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'मैंने जाति-व्यवस्था समाप्त करने के उपाय और साधनों से संबंधित प्रश्न पर जोर इसलिए दिया है ,क्योंकि मेरे लिए आदर्श से अवगत होने के अपेक्षाकृत उचित उपायों और साधनों की जानकारी प्राप्त कर लेना अधिक महत्वपूर्ण है। यदि आपको वास्तविक उपाय और साधनों की जानकारी नहीं है तो आपके सभी प्रयास निष्फल रहेंगे।'
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13 अक्टूबर 1929 को पुणे के प्रसिद्ध पार्वती मंदिर में अस्पृश्यों के प्रवेश के लिए दलितनेताओं और सवर्णनेताओं ने मिलकर आंदोलन किया। मिलकर आंदोलन करने वाले नेता थे- शिवराम जानबा कांबले, पा.ना.राजभोज, श्री.स. थोरात. लांडगे,विनायकराव भुस्कुटे, (सभी दलितनेता) और वा.वि.साठे, देशदास रानाडे,ग.ना.कानिटकर,केशवराव जेधे,न.वि.गाडगिल (सभी सवर्ण) । इस आंदोलन में कुछ आर्यसमाजी भी शामिल हुए थे। इस आंदोलन में आंबेडकर किसी व्यस्ततावश पहुंच नहीं पाए।
फिर भी उन्होंने बम्बई की एक सभा में इस आंदोलन का समर्थन करते हुए कहा था- ''पुणे के दलितवर्ग द्वारा अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए चलाए संघर्ष को केवल हार्दिक समर्थन देना ही बम्बई के दलितवर्ग का कर्तव्य नहीं , उन्हें आर्थिक सहायता देनी चाहिए।आवश्यकता पड़ने पर सत्याग्रह का समर्थन करने के लिए पुणे जाने के लिए तैयार रहना चाहिए। "
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आंबेडकर ने दलितों के लिए मूल्यवान सलाह दी कि - ''अस्पृश्य समाज को अपनी यथास्थिति में बने रहने की वृत्ति छोड़ देनी चाहिए।''
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बाबासाहब आंबेडकर ने सबसे महान कार्य यह किया कि उन्होंने अस्पृश्यों के दुख और जातिप्रथा की बुराईयों से सारी दुनिया को अवगत कराया। उनको सामाजिक परिवर्तन का प्रधान राजनीतिक विषय बनाया।
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बाबासाहब आंबेडकर की अपने जमाने के दिग्गज ब्राह्मण विद्वानों के साथ मित्रता थी। एक ही नमूना काफी है। यह नमूना इसलिए दे रहे हैं कि नए विचारक आंबेडकर के जमाने के बारे में और खासकर ब्राह्मणों के साथ उनके संबंधों के बारे में मिथ्याप्रचार करते रहे हैं। वाकया है आचार्य प्रह्लाद केशव अत्रे के विवाह का। अत्रे साहब पक्के ब्राह्मण थे और उन्होंने वैश्य कन्या से शादी की थी। आंबेडकर ने अत्रे का बहिष्कृत भारत में लेख लिखकर अभिनंदन किया था। लिखा था-
''अत्रे,देशस्थ ब्राह्मण और उनकी पत्नी गोंदूताई शामराव मुंगी, वैश्य! कवि केशवकुमार नाम से वे साहित्यभक्तों को परिचित हैं।उनका लेखन ऐसा मौलिक है कि उपहासात्मक काव्य लिखने में उनका सानी अन्य मराठी कवि नहीं है। वर-वधू के स्वतंत्र और स्वावलंबी होने के कारण यह मिश्र विवाह हर दृष्टि से उचित और आदर्श माना जाना चाहिए।''
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आंबेडकर ने कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं,उनमें से एक है, 'हमारे हिन्दुस्तान देश के हीनत्व का अगर कोई कारण होगा तो वह देवतापन है। '
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आंबेडकर के अछूतोद्धार के काम में ब्राह्मणों की सक्रिय भूमिका थी। स्वयं आंबेडकर भी चाहते थे कि अस्पृश्यता को खत्म करने के काम में ब्राह्मणों की सक्रिय भूमिका हो। उस समय जेधे-जवलकर जैसे नेताओं ने आंबेडकर को कहा कि महाड़ सत्याग्रह (1927)में ब्राह्मणों को शामिल न किया जाय। आंबेडकर ने उनकी राय नहीं मानी और कहा , 'हमें यह शर्त मंजूर नहीं कि अस्पृश्योद्धार के आंदोलन से ब्राह्मण कार्यकर्ताओं को बाहर निकाला जाए। ' उन्होंने आगे कहा, 'हम यह मानते हैं कि ब्राह्मण लोग हमारे दुश्मन न होकर ब्राह्मण्यग्रस्त लोग हमारे दुश्मन हैं। ब्राह्मण्यरहित ब्राह्मण हमें नजदीक का लगता है। ब्राह्मण्यग्रस्त ब्राह्मणेतर हमें दूर का लगता है। '
कृपया इन शब्दों को पढ़ें नए तथाकथित दलित चिंतक .
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मित्रों से एक अन्य बात कहनी है कि फेसबुक स्टेटस को एक सहज सामान्य कम्युनिकेशन विधा के रूप में लें उसे वैचारिक और किसी को ओछा बनाने या मूल्य निर्णय के आधार पर कम से कम न देखें। यहां एक सामान्य कम्युनिकेशन है जो हम लोग करते रहते हैं। सामान्य कम्युनिकेशन को गंभीर मूल्य निर्णय की ओर जो भी ले जाता है वह सही नहीं करता। किसी के भी बारे में कोई भी राय कम से कम फेसबुक स्टेटस के आधार पर नहीं बनायी जा सकती। कोई रचना हो तो उसके आधार पर गंभीर बात हो सकती है।
अंत में, फेसबुक कम्युनिकेशन को समझें तो बेहतर होगा। यह मूल्य-निर्णय का मीडियम नहीं है।
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भीमराव आंबेडकर के मित्र थे श्रीधरपंत तिलक (लोकमान्य तिलक के बेटे) ,वे आंबेडकर के चहेते थे। वे प्रगतिशील विचार रखते थे। उनका मानना था कि हिन्दू संगठन का लक्ष्य है चारों वर्णों का विनाश हो। ब्रिटिश नौकरशाही और भिक्षुकशाही ओछीवृत्ति है। उन्होंने 1927 के गणपति महोत्सव के समय केसरी के समर्थकों के विरोध को न मानकर,अस्पृश्य कार्यकर्ता राजभोज के श्रीकृष्णमेले का कार्यक्रम गायकवाड़ बाड़े में आयोजित किया। बाद में पुणे के अस्पृश्यों ने एक सभा बुलाकर श्रीधरपंत तिलक का सार्वजनिक अभिनंदन किया था।
यह घटना इसलिए लिखनी पड़ी कि इनदिनों इंटरनेट पर अजीब माहौल बनाया जा रहा है ,आंबेड़कर के साथ कोई ब्राह्मण नहीं था। आंबेडकर के साथ अनेक यशस्वी सवर्ण थे जो उनके विचारों को मानते थे।
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सन् 1983 में मई के दिनों में मैंने माकपा के पोलिट ब्यूरो मेम्बर माकपा के बड़े नेता और तेलंगाना के महान आंदोलन के समय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव रहे बीटी रणदिवे से सवाल किया था कि आप अपनी आत्मकथा क्यों नहीं लिखते, उसके जबाव में उन्होंने कहा कि हमने ऐसा क्या किया है जो आत्मकथा लिखें। मुझे यह बात आज भी प्रासंगिक लगती है।कम्युनिस्टनेताओं ने बेशुमार कुर्बानियां दीं,बड़ी लडाईयां लड़ीं। लेकिन आत्मकथा नहीं लिखी।
इधर हिन्दीलेखकों में यह फैशन चल निकला है कि वे वोल्यूम दर वोल्यूम आत्मकथा लिख रहे हैं जबकि उनकी आत्मकथाओं में स्कूल के दाखिले, कॉलेज का जीवन, गांव या मुहल्ले के वर्णन और ब्यौरों के अलावा कुछ नहीं होता। काश ,ब्यौरे के बाहर आकर वे जीवन में कुछ कर पाते ? जीवन के ब्यौरे महान नहीं बनाते महान कर्म महान बनाते हैं,बेहतरीन लेखन महान बनाता है। आत्मकथा महान नहीं बनाती।
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ब्राह्मणों या सवर्णों पर प्रामाणिक लेखन के लिए जब ब्राह्मण या सवर्ण के गर्भ से जन्म लेना जरूरी नहीं है तो दलित पर प्रामाणिकलेखन के लिए दलित के गर्भ से जन्मलेना क्यों जरूरी है ? मजेदार बात यह है कि दलितलेखक अपने को ब्राह्मणों (सवर्ण) पर लिखने का अधिकारी विद्वान मानते हैं। लेकिन ज्योंही कोई ब्राह्मण लेखक दलितों पर लिखता है तो सीधे कहते हैं आप दलित हुए बिना दलित पर नहीं लिख सकते। यह लेखन के संदर्भ में क्या जरूरी सवाल है कि लेखक किसके घर पैदा हुआ है ?
श्रीधर पन्त तिलक और बाबा साहेब आंबेडकर : जो बुद्धिजीवी समाज बाबा साहेब आंबेडकर के विचारों की तरफ आकृष्ट हुआ उन्में बाल गंगाधर तिलक के दोनों पुत्र - रामभाऊ और श्रीधर पन्त - भी थे। परन्तु उनके पिता लोकमान्य तिलक कट्टर परम्परावादी, ब्राह्मणवादी, कर्मकांडी थे। श्रीधर पन्त खुल कर डॉ आंबेडकर द्वारा संचालित समता आन्दोलन में सक्रिय हुए और लोकमान्य निवास पर एक बोर्ड लगा दिया, जिस पर लिखा था - 'चातुर्वर्ण्य विध्वंसक समिति'। इस कारण पुणे के ब्राह्मणों और उन्ही के रिश्तेदारों ने उनका उत्पीड़न शुरू कर दिया था। उनकी सम्पति भी इन्हें न मिले इसके लिए उन्हें कोर्ट में खींचा गया और इस उत्पीडन से तंग आ कर श्रीधर पन्त ने आत्महत्या कर ली।
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