शनिवार, 28 नवंबर 2015

आओ मोदी हम ढोएंगे पालकी

             पीएम नरेन्द्र मोदी के कल संसद में दिए भाषण पर लेखक उदयप्रकाश की फेसबुक टिप्पणी पढ़कर बेहद शर्मिंदगी का एहसास हुआ। यह कैसा समय है जिसमें लेखक टुकड़ों में देखता है,भाषिक अंशों में देखता है,राजनीति और विचारधारा के बिना देखता है। निश्चित रुप से यह लेखकों के लिए बहुत संकट की घड़ी है। कल का मोदीजी का भाषण न तो ऐतिहासिक था और बेजोड़ था। उदयप्रकाश के राजनीतिक नजरिए पर फेसबुक पर बहुत बहस होती रही है लेकिन उनकी ताजा फेसबुक टिप्पणी ने एक बात जरुर संप्रेषित कर दी है कि हमारे लेखकों के पास फासिज्म के खिलाफ जंग करने की कोई न तो दीर्घकालिक समझ है और न सही विवेक ही है।

उदयप्रकाश ने क्या कहा पहले वह ध्यान से पढ़ें-

“आज हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का संसद में संविधान पर दिया गया भाषण किसी ऐतिहासिक अभिलेख की, किसी महत्वपूर्ण राजकीय दस्तावेज़ की तरह महत्वपूर्ण है। इतना लोकतांत्रिक, समावेशी, उदार और विनम्र संभाषण कम से कम इस प्रभावी शैली में मैंने अपने जीवन में नहीं सुना।
बिना किसी पूर्वाग्रह के अपने पूर्ववर्ती राजनेताओं के योगदान को जिस पारदर्शिता के साथ उन्होंने स्वीकार किया, देश के प्रथम प्रधानमंत्री की लोकतांत्रिक सहिष्णुता, ईमानदारी और तार्किक विवेक की उन्होंने प्रशंसा की, इसके अलावा संविधान की मूल प्रस्तावना के अलावा इसके परवर्ती संशोधनों को, जिसमें 'धर्मनिरपेक्षता' और 'समाजवाद' के अलावा 'आरक्षण' की अनिवार्यता को जिस तरह उन्होंने अपनी सम्मति और समर्थन दिया, वह उन्हें पक्ष और विपक्ष की दोनों सरहदों के आरपार एक सर्वस्वीकृत राजनेता के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए, भावुकता के साथ पर्याप्त था।
मैंने पहले भी कहा है कि अपनी वक्तृता में संभवत: वे सिद्धहस्त अटलबिहारी वाजपेयी जी से भी कई क़दम आगे हैं।
वे अपने व्याख्यानों में शायद, तथ्यों और इतिहास संबंधी भ्रमों-भूलों और हास्यास्पद ग़लतियों के बावजूद, अब तक के एक बेजोड़ वक़्ता- प्रधानमंत्री हैं।
संसद में बाबा साहेब अंबेडकर की स्मृति और संविधान की मूल भावनाओं के पक्ष में दिया गया उनका यह भाषण अप्रत्याशित रूप से प्रशंसनीय ही नहीं, सामयिक और महत्वपूर्ण था।
यह वक्तव्य एक झटके में उनके ही गृहमंत्री राजनाथ सिंह तथा वित्तमंत्री जेटली से उनकी दूरी को प्रदर्शित करने वाला था।
उनका यह संभाषण भारत की विविधता, बहुसांख्यिकता,बहुलता के प्रति उनके सम्मान को प्रकट करने वाला था।
बहुत ख़ुशी हुई। अब उम्मीद है वे अपने सांप्रदायिक, जातिवादी, हिंसक, असामाजिक और उग्र हिंदुत्ववादी तत्वों को भी क़ानून और संविधान के दायरे में ला कर उन पर सख़्त कार्रवाई करेंगे।
लेकिन कहीं यह देश के बदलते हुए मानस को भाँप कर किसी रणनीति के तहत, चतुराई के साथ, अपने दल के 'सरहदी' उग्र सांप्रदायिक और जातिवादी गिरोहों की हरकतों से होने वाली अपनी और अपने दल की गिरती हुई छवि और साख को बचाने की कोई हार को जीत में बदलने वाली चालाक युक्ति तो नहीं है?
या कहीं जनरल सर्विस टैक्स से लेकर कई ऐसे बिलों को, अपने कार्पोरेट मित्रों और सहयोगियों के लाभ के लिए, विपक्ष की मदद से, संसद के इसी सत्र में पारित करा लेने के लिये एक सोची समझी चालाकी तो नहीं है?
आज एक ओर जब प्रधानमंत्री निवास में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी जी उनके साथ चाय पी रहे हैं, ठीक उसी समय चंदन मित्र और शेखर गुप्ता, दोनोंसंविधान में 'धर्मनिरपेक्षता' और 'समाजवाद' के प्रक्षेपण पर राजनाथ सिंह के तर्क के अनुसार बहस की शुरुआत कर रहे हैं।

मुझे तो यही लगता है कि संविधान की मूल आत्मा की हिफ़ाज़त देश की जनता को अपनी एकजुटता के साथ करनी होगी।

राजनीति जिन हाथों में है, पता नहीं क्यों अभी भी दोस्तो, उस पर विश्वास नहीं होता।”

उदयजी आप जानते हैं कि पीएम के नाते मोदी के पास संसद में संविधान की वैचारिक सरहदों के बाहर जाने का कोई मार्ग नहीं है। संसद में बोलना है तो संसद, संविधान और घोषित नीतियों के फ्रेमवर्क में ही बोलना होगा।इस नजरिए से देखें तो पीएम मोदी जो कुछ भी कह रहे थे वह मजबूरी में कह रहे थे,यह उनकी स्वाभाविक वैचारिक भाषा और विचारधारा नहीं है। प्रधानमंत्री के रुप में संसद में मोदी या मुख्यमंत्री के रुप में गुजरात विधानसभा के अंदर मोदी हमेशा संविधान की सरहदों में कैद होकर ही बोलते रहे हैं। यह मोदी की महानता नहीं बल्कि राजनीतिक कौशल है। संसद में बोलते हुए कोई भी पीएम घोषित नीतियों,संविधान की मान्यताओं और धारणाओं के खिलाफ नहीं बोल सकता,यदि वह ऐसा करता है तो उसको गंभीर संवैधानिक संकट और चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।

सवाल यह है कि यही मोदी संसद के बाहर आम जनता में किस भाषा,विचारधारा और नजरिए से बोलता है। सवाल यह भी है कि यही मोदी एक पीएम के नाते कितना लोकतांत्रिक व्यवहार अपने मंत्रीमंडल सहयोगियों के साथ करता है। समूची सत्ता को पीएम कार्यालय में केन्द्रित कर लेने वाले को लोकतांत्रिक और उदार कहना सही नहीं है बल्कि यह तो सर्वसत्तावादी नायक के लक्षण हैं। एक ऐसे नायक के लक्षण हैं जिसने लोकतंत्र के पग-पग पर धुर्रे उडाए हैं,लेखकों का अपमान किया है,लेखकों के प्रतिवाद का अपमान किया है,वह किसी भी दृष्टि से अपने राजनीतिक आचरण में लोकतांत्रिक और उदार नहीं है। इसके बावजूद उदयजी आपका उसको लोकतांत्रिक और उदार कहना गले नहीं उतरता।

सवाल यह है हम किसी नेता के संसद में दिए गए भाषण के बल पर उसके बारे में राय बनाएं या उसकी समग्र भूमिका के आधार पर राय बनाएं ? उदयजी आपने जल्दी कर दी। पीएम मोदी राजनीतिक कौशल से लैस बड़ा दुष्ट खिलाड़ी है,वह अटलजी जैसा या उनसे बेहतर नहीं है,न तो नजरिए में ,न राजनीतिक आचरण में ,इसके बावजूद आपकी प्रशंसा का कोई सामयिक तर्क मैं अभी तक खोज नहीं पा रहा हूँ।आपकी फेसबुक टिप्पणी ने यह सवाल केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया है कि क्या किसी नेता के भाषण को एकल स्वायत्त रुप में देखें या फिर उसके समग्र राजनीतिककर्म के फ्लो की संगति में देखें। लोकतांत्रिक नजरिया हमें समग्र फ्लो में रखकर देखने के लिए कहता है।

उदयजी आप अच्छी तरह जानते हैं कि पीएम मोदी विनम्र नहीं हैं। उनकी भाषा,आचरण और मूल्यबोध में विनम्रता दूर –दूर तक नहीं है।इसे सहज ही उनकी इमेजों के जरिए पढ़ा जा सकता है,जिनलोगों ने उसे करीब से देखा है वे भी बार-बार इसके विपरीत ही कहते रहे हैं।आपने पत्रकार अरुण शॉरी के मोदी के शासन पर दिए गए बयान पढ़े होंगे और भी बहुत सारी चीजें आप बेहतर ढ़ंग से जानते हैं इसके बावजूद आपने विनम्रता को मोदी में खोज लिया ।सच में कहना होगा आपके पास पारखी नजर है जो लालकृष्ण आडवाणी को नजर नहीं आई लेकिन आपको दिख गयी !



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