रविवार, 25 सितंबर 2016

दिल्ली की बर्बरता का रहस्य

         दिल्ली ने बर्बरता के नए मानक बनाए हैं।दिल्ली में केन्द्र सरकार है,संसद है,सुप्रीम कोर्ट है, पुलिस है,सेना है,सबसे ज्यादा लेखक-बुद्धिजीवी है,राजनीतिक नेताओं का जमघट है।आईआईटी,एम्स,जामिया,डीयू जैसे संस्थान हैं। लेकिन दिल्ली में बर्बर समाज है।ऐसा बर्बर समाज जिसकी रोज दिल दहलाने वाली कहानियां मीडिया में आ रही हैं,आखिर दिल्ली इतनी बर्बर कैसे हो गयी,एक सभ्य शहर असभ्य और बर्बर शहर कैसे हो गया,इसके लक्षणों पर हम बहस क्यों नहीं करते,दिल्ली में बर्बरता के खिलाफ आम लोगों का गुस्सा कहां मर गया,वे कौन सी चीजें हैं जिनसे दिल्ली में बर्बर समाज बना है,वे कौन लोग हैं जो बर्बरता के संरक्षक हैं,क्या हो गया दिल्ली में सक्रिय राजनीतिकदलों और स्वयंसेवी संगठनों को.वे चुप क्यों हैं ?

दिल्ली के बर्बर समाज का प्रधान कारण है दिल्ली के लोगों और संगठनों का दिल्ली के अंदर न झांकना,दिल्ली से अलगाव,स्वयं से अलगाव, वे हमेशा दिल्ली के बाहर झांकते हैं,बाहर जो हो रहा है,उस पर प्रतिक्रिया देते हैं,वे मानकर चल रहे हैं कि दिल्ली में तो सब ठीक है,गड़बड़ी तो यूपी-बिहार-हरियाणा-पंजाब आदि में है,वे मानकर चल रहे हैं,दिल्ली के समाज के अंदर नहीं देश के अंदर झांकने की जरूरत है।

यह बाहर झांकने के बहाने दिल्ली के यथार्थ से आंखें चुराने की जो आदत है वही पहली बड़ी समस्या है।

दिल्ली के बाशिंदों खासकर बुद्धिजीवियों-लेखकों-राजनेताओं में राजधानी में रहने का थोथा अहंकार है,श्रेष्ठताबोध है,दूसरे से ऊँचा दिखने की उनमें थोथी होड़ है,इसने दिल्ली के यथार्थ से उनको पूरी तरह काट दिया है।

मसलन्,दिल्ली में पढ़ाने वाला हर हिन्दी का प्रोफेसर अपने को सरस्वती का पुत्र समझता है जबकि सच यह है कि वह एसएमएस खोलना तक ठीक से नहीं जानता।जहां बुद्धि का इस तरह का अहंकार हो,वहां यदि शिक्षितों का यथार्थ से अलगाव हो जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

दिल्ली के लोगों की खुशहाली,उनकी गाड़ी,शानो-शौकत,उनकी अदाएं सतह पर देखने में अच्छी लगती हैं लेकिन ये चीजें पूरे दिल्ली समाज को चिढ़ाती भी हैं।यह जिंदगी के नकलीपन का एक रूप है।

दिल्ली की जिन्दगी में नकलीपन की परतों को कायदे से खोला जाना चाहिए।नकलीपन की सबसे बड़ी परत है ग्राम्य बर्बरता का बचे रहना।यह गांवों को समाहित करके बसाया गया महानगर है।इस शहर में बाहर से लाखों लोग गांवों से आकर बस गए हैं।वे भी अपने साथ ग्राम्य बर्बरता के रूपों को लेकर आए हैं।हमने ग्राम्य बर्बरता को संस्कृति के लिए खतरे के रूप में देखा ही नहीं कभी उसके खिलाफ जंग नहीं लड़ी।बल्कि यों कहें दिल्ली ने ग्राम्य बर्बरता के साथ घोषित तौर पर सांस्कृतिक समझौता कर लिया। ग्राम्य बर्बरता असल में समूचे देश की समस्या है,लेकिन हमने कभी इसके खिलाफ कोई कार्ययोजना न तो संस्कृति में बनायी और न राजनीति में बनायी,उलटे गांवों के महिमामंडन का आड़ में ग्राम्य बर्बरता का महिमामंडन किया है। लोकसंस्कृति,लोकगीत,लोक संगीत की आड़ में उसे छिपाया है,उसके सवालों से आँखें चुरायी हैं।सवाल यह है ग्राम्य बर्बरता से क्या आज भी लड़ना चाहते हैं ?

दिल्ली के बर्बर समाज की धुरी है लंपटवर्ग।यह वह वर्ग है जिसने अपराध, असामाजिकता,ग्राम्य बर्बरता और आधुनिकता के मिश्रण से एक विलक्षण सामाजिक रसायन तैयार किया है,इस सामाजिक रसायन की निर्माण प्रक्रिया या उसके कारकों की विस्तार के साथ खुलकर चर्चा होनी चाहिए।

लंपटवर्ग की संस्कृति का समाज के विभिन्न सामाजिक समूहों पर प्रत्यक्ष प्रभाव देखा जा सकता है।यह नया उदीयमान वर्ग है इसका आपातकाल के बाद सारे देश में तेजी से विकास हुआ है।लंपटवर्ग में गांव से लेकर शहर तक के लोग शामिल हैं,इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है।दंगों से लेकर दैनंदिन बर्बर हिंसाचार तक इस वर्ग की इमेजों को हम आए दिन मीडिया में देखते रहे हैं।लंपटवर्ग की ताकत बहुत बड़ी है।इसने धीरे धीरे नियोजित संगठित छोटे-छोटे गिरोहों की शक्ल में अपना विकास किया है।इस गिरोह का नैटवर्क केबल नैटवर्क वसूली से लेकर जाति पंचायतों तक फैला हुआ है।

सामान्य तौर पर हम लोग लंपटवर्ग की सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक शक्ति के सवालों पर बात करने से भागते रहे हैं।लेकिन सच्चाई यह है कि लंपटवर्ग आज सबसे शक्तिशाली है,भले ही वह सतह पर एकाकी नजर आता हो।लेकिन वह अकेला नहीं है,उसका अपना समाज है,उसके पास सामाजिक समर्थन है। इस लंपटवर्ग को वैचारिक खाद्य मासमीडिया और मासकल्चर के विभिन्न रूपों से मिलती रही है।

दिल्ली की महागनरीय संस्कृति के विकास के साथ लंपटवर्ग का समानान्तर विकास हुआ है । दिल्ली में लंपटवर्ग का पहला बर्बर हमला 1984 में सिख जनसंहार के समय देखने को मिला।यही वह लंपटवर्ग है जिसको हाल ही में हरियाणा के जाट आरक्षण आंदोलन में समूचे हरियाणा में लूटपाट करते देखा गया,हरियाणा,यूपी,आदि की विभिन्न जाति पंचायतों की हजारों की भीड़ में देखा गया। यही वह वर्ग है जो हठात् साम्प्रदायिक दंगे के समय हजारों की भीड़ में विभिन्न शहरों में हिंसा,आगजनी,लूटपाट करते देखा गया है।सवाल यह है लंपटवर्ग ,लंपट संस्कृति और लंपट समाज के आर्थिक स्रोत कौन से हैं और किस तरह की संस्कृति से वह संजीवनी प्राप्त करता है।



भारत में लोगों की आदत है हर चीज में जाति खोजने की।लेकिन लंपट समूह जातिरहित समूह है।लंपटों की कोई जाति नहीं होती।वे तो सिर्फ लंपट होते हैं।लंपट समूह ने एक नए किस्म की अ-लिखित आचार संहिता को जन्म दिया है।



दिल्ली की बर्बरता पर बातें करेंगे तो नेतागण तुरंत उसे गांव बनाम शहर,झोंपड पट्टी बनाम कालोनी,गरीब बनाम अमीर,निम्न जाति बनाम उच्चजाति आदि में बांट देंगे।लंपट समाज को इस तरह के वर्गीकरण में बांटकर नहीं देखा जाना चाहिए।लंपट समाज की पहली बड़ी विशेषता है संस्कृतिहीनता, प्रचलित सभी किस्म के सांस्कृतिक मूल्यों का अस्वीकार।

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