गुरुवार, 9 जुलाई 2009

मीडि‍या की भूली बि‍सरी यादें 2005 के संदर्भ में

'एपिक 2014' एक शानदार डाकूमेण्ट्री फिल्म है। उसे देखने का अर्थ था मीडिया के भविष्य की कल्पानाओं में खो जाना। यह मात्र आठ मिनट की फिल्म है। फिल्म क्या है सचमुच में गागर में सागर है। मैट थॉमसन और रॉबिन सलोन ने निर्देशन किया है। यह फॉक्स का वृत्तचित्र है।सन् 2004 में जारी की गयी थी। इसमें भविष्यवादी के नजरिए से सन् 2014 में मीडिया को देखने कोशिश की गयी है। इस फिल्म में बताया गया है कि सन् 2014 तक मैनस्ट्रीम मीडिया खत्म हो जाएगा। फिल्म बताती है कि सर्चइंजन गुगल और खुदरा बिक्रेता अमाजॉन मिलकर 'गुगलीजान' का निर्माण करते हैं। ये दोनों मिलकर ही 2014 का महाकाव्य बनाते हैं। वे व्यक्तिगत किस्म की सूचनाएं बनाते हैं।उन्हें प्रसारित करते हैं।वे व्यक्तिगत यूजर के लिए एक 'कंटेंट' का पैकेज बनाते हैं। व्यक्ति की चयन क्षमता का दोहन करते हैं। उसकी रूचियों और आदतों का ख्याल रखते हैं।उसकी सामाजिक संरचनाओं का ख्याल रखते हैं।
हम यह जानते हैं कि हमारे पास सूचनाएं पत्रकारों के शब्दों , नागरिकों के वीडियो कैमरे और परंपरागत मीडिया से आती हैं। किन्तु 'गुगलीजान' कम्प्यूटर अपनी ही स्टोरी भिन्न तरीके से तैयार करता है।वह तथ्यों और वाक्यांशों को अन्य की स्टोरी से निकालकर अपनी स्टोरी में सजाकर पेश करता है। वह तथ्यों और अंतर्वस्तु को अनेक स्रोतों से चुराकर अपनी स्टोरी के रूप में पेश करता है। वृत्तचित्र में कल्पना की गई है कि सन् 2010 में जब 'समाचार युध्द' होगा , उस समय गुगल और माइक्रोसॉफ्ट में संघर्ष होगा । ऐसी अवस्था में पुराना मीडिया इस संघर्ष में हिस्सा लेने की स्थिति में नहीं होगा। न्यूयार्क टाइम्स गुगल पर मुकदमा ठोकेगा कि उसके तथ्य और वाक्य चुरा लिए गए है। रॉबोट कॉपीराइट कानून के उल्लंघन का मुकदमा करेगा। ऐसी अवस्था में सुप्रीम कोर्ट में ये दोनों केस हार जाते हैं। गुगल केस जीत जाता है। टाइम अपनी हार स्वीकार कर लेता है और अपने को इंटरनेट से हटा लेता है। अब टाइम पत्रिका थोडे से ,बूढ़े,अभिजनों के लिए प्रकाशित होने वाली पत्रिका होकर रह जाती है।
यह वीडियो वृत्तचित्र गहरे संदेश देता है। यह बताता है कि आज का अभिजन अपनी छोटी सी दुनिया में कैद है। वह जो सूचनाएं पा रहा है वे सीमित,खोखली और सनसनीखेज हैं। किसी न किसी रूप में गुगल और अमाजॉन का एक-दूसरे में समावेश होने वाला है। वे एक-दूसरे में खोए हुए हैं। तकनीकी पसंद हैं। यह तस्वीर उनका यूजर भी देख रहा है। यूजर इससे बड़ी तस्वीर देख ही नहीं पाता। जबकि सच्चाई यह है कि मीडिया के पास विराट महाकाव्यात्मक जगह उपलब्ध है। यह बात उसे समझनी चाहिए। आज हम जो खबर तैयार कर रहे हैं वह खबर इंटरनेट के कारण टूट रही है,खण्डित हो रही है।
वीडियो बताता है कि परंपरागत मैनस्ट्रीम मीडिया चुक गया है। वह तकनीकी के साथ प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति में नहीं है। मीडिया के संदर्भ में यह बुनियादी परिवर्तन का दौर है। हम 'मासमीडिया से व्यक्तिगत मीडिया' के दौर में जा रहे हैं। उसके लिए जनता का कोई अर्थ नहीं है।उसकी वह परवाह भी नहीं करता।उसे वह सूचना भी नहीं देता।एक संदेश यह भी है कि भविष्य में सबकी आवाज सुनी जाएगी।सभी की आवाज प्रासंगिक होगी। इस वीडियो वृत्तचित्र के संदर्भ में यदि सन् 2005 के मीडिया पर विचार करें तो पाएंगे कि मैनस्ट्रीम मीडिया इन दिनों गंभीर संकट से गुजर रहा है। सन् 2005 का साल मीडिया के लिए चुनौतीभरा रहा है। सिनेमा हॉल खाली पड़े हैं। अधिकांश फिल्में फ्लॉप हुई हैं। हाल ही में मुम्बई हाईकोर्ट ने एक फैसला दिया है कि टेलीविजन और केबल टेलीविजन पर 'ए' ग्रेड की फिल्में प्रसारित नहीं होंगी ? सवाल यह है कि यदि ये फिल्में बनाना कानूनन अपराध नहीं है तो प्रसारण अपराध कैसे हो सकता है ?यदि इस फैसले को गंभीरता से लागू कर दिया जाता है तो सरफरोश,सागर, परिणीता, पेज 3, मानसून बेडिंग ,सत्या, चोखेरवाली, परिंदा, मर्डर, ब्लफमास्टर , कलयुग, मकबूल,कुर्बानी,जिस्म आदि फिल्मों को टीवी या केबल पर दिखाया ही नहीं जा सकेगा। यही स्थिति तमिल फिल्म अभिनेत्री खुशबू के उस चर्चित बयान को लेकर हुई है जिसके कारण तमिलनाडु की पुलिस ने उसके ऊपर 21 मुकदमे ठोंक दिए हैं। खुशबू के जिस बयान को लेकर बवाल मचा हुआ है, उसमें उसने ऐसा कुछ भी नहीं कहा जिसे अपमानजनक कहा जाए। स्त्री का शरीर उसका अपना है। वह शादी के पहले प्यार करे, शादी के बाद प्यार करे, जिससे शादी करे उससे शादी के बाद भी प्यार न करे। यह फैसला उसे ही करने का हक है। इस बात की स्वीकृति हमारा संविधान और भारतीय दण्ड संहिता भी देती है।खुशबू ने सुरक्षित सेक्स के लिए कण्डोम के इस्तेमाल की बात कही थी। किन्तु आश्चर्य की बात है कि खुशबू के बयान के समर्थन में तमिल की ही एक अभिनेत्री सुहासिनी के अलावा और किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा। किसी भी राजनीतिक दल और मीडिया के व्यक्ति ने खुशबू के बयान के पक्ष में आवाज तक नहीं उठायी है। अधिकांश के लिए यह महज अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल है। जबकि असल में यह स्त्री के अधिकार,खासकर शरीर पर उसके अधिकार और उसकी स्वायत्तता का मामला है। अभिव्यक्ति की आजादी तो गौण है। यह 2005 का वैचारिक तौर पर यह सबसे त्रासद पक्ष है। हम पहले से ज्यादा असहिष्णु और संकीर्ण बने हैं।
सन् 2005 का सच यह है कि इसके समाचारों में ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे याद किया जा सके। कोई भी ऐसा विषय नहीं था जिसे गंभीरता से पेश किया गया हो। इसके बावजूद यह सच है कि 2005 में समाचार ज्यादा मात्रा में आए। खासकर वेबसाइट,टीवी और रेडियो पर। समाचारों की गति इतनी तेज थी कि जब तक आप एक समाचार को समझने की कोशिश करते दूसरा समाचार हाजिर था। इसके परिणामस्वरूप किसी एक समाचार को फोकस करके रखना मुश्किल हो गया। खबरें बादलों की तरह आ रही थीं और गायब हो रही थीं। हमारे सामने खबरें इफरात में थीं किन्तु विश्लेषण गायब था। खबरें इतनी तेज गति से आ -जा रही थीं कि उनका मर्म सुनिश्चित करने का समाचार चैनलों के पास समय नहीं था। अनेक मर्तबा खबर सूचना देने की बजाय भ्रमित कर रही थी, विखंडित रूप में आ रही थी, तथ्य और सत्य को छिपा रही थी। राजनीतिक खबरों में उत्तेजना थी, हंगामा था,शोर था, सनसनी थी,किन्तु रोशनी नहीं थी। स्टार वन का 'ग्रेट लाफ्टर शो' , और सोनी का 'इण्डियन आइडियल' सबसे जनप्रिय कार्यक्रम रहे। समाचारों में व्यक्तिगत अपराध की खबरों को प्रमुखता से पेश किया गया। इसके बाद कामुकता और यौन अपराध की खबरें रहीं।स्त्री उत्पीडन ओर शोषण की खबरें अल्प मात्रा में आयीं। गुप्त कैमरे के प्रयोग ने भ्रष्ट अफसरों को रंगे हाथों पकडने में सक्रियता दिखाई, खासकर स्टार न्यूज के सनसनी कार्यक्रम में इसके कारण 125 से ज्यादा अफसरों को सस्पेंड किया गया।यही स्थिति आजतक पर दिखाए गए कार्यक्रम की भी थी। इसके कारण अनेक अफसर निलंबित किए गए। अनेक ढोंगी और ठग भी नंगे किए गए। बांग्ला चैनलों ने अंधविश्वास,ज्योतिष आदि के खिलाफ, अस्पतालों में होने वाली मरीजों की मौत की अवहेलना से मौत, और स्त्री उत्पीडन की खबरों को प्रमुखता से प्रसारित किया । हड़ताल एवं बंद के सवाल पर सभी चैनलों का अ-जनतांत्रिक रवैयया रहा।
मुक्त समाज के निर्माण के लिए विचारों का संघर्ष जरूरी है। किन्तु 2005 में खबरों की संरचना इस तरह बनायी गयी जिससे विचारहीनता का माहौल बना। इस साल विचारों की बजाय विचारहीनता की जंग ज्याादा लड़ी गयीं। एक साल पहले तक समाचार चैनलों में धर्मनिरपेक्ष विचारों की कभी-कभार धार देखने को मिल जाती थी किन्तु 2005 में उसके भी दर्शन दुर्लभ हो गए। इस साल माफिया,क्रिकेट,मुक्त बाजार,कामुकता, भ्रष्टाचार , निजी सवालों और सेक्स के सवालों पर ज्यादा चर्चाएं हुईं।भूमंडलीकरण,जनतंत्र,समानता, उदारता, धर्मनिरपेक्षता आदि एकसिरे से गायब हो गए।कहने का तात्पर्य यह है कि समाचारों से लिबरल नजरिए की विदाई का साल कहा जा सकता है।
2005 की दुखद बात यह थी कि मीडिया पर हमले हो रहे थे। कहीं बमों से ,कहीं बंदूकों से ,कहीं राजनीतिक गलियारों से। मीडिया प्रतिस्पर्धी मूल्यों के संघर्ष का मैदान बनकर रह गया। अथवा यह भी कह सकते हैं कि मीडिया खबरों में किसी किस्म का मूल्य ही नहीं रह गया। इस साल मीडिया खबरें ही नहीं लाया अपितु स्वयं खबर बन गया। दुखद बात यह है कि हमारे मीडिया ने हमेशा जनतंत्र को छोटा करके देखा । नागरिक अधिकारों की उपेक्षा की । नागरिक समाज के सवालों पर कम सोचा ।जनतंत्र के नाम पर चैनलों में चली बहसों में हंगामा,शोर,कुतर्क और भाषायी चटपटापन ज्यादा था।हड़ताल,जुलूस,बंद आदि जनतांत्रिक अधिकारों का मखौल उडाया गया है। यह सब किया गया न्यायालय के फैसलों के बहाने।
समाचारों में एक सरल मार्ग चुन लिया गया है। वहां सत्ता का विरोधगायब है,सत्ता की नीतियों प्रति आलोचनात्मक नजरिया गायब है ।इसके विकल्प के रूप में मीडिया ने सरकार के खिलाफ विपक्ष की राय को तरजीहदी। यह संभव है कि किसी मसले पर सरकार और विपक्ष दोनों ही गलत हों, दोनों ही गुमराह कर रहे हों। बोल्कर कमेटी की रिपोर्ट एक ऐसा ही मसला है। सद्दाम हुसैन के प्रति नजरिया ऐसा ही सवाल हैं। कायदे से मीडिया को सत्ता और विपक्ष के सरल मार्ग से निकलकर स्वतंत्र रूप से सच को सामने लाने की कोशिश करनी चाहिए।
टीवी के लिए यह साल 'रियलिटी टीवी' का था। यह ऐसे लोगों का साल था जिन्हें आम आदमी कहा जाता है। रियलिटी टीवी' ने साधारण लोगों को नायक बनाया,उन्हें पर्दे पर ज्यादा दिखाया।सन् 1993 में 'अन्त्याक्षरी' से जी टीवी ने यह परंपरा शुरू की थी।उ प्रतियोगिता में हजारों लोगों ने हिस्सा लिया था। सन् 2005 में नाच,गानाअभिनय,मॉडलिंग,हास्य,व्यापार आदि के क्षेत्र में साधारण लोगों का पूरे साल जमघट लगा रहा। 'रियलिटी टीवी' के चर्चित कार्यक्रमों में 'आइडल2' ,'फेम गुरूकुल' ,'सुपर सिंगर' ,'सारे-गा-मा-पा चैलेंज ' , 'सुपर सेल' ,'डायलवन' ,'सनसनी' ,'बिजनेस बाजीगर', 'पोगो अमेजिंग किडस हंट', 'हंगामा कैप्टेन्स' ,'दि ग्रेट इण्डियन लाफ्टर चैलेंज' ,एमटीवी रोएडीज' ,'कावूम', 'गेट गॉरजियस' , 'डांस-डांस',कौन बनेगा करोड़पति 2' ,'नाच बलिए' आदि। 'रियलिटी टीवी' के कारण अचानक साधारण आदमी के आंसू ,तिरस्कार,दुख आदि मनोरंजन के साधन बन गए।इस तरह के कार्यक्रमों की सफलता का रहस्य यह था कि इसमें पृष्ठभूमि में चल रहे नाटक का उद्धाटन,इसका सरल फारमेट था। जिसके कारण ये कार्यक्रम हिट हुए।
भारत की सामान्य विशेषता है कि यहां जीवन के दुख,तिरस्कार,रोना-धोना आदि को निर्मित करने की जरूरत नहीं होती ,वह सामान्य जीवन में इफरात में सहज ही दिखाई दे जाता है। भारतीय लोग स्वभाव से भावुक होते हैं। भावुकता के वशीभूत होकर प्रतिक्रियाएं देते हैं।जरूरत है सिर्फ एक कैमरे की जो लगा दिया जाए तो बाकी चीजें बगैर किसी योजना के बगैर किसी खर्चे के उपलब्ध हैं।
समाचार चैनलों के आने के बाद से 2005 में एक बड़ा परिवर्तन यह आया है कि मीडिया और राजनीति में फर्क करना मुश्किल हो गया है। मीडिया आंखें बंद करके राजनीति का अनुसरण कर रहा है।राजनीति का मीडिया द्वारा अनुसरण गलत दिशा की ओर संकेत कर रहा है। इससे मीडिया की स्वतंत्र पहचान नष्ट हो रही है। आलोचनात्मक विवेक पैदा करने का काम उसने बंद कर दिया है। राजनीति का अंधानुकरण मीडिया के स्वतंत्र स्थान को खत्म कर देता है। समाज में आलोचना को सीमित करता है। समाज में आलोचनात्मक माहौल जितना ज्यादा होगा जनतंत्र उतना ही मजबूत होगा। मीडिया यदि राजनीति का अनुकरण करना बंद कर दे तो राजनीति का आधे से ज्यादा पाखण्ड तुरंत खत्म हो जाएगा। मीडिया के लिए सबसे बड़ा खतरा उसके राजनीतिक अंधानुकरण के गर्भ से पैदा हो रहा है।
मीडिया की दूसरी सबसे बड़ी मुश्किल यह सामने आयी है कि वह आम जनता के साथ जोड़कर अपने को देखना ही नहीं चाहता। जनता के हकों के पक्ष में खड़ा होना नहीं चाहता। पैसा और पावर के साथ मीडिया ने जिस तरह का गठबंधन बनाया है उसने मीडिया को जनता से पूरी तरह काट दिया है। यही वजह है कि जनता की मीडिया के प्रति आस्थाएं घटी हैं। संशय और अविश्वास में इजाफा हुआ है। मीडिया का स्तर इस बात से तय हो रहा है कि वह कितने बड़े आदमी की खबर देता है। अभिजन की पहचान के साथ मीडिया की पहचान घुलमिल गयी है। जनता और जनतांत्रिक हकों के साथ मीडिया की विमुखता अंतत: मीडिया को खासकर मैनस्ट्रीम मीडिया को ऐसी अवस्था में ले गयी है जहां मीडिया अपने पत्रकारों की मौत पर भी गुस्से और संघर्ष का रास्ता अख्तियार नहीं कर पा रहा । इराक युध्द इसका आदर्श उदाहरण है। इराक में सबसे ज्यादा पत्रकार मारे गए । इराक में अमेरिकी शासन के जितने हाथ खून में सने हैं उससे ज्यादा मीडिया के हाथ भी इराकी जनता के खून से सने हैं। आज अमेरिकी मीडिया अपने साथी पत्रकार की मौत पर गुस्से का इजहार नहीं करता ,वह अपने संदेशवाहक की रक्षा नहीं कर सकता। स्थिति यहां तक बदतर हो गयी है कि अमेरिकी मीडिया अपने को डिफेण्ड तक नहीं कर रहा है। वह अपनी रक्षा करने की बजाय युध्द समर्थक होकर रह गया है।संदेशवाहक होने की बजाय स्वयं संदेश बन गया है। सन् 2005 में इराक में सबसे ज्यादा पत्रकार मारे गए । इतने पत्रकार वियतनाम युध्द में भी नहीं मारे गए थे। इतनी बड़ी तादाद में पत्रकारों के मारे जाने के बावजूद मीडिया कंपनियों और पत्रकार संगठनों का कहीं पर भी कोई प्रतिरोध नजर नहीं आता।इस प्रक्रिया में पत्रकार ही नहीं पत्रकारिता की भी मौत हुई है। युध्दोन्मादी पत्रकारिता, गप्पबाज पत्रकारिता, झूठी पत्रकारिता किस हद तक ले जा सकती है इराक में पत्रकारों की मौत यह संदेश दे रही है।
मजेदार बात यह है कि हमारे देश में गोलू और बंटी के अपहरण की खबरों पर जो मीडिया तत्पर था वह इस साल किसी भी एक गंभीर मसले को लेकर सक्रिय नहीं रहा।इस सबके कारण मीडिया के प्रति आम लोगों में गुस्सा बढ़ा है।सनसनीखेज,अपराध आदि की खबरों और झूठी खबरों की तरफ मीडिया की तत्परता इस बात का संकेत है कि मीडिया का सर्कुलेशन गिर रहा है। पाठकों और ऑडिएंस की संख्या घट रही है। असल में यह ऑडिएंस बढ़ाने का सस्ता हथकंडा है। अमेरिका में जहां मीडिया मुगलों का साम्राज्य है ,वहां पर सत्तर फीसदी जनता ने मीडिया के प्रति अपने असंतोष का इजहार किया है। इस धारणा को ठुकराया है कि '' जनता जो मांगती है हम वही देते हैं।''
यह सच है कि मीडिया गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है। 'वाशिंगटन पोस्ट' ने लिखा सन् 2005 में मीडिया ने आशानुरूप अच्छा कारोबार नहीं किया। अब कारोबार 'शेयरहोल्डर' केन्द्रित होकर रह गया है। अपने खोए हुए सर्कुलेशन को पाने, ऑडिएंस को पाने के लिए सेक्स,रोमांस,व्यक्तिगत जीवन की खबरों ,सनसनीखेज खबरों का उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया गया। इससे विज्ञापन जुटाने और रेटिंग सुधारने में मदद मिली है। इसके विपरीत मैनस्ट्रीम मीडिया में जनता के सवालों पर कवरेज घटा है। इसके कारण जनता का भरोसा भी मीडिया पर से उठा है, वैकल्पिक मीडिया के रूपों की ओर ध्यान गया है। आज लोग डाकूमेंट्री बना रहे हैं, स्टिंग आपरेशन कर रहे हैं। इंटरनेट से खबरें ले रहे हैं।नागरिक पत्रकारिता सामने आयी है।ये सब इस बात के संकेत हैं कि मुख्यधारा का मीडिया गंभीर संकट में है। मीडिया मुगलों पर लोगों की निर्भरता घटी है।
सन् 2005 की खबरें बताती है कि परंपरागत प्रेस के मॉडल की समाचारों से विदाई हो गयी है। परंपरागत प्रेस मॉडल में ऐसी पत्रकारिता पर जोर था ,जिसमें खबर या तथ्य की पुष्टि पहले की जाती थी। जो प्रामाणिक था वहीं पेश किया जाता था। इसमें तथ्यों को विस्तार से बताया जाता था। 2005 में इस सबकी विदाई हो चुकी है। अब इसकी जगह टॉक शो या केबल पत्रकारिता ने ले ली है। इसमें सूचना के लिए कम से कम जगह है। जो कहा जा रहा है उसकी पुष्टि के लिए कम से कम समय है। ऐसी स्थिति में हम क्या करें ? कायदे से मीडिया को ज्यादा से ज्यादा विशेषज्ञ केन्द्रित होना होगा। घटनाओं को व्यापक फलक पर रखकर देखना होगा। जनता में यह समझ पैदा करनी चाहिए कि वह किस बात पर विश्वास करे और किस बात पर विश्वास न करे। अब मीडिया को गेटकीपर या पहरूए की भूमिका की बजाय जज या प्रमाणदाता की भूमिका अदा करनी होगी। इसके लिए समाचार संगठनों को अपने ढांचे एवं सोच में भी बदलाव लाना होगा। रिपोर्टिंग को ज्यादा पारदर्शी बनाना होगा। रिपोर्टिंग की प्रक्रिया का दस्तावेजीकरण करना होगा। इससे पाठक का विवेक बढ़ेगा और वह तय कर पाएगा कि क्या माने और क्या न माने।
सन् 2005 के साल का सकारात्मक पक्ष यह है कि इसमें 'नागरिक पत्रकारिता' का उदय हुआ है। सुनामी की तबाही के बड़े पैमाने पर फोटोग्राफ साधारण नागरिकों ने सबसे पहले भेजे, बड़ा मीडिया बाद में पहुंचा। जुलाई में लंदन में हुए बम विस्फोट की तस्वीरें पहले नागरिकों ने भेजीं ,मुबई के ओएनजीसी के कुंए में लगी आग की तस्वीरें पहले नागरिकों ने भेजीं। अमेरिका में आए समुद्री तूफान केटरीना की तस्वीरें सबसे पहले नागरिकों ने संप्रेषित कीं। फ्रांस के दंगों की तस्वीरें नागरिकों ने भेजीं। इन सब स्थानों पर बड़ा मीडिया बाद में पहुँचा। बल्कि सच्चाई यह है कि 'नागरिक पत्रकारिता' की इमेजों का उसने ' एक्सक्लुसिव' के कैप्सन के साथ व्यापक तौर पर इस्तेमाल किया। सवाल उठता है कि क्या ये परिवर्तन महज दुर्घटना हैं ? या किसी बड़े परिवर्तन का सकेत हैं ? यह संकेत देता है कि मैनस्ट्रीम मीडिया पिछड़ रहा है।
यह साल मीडिया के अंदर गंभीर बदलाव का संकेत लेकर आया है। इस साल प्राकृतिक आपदाओं और मीडियाजनित आपदाओं की खबरें बड़े पैमाने पर आयीं। खबरों में पीडित लोग शिकायतें कर रहे हैं। वे बता रहे हैं कि वे क्या करना चाहते हैं। उनके साथ क्या गुजरी और वे किस तरह की तकलीफों में हैं। इस तरह की खबरें यह संदेश देती हैं कि हमारा समाज पूरी तरह बीमार हो चुका है। पतन के रास्ते पर जा रहा है।आपदा पीडितों के बयान बताते हैं कि हमारे समाज में व्यक्ति ही नहीं समूचा समाज सड़ चुका है। हम मानवीयता के मूल्यों और दायित्वबोध से कोसों दूर चले आए हैं। एक साल गुजर जाने के बावजूद आपदा पीडितों की शिकायतें हम दूर नहीं कर पाए हैं।
मीडिया के बारे में विचार करते समय यह सवाल बेतुका है कि मीडिया अच्छा है या बुरा है।सवाल यह है कि मीडिया जीवन के सत्य और तथ्य पेश कर रहा है या नहीं ? जो तथ्य और सत्य पेश कर रहा है वह परेंशान करते है या नहीं । कहीं ऐसा तो नहीं है कि मीडिया सूचना का करेंसी की तरह इस्तेमाल कर रहा हो। अपने मुनाफे में इजाफे या व्यापार विस्तार के लिए इस्तेमाल कर रहा हो। सच यही है कि मीडिया के सूचना विस्फोट ने बेचैनी कम और आरामदायक विमर्श को ज्यादा पैदा किया है।अब खबरें बेचैन नहीं करतीं,बल्कि मनोरंजन करती है।यह मीडिया के पतन का संकेत है।
सन् 2005 में यह भी देखा गया है कि छद्म के आधार पर सत्य को रचा गया है।गुप्त कैमरा और 'स्टिंग' आपरेशन ऐसा ही रास्ता है। एक जमाना था सत्य के आधार पर खबर बनती थी। किन्तु अब झूठ के आधार पर खबर बन रही है।नैतिकता के उच्च आदर्शों के नाम पर खबर बन रही है। यह असल में विोधी को ओछा,घटिया,अनैतिक दिखाकर महान दिखने की खोखली कला है।इस क्रम में झूठ सत्य से भी ज्यादा पारदर्शी और आकर्षक नजर आ रहा है। मीडिया का काम है सत्य की खोज करना,सत्य को प्रतिष्ठित करना। सत्य को गढना मीडिया का काम नहीं है। इमेजों की बाढ के युग में सत्य का मर्म खोजना बेहद मुश्किल काम हो गया है। हम इमेजों के अतिवाद के शिकार हो चुके हैं। छद्म यथार्थ बन गया है और यथार्थ छद्म नजर आ रहा है। यथार्थ और छद्म में फर्क करना मुश्किल हो गया है। छद्म के खिलाफ संघर्ष उपहासास्पद हो गया है। यथार्थ की बजाय केरीकेचर या मुखौटे ज्यादा आकर्षक लगने लगे हैं। संप्रेषण की भूमिका भरमाने,लुभाने और सम्मोहित करने की हो गयी है। यह कार्य चिर-परिचित चीजों और अनौपचारिक परिवेश को उभारकर किया जा रहा है। भाषा में 'तत्क्षणता' और 'सरलता' पर जोर है। 'तत्क्षण पाने' ,'सनसनी' और 'रोमांचकता' ये तीन तत्व मीडिया भाषा रच रहे हैं। 'तार्किकता' की जगह 'निजी अनुभव' ने ले ली है। विवादास्पद और अविचारित शैलियां मुखर हो उठी हैं। सामाजिक संघर्षों और व्यक्तिगत संघर्ष का रूपायन रोमैंटिक नजरिए से हो रहा है। इसके कारण संघर्ष को'रोमांच' और 'मनोरंजन' में तब्दील कर दिया गया है। 'जनसंघर्ष' 'घटना' या 'अचानक घटित घटना' बनकर रह गए हैं। सन् 2005 में खबर का कार्य सूचना देना या जागरूक बनाना नहीं था,बल्कि आनंदित करना और अपने विरोधी पर वर्चस्व स्थापित करना या राजनीतिक बढत हासिल करना था। इस साल जितनी भी बड़ी खबरें आईं वे सब इंटरनेट के जरिए आईं। सवाल किया जाना चाहिए कि मीडिया मुगल क्या कर रहे थे ? राजनीति में मुद्दों पर केन्द्रित एकता दिखाई दी। घूसखोर सांसदों की बर्खास्तगी इसकी आदर्श मिसाल है। इस तात्कालिक और सीमित दायरे के सवाल केन्द्र में रहे।'सूचना' और 'ज्ञान' में फर्क करना मुश्किल हो गया। हम 'सूचना' को ही 'ज्ञान' समझने लगे।सूचना टुकडों में ,खंडित रूप में आती है।सूचना समयबध्द होती है। जबकि ज्ञान संरचनात्मक, सुसंगत, विश्लेषणात्मक और सार्वभौम होता है।सूचना में संदेश का प्रवाह होता है। आज हमारी अनंत जिज्ञासाओं को मीडिया ने जन्म दिया है। जिज्ञासाएं कैसे शांत हों ? यह कार्य 'सूचना' के जिम्मे छोड़ दिया गया है। जिज्ञासा को सूचना में समाहित कर लिया गया है।
सन् 2005 के मीडिया अनुभवों को सुसंगत रूप में समझने के लिए जरूरी है कि कुछ बड़े सवालों को सामने रखें। मसलन् ,इराक के कवरेज को ही लें। इराक का कवरेज जिस नियंत्रण,चालाकी और मेनीपुेशन के साथ चलाया गया है उसने मीडिया के अब तक के सारे मानक तोड़ दिए हैं। इराक के बारे में झूठा प्रचार किया गया। चीजों को छिपाया गया। विचारहीन प्रचार किया गया। इस प्रचार अभियान से यह तथ्य भी सामने आया कि सूचना की कोई सीमा नहीं होती। असल में 2005 को 'मिस इनफार्मेशन ' के साल के रूप में याद रखना चाहिए। उदाहरण के लिए ऐसी कुछ प्रमुख खबरों का जिक्र करना समीचीन होगा जिनके बारे में हम कुछ भी नहीं पढ़ पाए।
1. पर्यावरण में आ रहे बदलावों को लेकर ''ट्रूथ एवाउट ग्लोबल वार्मिंग '' शीर्षक रिपोर्ट के बारे में हम 2005 में कुछ भी नहीं पढ़ पाए।
2. इराक में पेंटागन के अनुसार 16 हजार अमेरिकी सैनिक घायल हुए ,इनमें से चंद घायल सैनिकों की रिपोर्ट ही मीडिया में आयी हैं। जबकि सैन्य स्वास्थ्य विभाग के अनुसार 20748 सैनिक इराक से निकाले गए । इसके अलावा अमेरिका के 2100 सैनिक इराक में मारे गए हैं। इराक में अमेरिका ने बड़े पैमाने पर अपने भू.पू. सैनिकों की सेवाएं ली हैं ,इनकी संख्या 119247 है,इनमें से 46450 सैनिकों को गंभीर समस्याएं हो गई हैं। इनमें से 36800 सैनिकों का इलाज हो रहा है। इन सैनिकों के इलाज के लिए एक विलियन डॉलर की मांग की गई है। शिया-सुन्नी के बीच खूंरेजी आयोजित की जा रही है। बड़े पैमाने पर इराकी अपने घरों को छोड़कर जा चुके हैं।इराक में शिक्षक,डाक्टर,,पुलिसकर्मी,सैनिकों और सरकारी कर्मचारियों को लंबे समय से पगार नहीं मिली है।स्थानीय प्रशासन घूस और लूट पर चल रहा है।छापामार गिरोहों और अपराधी गिरोह बेखौफ घूम रहे हैं। इराक के लिए निजी सुरक्षा कंपनियां बड़े पैमाने पर भू.पू. सैनिकों और गुरिल्लाओं की भर्ती कर रही हैं, ये भर्तियां ग्वाटेमाला,कोलम्बिया, अल सल्वाडोर,निकारागुआ,चिली आदि देशों में हो रही हैं। सन् 2003 से अब तक अमेरिकी सेना के हाथों 13 पत्रकार मारे जा चुके हैं। 'कमेटी फार प्रोटैक्ट जर्नलिस्ट' के अनुसार मार्च 2003 इराक युध्द आरंभ होने से लेकर अब तक 58 पत्रकार और 22 मीडियाकर्मी मारे जा चुके हैं।जबकि दोदशक तक चले वियतनाम युध्द में 66 पत्रकार मारे गए थे।द्वितीय विश्वयुध्द में 68 पत्रकार मारे गए थे। इराक में मारे गए पत्रकारों में34 पत्रकार इराकी छापामारों के हाथों कत्ल हुए हैं।इनमें पांच इराकी पत्रकार भी शामिल हैं। जबकि 13 पत्रकार अमेरिकी सेना के हाथों जान गंवा चुके हैं।
3. केटरीना नामक समुद्री तूफान को खूब कवरेज मिला किन्तु इसके बाद आए समुद्री तूफान रीटा को न्यूनतम कवरेज मिला,जबकि इसमें व्यापक क्षति हुई। सुनामी का कवरेज व्यापक था,किन्तु अमेरिकी मीडिया में कश्मीर गायब था।
4. दिसम्बर 2005 को अमेरिका में हुई ट्रांजिट हड़ताल के बारे में हम कुछ भी नहीं जा पाए, जबकि इस हड़ताल के कारण अमेरिका का सारा कारोबार ठप्प हो गया था। यह मीडिया मे ब्रेकिंग न्यूज भी नहीं थी। उल्लेखनीय है कि सीएनएन के स्थानीय प्रसारणों से भी यह खबर गायब थी।
5 . अमेरिकी प्रशासन अपने नागरिकों के साथ बर्बर व्यवहार कर रहा है। बुश प्रशासन का आततायी चेहरा मीडिया से एकसिरे से गायब है। अमेरिका में सरकारी एजेन्सियां अपने नागरिकों पर जासूसी कर रही हैं,उनके फोन सुने जा रहे हैं, ईमेल पढे ज़ा रहे हैं। वगैर वारंट के गिरफ्तारियां हो रही हैं। शांति के पक्षधर संगठनों पर पेंटागन जासूसी कर रहा है। पूर्वी यूरोप के सीआईए के बंदीघरों में ले जाकर लोगों को कैद करके रखा जा रहा है। यह भी पता चला है कि अमेरिका के सारी दुनिया में गुप्त कैदखाने हैं। इन सब बातों पर मीडिया का ध्यान अचानक तब गया जब 16 दिसम्बर 2005 को टाइम पत्रिका ने एक स्टोरी प्रकाशित की जिसमें बताया गया था कि बुश प्रशासन 9/ 11 की घटना के बाद से अमेरिकी नागरिकों के ऊपर 'इलैक्ट्रोनिकी जासूसी' कर रहा है। यह स्टोरी टाइम पत्रिका के मालिकों ने अमेरिकी प्रशासन के दबाव में एक साल से भी ज्यादा समय तक प्रकाशित नहीं की। यह स्टोरी 2004 में प्रकाशित होने वाली थी,किन्तु अमेरिकी प्रशासन ने इसके प्रकाशन को रोकने के लिए प्रकाशकों पर दबाव डाला और कहा कि इसके प्रकाशन से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो सकता है। असल मामला यह था कि राष्ट्रपति बुश दुबारा राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने वाले थे।
6. सन् 2005 में सुनामी की घटना को व्यापक कवरेज मिला, तकरीबन दो महीनों तक मीडिया निरंतर कवरेज देता रहा। इतना व्यापक कवरेज चौंकाने वाला था। सुनामी में तीन लाख लोग मारे गए, 9/11 में तीन हजार लोग मारे गए थे , क्या इनसे ज्यादा त्रासद घटनाएं हाल के वर्षों में घटी हैं ? इस संदर्भ में मीडिया समीक्षकों ने यह सवाल भी उठाया कि सुनामी को आखिरकार इतना व्यापक कवरेज क्यों दिया गया ? यह सवाल भी उठा कि विगत वर्षों में कौन सी सबसे त्रासद घटनाएं हुई हैं ? इस संदर्भ में मीडिया के लोगों ने दुनिया की सबसे बड़ी त्रासद घटनाओं की जो सूची बनायी ,जिन्हें मीडिया ने उपेक्षित किया, वे इस प्रकार हैं - 1. इसमें पहला स्थान कांगो में चल रहे गृहयुध्द का है ,जिसमें पचास लाख लोग 1998-2003 के बीच में मारे गए। एक भी युध्दापराधी नहीं पकड़ा गया। 2. उगाण्डा के गृहयुध्द में एक लाख से ज्यादा लोग मारे गए,अठारह लाख लोगों को घर छोड़ना पड़ा।तीस हजार बच्चों का यौन शोषण्ा हुआ। 3.सूडान के दक्षिण में अब तक बीस लाख लोग मारे जा चुके हैं, पचपन लाख लोग बेघर हुए हैं। पश्चिमी सूडान में मार्च 2005 से अब तक 70 हजार लोग मारे जा चुके हैं और बीस लाख लोग बेघर हुए हैं। 4.पश्चिमी अफ्रीका ,जिसमें सियरालियोन भी शामिल है,कई लाख लोग मारे गए हैं, 25 लाख लोग बेघर हुए हैं। लाइवेरिया में चार लाख शरणार्थी घर लौटने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। 5. कोलम्बिया में नव्वे के दशक में 35 हजार से ज्यादा लोग मारे गए, 30 लाख लोग बेघर हुए। 6. चेचेन्या में युध्द के कारण 6 लाख बेघर हुए हैं, कुल आबादी का बीस फीसदी हिस्सा अभी भी घर लौटने का इंतजार कर रहा है। 7. संक्रमित बीमारियों जैसे मलेरिया से प्रतिवर्ष 10 लाख, टी.बी. से 20 लाख लोगों की मौत हो जाती है।8. अफ्रीकी देशों में एडस और अन्य यौन संक्रमित बीमारियों से चालीस लाख से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। ये वे त्रासद घटनाएं हैं जिनको पर्याप्त कवरेज नहीं मिला। इसके विपरीत सुनामी को मीडिया ने जो कवरेज दिया वह चौंकानेवाला है। तुलना करने पर पाया गया कि पूरे साल मीडिया ने सुनामी कवरेज की तुलना में सूडान संकट को मात्र पच्चीस फीसदी कवरेज दिया। उल्लेखनीय है कि सूडान के संकट को अन्य उल्लिखित संकटों की तुलना में सबसे ज्यादा कवरेज दिया गया था। किन्तु पश्चिमी अफ्रीका और उगाण्डा के संकट की तुलना में सुनामी को सात गुना ज्यादा कवरेज दिया गया। कांगो के जनसंहार की तुलना में ग्यारह गुना ज्यादा कवरेज दिया गया। चेचेन्या की तुलना में 12 गुना ज्यादा, हित्ती और एचआईवी/ एड्स के कवरेज की तुलना में सुनामी को तेरह गुना ज्यादा कवरेज दिया गया। सुनामी के इतने व्यापक कवरेज का प्रधान कारण था उसकी 'सरल प्रस्तुति, आकर्षक दृश्य और रमणीय नाटकीयता।' सुनामी के द्दश्य अकाल,जनसंहार ,गरीबी, महामारी आदि के भयावह दृश्यों की तुलना में ज्यादा आकर्षक थे। उनमें तनाव नहीं था। ब्रिटेन स्थित ह्यूमेनिटेरियन पॉलिसी ग्रुप के पॉल हर्वे का मानना है कि ''सुनामी के लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता था। जबकि तनाव क्षेत्रों की स्थिति जटिल है ,उसके कारण हैं ,उसके लिए दोषी लोग भी खोजे जा सकते हैं।'' एक वजह यह भी थी कि सुनामी नयी घटना थी। नए के प्रति मीडिया का आग्रह होता है। जबकि अफ्रीका में भूख या जनसंहार से मरना कोई नयी बात नहीं थी। तनाव और आपात स्थिति के कवरेज से मीडिया इसलिए भी बचता है क्योंकि वहां स्टोरी एक जैसी होती है। तनाव की खबर के खो जाने का डर है। वह गायब हो जाती है। वह कीमती और जोखिमभरी होती है। एक बात यह भी कि उसके लिए जबावदेही तय की जा सकती है। उसका कोई समाधान नहीं है और कोई अंत भी नहीं है। उल्लेखनीय है कि सुनामी ,तनाव या आपदा संकट की खबरों के लिए धन का सवाल उतना बड़ा नहीं है जितना प्राथमिता का सवाल है। मसलन् 'स्काई' ग्रुप ने अफ्रीका संकट के लिए एक पत्रकार भेजा, जबकि सुनामी के लिए पचास पत्रकार भेजे। सुनामी कवरेज के पीछे एक कारण यह भी था कि सुनामी के समय अनेक पत्रकार सुनामी प्रभावित इलाकों में छुट्टियां मनाने गए हुए थे। एशिया के सुनामी प्रभावित देशों में अफ्रीका की तुलना में परिवहन और संचार का बेहतर ढांचा था। वहां जाना आसान था।
7. सन् 2005 की एक अन्य महत्वपूर्ण घटना है 7 जुलाई 2005 को लंदन में हुए बम धमाकों की । इसमें 56 लोग मारे गए। इस घटना का बीबीसी लंदन से पहले तीन दिनों तक जो कवरेज दिखाया गया उसमें भावों के रूपायन पर ज्यादा जोर था। यहां तक ब्रिटिश अखबारों ने भी भावों को ही पहले पेज से लेकर अंदर के पन्नों तक खूब उछाला। चश्मदीद लोगों के बयानों में 'पेनिक' और 'फियर' व्यक्त हो रहा था। इस तरह की प्रस्तुति के कारण यह सवाल पैदा हुआ कि अन्य त्रासद घटनाओं की रिपोर्टिग में भावों को रूपायित क्यों नहीं किया गया ? उल्लेखनीय है कि अफगानिस्तान,इराक,फिलिस्तीन आदि की त्रासद घटनाओं की रिपोर्टिंग में भावों का कवरेज एकसिरे से गायब है।चश्मदीद गवाहों के बयान होते ही नहीं हैं।
8. अमेरिका में चार दर्जन कांग्रेसमैन भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए हैं। इनमें से अधिकांश रिपब्लिकन हैं,बुश की पार्टी के हैं।
9. राष्ट्रपति बुश चाहते थे कि अल-जजीरा चैनल को बम से उडा दिया जाए।
10.सद्दाम हुसैन के खिलाफ जो मुकदमा चल रहा है। किन्तु इसके गायब हैं।मूल्यांकन गायब है।
11. कच्चे तेल की कीमतों में अभूतपूर्व वृध्दि।

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