शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

'फेक' के युग में मनुष्‍य

परवर्ती पूंजीवाद विकास का नहीं त्रासदी का युग है। त्रासदी पर ध्यान न जाए, त्रासदी पर बातें न हों। त्रासदी के रूपों को साहित्य,कला,धर्म आदि से बहिष्कृत कर दिया गया है। आज हमारे समाज में सबसे ज्यादा त्रासद घटनाएं हो रही हैं। किंतु त्रासदी पर केन्द्रित न तो साहित्य लिखा जा रहा है और नहीं विचार साहित्य ही आ रहा है। पावर के खेल ने त्रासदी को मनोरंजन के बना दिया है। त्रासदी की जगह सनसनी आ गयी है। हूबहू प्रस्तुतियां आ गयी हैं।रीयलिटी शो की चालाकियां आ गयी हैं। हूबहू प्रस्तुति का प्रभाव अस्थायी होता है। जिस क्षण देखते हैं उसी क्षण भूल जाते हैं।
परवर्ती पूंजीवाद का युग 'फेक' का युग है। चारों ओर 'फेक' यानी नकली का वर्चस्व है। 'फेक' के आधार पर ही खबरें बन रही हैं,युध्द और राजनीतिक संघर्ष अथवा विवाद हो रहे हैं। 'फेक' को 'रीयल' के साथ मिलाकर पेश किया जा रहा है। परवर्ती पूंजीवाद के कलात्मक उत्पादन और पुनरूत्पादन की धुरी है 'फेक'। हम प्रतिदिन 'फेक' का इंतजार करते रहते हैं। 'फेक' का निरंतर और चौतरफा आस्वाद लेते हुए हम 'फेक' को ही असली समझने लगे हैं। अब तो स्थिति यहां तक बदतर हो गयी है कि 'फेक' नहीं तो कुछ भी नहीं। परवर्ती पूंजीवाद का प्रधान मीडियम टीवी है और 'फेक' इसकी अंतर्वस्तु है। 'फेक' का दादागुरू अमरीका है और बहुराष्ट्रीय मीडिया इसके सबसे बड़े उत्पादन केन्द्र हैं। परवर्ती पूंजीवाद को समझने के लिए 'फेक' को जानना बेहद जरूरी है। आप वास्तव कक आधार पर इसे नहीं समझ सकते। 'फेक' का अपना शास्त्र है, तंत्र है और समाज भी है। मध्यवर्ग 'फेक' का सामाजिक आधार है। उसे 'फेक' से ही प्रेरणा मिलती है। 'फेक' ने हमारे सामाजिक जीवन ,राजनीति,अर्थशास्त्र आदि में भी अपना विस्तार कर लिया है। पहले हम सिर्फ मनोरंजन के लिए 'फेक' का इस्तेमाल करते थे अब अन्य क्षेत्रों में भी इस्तेमाल करने लगे हैं।
'फेक' को पहले अवास्तव मानते थे।गंभीरता से नहीं लेते थे। किंतु हम इसे वास्तव मानने लगे हैं। गंभीरता से लेने लगे हैं। 'फेक' ने अंधविश्वास की जगह ले ली है। 'फेक' सत्तााधारी वर्गों का शास्त्र रच रहा है। नकली खबरें, नकली भूत, नकली जिंदगी, नकली राजनीति, नकली बहस,नकली बातें, नकली जीवन शैली, नकली प्यार और नकली घृणा आदि का जिस खूबसूरती से प्रचार किया जा रहा है उसे खूबसूरत को भी लज्जित कर दिया है। 'फेक' कभी बदसूरत शक्ल में सामने नहीं आता। 'फेक' के पास सबसे आकर्षक पैकेजिंग होती है। विश्वसनीय पैकेजिंग होती हैं। विश्वसनीय पैकेजिंग और अनेक माध्यमों के जरिए अहर्निश प्रचार के कारण वह हमारे जीवन में जड़ें जमाने में सफल हो जाता है। 'फेक' में जीकर 'नेक' बने रहना संभव नहीं है। 'फेक' के युग में सिर्फ भोग ही संभव है।
'फेक' ने उपभोग का शास्त्र और तंत्र रचा है। 'फेक' कभी भी उपभोग और भोग के बिना नहीं आता। 'फेक' आएगा तो 'भोग ' भी होगा, उपभोग भी होगा। 'फेक' का काम है वास्तव को छिपाना, नकली में उलछाना और हस्तक्षेप से विरत रखना। 'फेक' कभी 'फ्री' में नहीं मिलता। उसकी कीमत देनी होती है। उसे मुद्रा में कीमत चाहिए, संसाधन के रूप में कीमत चाहिए, उसे शारीरिक कीमत चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि 'फेक' को हमेशा कीमत,कुर्बानी और कमीनेपन की जरूरत होती है। सभ्यता के विमर्श में 'फेक' इतना प्रबल पक्ष कभी नहीं था जितना परवर्ती पूंजीवाद के युग में बना है।
'फेक' का 'क्राइसिस' से गहरा संबंध है। संकट की अवस्था में डालने से लेकर उससे निकालने तक के जितने भी उपाय शक्तिशाली वर्गों के द्वारा सुझाए जा रहे हैं वे 'फेक' है। मजेदार बात यह है 'फेक' को इतना व्यापक विस्तार देकर फैला दिया गया है कि हम फैसला ही नहीं कर पाते कि 'फेक' क्या है और 'रीयल' क्या है ? हमने 'फेक' को 'फेक' कहना बंद कर दिया है। यही 'फेक' की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इस परिप्रेक्ष्य में हम विकास के सवालों पर विचार करें तो शायद कुछ नए समस्याओं की ओर हमारा ध्यान जाए।
'फेक' के दौर में स्मृति और विस्मृति का क्या होता है ? परंपरा का क्या होता है ? मानवीय संबंधों की अवस्था कैसी होगी ? इत्यादि सवालों पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। 'फेक' के द्वारा आदिम हिंसक अ-स्मृतियों को जन्म दिया है इसके जरिए स्मृति को नष्ट किया जा रहा है। साथ ही दृश्यमान अ-स्मृतियों के जरिए ऐतिहासिक स्पेस को नष्ट किया जा रहा है उसकी जगह विज्ञापन ने ले ली है। प्रचार ने ले ली है। प्रौपेगैण्डा ने ले ली है। इसने प्रौपेगैण्डा का वातावरण बनाया है। इसका परिणाम यह निकला है कि अब व्यक्ति की स्मृति में कुछ भी संचित नहीं होता व्यक्ति सब कुछ भूल जाता है।
परवर्ती पूंजीवाद में विकास की त्रासदियां मनोरंजन का माल बन जाती हैं। विकास की उपलब्धियां त्रासद रूपों की उपेक्षा करने लगती हैं। विकास के नायक हीरो और त्रासदी के नायक जीरो हो जाते हैं। विकास,सुख और नयी चकमक दुनिया की उपलब्धियां इस कदर बांधे रखती हैं कि दुख अब देखने में भी अच्छा नहीं लगता। औद्योगिक क्रांति के दौर में त्रासदी रचना के केन्द्र में थी, यह सिलसिला द्वितीय विश्वयुध्द के बाद के चंद वर्षों तक चला किंतु इसके बाद यानी सत्तार के बाद का सफर त्रासदी के गुम हो जाने का सफर है। जबकि सच यह है कि विकास का रास्ता त्रासदी से होकर गुजरता है। विकास के लिए बलिदान आवश्यक है, अतिरिक्त श्रम का शोषण आवश्यक है। उपलब्ध अथवा अब तक हासिल अधिकारों का बलिदान आवश्यक है। विकास बगैर बलिदान के संभव नहीं है। नए समाज केविकास के लिए विकास अनिवार्य शर्त है। परवर्ती पूंजीवादी विकास की परिकल्पनाएं परिकथा की तरह हैं। जिनमें सुख के सपने हैं। भविष्य का सपना है। अधिकारहीनता का जयघोष है। विकस की उलटबांसियां हैं। तकनीक और मीडिया का हाहाकार है। स्वचालितीकरण की रणभेरी है। मजदूरों का क्रंदन है और किसानों का श्मशान है।

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