शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

राधा कहां मिलेगी !

          आज राधा अष्टमी है।मैं संभवतःकिसी चरित्र से इतना प्रभावित नहीं हुआ जितना राधा के चरित्र से प्रभावित हुआ। तकलीफ यह है कि हमने श्रीकृष्ण की बातें कीं,उनकी लीलाओं का आनंद लिया,राम की बातें की,लेकिन राधा के चरित्र पर कभी साहित्यकारों और आलोचकों ने खुलकर बहस नहीं की।

राधा अकेला चरित्र है जो अनुभूति में रूपान्तरित हुआ है। वह मात्र मिथकीय चरित्र नहीं है। बल्कि वह एक भावबोध,संस्कार और उससे भी बढ़कर आदतों में घुल-मिला चरित्र है।संभवतः हिन्दुओं का कोई ऐसा चरित्र नहीं है जो राधा की तरह हम सबकी आदतों-संस्कारों और अनुभूति में घुला मिला हो।कहने के लिए राधा के जन्म की कहानी मिलती है।

लेकिन राधा तो कवि शुद्ध कल्पना की सृष्टि है।जिसने भी राधा को सृजित किया वो बड़े विज़न का लेखक है।लोक साहित्य से लेकर साहित्य तक,संस्कारों –आदतों से लेकर शास्त्र तक राधा का कैनवास फैला हुआ है।संभवतःआभीर जाति में जनप्रियता का जन्मजात गुण है।यही वजह है आभीर जाति के नायक-नायिकाएं जल्द ही जनमानस में अपना स्थान बना लेते हैं।हजारी प्रसाद द्विवेदी-मैनेजर पांडेय ने राधा को प्रेमदेवी बना दिया।लेकिन उसे इस रूप में देखना सही नहीं होगा।जनप्रिय समझ भी यही है कि प्रेमभाव को राधाभाव कहते हैं।

हमारा मानना है राधाभाव मित्र भाव है।प्रेमभाव नहीं है।राधा सहचरी है,प्रेमिका या उपासिका नहीं है।आज के दौर में सहचरी भाव,मित्रभाव बेहद प्रासंगिक है।संस्कृत में हर भाव को कामुकता या श्रृंगार रस में डुबो देने की परंपरा रही है,पंडितों ने यह सब राधा के साथ भी किया उसे श्रृंगार में डुबो दिया,कामुक भाव-भंगिमाओं के साथ जोड़ दिया,इससे राधा को सुख-उपभोग और शरीर में रूपान्तरित करने में मदद मिली।सामंतीभाव बोध में राधा का इससे खराब रूपायन संभव ही नहीं था।हमारे यहां स्त्री चरित्रों के साथ दुर्व्यवहार करने की लंबी परंपरा रही है।हमारे यहां श्रृंगार , शक्ति या संयास में ढ़ालकर औरत को देखने आदत है,यह सामंती विचारधारा है।

राधा का चरित्र न तो श्रृंगारी है और न शक्ति-भक्ति से बना हुआ है।यह मूलतःमित्र चरित्र है।राधाभाव का मतलब है मित्रभाव।समान भाव।यह भाव हमारे संस्कार और आदतों में आना चाहिए।राधा इसलिए अच्छी लगती है क्योंकि वह हमारे सामंती स्त्रीबोध को चुनौती देती है।राधा इसलिए अच्छी नहीं लगती क्योंकि वो प्रेमिका है,भक्त है,शक्ति है।वह इसलिए अपील करती है क्योंकि वह सहचरी है,मित्र है। पौराणिक आख्यानों से लेकर साहित्य चर्चाओं तक सामंती भावबोध के फ्रेमवर्क में राधा को पेश करने की परंपरा रही है। मुझे राधा कभी सामंती फ्रेमवर्क में अच्छी नहीं लगी।

राधा के सामंती फ्रेमवर्क से पुंसवादी विचारधारा को लाभ मिला,स्त्री को मातहत बनाए रखने में मदद मिली।जबकि राधा का चरित्र तो आत्मनिर्भर चरित्र है।राधा अपने संदर्भ से जानी जाती है,श्रीकृष्ण या पुंस -संदर्भ से नहीं जानी जाती।श्रीकृष्ण के संदर्भ में राधा को देखना वस्तुतःपुंस -संदर्भ में,मातहत भाव में देखना है,यह राधा की वास्तव इमेज का विकृतिकरण है।

राधा स्वयंभू है,मित्र है। वह कुछ नहीं चाहती।न दौलत चाहती है,न शादी चाहती है ,न संतान चाहती है,वह तो बस मित्र भाव चाहती है।मित्र भाव की चरम आकांक्षा यदि किस चरित्र में मिलती है तो राधा है। राधा अपने बनाए संसार में रहती है,वह श्रीकृष्ण या अन्य किसी के बनाए संसार में नहीं रहती।राधा का सबक यह है कि स्त्री अपने संसार को रचे,आत्मनिर्भर संसार को रचे,मित्रभाव में रहे,मातहत भाव में न रहे।यही वजह है कि राधा मुझे हमेशा अपील करती है।



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