सोमवार, 14 मार्च 2016

ममता पर संकट के बादल छाए

      मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को इस बात का श्रेय जाता है उन्होंने पश्चिम बंगाल से हमेशा के लिए समाजवाद और उससे जुड़े राजनीतिक स्टीरियोटाइप को बड़े कौशल के साथ विदा कर दिया है।आगामी विधानसभा चुनाव में    वामफ्रंट की यह सबसे बड़ी चुनौती है कि आम जनता को किस तरह राजनीतिक विमर्श में शामिल किया जाए। सबसे सचेत राज्य के रूप में चिर-परिचित इस राज्य की आज सबसे बड़ी त्रासदी है आम जनता का राजनीतिकतौर पर तटस्थ या अन्यमनस्क हो जाना ।एक जमाना था जब हर विषय पर पश्चिम बंगाल के नागरिक में तेज प्रतिक्रिया व्यक्त होती थी,लेकिन विगत पांच साल में सबसे बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि आम जनता के अंदर राजनीतिक सचेतनता का माहौल पूरी तरह नष्ट हो गया है। पहले विधानसभा चुनाव की घोषणा के पहले से ही राजनीतिक गहमागहमी शुरू हो जाती थी,लेकिन इन दिनों राजनीतिक सन्नाटा पसरा हुआ है।

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को पांच साल पहले ´अंध-वाम विरोध´ के आधार पर बड़े पैमाने पर वोट मिला था,इसका विगत पांच सालों में ममता ने सुनियोजित ढ़ंग से लाभ उठाया है।उसने बड़े ही कौशल के साथ वामदलों के सांगठनिक ढ़ांचे को तोड़ा,स्थानीय वाम इकाईयों को अप्रभावी बनाया,इसके लिए वाम कार्यकर्ताओं पर शारीरिक हमले से लेकर बहलाने फुसलाने तक सभी तरकीबें इस्तेमाल कीं,शहर से लेकर गांवों तक तृणमूल कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे को विस्तार दिया,खासकर मध्यवर्ग के विभिन्न पेशेवर तबकों में कार्यरत विभिन्न वाम मजदूर संगठनों को निष्प्रभावी बनाया,संघर्ष की राजनीति की बजाय सुविधावाद और अवसरवाद की राजनीति को प्रमुखता दी। फलतःपश्चिम बंगाल के माहौल में वाम राजनीतिक गंध एकसिरे से गायब है ,इस काम में सबसे पहले ममता ने शिक्षकों को निशाना बनाया। ममता ने बिना किसी दवाब के शिक्षकों को वाम राजनीतिक संगठनों से विमुख कर दिया।उल्लेखनीय है पश्चिम बंगाल में शिक्षक समुदाय सबसे प्रभावशाली सचेतन राजनीतिक समुदाय है,विगत पांच सालों में प्राइमरी से लेकर कॉलेज-विश्वविद्यालय स्तर तक अधिकांश शिक्षकों को वाम विचारधारा के संगठनों से बाहर निकालने में तृणमूल कांग्रेस सफल रही है। दूसरी ओर ममता ने सत्ता में आने के बाद वामविरोध को छोड़ दिया। उलटे यह कहा कि उनके दल में वाम विचारधारा के लोगों का स्वागत है,इससे वाम की वैचारिक नाकेबंदी का समूचा तंत्र पूरी तरह टूट गया।इसके अलावा आम जनता को अ-राजनीतिक बनाने में समूचे राज्य में फैले क्लबतंत्र की बड़ी भूमिका है।ममता बनर्जी ने सत्ता संभालने के बाद से राजकोष से क्लबों को सालाना एकमुश्त राशि के भुगतान की व्यवस्था करके स्थानीय आक्रोश को नियंत्रित करने में कौशलपूर्ण ढ़ंग से सफलता हासिल कर ली।उल्लेखनीय है पश्चिम बंगाल के हर मुहल्ले में क्लब हैं जिनमें स्थानीय लोगों का आना-जाना रहता है, संपर्क -संबंध रहता है।स्थानीय लोग छोटी-मोटी समस्याओं के समाधान हेतु क्लब सदस्यों की मदद लेते हैं और ये क्लब स्थानीय स्तर पर ममता सरकार के स्थानीय एजेंट की तरह काम कर रहे हैं।इसने स्थानीय स्तर पर पैदा होने वाले असंतोष को नियंत्रित और नियमित करने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की है।

यह एक खुला सच है कि ममता सरकार राज्य में औद्योगिकीकरण की दिशा में कोई प्रभावशाली काम नहीं कर पायी है।इवेंट,मेला,मनोरंजन और स्थानीय स्तर पर सुविधाओं के विस्तार के काम को ममता सरकार ने प्राथमिकता दी, गांवों में विद्यार्थियों को साइकिल वितरण,गांवों के क्लबों को टीवी सैट और सालाना धनराशि का आवंटन,गरीबों के लिए मकान बनाने के लिए धन का आवंटन,मस्जिदों और मौलवियों के लिए विशेष आर्थिक पैकेज आदि जनप्रिय कार्यों के जरिए ममता ने अपने सांगठनिक तंत्र का विस्तार किया,इस काम को करते हुए सचेत ढ़ंग से कांग्रेस ,माकपा और वामदलों के निचले स्तर के कार्यकर्ताओं और नेताओं को साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति के आधार पर तोड़ा गया,यही वजह है कि विभिन्न जिलों के ग्रामीण इलाकों में वाम और कांग्रेस का सांगठनिक ढ़ांचा एकसिरे से गायब है।इसके अलावा आम गरीबों में सस्ते खाद्य वितरण की योजना को लागू करके फिलहाल आम जनता के आक्रोश को ठंड़ा रखने में ममता सरकार सफल रही है।यही वह परिदृश्य है जिसमें ममता बनर्जी दोबारा वोट हासिल करना चाहती हैं।

दूसरी ओर वामफ्रंट पूरी शक्ति लगाकर तृणमूल कांग्रेस को हराने की कोशिश में है इसके लिए उसने कांग्रेस के साथ अनौपचारिक तौर पर सीटों का समझौता भी कर लिया,वामफ्रंट का मुख्यजोर राज्य में नए सिरे से औद्योगिकीकरण पर है ,वह उन योजनाओं को नए सिरे शुरू कराने का वायदा लेकर जनता में जा रहा है जो औद्योगिक योजनाएं ममता सरकार के आने के बाद बंद हो गयीं या फिर उनके काम को ममता सरकार आगे नहीं बढ़ा पायी।खासकर सिंगूर में नैनो कार के कारखाने को पुनःशुरू करने की अभिलाषा लेकर वाममोर्चा आम जनता में जाएगा। वाममोर्चा और कांग्रेस दोनों ही राज्य की खस्ताहाल कानून और व्यवस्था , कॉलेज-वि.वि. स्तर पर बढ़ी हुई हिंसा ,सारधा आदि चिटफंड़ घोटाला कांड से जुड़े सवालों पर वोट मांगने का मन बना चुका है। इसके अलावा औरतों की सुरक्षा का सवाल भी प्रमुख है। देखना होगा तृणमूल कांग्रेस और वाम का सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर क्या रूख रहता है। क्योंकि तकरीबन साढ़े 6लाख कर्मचारियों का भविष्य इससे जुड़ा है,फिलहाल राज्य कर्मचारियों को केद्र सरकार के कर्मचारियों की तुलना में64 प्रतिशत कम डीए मिलता है और इसे लेकर कर्मचारियों में व्यापक असंतोष है,देखना होगा यह असंतोष मतदान के दिन क्या रूख अख्तियार करता है।इसके अलावा कर्मचारियों का तकरीबन 55फीसदी धन छठे वेतन आयोग का बकाया है। यदि वाम-कांग्रेस ने इस मसले को हवा देने में सफलता हासिल कर ली तो तृणमूल कांग्रेस के दोबारा चुने जाने के मार्ग में समस्याएं खड़ी हो सकती हैं,क्योंकि राज्य कर्मचारियों के भरोसे ही चुनाव मशीनरी चलती है।



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