भारत में राष्ट्रीयकृत बैंक मूलत मासबैंकिंग का अंग हैं। यहाँ पर जनता के व्यापकतम समूहों की सक्रियता सहज ही देखी जा सकती है। सामान्यतौर पर बैंकिंग में अंग्रेज़ी मूल भाषा है। लेकिन जनता के लिए बंगला,हिन्दी आदि के उपयोग की व्यवस्था है। यह सच है कि हिन्दी और लोकल भाषा का प्रयोग बढ़ा है। लेकिन सच यह है बैंकिंग में लोकल भाषाओं का क्षय हुआ है। हिन्दी का प्रतीकात्मक उपयोग बढ़ा है।
समस्या यह है कि बैंकिंग सिस्टम में लोकल भाषाओं का ह्रास कैसे रोका जाय ? बैंकिंग भाषा समस्या को हमने मानकीकरण के ज़रिए हल करने की कोशिश की है। मानकीकरण से संचार तो होता है लेकिन जातीय और लोकल बोली और भाषा का विकास बाधित होता है। इस तरह मानकीकरण के कारण जो भाषायी अन्तर्विरोध पैदा होता है वह अंतत: मानक भाषा को बढ़त दिलाता है और स्थानीय भाषा और बोलियों को क्षतिग्रस्त करता है।
सिस्टम में मानक भाषा के विकास के साइड इफ़ेक्ट के बारे में हमने कभी खोज ख़बर नहीं ली। बैंकिंग सिस्टम ने कभी भाषायी समृद्धि के विकल्पों की खोज नहीं की। मसलन्, बैंकों ने भाषा और साहित्य के विकास की मूलभूत संरचनाओं के निर्माण की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। बैंकों ने सामाजिक विकास की अन्य परियोजनाओं में सक्रिय भूमिका अदा की है, अनेक विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर चेयर भी हैं। लेकिन भाषा और बोलियों के विकास और शोध के लिए बैंकों ने कभी कोई फ़ंड आवंटित नहीं किया। क़ायदे से विभिन्न प्रान्तों में बैंकों के ज़रिए भाषा - साहित्य के विभाग स्थापित किए जाएँ और वहाँ से ही इसकी पेशेवर शिक्षा के विकास के बारे में प्रयास किए जाएँ।
बैंकिंग भाषा की अनेक समस्याएँ हैं इनको हम उपहार, प्रमोशन आदि के ज़रिए नज़रअन्दाज़ करते रहे हैं। मसलन्, हमने बैंक की भाषा समस्या को कभी विश्लेषित ही नहीं किया, बैंक की भाषा समस्या हिन्दी अधिकारी की नियुक्ति की समस्या नहीं है। पहली समस्या यह है कि कम्प्यूटरीकरण के कारण उत्पन्न स्तरीकरण से कैसे निबटें। मसलन् , डिजिटलीकरण ने मानवीय सहयोग को पूरी तरह अपदस्थ कर दिया है। अब कम्प्यूटर जो कहता है वह सही है । मसलन् आपके हस्ताक्षर में यदि कोई त्रुटि है तो मशीन तुरंत भुगतान रोक देगी। चैक क्लीयर नहीं होगा। बैंकों के द्वारा संचालित लाइब्रेरी नेटवर्क का होना जरुरी है जिसमें तमाम क़िस्म की ज़रूरत की किताबें सहज रुप में उपलब्ध हों ।
बैंकिंग सिस्टम वस्तुत: गुलाब के फूल की तरह है। जिस तरह गुलाब जहाँ खिलता है वहाँ न तो फूल लगाने वाला नज़र आता है और न बाहर का ही कोई व्यक्ति नज़र आता है। सिर्फ़ बैंक रुपी गुलाब नज़र आता है। बैंक अपनी ख़ुशी का गान स्वयं गाती रहती हैं जैसे गुलाब गाता है। कोई इनके न तो दुख में शामिल होता है और नहीं सुख में शामिल होता है। बैंक हमारे सामाजिक सिस्टम के नियम क़ायदे के दायरे में नहीं आतीं, मसलन् बैंक मैनेजर छुट्टी लेकर सहज ही अवकाश पर नहीं जा सकता। नौकरी के समय और तनाव की जो अवस्था मैनेजर को झेलनी होती है यह चीज वह नौकरी मिलने के पहले नहीं जानता था। तनाव के जितने रुप बैंक मैनेजरों को झेलने पड़ते हैं वह अपने आपमें संकेत है कि बैंक का सामाजिक नियमों और परंपराओं के साथ किस तरह का अंतर्विरोध है। बैंक मैनेजरों के अनुभवों को देखें तो पता चलेगा कि सामाजिक अनुभव, परंपराएँ आदि के साथ बैंकिंग सिस्टम का किस तरह का अंतर्विरोध है।
बैंक कर्मचारी को मैंने कभी हँसते हुए नहीं देखा। ख़ासकर बैंक में काम करते समय अधिकांश बैंक कर्मचारी हँसते नज़र नहीं आते। बैंक कर्मचारी की हँसी कहाँ ग़ायब हो गयी ? क्यों ग़ायब हो गयी ?
बैंक की सबसे बड़ी समाज सेवा यह है कि उसने सामाजिक विकास में बहुत बड़ी भूमिका अदा की और उसकी सबसे खराब कुसेवा है क़र्ज़ में डूबा हुआ धन। इसने बड़े पैमाने पर भ्रष्ट लोगों की मदद की। नॉन प्रिफार्मिंग एसिट के रुप में जो धन डूबा पड़ा है वह बैंकिंग सिस्टम का नकारात्मक तत्व है।
बैंकों में देशज भाषाएँ व्यवहार में तब आएँगी जब बैंकिंग सिस्टम देशज भाषा में संचार पहल करे। मसलन् एसएमएस से लेकर समस्त कम्युनिकेशन देशज भाषा में हो, भाषा के संरक्षण के लिए विभिन्न विश्वविद्यालयों में भाषा विभाग बनाए जाएँ जो बैंकों के लिए कुशल लोग तैयार करें और भाषा की स्थानीय स्तर पर जानकारियाँ एकत्रित करें।
समस्या यह है कि बैंकिंग सिस्टम में लोकल भाषाओं का ह्रास कैसे रोका जाय ? बैंकिंग भाषा समस्या को हमने मानकीकरण के ज़रिए हल करने की कोशिश की है। मानकीकरण से संचार तो होता है लेकिन जातीय और लोकल बोली और भाषा का विकास बाधित होता है। इस तरह मानकीकरण के कारण जो भाषायी अन्तर्विरोध पैदा होता है वह अंतत: मानक भाषा को बढ़त दिलाता है और स्थानीय भाषा और बोलियों को क्षतिग्रस्त करता है।
सिस्टम में मानक भाषा के विकास के साइड इफ़ेक्ट के बारे में हमने कभी खोज ख़बर नहीं ली। बैंकिंग सिस्टम ने कभी भाषायी समृद्धि के विकल्पों की खोज नहीं की। मसलन्, बैंकों ने भाषा और साहित्य के विकास की मूलभूत संरचनाओं के निर्माण की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। बैंकों ने सामाजिक विकास की अन्य परियोजनाओं में सक्रिय भूमिका अदा की है, अनेक विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर चेयर भी हैं। लेकिन भाषा और बोलियों के विकास और शोध के लिए बैंकों ने कभी कोई फ़ंड आवंटित नहीं किया। क़ायदे से विभिन्न प्रान्तों में बैंकों के ज़रिए भाषा - साहित्य के विभाग स्थापित किए जाएँ और वहाँ से ही इसकी पेशेवर शिक्षा के विकास के बारे में प्रयास किए जाएँ।
बैंकिंग भाषा की अनेक समस्याएँ हैं इनको हम उपहार, प्रमोशन आदि के ज़रिए नज़रअन्दाज़ करते रहे हैं। मसलन्, हमने बैंक की भाषा समस्या को कभी विश्लेषित ही नहीं किया, बैंक की भाषा समस्या हिन्दी अधिकारी की नियुक्ति की समस्या नहीं है। पहली समस्या यह है कि कम्प्यूटरीकरण के कारण उत्पन्न स्तरीकरण से कैसे निबटें। मसलन् , डिजिटलीकरण ने मानवीय सहयोग को पूरी तरह अपदस्थ कर दिया है। अब कम्प्यूटर जो कहता है वह सही है । मसलन् आपके हस्ताक्षर में यदि कोई त्रुटि है तो मशीन तुरंत भुगतान रोक देगी। चैक क्लीयर नहीं होगा। बैंकों के द्वारा संचालित लाइब्रेरी नेटवर्क का होना जरुरी है जिसमें तमाम क़िस्म की ज़रूरत की किताबें सहज रुप में उपलब्ध हों ।
बैंकिंग सिस्टम वस्तुत: गुलाब के फूल की तरह है। जिस तरह गुलाब जहाँ खिलता है वहाँ न तो फूल लगाने वाला नज़र आता है और न बाहर का ही कोई व्यक्ति नज़र आता है। सिर्फ़ बैंक रुपी गुलाब नज़र आता है। बैंक अपनी ख़ुशी का गान स्वयं गाती रहती हैं जैसे गुलाब गाता है। कोई इनके न तो दुख में शामिल होता है और नहीं सुख में शामिल होता है। बैंक हमारे सामाजिक सिस्टम के नियम क़ायदे के दायरे में नहीं आतीं, मसलन् बैंक मैनेजर छुट्टी लेकर सहज ही अवकाश पर नहीं जा सकता। नौकरी के समय और तनाव की जो अवस्था मैनेजर को झेलनी होती है यह चीज वह नौकरी मिलने के पहले नहीं जानता था। तनाव के जितने रुप बैंक मैनेजरों को झेलने पड़ते हैं वह अपने आपमें संकेत है कि बैंक का सामाजिक नियमों और परंपराओं के साथ किस तरह का अंतर्विरोध है। बैंक मैनेजरों के अनुभवों को देखें तो पता चलेगा कि सामाजिक अनुभव, परंपराएँ आदि के साथ बैंकिंग सिस्टम का किस तरह का अंतर्विरोध है।
बैंक कर्मचारी को मैंने कभी हँसते हुए नहीं देखा। ख़ासकर बैंक में काम करते समय अधिकांश बैंक कर्मचारी हँसते नज़र नहीं आते। बैंक कर्मचारी की हँसी कहाँ ग़ायब हो गयी ? क्यों ग़ायब हो गयी ?
बैंक की सबसे बड़ी समाज सेवा यह है कि उसने सामाजिक विकास में बहुत बड़ी भूमिका अदा की और उसकी सबसे खराब कुसेवा है क़र्ज़ में डूबा हुआ धन। इसने बड़े पैमाने पर भ्रष्ट लोगों की मदद की। नॉन प्रिफार्मिंग एसिट के रुप में जो धन डूबा पड़ा है वह बैंकिंग सिस्टम का नकारात्मक तत्व है।
बैंकों में देशज भाषाएँ व्यवहार में तब आएँगी जब बैंकिंग सिस्टम देशज भाषा में संचार पहल करे। मसलन् एसएमएस से लेकर समस्त कम्युनिकेशन देशज भाषा में हो, भाषा के संरक्षण के लिए विभिन्न विश्वविद्यालयों में भाषा विभाग बनाए जाएँ जो बैंकों के लिए कुशल लोग तैयार करें और भाषा की स्थानीय स्तर पर जानकारियाँ एकत्रित करें।
अपने तक सिमटते जा रहे हैं लोग ...
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