहाल माकपा में सदस्यों को उतने भी अधिकार प्राप्त नहीं हैं जितने भारत का संविधान देता है। कहने का आशय यह है कि नागरिक अधिकारों की संगति में माकपा अपने लक्ष्यों और भूमिकाओं को नए सिरे से तय करे,यदि लोकतांत्रिक प्रणाली और लोकतांत्रिक हकों को पार्टी के सांगठनिक ढाँचे और राजनीतिक कार्यक्रम में वरीयता दी जाए तो पार्टी में नई प्राणवायु का संचार हो सकता है। वरना पुराना ढ़ाँचा तो लगातार माकपा को हाशिए के बाहर खदेड़ रहा है और इससे बचने की जरुरत है।फिलहाल माकपा को क्रांतिकारी कार्यक्रम से भी ज्यादा जरुरत है लोकतांत्रिक कार्यक्रम, लोकतांत्रिक संगठन और लोकतांत्रिक संचार प्रणाली की।

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