गुरुवार, 9 जुलाई 2009

लेखक संगठनों की भूमि‍का या दि‍मागी गुलामी का खेल

उनकी आलोचना करो तो नाराज हो जाते हैं और प्रशंसा करो तो फूलकर कुप्पा हो जाते हैं। वे चाहते हैं सच को किंतु प्यार करते हैं झूठ को। रहते हैं हकीकत में जीते हैं कल्पना में। ऐसी अवस्था है हिन्दी के लेखक संगठनों की। जो जितना बेहतरीन लेखक सामाजिक तौर पर उतना ही निकम्मा। श्रेष्ठता और सामाजिक निकम्मेपन का विलक्षण संगम हैं हिन्दी के लेखक संगठन। जैसे पुराने जमाने में राजा के दरबार में लेखक थे अब लेखक संगठनों में वैसे ही लेखक सदस्य होते हैं। फर्क यह है पहले दरबार था अब लेखक संगठन है। पहले राजा का दरबार था अब विचारधारा का दरबार है। कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिक अर्थ में हिन्दी में अभी भी लेखक संगठन बन नहीं पाया है। लेखक संगठन के नाम पर हिन्दी में विचारधारा के दरबार हैं और जो इनके सदस्य वे दरबारी हैं। दरबारी अनुकरण और नकल के लिए अभिशप्त होता है। उसमें स्वयं जोखिम उठाने की क्षमता नहीं होती। वह अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञ होता है। उदास होता है। उसके फैसले कोई और लेता है वह तो सिर्फ अनुकरण करता है। हिन्दी लेखक संगठनों में तीन बड़े संगठन हैं प्रगतिशील लेखक संघ,जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच। इन तीनों संगठनों के पास कुल मिलाकर पांच-छह हजार लेखक सदस्य हैं। इनके निरंतर जलसे,सेमीनार,सम्मेलन आदि होते रहते हैं। कभी-कभार राजनीतिक मसलों पर प्रतिवाद के आयोजन भी करते हैं।
हिन्दी के लेखक संगठनों के बारे में इंटरनेट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया के परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन किया जाना चाहिए। लेखक संगठन और स्वयं लेखक मूलत: मीडिया है अत: उसका मूल्यांकन इंटरनेट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया के परिप्रेक्ष्य में करना समीचीन होगा। आमतौर पर लेखक संगठनों की गतिविधियों का राजनीतिक-सामाजिक संदर्भ में मूल्यांकन किया जाता है जो कि बुनियादी तौर पर गलत है। लेखक मीडियम है और मीडिया भी। लेखक संगठनों के ज्यादातर विमर्श प्रिंटयुग के विमर्श हैं। पुराने विमर्श हैं। ये वर्तमान को सम्बोधित नहीं करते। हिन्दी के लेखक संगठनों पर चर्चा करने का अर्थ व्यक्तिगत राग-द्वेष को व्यक्त करना नहीं है बल्कि उन तमाम पहलुओं को समग्रता में पेश करना है जिनकी लेखक संगठनों के द्वारा अनदेखी हुई है। लेखक संगठनों ने क्या किया है इसे लेखक अच्छी तरह जानते हैं। इस आलेख का लक्ष्य लेखक संगठनों के प्रति घृणा पैदा करना नहीं है बल्कि यह लेखक संगठनों की सीमा के दायरे के परे जाकर लिखा गया है।
विलोम के युग में-
इंटरनेट युग में संगठन की बजाय व्यक्ति बड़ा हो गया है। व्यक्ति की सत्ताा,महत्ताा और निजता का दायरा बढ़ा है। व्यक्ति के अधिकारों,परिवेश और दायित्वों को नए सिरे से परिभाषित किया जा रहा है। इस प्रक्रिया में लेखक संगठन ,राजनीतिक दल और आधुनितायुगीन सांगठनिक संरचनाएं अप्रासंगिक हुई हैं। संगठन की अंतर्वस्तु अब वही नहीं रह गयी है जो कागज पर लिखी है अथवा भाषणों या दस्तावेजों में है। संगठनों ने अपना विलोम रचा है। हर चीज अपना विलोम रच रही है। विलोम की प्रक्रिया उन समाजों में ज्यादा तेज हैं जहां पर इंटरनेट संरचनाएं पैर पसार चुकी हैं।
इंटरनेट ने सांगठनिक संरचनाओं को नपुंसक बना दिया है,प्रभावहीन और भ्रष्ट बना दिया है। अब लेखक संगठन नहीं लेखक बड़ा है। लेखक संगठन की बनिस्पत लेखक के पास प्रचार-प्रसार के ज्यादा अवसर हैं। लेखन ज्यादा सरल और कम खर्चीला हो गया है। लेखक और समाज के बीच के सभी पुराने मध्यस्थ गायब हो चुके हैं। पुराने सेतुओं में आधुनिक और आखिरी सेतु था लेखक संगठन,इन दिनों वह भी प्रभावहीन और प्रतीकात्मक रह गया है। लेखक संगठन का प्रतीक में तब्दील हो जाना,लेखक संगठन के प्रस्तावों का प्रभावहीन हो जाना,लेखकों की एकजुटता का टूट जाना,लेखकों का जोखिम उठाने से कतराना, लेखक संगठन के सदस्यों में मानवीयता का अभाव आम बात हो गयी है। यह परवर्ती पूंजीवाद के सकारात्मक और अनिवार्य प्रभाव हैं। इंटरनेट युग मनुष्य की नहीं तकनीकी की महानता का युग है,लेखन इसकी धुरी है।
सवाल उठता है सूचना युग में लेखक संगठनों की क्या प्रासंगिकता है ? सूचना युग में क्या लेखक संगठन वही रह जाते हैं जो प्रिंटयुग में थे ? क्या साहित्य का स्वरूप सूचना युग में बदलता है ? क्या उपन्यास का सूचनायुग में वही अर्थ है जो प्रिंट युग में था ? क्या छपे हुए उपन्यास और हाइपरटेक्स्ट अथवा स्क्रीन उपन्यास में कोई फर्क है ? क्या 'मौत' या 'अंत' के पदबंधों का चालू अर्थ में विवेचन संभव है ? क्या साहित्यिक कृति की सूचना युग में अर्थ और भूमिकाएं बदली हैं ? इत्यादि सवालों पर समग्रता में विचार करने की जरूरत है।
एक जमाना था साहित्यिक कृति का काम था सुनिश्चित संस्कृति और मूल्यों का प्रचार करना। आज कृति की इस भूमिका को 'चिप्स',डेटावेस,इलैक्ट्रोनिक अर्काइव और तद्जनित तकनीकी रूपों ने अपदस्थ कर दिया है। हाइपरटेक्स्ट आख्यान ने अपदस्थीकरण की इस समूची प्रक्रिया को जटिल और तेज कर दिया है। साहित्य का निरंतर डिजिटल अवस्था में रूपान्तरण हो रहा है। आज साहित्य पूरी तरह इतिहास से अपने को अलग कर चुका है। साहित्य के सारे विवाद इतिहास से अलग करके पेश किए जा रहे हैं।
सामयिक दौर की बड़ी घटनाएं त्रासद घटनाएं हैं। आज इतिहास और त्रासद घटनाएं हमारे विमर्श का संदर्भ नहीं हैं। फलत: यथार्थ का लोप हुआ है और हम नकल के युग में दाखिल हो गए हैं। नकली यथार्थ के चित्रण में मगन हैं। इतिहास और अतीत के प्रति लाक्षणिक प्रतिक्रियाएं व्यक्त हो रही हैं। इतिहास के प्रति लाक्षणिक प्रतिक्रिया का आदर्श उदाहरण है हाल के वर्षों में चला ''रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद आन्दोलन।'' प्रतिक्रिया में व्यक्त की गई चीजों को स्मृति में रखना संभव नहीं होता। उसे हम जल्दी भूल जाते हैं।
प्रतिक्रियास्वरूप पैदा हुए भारत-विभाजन की विभीषिका को भूल चुके हैं। गुजरात के दंगे भूल चुके हैं। नंदीग्राम के जनसंहार को भूल चुके हैं। वह विस्मृति के गर्भ में चली जाती है। हम बहुत जल्दी ही भूल गए कि द्वितीय विश्वयुध्द में क्या हुआ था। द्वितीय विश्वयुध्द की विभीषिका को अब साउण्ड ट्रेक ,इमेज ट्रेक, सार्वभौम स्क्रीन और माइक्रोप्रोसेसर के जरिए ही जानते हैं। पहले हमने विभीषिका को देखा,सौंदर्यबोधीय बनाया,फिर हजम किया और बाद में सब भूल गए।
जब भी किसी चीज को सौंदर्यबोधीय चरम पर पहुँचा दिया जाता है उसे हम भूल जाते हैं। अब हमें विभीषिका की कम उसके कलात्मक सौंदर्यबोध की ज्यादा याद आती है। अब द्वितीय विश्वयुध्द की तबाही की नहीं उसकी फिल्मी प्रस्तुतियों,टीवी प्रस्तुतियों के सौंदर्य में मजा आता है। सौंदर्यबोधीय रूपान्तरण त्रासदी को आनंद में तब्दील कर देता है। यह ऐसा आनंद है जो निष्क्रिय व्यक्ति का आनंद है। इस आनंद में न तो विरेचन है और न सक्रिय करने की क्षमता है। यह निज का विलोम है। फलत: जिस चीज से नफरत करनी चाहिए उससे प्यार करने लगते हैं। द्वितीय विश्वयुध्द की विभीषिका को प्रभावित देशों में कोई भी नागरिक महसूस नहीं करता। उनके लिए द्वितीय विश्वयुध्द गुजरे जमाने की चीज हो गई है। फिल्मी कलात्मक अभिव्यक्ति और आनंद का रूप है। कहने का तात्पर्य यह है कि इलैक्ट्रोनिक युग में लेखक जो कुछ भी रचता है रचने के बाद उसका स्वत: ही विलोम पैदा होता है।
इलैक्ट्रोनिक मीडिया के चहुँमुखी विकास ने विश्व चेतना से त्रासदी और उसके भयावह बोध को खत्म करने में केन्द्रीय भूमिका अदा की है। यही हाल भारत-विभाजन का हुआ। भारत-विभाजन को पहले फिल्मी और बाद में धारावाहिक बनाया। यह एक तरह से यथार्थ के संप्रेषण और अर्थ का हाइपररीयल में रूपान्तरण है। हाइपररीयल यथार्थ का चरम है। यथार्थ से सुंदर यथार्थ है।
''क्लीचे'' और ''रूढि'' -
नयी परिस्थितियों में साहित्य और लेखक संगठन के स्तर पर संचार के सभी चर्चाएं 'क्लीचे' की शक्ल में होती रही हैं। प्रगतिशील,जनवादी,क्रांतिकारी,प्रतिक्रियावादी,साम्प्रदायिक, धर्मनिरपेक्ष आदि पदबंधों का प्रयोग मूलत: 'क्लीचे' के रूप में हुआ है। इससे लेखक संगठनों को व्यापक ऑडिएंस मिली । इन पदबंधों का व्यापक अनुकरण हुआ। सरलीकरण हुआ। जब भी कोई पदबंध 'क्लीचे' बन जाता है तो अपना मूल अर्थ खो देता है। अब वह सिर्फ प्रतीक मात्र,कथन की रूढ़ि मात्र बनकर रह जाता है। आधुनिकता और रैनेसां के गर्भ से पैदा हुई तमाम धारणाओं का क्रमश: इसी तरह लोप हुआ है। लोप से तात्पर्य है इन धारणाओं का अर्थहीन बन जाना, प्रभावहीन बन जाना। आम लोगों के द्वारा इनके अर्थ का अस्वीकार। इन पदबंधों का 'क्लीचे' के रूप में प्रसार इस तथ्य की सूचना है कि ये पदबंध अपने मूल अर्थ को खो चुके हैं। जब भी कोई चीज 'क्लीचे' में तब्दील हो जाती है तो अपने मूल अर्थ को नष्ट कर देती है। 'क्लीचे' बनने के बाद ये पदबंध प्रतीकात्मक रेडीमेड मासकल्चर में तब्दील हो गए।
जब भी कोई पदबंध अथवा अवधारणा 'क्लीचे' बन जाती है अथवा रूढ़ि बन जाती है तो उसकी विनिमय की भूमिका भी बदल जाती है। इलैक्ट्रोनिक युग में इनका मूल्यबोध नहीं बल्कि विनिमय मूल्य संप्रेषित होता है। इनके प्रचार करने से मुद्रा मिलती है। सत्ताा सुख और सस्तासुख मिलता है। सत्ताा को रूढ़ियां पसंद हैं। सतहीपन पसंद है।रूढ़ियां पसंद हैं। पूंजीवादी सत्ताा हो या समाजवादी सत्ताा हो सबको अपने प्रचार के लिए रूढियों की जरूरत होती है। बगैर रूढियों के कोई भी सत्ताा अपनी विचारधारा का प्रचार नहीं करती। आधुनिककाल में खासकर आजादी के बाद उपरोक्त अवधारणाओं का रूढ़ि के दौर पर विकास हुआ है। सर्जनात्मक विकास कम हुआ है।
आधुनिक काल में लेखक संगठन भी एक रूढ़ि है। इसकी साहित्यिक आधुनिक रीतिवाद के निर्माण में केन्द्रीय भूमिका रही है। हमारे प्रगतिशील दोस्तों को अपने नाम के साथ रीतिवाद सुनकर परेशानी और गुस्सा आ सकता है। किंतु सच यही है कि जब भी आप किसी को सम्बोधित होकर लिखते हैं अथवा सुनाते हैं तो व्यवहार में रीतिवाद का ही अनुसरण करते हैं। रीतिवाद की साहित्यिक विशेषता थी कि लेखक जानता था कि उसका श्रोता कौन है। लेखक संगठन के प्रचारक जानते हैं उनका श्रोता या पाठक कौन है ? वे किसे सम्बोधित कर रहे हैं।
मध्यकालीन रीतिवाद की दूसरी बड़ी विशेषता है पदबंधों के सुनिश्चित अर्थ और उनका अहर्निश प्रचार। लेखक संगठनों के द्वारा आधुनिक अवधारणाओं की जितनी बड़ी तादाद में टीकाएं लिखी गयीं उस तरह की प्रवृत्तिा सिर्फ मध्यकाल में नजर आती है। लेखक संगठनों और उनके प्रकाशनों पर एक नजर डालने पर पता चलता है कि ये आधुनिक युग के टीकाकार हैं।
हिन्दी की आधुनिक तर्कप्रणाली भी तकरीबन वही है जो मध्यकाल में थी। मध्यकाल में जो कहा जाता था उसे मानने पर जोर था मजेदार बात यह है कि लेखक मानते भी थे। आधुनिक काल में लेखक संगठनों के द्वारा जो कुछ भी कहा जाता है उसे लेखकों का एक तबका अभी भी मानता है किंतु जो लेखक मध्यकालीन रूढ़ियों से मुक्त हो चुके हैं वे नहीं मानते। यह साहित्यिक रूढ़िवाद ही है कि यदि कोई आलोचक कहे कि फलां लेखक की रचना महान है तो हठात यह प्रचार होने लगता है कि फलां-फलां आलोचक ने कहा है फलत: रचना महान है,रचनाकार महान है। यही स्थिति लेखक संगठनों की भी होती है। वे बताने लगे हैं कि कौन लेखक है और कौन लेखक नहीं है। लेखक संगठन मूलत: 'प्रायोजक' मात्र बनकर रह गए हैं।
लेखक संगठनों का किसी भी अवधारणा से रूढिबध्द ढंग से जुड़े रहना आधुनिक रीतिवाद है। आधुनिक रीतिवाद का आदर्श उदाहरण है 'जनवाद' पदबंध का लेखक संगठनों के द्वारा प्रचार-प्रसार और स्वयं लेखक संगठनों में लोकतान्त्रिक कार्यप्रणाली का अभाव। यानी प्रचार के लिए जनवाद ठीक है,व्यवहार में सामंतवाद ठीक है। अलोकतान्त्रिक कार्यप्रणाली के एक नहीं अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जो जनवादी लेखक संघ के मेरे निजी अनुभव का हिस्सा हैं। किंतु उदाहरण यहां अप्रासंगिक हैं। बुनियादी समस्या है लेखक संगठनों में व्याप्त रीतिवाद की।
रीतिवाद के कारण ही लेखक संगठन किसी भी मौलिक प्रश्न को उठाने में असमर्थ रहे हैं। वे उन प्रश्नों पर बहस करते रहे हैं जो दूसरों ने उठाए हैं। जिस तरह मध्यकालीन रीतिवाद के दौरान कभी लेखक के अधिकारों पर बातें नहीं हुईं। ठीक उसी तरह आजादी के बाद लेखक संगठनों ने देश में लेखकों के अधिकारों को लेकर कोई मौलिक आन्दोलन नहीं चलाया। लेखकों को उनके अधिकारों की चेतना से लैस करने के लिए कोई अभियान नहीं चलाया।
जैसे विज्ञापन में रीतिवाद का महत्व होता है, प्रचार मूल्य होता है। विनिमय मूल्य होता है।उसी तरह लेखक संगठनों के द्वारा आयोजित कार्यक्रम भी होते हैं। उनका विज्ञापनमूल्य से अधिक मूल्य आंकना बेवकूफी है। जिस तरह मध्यकाल में आण् बदलावों से संस्कृत के लेखक अनज्ञि थे उसी तरह आधुनिकाल में आए बदलावों को लेकर हिन्दी लेखक संगठन अनभिज्ञ हैं। वे रूढिबध्द ढंग़ से अवधारणाओं का प्रयोग करते रहते हैं और यह देखने की कोशिश ही नहीं करते कि अवधारणा की अंतर्वस्तु बदल चुकी है। मसलन् धर्मनिरपेक्षता पदबंध को ही लें, धर्मनिरपेक्षता का आपात्काल से संबंध जुड़ने के कारण अर्थ ही बदल गया। संविधान में जिस अर्थ में धर्मनिरपेक्षता को व्याख्यायित किया गया था वही अर्थ आपातकाल में नहीं रह गया। गैर कानूनी संविधान संशोधन के जरिए आपातकाल में अधिनायकवादी राजनीति के फ्रेमवर्क में धर्मनिपेरक्षता को संविधान के 'आमुख' में जोड़ा गया। उस समय समाजवाद पदबंध को भी जोड़ा गया था। फलत: धर्मनिरपेक्षता का आगमन अधिनायकवादी विचारधारा का अंग के रूप में हुआ और हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि अधिनायकवाद स्वभाव से प्रतिक्रियावादी होता है और यही धर्मनिरपेक्षता शाहबानो केस बाद,राममंदिर शिलान्यास के बाद वही नहीं रह गयी थी जिसकी संविधान निर्माताओं ने कल्पना की थी।
धर्मनिरपेक्षता के इस बदले अर्थ को आपात्काल के साथ जोड़कर देखे बिना समझना संभव नहीं है। धर्मनिरपेक्षता का दूसरा बड़ा संदर्भ शाहबानो प्रकरण और राममंदिर शिलान्यास है। धर्मनिरपेक्षता का कांग्रेस,संघ परिवार,साम्यवादी दलों में एक ही अर्थ नहीं है। यानी किसी भी अवधारणा,व्यक्ति,विचार आदि को स्थायी अर्थ नहीं दिया जा सकता। आज हम जिसे 'घटना' कहते हैं और उसका घटना की तरह विवेचन करते हैं वह मूलत: 'रेपचर' या 'ब्रेक' है। हमें देखना होगा 'ब्रेक' में क्या बन रहा है और 'ब्रेक' के बाद क्या निकल रहा है।
आज भू.पू.सोवियत संघ के विभिन्न देशों में समाजवाद का अर्थ वही नहीं है जो सन् 1917 की अक्टूबर क्रांति के समय था। हम याद करें किम इलसुंग को जिन्होंने उत्तारी कोरिया में समाजवाद और माक्र्सवाद पदबंध का इस्तेमाल ही नहीं किया और 'जूचे' विचारधारा के आधार पर आम लोगों को गोलबंद किया। क्योंकि माक्र्सवाद,कम्युनिस्ट पार्टी और समाजवाद के साथ उत्तारी कोरिया में असंख्य कलंक आख्यान जुड़ थे। इप पदबंधों से उत्तार कोरिया की जनता घृण्ाा करती थी। यही अवस्था सोवियत संघ की भी है। आज वहां पर आम जनता में माक्र्सवाद और समाजवाद की कोई साख नहीं है। क्या बात है कि माक्र्सवाद,समाजवाद वहां पर अर्थहीन हो गए ? इसका प्रधान कारण है जनता की इन पदबंधों के बारे में बदली हुई समझ, यह समझ अनुभव के आधार पर बनी है। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक संगठनों को अवधारणाओं का इस्तेमाल करते हुए आम जनता में इनके बदलते अर्थ को ध्यान में रखना चाहिए महज नेता,पार्टी,किताब आदि में जो अर्थ लिखा है अथवा बताया गया है उस पर चलने का अर्थ है अवधारणा के अंदर घट रहे परिवर्तनों से अनभिता और अर्थ परिवर्तन की उपेक्षा।
क्या पश्चिम बंगाल में पैंतीस सालों से भी ज्यादा शासन करने और भारत में सात दशकों तक कम्युनिस्ट आंदोलन के विकास के बाद क्या समाजवाद का वही अर्थ रह गया है जो आरंभ में सोचा गया था ? कहने का तात्पर्य यह है प्रत्येक पदबंध और अवधारणा के सुनिश्चित अथवा निर्धारित अर्थ का लोप हुआ है। ऐसे में लेखक संगठनों की वही स्थिति नहीं रह सकती जो घोषणाओं और प्रस्तावों में बयां की गयी है।
लेखक संगठन इसलिए काम नहीं करते कि उन्हें तर्क, वितर्क,संवाद, विवाद अथवा विवेकवादी विमर्श तैयार करना है। बल्कि इसलिए काम करते हैं कि उन्हें विचारधारा विशेष का वर्चस्व स्थापित करना है। उल्लेखनीय है लेखक संगठनों की भारत में भूमिका शीतयुध्द के आगमन के साथ ही खत्म हो गयी थी। पुराने प्रगतिशील लेखक संघ का सन् 1953 में समापन हुआ, कालान्तर में 1972-73 में शीतयुध्द के चरम दौर में पुन:जन्म हुआ। समाजवाद के अंत के दौर में जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच जैसे संगठनों का जन्म हुआ। इन तीनों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बुनियादी अंतर नहीं है। इन प्रकाशनों में छपी सामग्री में भी बुनियादी दृष्टिकोणगत अंतर नहीं है। इसके बावजूद ये तीन संगठन के रूप में मौजूद हैं महज राजनीतिक कारणों से।
इन तीनों संगठनों के सांस्कृतिक कार्यक्रम मूलत: उदारवादी सचेतनता और मानवाधिकारों की अभिव्यक्ति करते हैं। साथ ही पार्टीजान आधार पर काम करने की पुरानी पध्दति का निषेध करते हैं। एक ही वाक्य में कहें हिन्दी में सक्रिय तीनों बड़े लेखक संगठन 'प्रतीकात्मक सांस्कृतिक स्पेस'' बनाते हैं। यह साझा सांस्कृतिक स्पेस है। इन संगठनों के द्वारा जितने भी कार्यक्रम किए जाते हैं वे सबके सब प्रतीकात्मक हैं। 'प्रतीकात्मक सांस्कृतिक स्पेस' का राजनीतिक लक्ष्य के साथ मेल है।
इन तीनों संगठनों में साझा तत्व है कि जनता को कभी सांस्कृतिक एजेण्डा नहीं बनाया गया बल्कि 'पावर' को केन्द्र में रखकर कार्यक्रम किए गए। 'पावर' को केन्द्र में रखकर जब भी सांस्कृतिक एजेण्डा तय होगा वह गैर-बहुलतावादी होगा। 'हम' और 'तुम' के विभाजन पर टिका होगा। 'हम' और 'तुम' के आधार पर ही समीक्षाशास्त्र विकसित किया गया। दोस्त-दुश्मन तय किए गए। एक ही विचारधारा के आधार पर एकजुट करने पर जोर दिया गया। फलत: इन संगठनों में सहमत एकजुट थे, असहमत बाहर थे। यह मध्यकालीनबोध का यह आधुनिक संस्करण है। सहमति का बहुत ही सीमित और संकुचित आधार चुना गया। सहमति और सांगठनिक क्षमता का आधार राजनीतिक वफादारी को बनाया। राजनीतिक वफादारी का सबसे बड़ी क्षमता के रूप में सामने आना नयी बात नहीं है यह दरबारी संस्कृति की केन्द्रीय विशेषता थी अजकल लेखक संगठनों के रीतिवाद की विशेषता है। राजनीतिक वफादारी को राजनीतिक प्रतिबध्दता के रूप में पेश किया गया। ऐसा करते हुए लेखकबंधु भूल गए कि लेखक की लेखन और जनता के आलावा किसी से भी प्रतिबध्दता नहीं होती। उसीकी सहमति और असहमति का स्रोत ये ही दोनों हैं। जनता बदली तो लेखन भी बदला,सहमति और असहमति का आधार भी बदला। इस बदलाव की प्रक्रिया को लेखक संगठन अभी हजम करने की स्थिति में नहीं हैं।
'हम' और 'तुम' के आधार पर ही ''नैतिक श्रेष्ठता'' और ''राजनीतिक सटीकता'' का दावा किया गया। ''नैतिक श्रेष्ठता'' को सही राजनीतिक लाइन के आधार पर श्रेष्ठ ठहराने की कोशिश की गयी। यह मूलत: 'नैतिकता' और 'राजनीति' का यांत्रिकबोध ही है जो इस तरह के निष्कृट मूल्यांकन तक ले जाता है। नैतिक तौर पर दूसरे से श्रेष्ठ ठहराने के चक्कर में विशेष किस्म के असमानताबोध का प्रचार किया जाता है। फलत: संगठन के सांस्कृतिक लक्ष्य गायब हो जाते हैं और उनकी जगह वफादारी प्रमुख रूप ले लेती है।
लेखक संगठन में वफादारी बड़ी खतरनाक प्रवृत्तिा है। आज लेखकों के बीच में वफादारों की तलाश की जा रही है। वास्तविकता यह है लेखक स्वभाव से वफादार नहीं बागी होता, सिर्फ चारण लेखक वफादार होते हैं। बागी लेखक स्वयं के प्रति भी आलोचनात्मक नजरिया रखता है। भूमंडलीकरण के दौर में वफादारी सबसे बड़ा फिनोमिना है। इस अर्थ में भूमंडलीकरण और मध्यकाल एक ही जगह मिलते हैं,दोनों को वफादार की तलाश रहती है। लेखक को वफादार बनाने का अर्थ है नपुंसक और अप्रतिरोधी बनाना। लेखक संगठनों के द्वारा वफादारी का जो खेल चलता रहा है उससे इन संगठनों की ऊर्जा का ह्रास हुआ है। वफादारी मूलत: मध्यकालीनबोध है। इसी अर्थ में लेखक संगठनों में 'लेखक' कम 'वफादार लेखक' ज्यादा मिलते हैं। इनमें बागी भाव का अभाव है। जोखिम उठाने से कतराते हैं। बागीभाव के अभाव के कारण ये लेखक यथार्थ को चित्रित नहीं कर पाते, सत्य को खुलकर बोल नहीं पाते और हमेशा किसी अदृश्य भय अथवा परेशानी के आ जाने से सशंकित रहते हैं।
इनकी रचना में बागीपन और यथार्थ जीवन की त्रासदी के रूपों का अभाव है। लेखक जब बागीपन,जोखिम उठाने,त्रासदी को विषयवस्तु बनाने से भागने लगे तो समझो उसने वफादारी का दामन पकड़ लिया है। हिन्दी में इन दिनों त्रासदी का विषयवस्तु के रूप में एकसिरे अभाव है। त्रासदी हमारे लेखक को उद्वेलित नहीं करती। त्रासदी का लेखन से गायब हो जाना और यथार्थ की बजाय निर्मित यथार्थ की रचनाओं की बाढ़ का आ जाना वैसे ही है जैसा श्रृंगार साहित्य में देखा गया था, वहां पर भी निर्मित यथार्थ था, फर्क यह है कि श्रृंगारी लेखक अपने व्यक्तिगत नजरिए को व्यक्त करने में ऐतिहासिक तौर पर असमर्थ था जबकि आधुनिक निर्मित यथार्थ वाली रचनाओं में लेखक का व्यक्तिगत नजरिया मिल जाता है।
मध्यकालीन रीतिवाद में आलोचना नहीं प्रशंसा होती थी और कृतिकेन्द्रित प्रशंसा पर जोर था। इन दिनों आलोचना का ढ़ांचा पुराना है अंतर यह है कि प्रशंसा को सामयिक यथार्थ के साथ जोड़ दिया जाता है। मध्यकालीन आलोचक अपनी आलोचना को सामयिक यथार्थ से जोड़ नहीं पाता था, रचना में सामाजिकता की खोज नहीं करता था, मौजूदा दौर में रचना में सामाजिकता की बजाय लेखक के व्यक्तिगत नजरिए की खोज पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। नजरिए की प्रशंसा में कसीदे लिखे जा रहे हैं। रचना के मूल्यांकन में लेखक के नजरिये से ज्यादा महत्वपूर्ण रचना में चित्रित यथार्थ का मूल्यांकन। देखना चाहिए रचना में चित्रित यथार्थ वास्तव है अथवा निर्मित है ? रीतिकाल का ही असर है कि हिन्दी में नयी आलोचना की किताबें नहीं आ रहीं। यदि किताबें आयी हैं तो अकादमिक दबावों और जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से। आलोचना के लिहाज से तकरीबन काम बंद पड़ा है। आलोचनाकर्म क्यों बंद हो गया और उसकी जगह विज्ञापन की शैली में आलोचना क्यों आने लगी इसका गहरा संबंध आधुनिक रीतिकाल से है।
आलोचना के लिए असहमति का होना जरूरी है। आलोचना के साहित्यिक उपकरणों का होना जरूरी है। आज जो आलोचना प्रचलन में है वह आलोचना के किसी पैराडाइम को आधार बनाकर नहीं लिखी जा रही बल्कि स्वांत सुखाय, आदेश और अनुरोध पर लिखी जा रही है। इसका बुनियादी आधार है वफादारी। उल्लेखनीय है वफादारी के आधार आलोचना नहीं लिखी जा सकती। राजनीति कर सकते हैं। सांस्कृतिक कर्म नहीं कर सकते।
वफादारी के आधार पर आलोचनात्मक वातावरण नहीं बनाया जा सकता। आलोचनात्मक वातावरण बनाने के लिए जरूरी है आलोचना को सही ढ़ंग से लिखा जाए। आलोचना को रूढ़ियों के बाहर लाया जाए। वफादारी के आधार पर जब भी आलोचना लिखी जाएगी, प्रस्ताव पास किए जाएंगे,सम्मेलन अथवा सेमीनार होंगी उससे आलोचनात्मक माहौल नहीं बनेगा। वफादारी के आधार पर सांस्कृतिक कर्म का अर्थ है अपने को सही ठहराना, अपने हाथों अपनी पीठ ठोकना। जो पहले से सहमत है उसे सहमत बनाना। फलत: लेखक संगठन कोल्हू के बैल की तरह एक ही घेरे में परिक्रमा कर रहे हैं और आगे नहीं बढ़ पाए हैं। लेखक संगठन यदि लक्ष्मणरेखा खींचकर ,नियम से बंधकर काम करेंगे तो नियमों और रूढियों के खिलाफ संघर्ष कौन करेगा। लेखक संगठन यदि सिर्फ सहमतियों को ही बढ़ावा देंगे तो असहमति के लिए लेखक कहां और किस मंच पर जाएगा।
लेखक संगठनों को बुनियादी तौर सहमति का नहीं असहमति का मंच होना चाहिए। बिडम्वना है कि लेखक संगठनों ने असहमति की बजाय सहमति को तवज्जह दी है। किसी भी लेखक का मूल्यांकन लिखे के आधार पर नहीं वैचारिक सहमति अथवा वफादारी के आधार पर हो रहा है। मसलन् इस सवाल सोचें कि क्या हिन्दी के तीनों बड़े लेखक संगठनों ने कभी ऐसे लेखक के बारे में विस्तार के चर्चा की है जिसके विचारों और नजरिए से वे एकदम असहमत हों ? मुक्तिबोध,रघुवीरसहाय, नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल,त्रिलोचन आदि पर बातें करना रीतिवाद है क्योंकि ये लेखक तो इन तीनों संगठनों के किसी न किसी एजेण्डे से सहमत हैं। सहमत पर सहमत होना और उसका प्रौपेगैण्डा करना अनालोचनात्मक माहौल बनाता है। इसके कारण सांस्कृतिक शत्रु कहीं पीछे छूट जाता है। नैतिक और राजनैतिक सहीपन के दावे अथवा अपने ही हाथों अपनी पीठ ठोंकने की प्रवृत्तिा बल पकड़ लेती है। ज्योंही कोई संगठन इस पैराडाइम में दाखिल होता है वह अन्तर्विरोधों को सम्बोधित करना बंद कर देता है। क्योंकि वे सामाजिक-सांस्कृतिक स्पेस में अपने विरोधी को शिरकत ही नहीं करने देते। इसके कारण अलोकतांत्रिक प्रतिवादी रूपों का उदय होता है। अलोकतांत्रिक प्रतिवाद का चरम रूप है आतंकवाद। अपने विरोधी की शक्ति का अनुमान करते हुए,उसे चुनौती देते हुए जब आप अपनी बढ़त हासिल करते हैं तब मामला दूसरा होता है।
सन् 1984-85 के बाद से समाजवाद के पराभव की जो प्रक्रिया शुरू हुई उसने महानगरीय सांस्कृतिकबोध और महानगरीय नजरिए पर ज्यादा जोर दिया है। भूमंडलीकरण के सवाल केन्द्र में आ गए हैं। समाजवाद फीका पड़ा है। वफादारी का भाव प्रबल हुआ है। संकट में आलोचकों की नहीं वफादारों की जरूरत महसूस होती है। लेखक संगठन जब वफादारों से घिरे हों तो समझना चाहिए संकट की गिरफ्त में हैं।
लेखक संगठन आधुनिक बनें इसके लिए जरूरी है कि वे सत्ताा को अपना एजेण्डा न बनाए, राजनीति को अपना प्रधान एजेण्डा न बनाए। यदि वह ऐसा करते हैं तो सत्ताा विमर्श का अंग बन जाएंगे। साम्प्रदायिकता,धर्मनिरपेक्षता,आतंकवाद आदि सत्ताा विमर्श हैं। जनता के विमर्श नहीं हैं। लेखक संगठनों का लक्ष्य विकल्प के विमर्श होने चाहिए, विकल्प के विमर्शों को सामने लाना चाहिए। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो हिन्दी के लेखक संगठनों की गतिविधियों की बड़ी फीकी तस्वीर उभरकर सामने आती है। उनके यहां वैकल्पिक विमर्श एकसिरे से गायब हैं। वे जिन विषयों पर बहस कर रहे हैं ,सेमीनार कर रहे हैं उनमें से अधिकांश सत्ताा विमर्श का हिस्सा हैं। राजनीति से भिन्न जनता और सत्ताा के विकल्पों पर काम करना लेखक संगठनों का लक्ष्य होना चाहिए। मजेदार बात यह है कि हमारे लेखक संगठनों ने कभी विकल्पों की खोज नहीं की। लेखक संगठनों में जितनी भी विचारधारात्मक बहसें चली हैं ये वे बहस हैं जो सत्ताा और राजनीतिक दलों ने थोपी हैं। इनमें लेखक संगठन प्रतिक्रिया के रूप में दाखिल हुए हैं। लेखक संगठनों का एकमात्र काम प्रतिक्रिया व्यक्त करना, प्रेस विज्ञप्ति जारी करना, सत्तााधारी वर्गों के द्वारा थोपे गए मसलों पर राय देना ही बुनियादी काम रहा है। उन्होंने सालों-साल इसी काम में अपनी अजस्र ऊर्जा खर्च की है।
यह वैसे ही है जैसे कोई ऊर्जावान व्यक्ति अपनी ऊर्जा सही कार्यों में खर्च न कर पाए और सुबह जॉगिंग में जाकर खर्च करे। जॉगिंग में खर्च की गयी ऊर्जा बेकार में व्यय की गयी ऊर्जा है। यह ऐसे व्यक्ति की ऊर्जा है जो संतुष्ट है और अपने शरीर से दुखी है। अपने ही शरीर के बोझ को संभालने में असमर्थ है। यही वजह है कि दसियों वर्ष लेखक संगठन का काम करने वाले लेखकबंधु अंत में हताश,आलस्य के मारे अथवा लेखक संगठन की क्रमश: निष्क्रियता के आख्यानों को सुना-सुनाकर अपने मन को संतोष देते रहते हैं वे एक तरह से यह भी बता रहे होते हैं कि उन्होंने कितनी बड़ी ऊर्जा निरर्थक कार्यों में खर्च की और देखो अब कोई लेखक हमारी नहीं सुन रहा।
लेखक संगठनों की वफादारी की त्रासदी यह है कि वे जिस राजनीति के लिए अपनी सारी ऊर्जा होम कर देते हैं उस राजनीतिक दल के अंदर भी उनके लिए कोई महत्वपूर्ण जगह नहीं होती। मसलन् माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी अथवा अन्य राजनीतिक दलों में उनके लेखक संगठनों की पार्टीगत तौर क्या हैसियत है ? बुध्दिजीवियों की क्या हैसियत है इसे बड़ी आसानी से पोलिटब्यूरो और केन्द्रीय समिति के सदस्यों को देखकर समझा जा सकता है। कभी भी इन दलों की प्रधान कमेटियों में बुध्दिजीवी होने के नाते अथवा लेखक संघ के पदाधिकारियों को चुना तक नहीं जाता। आप बहुत बड़े कम्युनिस्ट लेखक हो सकते हैं किंतु कम्युनिस्ट पार्टी की फैसलेकुन कमेटियों में आपका कोई स्थान नहीं होगा। जबकि सोवियत संघ,चीन आदि में कभी भी ऐसा नहीं रहा है।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों का बुध्दिजीवियों को प्रचारक के रूप में इस्तेमाल करना वस्तुत मध्यकालीन दरबारीपन का अपभ्रंश रूप है। जाने-अनजाने बुध्दिजीवी वर्ग के प्रति इससे बेगानेपन का भाव ही संप्रेषित होता है। यह भी संप्रेषित होता है कि लेखक की सत्ताा को कम्युनिस्ट पार्टियां किसी भी रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों में लेखकों के कामकाज की देखभाल और दिशानिर्देश का जिम्मा लेखक के पास नहीं बल्कि किसी कूडमगज राजनीतिज्ञ के पास होता है जिसे साहित्य-कला की कोई समझ नहीं होती। जब कम्युनिस्ट पार्टियां अपने यहां लेखक और बुध्दिजीवी को प्रधान दर्जा नहीं देती हैं तो बुर्जुआ दलों से यह कैसे उम्मीद की जाए कि वे लेखक को बड़ा दर्जा देंगी।
इसके बावजूद एक तथ्य गौर करने लायक है कि लेखक के नाते कांग्रेस ने कम से कम श्रीकांत वर्मा को अपने दल का महासचिव तो बनाया, कवि बाल कवि बैरागी को सांसद तो बनाया।राज्यसभा के लिए नामजद लोगों की सूची निकाली जाए तो कई लेखकों को सांसद के तौर पर नामांकित कराया। जबकि कम्युनिस्ट पार्टियों ने लंबे समय से किसी भी हिन्दी,बांग्ला,मलयालम आदि भाषा के लेखक को राज्यसभा में नामजद तक नहीं किया। हां एक बात जरूर हुई कि कई फिल्मी हस्तियों को नामजद जरूर किया। किंतु किसी हिन्दी लेखक अथवा बुध्दिजीवी को कम्युनिस्ट पार्टियों ने नामजद नहीं किया। मजेदार बात है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र से सीताराम येचुरी, वृंदाकारात जैसे बड़े नेता राज्यसभा में नामजद किए जा सकते हैं। किंतु नामवरसिंह,भैरवप्रसाद गुप्त, अमृतराय, राजेन्द्र यादव ,मुरलीमनोहरप्रसाद सिंह, मार्कण्डेय ,हबीब तनवीर, इनफान हबीब,श्रीलाल शुक्ल,हरिवंस मुखिया आदि को नामजद नहीं किया जा सकता। सवाल किया जाना चाहिए कि जब हिन्दीभाषी क्षेत्रों में कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारात्मक बागडोर हिन्दी के लेखक और बुध्दिजीवी संभालते हैं तो उन्हें संसदीय लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्थाओं में प्रतिनिधित्व दिलाने का काम कम्युनिस्ट पार्टियां क्यों नहीं करतीं।
यह क्यों होता है कि जो लोग कम्युनिस्ट पार्टियों में आर्थिक और सांस्कृतिक नीति बनाने का काम करते हैं वे संसद में नहीं भेजे जाते , सिर्फ राजनीतिज्ञों को ही क्यों नामजद किया जाता है ? इस मामले में एकमात्र अपवाद हैं फिल्मी हस्ती। इसे ही कहते हैं इलैक्ट्रोनिक मीडिया का राजनीतिक प्रभाव। हिन्दी का लेखक इलैक्ट्रोनिक मीडिया में एकसिरे से अनुपस्थित है। इलैक्ट्रोनिक मीडिया में जो हिन्दी लेखक अनुपस्थित है उसे हिन्दी में खासकर राजनीतिक हलकों में तवज्जह ही नहीं मिलती। इलैक्ट्रोनिक मीडिया में तीन लेखकों की सबसे ज्यादा उपस्थिति रही है वे हैं नामवरसिंह,पुरूषोत्ताम अग्रवाल और सुधीश पचौरी। बाकी हिन्दी लेखकों को आप कभी भी नहीं देख सकते। कभी-कभार कोई लेखक टीवी रिपोर्टिंग अथवा टीवी कार्यक्रम में आ जाए तो बड़ी करामात से कम नहीं है।
कहने का तात्पर्य कि हिन्दी लेखकों की इलैक्ट्रोनिक मीडिया में अनुपस्थिति बहुत बड़ा कारण है हिन्दी लेखक संगठनों के गुम हो जाने का। फिल्मी हस्ती को संसद के लिए नामजद करने का प्रधान कारण है उसका पर्दे या स्क्रीन पर दिखना। हिन्दी का लेखक छपता है दिखता नहीं है। मौजूदा दौर दिखने का है ,आप यदि दिखते नहीं हैं तो आपका अस्तित्व नहीं है। यदि छोटे पर्दे से लेकर बड़े स्क्रीन के पर्दे पर दिखते हैं तो आपने कम काम किया हो तब भी महान हैं। छोटे पर्दे ने छोटे को बड़ा और बड़े को छोटा बनाया है। अनुपस्थित को उपस्थित और उपस्थित को अनुपस्थित बनाया है। संगठन को छोटा और व्यक्ति को बड़ा बनाया है। हिन्दी के लेखक संगठन मूलत: प्रचार अभियान के संगठन हैं। इनका व्यवहार में एक अच्छे जनसंपर्क संगठन के रूप में अभी तक विकास नहीं हो पाया है।
लेखकों के सभी संगठन आज सामाजिक हाशिए के बाहर हैं। हाशिए पर जाना घटना है और हाशिए के बाहर चले जाना त्रासदी है। दुर्घटना है। लेखक और संस्कृति मंचों की जरूरत तब ही महसूस की जाती है तब आप शोषित महसूस करें। लेखक जब शोषित महसूस करना बंद कर देता है तो संगठन की प्रासंगिकता खत्म हो जाती है। संगठन प्रतीकात्मक रह जाते हैं। लेखक संगठनों को सत्ताा से कभी शक्ति नहीं मिलती। मलाई जरूर मिलती है।
इसी तरह लेखक संगठनों को राजनीति का अंग भी नहीं समझना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो लेखक संगठन हाशिए के बाहर जाने के लिए अभिशप्त हैं। विलक्षण आयरनी है कि लेखक संगठनों का काम करते हुए ह्रास हुआ है। सबसे ज्यादा सक्रिय लेखक संगठन आज सबसे ज्यादा निष्क्रिय हैं। कभी-कभार प्रतीकात्मक कार्यक्रम कर देते हैं,शोकसभा कर देते हैं,सम्मेलन कर लेते हैं, कभी कभार सेमीनार कर लेते हैं। लेकिन लेखकीय अधिकारों के लिए कभी संघर्ष नहीं करते। लेखक संगठन की सक्रियता प्रायोजक जैसी हो गयी है। सवाल यह है कि लेखक संगठन प्रायोजक कैसे हो गया ? प्रायोजक भाव में रहने के कारण ही उसकी प्रेरणा सीमित दायरे में सक्रिय है। जब किसी कार्यक्रम का आयोजन करता है तो प्रेरक और सक्रिय के भ्रम में रहता है। कार्यक्रम खत्म और प्रेरक का भ्रम भी खत्म। प्रायोजक का भाव मूलत: वहां नहीं होता जिसका दावा किया जाता है बल्कि वहां पर होता हे जिसको छिपाकर रखा जाता है। प्रायोजक बगैर निवेश के लाभ लेना चाहता है। वही स्थिति लेखक संगठनों की भी है वे भी बगैर निवेश के लाभ लेना चाहते हैं। नाम कमाना चाहते हैं। मंच देना निवेश नहीं है। बल्कि मंच तो लाभ का स्रोत है। लेखक संगठन का निवेश आलोचनात्मक वातावरण निर्माण्ा पर निर्भर करता है। मंच मात्र देने से आलोचनात्मक वातावरण नहीं बनता। आलोचनात्मक वातावरण अनालोचनात्मक वातावरण को नष्ट करके बनता है। इसके लिए विचारधारात्मक और सर्जनात्मक योगदान की जरूरत होती है। विचारधारात्मक-सर्जनात्मक वातावरण सीमाओं का अतिक्रमण करके ही बनता है। सीमाओं में बांधकर मंच और बहसों का आयोजन अनालोचनात्मक वातावरण को बनाए रखता है।
कल तक लेखक संगठन जिसे प्रेरणा,अपरिहार्य,अनिवार्य और स्वाभाविक मानते थे आज प्रेरणा लेने की बजाय उससे यांत्रिकतौर पर बंधे हैं। लेखक संगठन जितने बड़े उत्साह के साथ बनते हैं उतनी ही तेजी से उनका उत्साह ठंड़ा पड़ जाता है । कल तक जो लेखक संगठन की महत्ताा पर निबंध लिखता था आज वही लेखक संगठन को अप्रासंगिक मानता है। कोई बात जरूर है जो लेखक संगठन को तमाम सक्रियता के बावजूद अप्रासंगिक बनाती है। क्या लेखकीय निष्क्रियता को संगठन के बयानों के जरिए जान सकते हैं ? जी नहीं।
लेखक संगठन की व्याख्याएं राजनीतिक कार्य-कारण संबंधों के आधार पर आती रही हैं। कभी हमने राजनीतिक कार्य-कारण संबंध के फार्मूले के परे जाकर सोचा ही नहीं है। सवाल यह है कि लेखक संगठन की वर्तमान दशा और दिशा की क्या 'विखंडनवादी' रीडिंग संभव है ? लेखक संगठन के द्वारा विलोम निर्माण की प्रक्रिया को कभी गैर विखंडनवादी पध्दति और नजरिए के जरिए नहीं समझा जा सकता। 'सही' और 'गलत' राजनीतिक लाइन के आधार पर नहीं समझा जा सकता। 'प्रासंगिकता' और 'अप्रासंगिकता' के आधार पर नहीं समझा जा सकता। 'श्रेष्ठ' और 'निकृष्ट' के आधार पर वर्गीकृत करके नहीं समझा जा सकता। मसलन् यह वर्गीकरण वैध नहीं है कि ''लेखक संगठन में काम करना 'श्रेष्ठ' है और जो लेखक, संगठन का काम नहीं करते वे निकृष्ट हैं।'' उसी तरह '' जो लेखक संगठन का काम करते हैं वे निकृष्ट हैं और जो बाहर हैं वे श्रेष्ठ हैं।'' इसी तरह '' लेखक संगठन का सोच सही है, व्यक्ति के रूप में लेखक का सोच गलत है।'' अथवा 'संगठन वैध है बाकी सब अवैध है।'' ''लेखक संगठन का सत्य प्रामाणिक है ,व्यक्ति लेखक का सत्य अप्रामाणिक है'', '' साहित्यिक विधा में लिखना लेखन है और गैर साहित्यिक विधाओं जैसे मीडिया में लिखना साहित्य नहीं है।'', ''लेखक संगठन में काम करना पुण्य है और गैर सांगठनिक लेखकीय कर्म पाप है।'', ''लेखक संगठन टिकाऊ है बाकी सब नश्वर है।'' इत्यादि वर्गीकरण बोगस हैं।
'लेखक संगठन ही सर्वस्व है' का नारा देने वाले यह भूल गए कि रचना का मूल स्रोत तो जीवन है। रचना का मूल स्रोत संगठन नहीं होता। अत: नारा होना चाहिए '' जीवन ही सर्वस्व है।'' इस नारे को भूलकर हमारे लेखक संगठनों ने मूल्य, कृति,राजनीति,विचारधारा इत्यादि चीजों को सर्वस्व बना दिया। यही वह बिंदु है जहां से लेखक संगठन अपने को हाशिए पर ले जाते हैं और अंत में सिर्फ प्रतीकात्मक उपस्थिति मात्र बनकर रह जाते हैं। लेखक संगठनों का जीवन के प्रति वाचिक लगाव है, वे जीवन की महत्ताा और मर्म से पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं। जीवन की जटिलाओं को उन्होंने विश्वदृष्टि से देखा नहीं है। उन्होंने कभी परवर्ती पूंजीवाद ,इलैक्ट्रोनिक मीडिया,सैटलाइट के संदर्भ में लेखन को खोलकर नहीं देखा। साहित्य के दार्शनिक आयाम की कभी चर्चा तक नहीं की।
जीवन के साथ लगाव के नाम पर जीवन के इस या उस पक्ष की ही प्रतिष्ठा की गई। इस या उस पक्ष की हिमायत की गई। हिन्दी रचनाकार के लिए जीवनमूल्य महान और जीवन नश्वर रहा है। वह मानता है कि वह शाश्वत सत्य रच रहा है। अपने रचे को सत्य मानना,प्रामाणिक मानना,वैध मानना और उसी के आधार पर फतवे जारी करना मूलत: कर्मफल के सिध्दान्त का साधारणीकरण है। कर्मफल के सिध्दान्त का ही परिणाम है जो सही है वह सही है जो गलत है वह गलत है। कर्मफल का सिध्दान्त स्त्री और दलित की अनुभूति और सामाजिक अस्मिता को स्वीकार नहीं करता। यही वजह है कि लंबे समय से लेखक संगठनों की कार्यप्रणाली में पितृसत्ताात्मक विचारधारा हावी है। जो बड़ा है वह बड़ा है,जो छोटा है वह छोटा है। सांगठनिक हायरार्की का सब समय ख्याल रखा जाता है। ऊपर की शाखा की बातें निचली शाखा को मानना अनिवार्य है। सांगठनिक हायरार्की में चूंकि जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ में कम्युनिस्ट दलों की (क्रमश: माकपा और भाकपा) केन्द्रीय भूमिका है अत: पार्टी का आदेश अंतिम आदेश होता है और लेखक संगठनों के मुख्य पदाधिकारियों को तदनुरूप ही काम करना पड़ता है। आप कितने भी अच्छे संगठनकत्तर्ाा हों, कितने ही बड़े लेखक हों, यदि कम्युनिस्ट पार्टी की अनुकरणात्मक भावना आपके अंदर नहीं है तो आपको संगठन में जिम्मेदारी नहीं दी जा सकती। कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से लेखक संगठन को देखने वाला नेता अमूमन चुगद किस्म का व्यक्ति होता है जिसे किसी भी भाषा के साहित्य की समझ नहीं होती ऐसी स्थिति में वह सिर्फ अपने अनुयायी और विश्वस्त के हाथों ही संगठन का नेतृत्व सौंपना पसंद करता है। चाहे वह व्यक्ति कितना ही निकम्मा क्यों न हो।
लेखक संगठनों में लंबे समय से माक्र्सवाद,जनवाद,समाजवाद,साम्प्रदायिकता,धर्मनिरपेक्षता पर गर्मागर्म बहसें होती रही हैं। किंतु पितृसत्ताा को लेकर कोई बहस नहीं हुई है। तकरीबन यही स्थिति माक्र्सवादी नजरिए की भी है। माक्र्सवादी नजरिए का अर्थ हमारे प्रगतिशील संगठनों ने माक्र्स-एंगेल्स-लेनिन -माओ के उध्दरणों के पारायण को मान लिया है। इन उध्दरणों की रोशनी में ही कृति की अंतर्वस्तु की समीक्षा होती रही है। कभी भी माक्र्सवादी चिन्तन के प्रति आलोचनात्मक नजरिए से विचार ही नहीं किया गया। माक्र्सवाद मूलत: उध्दरणशास्त्र बनकर रह गया। फलत: हिन्दी के माक्र्सवादी आलोचक माक्र्सवादी सैध्दान्तिकी और आलोचना में न्यूनतम मौलिक योगदान कर पाए हैं। प्रसिध्द माक्र्सवादी आलोचक टेरी इगिलटन के अनुसार किसी कृति में सतह पर जो चीज नजर आती है उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण वह चीज है जो सतह पर नजर नहीं आती। व्यक्त से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है अव्यक्त की खोज। पाठ के साइलेंस या चुप्पी के क्षेत्रों ,अंतरालों और अनुपस्थित की खोज करना। इसके बिना आप विचारधारा को सकारात्मक रूप में महसूस नहीं कर सकते।
माक्र्सवाद का इकहरापन तब सामने आता है जब सिर्फ 'संघर्ष' के ही मूल्यांकन और चित्रण को माक्र्सवाद मान लिया गया। 'संघर्ष' के अलावा अन्य विषयों पर लिखी रचनाओं को खारिज कर दिया गया। इसके अलावा 'परंपरा' को पुनर्व्याख्यायित करने के नाम पर परंपरा का इकहरा रूपायन सामने आया। परंपरा को आधुनिककाल के लिए प्रासंगिक बनाया गया। तुलसी,कबीर,जायसी आदि में आधुनिककाल के सभी तत्वों को खोज लिया। परंपरा के इच्छित सृजन ने परंपरा का एकायामी विमर्श पैदा किया। परंपरा का अर्थ यह नहीं है कि परंपरा को ज्यों का त्यों बरकरार रखा जाए। बल्कि ल्योतार के शब्दों में परंपरा में भिन्नता के साथ निरंतरता बनी रहती है। परंपरा के प्रति यह उत्तार आधुनिक भाव है। रामविलास शर्मा के परंपरा विमर्श में यह पध्दति लागू की गयी है। परंपरा का भाषा विशेष में विशिष्ट अर्थ होता है। परंपरा विशिष्ट और सार्वभौम दोनों ही होती है। हिन्दी में परंपरा के सार्वभौम रूप पर ज्यादा जोर है। विभिन्नताओं की उपेक्षा हुई है। परंपरा में तेजी से जाने का प्रधान कारण था उसे अन्य नाम देना, अपने लिए परंपरा में भूमिका तलाशना। परंपरा के सामाजिक बंधन होते हैं। क्योंकि परंपरा में हम अपनी भूमिका देखते हैं। अपने सामाजिक अस्तित्व की तलाश करते हैं।
स्वतंत्रता-
हिन्दी लेखक संगठनों और आलोचकों में व्यक्तिकेन्द्रित और प्रवृत्तिा केन्द्रित आलोचना का रिवाज है। हिन्दी में पैराडाइम केन्द्रित आलोचना कभी नहीं लिखी गयी। खासकर स्वातन्त्रयोत्तार हिन्दुस्तान को केन्द्र में रखकर तो एकदम नहीं लिखी गयी। स्वतंत्र भारत का मूलाधार है लोकतंत्र। लोकतंत्र का स्वतंत्रता के बिना विकास संभव नहीं है। लेखक,नागरिक और समाज में स्वतंत्रता का जितना प्रसार होगा साहित्य और संस्कृति में लोकतांत्रिक भावबोध उतना ही समृध्द होगा। एक ही वाक्य में कहें स्वातंत्रयोत्तार भारत का केन्द्रीय पैराडाइम स्वतंत्रता है।
हिन्दी लेखक संगठन 'स्वतंत्रता' के बारे में कम 'तंत्र' के बारे में ज्यादा सोचते हैं। लेखकों 'स्व' की बजाय 'तंत्र', 'मानवीय सत्ताा' की बजाय 'सत्ताा' पर ज्यादा लिखा है। 'स्व' से पलायन मध्यकालीनबोध का लक्षण है। उसमें स्वतंत्रता के लिए मर मिटने की भावना अभी तक पैदा नहीं हुई है। उलटे जब किसी की स्वतंत्रता छीनी जा रही होती तो मूकदर्शक बना रहता है। स्वतंत्रता को वह दर्शकीयभाव से देखता है। यह उसके लिए देखने की चीज है। वह स्वतंत्रता में जीता नहीं है बल्कि मध्यकालीनबोध में जीता है। उसे नास्तिक नहीं आस्तिक पसंद हैं। असहमति नहीं सामंजस्य पसंद है। व्यक्ति की सत्ताा और स्वायत्ताता नहीं दूसरे के फटे में पैर फसाना पसंद है, हस्तक्षेप पसंद है। स्वतंत्रता जन्मना नहीं मिलती। उसे अर्जित करना पड़ता है। स्वतंत्रता मनुष्य का बुनियादी अधिकार है इसे बुर्जुआ फिनोमिना कहकर खारिज नहीं किया जा सकता है। जिस समाज में स्वतंत्रता होगी वहां स्वाभाविक लोकतंत्र के पनपने की संभावनाएं भी ज्यादा होंगी। स्वतंत्रता के बिना लोकतंत्र की तरह समाजवाद भी बर्बरतावाद में बदल सकता है। भूतपूर्व समाजवादी देशों में स्वतंत्रता के अभाव के कारण ही समाजवादी व्यवस्था का लोप हुआ।
स्वतंत्रता की जटिलताओं को मानवीय विकास के बुनियादी आधारों में से एक तत्व के रूप में देखने की बजाय स्वतंत्रता का राजनीतिक पक्षधरता के आधार पर मूल्यांकन किया गया। यहां सिर्फ एक-दो उदाहरण ही देना पर्याप्त है ,मसलन् आपातकाल में प्रगतिशील लेखक संघ का आपातकाल समर्थन का फैसला और हाल के वर्षों में नंदीग्राम के मसले पर जनवादी लेखक संघ का मूकदर्शक बने रहना और तसलीमा नसरीन के मसले पर मौन रहना। ये उस गंभीर समस्या के लक्षण मात्र हैं जिनकी ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ।
स्वतंत्रता मात्र दलीय राजनीतिक तत्व नहीं है। बल्कि सृजन और विकास की बुनियादी शर्त है। स्वतंत्रता का अर्थ सिर्फ 'निज' के लिए अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है बल्कि 'सबके लिए' अभिव्यक्ति की आजादी है। हिन्दी लेखक संगठनों और साहित्यकारों ने स्वतंत्रता पर कभी बहस नहीं की। बल्कि स्वतंत्रता की हिमायत करने वालों को किसी न किसी का एजेण्ट बताकर ,आरोप लगाकर नीचा दिखाने की कोशिश की गई अथवा स्वतंत्रता का गाली के तौर पर भी इस्तेमाल हुआ है। हिन्दी लेखक के लिए स्वतंत्रता नजारे की चीज है। वह स्वतंत्रता के तमाशे देखता है और चुपरहता है।
हिन्दी का लेखक कहीं न कहीं यह मानता है कि स्वतंत्रता समस्यामूलक है अत: उससे दूर रहो। स्वतंत्रता के बारे में सोचो मत। कभी कभार स्वतंत्र अभिव्यक्ति का नाटक जरूर कर लेता है। स्वतंत्रता को वह नकारात्मक धारणा मानता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वायत्ताता की बात उठते ही सीमा की जाती है। सीमा का आग्रह उसे स्वतंत्रता विरोधी तक बना डालता है। व्कायर बनाता है। नपुंसक बनाता है। प्रतिरोध से पलायन कराता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता को यदि सकारात्मक अवधारणा के रूप में देखेंगे तो एकदम भिन्न अनुभूति होगी। भिन्न किस्म का नजरिया होगा और भिन्न किस्म का व्यवहार पैदा होगा। यदि व्यक्ति की स्वतंत्रता नकारात्मक अवधारणा के रूप में जेहन में बैठी है तो चीजें भिन्न नजर आएंगी।
व्यक्ति की स्वायत्ताता के लिए 'स्व' से प्रेम करना, 'स्व' की केयर करना, 'स्व' के हितों को सर्वोपरि स्थान देना और जिम्मेदार नागरिक के रूप में सामाजिक भूमिका अदा करना जरूरी है। 'स्व' पर जोर देने का अर्थ है परंपरा के प्रति आलोचनात्मक होना। आलोचनात्मक परंपरा का निर्माण करना। आलोचनात्मक परिवेश का निर्माण करना। 'स्व' का सौन्दर्यीकरण करना। स्वतंत्रता का अर्थ सिर्फ विवेकवादी या शुध्दतावादी और सार्वभौम नैतिकतापंथी होना नहीं है। स्वातंत्रयोत्तार भारत का स्वतंत्रता के अलावा दूसरा बड़ा पैराडाइम है भारत-विभाजन। तीसरा पैराडाइम है आपात्काल और चौथा पैरा डाइम है भूमंडलीकरण और इंटरनेट संस्कृति।
भारत-विभाजन -
हिन्दी में स्वतंत्रताबोध के अभाव का आजादी के आन्दोलन की फैंटेसी और भारत-विभाजन की त्रासदी के साथ गहरा संबंध है। भारत विभाजन धर्म आधारित राजनीति की सबसे भयावह परिणति था। जिसमें लाखों निर्दोष लोग मारे गए। धर्मकेन्द्रित राजनीति के द्वारा स्वाधीनभाव का जिस तरह अपहरण किया गया और भारत विभाजन हुआ उसका सबसे गंभीर परिणाम यह निकला कि स्वतंत्रता को नकारात्मक और समस्यामूलक मान लिया गया। अराजकता का प्रतीक मान लिया गया। स्वाधीनता के गर्भ से पैदा हुआ भारत विभाजन सबसे बड़ा अविवेकपूर्ण राजनीतिक फैसला था। इसका चेतना पर यह असर हुआ कि धार्मिक और पश्चिमी ताकतों की शक्ति के बारे में आम लोगों के जेहन में डर बैठ गया। यह मान लिया गया कि धार्मिक और पश्चिमी ताकतें सब कुछ करने में सक्षम हैं और उनका ही वर्चस्व है।
भारत विभाजन ने भारतीय जनमानस में धार्मिक तत्ववादी और पश्चिमपरस्त चिन्तन का सामाजिक आधार तैयार किया। स्वतंत्रता और विज्ञानसम्मतचेतना का आधार कमजोर हुआ। यह मान लिया गया कि भारत विभाजन के बारे में तो लोग सब कुछ जानते हैं। अब बताने लायक क्या है अच्छा यही होगा कि भारत विभाजन को हम भूल जाएं। आगे की ओर देखें,अन्य चीजों की ओर देखें। 'आगे' और 'अन्य' चीजों की ओर देखने से समस्या का समाधान नहीं हुआ बल्कि समस्या और भी पेचीदा हो गयी।
आज देश में साम्प्रदायिकता से लोग घृणा नहीं करते बल्कि साम्प्रदायिकता की जय-जयकार करते हैं। पहले साम्प्रदायिकता के साथ जुड़ने में हीनताबोध पैदा होता था,साम्प्रदायिक ताकतों को कोई वोट देना पसंद नहीं करता था, आज ऐसा नहीं है। आज साम्प्रदायिक ताकतों का समाज और राजनीति में सम्मानजनक दर्जा है। अनेक राज्यों में उनकी सरकारें हैं। केन्द्र में भी उनके नेतृत्व में छह साल तक सरकार चली है। साम्प्रदायिकता आज अछूत नहीं है। हाशिए की शक्ति नहीं है बल्कि केन्द्र की शक्ति है।
भारत विभाजन के विचारधारात्मक-मनोवैज्ञानिक प्रभावों की गहराई में छानबीन करने की बजाय हमने भारत विभाजन को इतिहास और कथा साहित्य का विषय बनाया। गल्प बनाया। उसके मनोजगत पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में विस्तार के साथ कभी चर्चा नहीं की। उल्लेखनीय है कि 15 अगस्त सन् 1947 में देश के आजाद होने के एक महीने बाद ही इलाहाबाद में हिन्दी-उर्दू के प्रगतिशील लेखकों का सम्मेलन हुआ था इसमें एक भी प्रस्ताव भारत-विभाजन पर नहीं था। यही स्थिति जनवादी लेखक संघ के घोषणापत्र की है। लेखक संगठनों में साम्प्रदायिकता पर जब भी चर्चा होती है तो उनके राजनीतिक नारों पर ही चर्चा होती है। जबकि साम्प्रदायिकता का बहुतगहरा संबंध पुनर्जन्म और अंधविश्वास के साथ है। पुनर्जन्म और अंधविश्वास की परतों को खोले बिना साम्प्रदायिकता को सामाजिक और राजनीतिक जीवन में अलग-थलग करना संभव नहीं है। हिन्दी लेखकों के सम्मेलनों से लेकर उनके साथ जुड़े लेखकों के द्वारा संपादित पत्रिकाओं में आपको सब कुछ मिलेगा यदि कोई चीज नहीं मिलेगी तो वह है अंधविश्वास और पुनर्जन्म की अवधारणा पर बहस। पुनर्जन्म और अंधविश्वास पर बहस का अभाव स्वतंत्रता के अभाव को जन्म देता है। रचनाकार में लोकतांत्रिक विजन के विकास को अवरूध्द करता है।
हिन्दी के अधिकांश आलोचकों के यहां भारत विभाजन के समय का कोई भी लिखा बयान,लेख आदि नहीं मिलता। इक्का-दुक्का कहानियां हैं जिन्हें देखकर खुश होते रहते हैं। कुछ उपन्यास हैं जिनमें भारत-विभाजन को विषयवस्तु के रूप में उठाया गया है। किंतु कथा साहित्य में जो चित्रण उपलब्ध है वह भारत विभाजन के बाद किस तरह की मनोदशा बनी है उसकी ओर ध्यान नहीं देता। भारत विभाजन केन्द्रित कथा साहित्य विभाजन की विभीषिका के चित्रण तक सीमित है। जबकि समस्या उसके बाद की है। भारत विभाजन के परवर्ती विचारधारात्मक प्रभावों को खोलने वाली एक भी किताब भारत में उपलब्ध नहीं है। कम से कम हिन्दी के किसी आलोचक ने इस पहलू की ओर ध्यान हीं नहीं दिया। लेखक संगठनों के घोषणापत्र इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं।
बुनियादी तौर पर भारत विभाजन को रहस्यमय बनाया गया है। काल्पनिक बनाया गया है। भारत विभाजन को रहस्यमय बनाने में साहित्य और जनमाध्यमों की प्रधान भूमिका है। भारत विभाजन तब ही याद आता है जब कभी कोई साम्प्रदायिक दंगा हो जाता है। उसी समय हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता के बारे में उत्सवधर्मी चर्चाएं होती हैं,पत्रिकाओं में लेख छपते हैं। बाद में सब कुछ सामान्य हो जाता है। साम्प्रदायिकता अपने घर खुशी हम अपने घर खुशी। चंद दिनों के बाद ही भाईचारे के साथ साम्प्रदायिकता के साथ रहने लगते हैं। साम्प्रदायिकता और भारत विभाजन की जब भी चर्चा होती है तो साम्प्रदायिक ताकतों की नकली धार्मिक अंतर्वस्तु को कभी उद्धाटित नहीं किया जाता। बल्कि उलटे यही कहा जाता है कि धर्म तो ठीक है, धर्म अच्छा है। प्रत्येक धर्म इंसानियत का पाठ सिखाता है। धर्म के प्रति अनालोचनात्मक रवैयया अंतत: धार्मिकता में इजाफा करता है। धर्म को धार्मिकता से मुक्त किए बिना धर्मरिपेक्षता के भावबोध का निर्माण करना संभव नहीं है। धर्म को धार्मिकता से मुक्त करने के लिए धर्म को विज्ञान की तरह विवेचित किया जाना चाहिए। हमारे यहां धर्म है,धर्मशास्त्र है किंतु धर्मविज्ञान नहीं है। इसका अर्थ है धर्म को आलोचनात्मक ढ़ंग से खोलना,विवेचित करना। धर्मविज्ञान के बिना धर्म को धार्मिकता से बचाना संभव नहीं है। धर्म का दुरूपयोग रोकना संभव नहीं है।
भारत विभाजन के पहले साथ रहते थे। भारत विभाजन के बाद हिन्दू-मुस्लिम पड़ोसी हो गए। एक साथ रहने वाले पड़ोसी में कैसे तब्दील हो गए ? और ये अगर पड़ोसी हैं तो फिर विभाजन क्यों ? लड़ते क्यों हैं ? आज पड़ोसी के नाते एक-दूसरे का थोड़ा सम्मान करते हैं। किंतु जब आप किसी को पड़ोसी कहते हैं तो उसे पराया बनाते हैं। उसके प्रति उपेक्षा व्यक्त करते हैं। धीरे-धीरे पड़ोसी के साथ विवाद उठने लगे, झगड़े होने लगे और कालान्तर में हिन्दू और मुसलमानों की बस्तियां अलग बसने लगीं। हिन्दू को मुसलमानों ने अपने इलाकों अथवा घर में किराए पर मकान तक देने से मना कर दिया। सतह पर धर्मनिरपेक्षता,भाईचारा और साम्प्रदायिक सद्भाव और वास्तव जीवन में व्यापक स्तर पर सामाजिक विभाजन सहज ही महसूस किया जा सकता है।
आजादी के दौर में पड़ोसी के साथ शिरकत,मित्रता और साझापन था,आजादी के बाद यह कल्पना की चीज हो गया। अब पड़ोसी मूलत: बेगाना हो गया। पहले पड़ोसी करीबी था आज बेगाना है। आज पड़ोसी से न्यूनतम परिचय तक नहीं है। सिर्फ एक-दूसरे को देखते हैं और चुपचाप निकल जाते हैं। मित्रता और शिरकत का भाव तो बहुत दूर की बात है। पड़ोसी के प्रति अनजानेपन ने हमारे हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को भी प्रभावित किया है। लेखक के सामाजिक संबंधों को भी प्रभावित किया है। लेखन को भी प्रभावित किया है। हिन्दू और मुस्लिम लेखकों में एक-दूसरे के समाज के प्रति बेगानापन बढ़ा है। आम जीवन में हिन्दू और मुसलमानों में बेगानापन बढ़ा है। अपरिचय और अज्ञानता में इजाफा हुआ है। पहले साझा चूल्हे थे,साझा बस्तियां थीं। आज साझा चूल्हे तो दूर की बात है हिन्दू बस्तियों में किसी मुसलमान को घर भाड़े पर नहीं मिलता। मुस्लिम बस्तियों में हिन्दू रहना नहीं चाहते। यह कठोर यथार्थ है।
हिन्दू-मुस्लिम संबंध आरोपित संबंध है। हमें मनुष्य के संबंधों पर बातें करने पर कम और हिन्दू-मुसलमान के संबंधों पर बातें करने में ज्यादा रूचि है। मानवीय संबंध को हिन्दू-मुस्लिम संबंध ने कब और कैसे अपदस्थ कर दिया हम नहीं जानते। हिन्दू-मुस्लिम संबंधों के नाम जितनी भी बहसें हुई हैं। वे नकली बहसें हैं। ये मनुष्य की केटेगरी को केन्द्र में रखकर की गई बहस नहीं है बल्कि हिन्दू-मुसलमान केटेगरी को केन्द्र में रखकर की गई बहस है। हिन्दू-मुस्लिम केटेगरी को आधार बनाकर की गई बहस चाहे जिस परिप्रेक्ष्य से की जाए उसके गर्भ से अंतत: विभाजन ही पैदा होगा। सामाजिक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ेगा। बेगानापन बढ़ेगा। भारत विभाजन ने स्वतंत्रता की चेतना को कुंद किया है और भेदों के संसार को खोल दिया । आज भेद के एक नहीं अनेक रूपों में फंस गए हैं। आज हमारे बीच में व्यापक जनसंचार है उससे भी ज्यादा भाषायी अलगाव और बेगानापन है। व्यापक अत्याधुनिक जनसंचार के कारण भाषायी संबंध मजबूत नहीं बने हैं बल्कि और भी ज्यादा वर्चस्ववादी बने हैं। भाषायी वर्चस्व ने स्थानीय भाषाओं के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर दिया है। यही हाल जातिभेद का है नई आधुनिक सभ्यता ने देश की आजादी के साथ जिस फूट की नींव भारत विभाजन के साथ रखी थी उसे आधुनिकता ,मीडिया और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं ने और भी ज्यादा व्यापक बनाया है। अत्याधुनिक संचार के नेटवर्कों का विकास जितना हुआ है उतना ही अलगाव बढ़ा है। संपर्क है किंतु अलगाव के साथ ,खबर है किंतु अलगाव के साथ, देशप्रेम है किंतु अलगाव के साथ, समाजवादी संगठन हैं किंतु सामाजिक अलगाव के साथ, अपनी भाषा है किंतु सामाजिक अलगाव के साथ, अपनी नौकरी है अलगाव के साथ,व्यापार है अलगाव के साथ,राजनीति है अलगाव के साथ। कहने का तात्पर्य यह है कि विगत साठ सालों में अलगाव का इतना व्यापक कैनवास तैयार हुआ है कि हम समझ ही नहीं पाए कि आखिरकार हमारी मित्रता कहां गुम हो गयी ?
अलगाव-
'अलगाव' को हमने कभी आधुनिक फिनोमिना के रूप में नहीं देखा। हिन्दी में दो ही लेखक हैं अज्ञेय और मुक्तिबोध इन दोनों ने 'अलगाव' को गहराई में जाकर चित्रित किया। दुर्भाग्य की बात यह है कि 'अलगाव' को देखने की बजाय हमने मुक्तिबोध में अस्मिता की खोज की। 'अलगाव' की खोज करते तो ज्यादा व्यापक समस्या को उद्धाटित कर पाते। यही हाल अज्ञेय का भी किया। अज्ञेय को आधुनिकतावादी बनाकर खारिज किया और 'अलगाव' को परायी प्रवृत्तिा मानकर अस्वीकार किया। सच यह है कि 'अलगाव' पूंजीवादी विकास प्रक्रिया का सकारात्मक और स्वाभाविक फिनोमिना है।
अज्ञेय और मुक्तिबोध के संदर्भ में 'अलगाव' की जब भी चर्चा उठी है उसमें अलगाव को आधुनिक राज्य से विच्छिन्न करके देखा गया। 'अलगाव' का आधुनिक राष्ट्र के साथ गहरा संबंध है। आधुनिक राष्ट्र के उदय के साथ 'जीवन का निजीकरण' होता है। 'पृथक्कृत व्यक्तिनिष्ठता' पैदा होती है। ये सारी चीजें एक विशिष्ट ऐतिहासिक अवस्था की देन हैं। प्राचीनकाल में अलगाव का आदर्शकवि कालिदास है और अलगाव का आदर्श रस श्रृंगार रस का साहित्य है। अलगाव का जिस तरह का महिमामंडन कालिदास के यहां है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं है। कालिदास ने ऐसे नायक को पेश किया जो सर्वगुण सम्पन्न है। आनंद में मगन है। आनंद को व्यक्त करता है। कालिदास के पात्र जो कुछ करते हैं अपने लिए करते हैं। कालिदास के नायक प्रेम करते हैं अपने लिए ,युध्द करते हैं अपने लिए, अकेले ही सारी मुसीबतों का सामना करते हैं। एक तरह से समूची सृष्टि के साथ संघर्ष करते हैं।
प्राचीनकालीन समाज में रची गई रचनाओं को अलगाव के साथ सबसे पहले जोड़कर कार्ल माक्र्स ने देखा था। इसका आरंभ कार्ल माक्र्स ने अपनी डाक्टरेट थीसिस से किया था और बाद में अन्य रचनाओं में इसका विकास किया। माक्र्स ने एपीक्यूरियन कवियों को 'रोम के नायक कवि' की संज्ञा दी थी। यही स्थिति हमारे कालिदास की है। माक्र्सवादी और गैर माक्र्सवादी आलोचकों ने कालिदास की रचनाओं में सामयिक संस्कृति और समाज की बहुत खोज की है किंतु कभी अलगाव की अवधारणा की रोशनी में रखकर विचार नहीं किया। कालिदास ऐसा कवि है जिसका सभी चीजों से संघर्ष होता है और सभी चीजें नायक के साथ युध्द करती नजर आती हैं। कालिदास के पात्र आरंभ से ही अपने बारे में सोचते हैं, अपने लिए संघर्ष करते हैं और आनंद लेते हैं। अपने लिए सर्ंघष करना और आनंद मनाना यही अलगाव की धुरी है। वे स्वयं के प्रति कठोर हैं, इनके सामने प्रकृति अपनी सारी अच्छाईयां खो देती है, अच्छाईयों के लिए शब्द अधूरे लगते हैं। अच्छाईयों के लिए शब्द नहीं मिलते।
एपीक्यूरियन कवियों का नारा था ''वार ऑफ ऑल अगेंस्ट ऑल।'' यानी ''सबके खिलाफ और सबके लिए जंग।'' यही नारा भारत के प्राचीन कवियों का भी था। प्राचीन कवियों के यहां जीवन और आनंद के बीच अंतराल नहीं था। सारी चीजें शरीर में केन्द्रित थीं। शरीर प्रमुख विमर्श था। श्रृंगार का समूचा विमर्श शरीर और आनंद का विमर्श है। रस का सारा विमर्श शरीर को केन्द्र में रखता है। नख-शिख वर्णन में उसे सहज ही देखा जा सकता है। नायक का शरीर कैसा है, आंखें कैसी हैं, पीड़ा कैसी है, चिन्ताधारा कैसी है और नायक जब चिन्ता में घिरा होता है तो कैसे कृशकाय हो जाता है और जब नायक युध्दरत होता है तो उसकी भंगिमाएं,शारीरिक सौष्ठव किस तरह का होता है ? इसी तरह नायिका जब कृति में आती है तो सारी ऊर्जा उसके शरीर के सौंदर्य वर्णन पर ही खर्च की गई। कहने का तात्पर्य यह कि प्राचीन कवि 'स्व' से बेहद प्यार करता है। शरीर से बेहद प्यार करता है।
प्राचीन महाकाव्यों में निज के बहाने शरीर और उसके आनंद की सृष्टि पर जोर है। शरीर का विमर्श अलगाव का विमर्श है। भगवान के बारे में भी जब कवि रूपायन करने बैठा तो शरीर ही प्रमुख विषयवस्तु था। शरीर,स्व,आनंद और निजता ये चार चीजें हैं जो अलगाव के कारण कृति के केन्द्र में आयीं। अन्तर्विरोधों के बिना इन चारों चीजों का विकास संभव नहीं है। लेखक के अस्तित्व की परिस्थितियां उसका जीवन से अलगाव पैदा करती हैं। अलगाव के कारण लेखक बाहरी चीजों को आत्मसात करता है और अपने अलगाव को अभिव्यक्त करता है। इस क्रम में वह अपने अस्तित्व के रूपों से स्वायत्ता नजर आता है। परम नजर आता है। माक्र्स के शब्दों में यह 'अमूर्त व्यक्तिनिष्ठता' है।
माक्र्स ने प्राचीन काल में अलगाव का उत्पत्तिापरक रूप में विश्लेषित करते हुए ' पृथक्कृत व्यक्तिनिष्ठता' और '' अमूर्त व्यक्तिनिष्ठता'' की चर्चा की थी,यह चर्चा नकारात्मक रूप में की थी, माक्र्स के अनुसार आधुनिक राष्ट्र के उदय के साथ यह धारणा नकारात्मक नहीं रह जाती बल्कि सकारात्मक हो जाती है। सकारात्मक शक्ति बन जाती है। सकारात्मक का अर्थ है 'वास्तव' और 'अनिवार्य'। इसके लिए किसी नैतिक स्वीकृति की जरूरत नहीं है। इस ऐतिहासिक प्रवृत्तिा का आधुनिक राष्ट्र में 'आत्मकेन्द्रित' रूप में विकास होता है। 'पृथक्कृत व्यक्तिनिष्ठता ' के लिए आधुनिक राष्ट्र स्वाभाविक परिस्थितियां पैदा करता है।
अलगाव की धुरी है 'आत्मकेन्द्रिकता' इसका आधार है '' सबके खिलाफ और सबके लिए जंग'' की धारणा। इस धारणा के आधार पर आंतरिक वैधता ,प्रकृति के सार्वभौम नियमों की वैधता और आंतरिक अनुभूति को महत्वपूण्र्ा माना गया। कार्ल माक्र्स ने '' क्रिटिक ऑफ दि हेगेलियन फिलोसफी ऑफ राइट'' (1843) में हेगेल के अलगाव संबंधी नजरिए की विस्तार के साथ समीक्षा करते हुए आधुनिक राष्ट्र का पुराने समाज की परिस्थितियों के साथ अंतर किया। आधुनिक समाज व्यक्ति को अपने साथ एकीकृत नहीं करता, कुछ तो यह संयोग की बात है और कुछ व्यक्तिगत प्रयासों के ऊपर भी निर्भर करता है। माक्र्स ने लिखा है बुर्जुआ समाज में व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार सुख भोगता है। राजनीतिक अर्थ में बुर्जुआ समाज में व्यक्ति अपने को राष्ट्र से पृथक् कर लेता है। अपनी निजी अवस्थाओं को राष्ट्र से अलग कर लेता है। यही वह बिंदु है जहां उसकी मनुष्य के रूप में महत्ताा सामने आती है। यों भी कह सकते हैं कि राष्ट्र के सदस्य के रूप में महत्ताा सामने आती है। समुदाय के सदस्य के रूप में और मानवीय निर्धारणकत्तर्ाा के रूप में महत्ताा उद्धाटित होती है। इसी तरह व्यक्ति के अन्य गुण भी सामने आते हैं और वे उसके अस्तित्व को निर्धारित करने में मदद करते हैं।
माक्र्स के अनुसार मनुष्य का व्यक्ति के रूप में अस्तित्व बुनियादी तत्व है। बुर्जुआ समाज में व्यक्तिवाद और व्यक्तिगत अस्तित्व ही अंतिम सत्य है। बाकी सब चीजें जैसे श्रम,गतिविधियां बगैरह इसके साधन हैं। माक्र्स ने लिखा है बुर्जुआ समाज में वास्तव आदमी निजी व्यक्ति (प्राइवेट इण्डिविजुअल) होता है। यह ऐसा व्यक्ति है जो मूलत: बाहरी और भौतिक है। कार्ल माक्र्स की अलगाव की धारणा का सुनियोजित विकास ''दि मेनुस्क्रिप्टस ऑफ 1844' में होता है। इस कृति में माक्र्स उन तमाम धारणाओं को विकसित करते हैं जो '' क्रिटिक ऑफ हेगेलियन फिलोसफी ऑफ राइट'' में पहले व्यक्त की गई थीं। अलगाव के बारे में कार्ल माक्र्स को विस्तार के साथ पेश करने का प्रधान मकसद इस तथ्य की ओर ध्यान खींचना है कि अज्ञेय ने जिस अलगाव और व्यक्तिनिष्ठता को अपने उपन्यासों में अभिव्यक्ति दी है वह आधुनिक बुर्जुआ समाज का सकारात्मक तत्व है ,दुर्भाग्य की बात यह है कि इसे नकारात्मक तत्व मानकर अज्ञेय के उपन्यासों की गलत और अनैतिहासिक व्याख्याएं की गई हैं।
हिन्दी आलोचना में आलोचनात्मक ऊर्जा का विगत दो दशकों में ह्रास हुआ है। आलोचना में एक खास किस्म का आलस्य नजर आता है। जगत के प्रति एक खास किस्म का ठंड़ापन है। यथार्थ का आतंक इस कदर छाया हुआ है कि डर के मारे लेखक संगठनों ने यथार्थ को देखना ही बंद कर दिया है। अब वे यथार्थ पर कम और निर्मित यथार्थ पर ज्यादा बातें करते हैं। कृत्रिम या मृत मुद्दों पर उलझे रहते हैं। जैसे 1857 कासंग्राम,प्रेमचंद का जन्म दिन या श्सताब्दी अन्य लेखक का जन्म दिन, शोकसभा, किसी बोगस विषय पर सेमीनार जैसे हिन्दी जातीयता,हिन्दी संस्कृति आदि। त्रासदी के सामयिक सवालों पर वे कम से कम ध्यान देते हैं। लेखक के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा के सवालों की उपेक्षा करते हैं।
कृति और कृतिकार के बारे में मीडिया पापुलिज्म के सहारे प्रायोजित चर्चाएं हो रही हैं। मीडिया पापुलिज्म के आधार पर निर्मित आलोचना लिखी जा रही है। पापुलिज्म और मित्रता के आधार पर विकसित आलोचना इस तथ्य का संकेत है कि साहित्य का ह्रास हो रहा है। नव्य उदारतावाद के दौर में पापुलिज्म और मित्रता संघर्ष की प्रेरणा नहीं देते। अराजनीतिक माहौल बनाते हैं। आलोचना नपुंसक हो जाती है। यह आलोचना में प्रतिवाद और वैकल्पिक दृष्टिकोण के ह्रास का संकेत है।
आपात्काल के पहले साहित्यालोचना का चलन था आपातकाल के बाद 'साहित्य प्रबंधन' होने लगा । 'आलोचना प्रबंधन' होने लगा। 'प्रबंधन' संकट का संकेत है। विकल्पों के अभाव की सूचना है। रूढियों के बोलवाले की अभिव्यक्ति है। अब विमर्श पहले तय होते हैं बाद में शुरू होते हैं। संकट की इस अवस्था में जिन विषयों पर चर्चाएं हो रही हैं वे हमारे तय किए विषय नहीं हैं बल्कि ये वे विषय हैं जो अमरीकी नीति निर्धारकों ,अमरीकी दानदाता कंपनियों और अमरीकी मीडिया ने तय किए हैं। ये संस्थाएं अपने एजेण्डे पर राष्ट्रीय बौध्दिक वर्ग और लेखक संगठनों को आन्दोलित और सक्रिय करने में सफल रही हैं। इनमें भारत का परिप्रेक्ष्य ,भारत के हित और साधारणजन के हित नदारत हैं।
जिस तरह साहित्य में त्रासदी भूल गए उसी तरह आयरनी भी गायब हो गयी ,उसका विमर्श भी गायब हो गया। आज बड़ी पूंजी परिवर्तन पैदा कर रही है। पूंजी का प्रवाह चीजों को बदल रहा है। इससे साहित्य भी बदला है। भाषायी चमक और स्टाइल पर ज्यादा मेहनत की जा रही है। लेखक के साथ भाषा का व्यवहार बदल गया है।
पहले लेखक जब भाषा का इस्तेमाल करता था तो व्यक्तिगत आजादी और आत्मगतता को व्यक्त करते हुए स्पेस और टाइम का अतिक्रमण कर जाता था। आपातकाल के बाद लेखक ने 'स्व' और वर्तमानकेन्द्रित भाषा पर व्यापक जोर दिया है। दैनन्दिन जीवन के अनुभव,दैनन्दिन विवाद, रोजमर्रा के राजनीतिक सवालों को वर्तमान की भाषा में रचा है। फलत: रचना की काल की सीमा के अतिक्रमण की क्षमता भी खत्म हो गयी है। अब जितनी जल्दी रचना जनप्रिय बनती है उतनी ही जल्दी लोग उसे भूल जाते हैं। रचना की जनप्रियता रचना से पैदा नहीं हो रही बल्कि उसे प्रायोजित करके पैदा किया जा रहा है। यह कृत्रिम जनप्रियता है। जन-संपर्क के फार्मूले से उपजी जनप्रियता है इसका साहित्य की गुणवत्ताा से कोई संबंध नहीं है।
आजादी के दौरान पैदा हुई प्रामाणिक अनुभूति ने 'स्व' की खोज, 'स्व' के साथ संवाद को जन्म दिया। विकल्पों को खारिज करने में मदद की। उस दौर में लेखक मनुष्य के अलावा किसी भी विकल्प को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। लिंग,जाति,धर्म,अस्मिता आदि न जाने कितने विकल्प उसके सामने आए उन्हें 'स्व' के सामने खारिज करता चला गया। 'स्व' के सामने उसने सबको 'नकार' दिया। यही नकार का भाव उसकी सबसे बड़ी संपदा है। उसने यह जानने की कोशिश की कि नकार क्या है ? इस क्रम में लेखक अपने को चीजों के बाहर रखकर देखता था। फलत: मुक्त था। यही उसकी आजादी का आधार था। लेखक जब अपने को बाहर रखकर चीजों को चित्रित करता है तो उसकी चेतना स्वयं से भी आजाद होती है।
छायावाद की कविता का समूचा ढ़ांचा इस पैटर्न पर टिका है। छायावाद का लेखक 'स्व' को बाहर रखकर विषयवस्तु को चित्रित करता है। लेखक के 'स्व' को यदि विषय में शामिल कर लिया गया होता तो आजादी की अभिव्यक्ति संभव नहीं थी। 'मैं' शैली में कविता लिखते हुए वह 'स्व' को पृथक रखता है फलत: आजादी का उपभोग कर पाता है। 'सरोज स्मृति' को 'स्व' को शामिल करके लिखना संभव नहीं है। 'स्व' को बाहर रखकर ही लिखना संभव है। 'कामायनी' में भी यही पध्दति इस्तेमाल की गई है। लेखक ने कभी अपने 'स्व' को किसी चरित्र विशेष में समाहित नहीं किया। लेखक का 'स्व' यदि रचना में शामिल हो जाएगा तो 'स्व' भी आब्जेक्ट बन जाएगा और ऐसी अवस्था में लेखक आजादी का उपभोग नहीं कर पाएगा। आजादी के दौर का साहित्य इस अर्थ में विशिष्ट है कि उसने मनुष्य के यथार्थ को प्रतिष्ठित किया। मनुष्य का यथार्थ ही वह शक्ति है जो साहित्य में अभिव्यक्ति पाता है। हमने भूल की है कि उसे लेखक के 'स्व' के साथ गड्डमड्ड कर दिया है। आजादी का एहसास तब ही होता है जब उसे 'स्व' से अलग कर दिया जाए। लेखक जब किसी विषयवस्तु का चित्रण करता था तो अपने को उससे मुक्त करके करता था। चीजों को स्वतंत्र रूप से देखकर चित्रित करता था। 'स्व' को शामिल करके वस्तुगत चित्रण संभव नहीं है। हम बार-बार यही बताते रहे हैं कि लेखक की निजी अनुभूतियां और निजी जीवन रचना में अभिव्यक्ति हुआ है। वस्तुत: यह बात सही नहीं है। 'स्व' को शामिल करके वस्तुगत अभिव्यक्ति संभव नहीं है। खासकर जब आजादी का उपभोग करना हो तो 'स्व' को बाहर रखकर ही चित्रण संभव है। लेखक जब रचना लिखता है तो लिखने के लिए उसका रचना के बाहर रहना बेहद जरूरी है। रचना में शामिल होकर वस्तुगत भावों की अभिव्यक्ति और आजादी का उपभोग संभव नहीं है।
लेखक जब किसी विषय का चित्रण करता है तो उसका प्रधान लक्ष्य होता है संबंधित विषयवस्तु की ज्ञानात्मक संवेदना को रूपान्तरित करना। वह विषयवस्तु को पेश नहीं करता बल्कि विषयवस्तु के ज्ञान को पेश करता है। जगत के बारे में अपनी चेतना को पेश करता है। चेतना में संचित भावों को पेश करता है। ऐसा करते हुए वह दावा करता है कि उसने जो कुछ महसूस किया उसी को व्यक्त कर रहा है और इसमें किसी किस्म की मिलावट नहीं है। लेखक की चेतना के ये रूप अभिव्यंजित होने के बाद गायब हो जाते हैं। वे लेखक की चेतना में स्थायी रूप में रहते नहीं हैं। अत: चेतना अथवा अनुभूतियों की अभिव्यंजना को विषयवस्तु नहीं समझना चाहिए। यह लेखक का पृथक्कृत 'स्व' है। लेखक को लिखते समय 'स्व' के बारे में कुछ भी पता नहीं होता।
लेखक जिस चीज का चित्रण करता है वह तो 'नकार' है। 'नकार' के आधार पर चीजें रचना में अभिव्यंजित होती हैं। 'स्वीकार' के आधार पर रचना में चीजों की अभिव्यंजना नहीं होती। इसी अर्थ में लेखक का विषय के साथ बाहरी संबंध होता है। चीजों के साथ बाहरी संबंध न तो वस्तुगत होता है और न आत्मगत ही होता है। बल्कि इन दोनों के बीच में झूलता रहता है। लेखक के विचार और चीजों के बीच में सापेक्ष स्वायत्ताता बनी रहती है। जिसके कारण व्यक्ति अन्य के प्रति अपनी चेतना,सक्रियता और भूमिका को निर्धारित करता है। लेखक अपनी स्वतंत्रता के जरिए अन्य की चेतना को प्रभावित करता है। लेखक अपनी भावनाओं को अन्य के लक्ष्य में रूपान्तरित कर देता है। लेखक जब अन्य को अपनी भावनाएं आब्जेक्ट के रूप में पेश करता है तो उन्हें संभावना के रूप में पेश करता है। लेखक की अनुभूतियां अन्य के ऑब्जेक्ट के रूप में तब्दील होती हैं, संभावनाओं के रूप में।
हिन्दी की सबसे बड़ी त्रासदी है कि जिस दौर में सारी दुनिया 'व्यक्तिनिष्ठता' का महाख्यान रच रही थी, हिन्दी में उसका घनघोर विरोध हो रहा था। पूंजीवाद हो और 'व्यक्तिनिष्ठता' का जयगान न हो , यह संभव नहीं है। व्यक्ति की अपनी निजी इच्छा,प्रसन्नता, परंपरागत मूल्यों के प्रति सद्भाव और सहिष्णुता और व्यक्तिगत अस्तित्व के सवालों को प्रमुखता देना सामान्य चीज है। आपातकाल के पहले मूल्यों को बदलने की बातें ज्यादा होती थीं, आपातकाल के बाद मूल्यों को मानने पर जोर दिया गया। 'व्यक्तिनिष्ठता' और 'निजता' पर जोर दिया गया। ''जो जैसा है उसे वैसा ही रहने दो'' की धारणा पर जोर दिया गया।
अब मूल्यों के लिए नयी ऊर्जा कहीं से नहीं मिल रही थी ,पुरानी ऊर्जा खत्म हो चुकी थी। प्रेरणा स्रोत बदल गया था। पहले समाजवाद प्रेरणा स्रोत था अब लोकतंत्र प्रेरणा स्रोत था। अब हर चीज में जनवाद की मांग की जाने लगी। पहले हर चीज में समाजवाद की मांग की जाती थी। अब जनवाद को समृध्द करने की मांग की जाने लगी। लोकतंत्र के प्रति यह प्रेम ऐसे समय में उमड़ा था जब लोकतंत्र क्षयिष्णु अवस्था में था। इसके बावजूद लोकतंत्र से बेहतर और कोई विकल्प नहीं था।
आपात्काल के बाद क्षेत्रीय राजनीति, क्षेत्रीय पूंजीपतिवर्ग और बड़े पैमाने पर मध्यवर्ग का विकास होता है। गठबंधन राजनीति का राष्ट्रीय स्तर पर श्रीगणेश होता है। क्षेत्रीय दलों के बिना केन्द्र में सरकार बनना असंभव हो जाता है। भारत की अर्थव्यवस्था का विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण आरंभ होता है। कल्याण राज्य का क्रमश: लोप होता है। दैनिक जीवन में उपभोग की महत्ताा बढ जाती है। नई आर्थिक-सांस्कृतिक संरचनाओं का उदय होता है। मीडिया का विस्फोट होता है। देश पूरी तरह इलैक्ट्रोनिक मीडिया क्रांति में दाखिल होता है। सामाजिक -राजनीतिक ध्रुवीकरण के उपकरण के तौर पर मंडल कमीशन ,राममंदिर आन्दोलन ,ओबीसी और दलित राजनीति के एजेण्डे का उदय होता है इससे साधारण आदमी को सामाजिक-राजनीतिक प्रतिष्ठा मिलती है। विचारणीय सवाल यह है कि वर्गीय हितों की राजनीति गरीब को सामाजिक प्रतिष्ठा और एजेण्डा क्यों नहीं बना पायी ? राजनीति,संस्कृति और साहित्य का आधुनिकतावादी मॉडल अपदस्थ होता है। हिन्दी आलोचना में अतीतपंथी नजरिए की अप्रासंगिकता बढ़ी। अब आलोचक और लेखक वर्तमान के सवालों पर ज्यादा बोलने लगते हैं।
असल बात यह कि हिन्दी आलोचना अपने वर्तमान से भागती रही है। आपातकाल के बाद पहली बार ऐसा होता है कि रचना और आलोचना दोनों के सामने वर्तमान का मूल्यांकन करना प्रमुख कर्म हो उठता है। हिन्दी आलोचना में जनवाद पदबंध का आना कहीं न कहीं इस तथ्य की सूचना भी है कि समाजवादी और आधुनिकतावादी मॉडल यथार्थ को व्याख्यायित करने में मदद नहीं कर रहा था। साहित्य में प्रवृत्तिागत अथवा मूल्यगत नामकरण अप्रासंगिक होने लगे। मसलन् जिसे जनवादी कहा जा रहा है क्या उसके यहां प्रगतिवादी नजरिया नहीं है, अथवा जिसे प्रगतिवादी कहा जा रहा है क्या उसके साहित्य में जनवादी नजरिया नहीं होता ? क्या आधुनिकतावादी खासकर हिन्दी के आधुनिकतावादी जनवाद के पक्ष में नहीं थे ? क्या हम भूल गए कि आधुनिकतावादी अज्ञेय ने आपातकाल का विरोध किया था और शानदार आपातकाल विरोधी काव्य संकलन दिया था ''महावृक्ष के नीचे'', क्या सोशलिस्ट को जनवादी नहीं कहते ? भारत में तो प्रतिक्रियावादी भी लोकतंत्र का हिमायती होता है जैसे भाजपा और मुस्लिम लीग। बुनियादी बात यह कि आलोचना को नामकरण की प्रवृत्तिा से बचना चाहिए, साहित्य में नामकरण अथवा लेबिल लगाने की प्रवृत्तिा से बचना चाहिए। लेबिल लगाने की संस्कृति बोगस संस्कृति है। उसकी हिमायत में लिखा गया समूचा तर्कशास्त्र बोगस है।
सन् साठ के बाद हिन्दी में बड़े पैमाने पर बागी,विद्रोही और क्रांतिकारी साहित्य लिखा गया है। इसके प्रति भी हमें संतुलित नजरिया बनाने की जरूरत है। बागी लेखकों को रोमैंटिक क्रांतिकारी कहकर दरकिनार नहीं किया जा सकता। बागी लेखकों में शोषण और अन्याय के प्रति सख्त घृणा है। इसका प्रतिवाद में ये किसी भी हद तक जा सकते हैं। अनेक इस भावना के कारण लंबी जेल यात्राएं भी कर चुके हैं। बागी वह है जो अभिव्यक्ति का जोखिम उठाता है। जीवन में जोखिम उठाए बगैर सम्मान नहीं मिलता। हिन्दी में बागी साहित्य है किंतु बागी आलोचना नहीं है। उल्लेखनीय है जोखिम के अभाव में आलोचना प्रभावहीन और रूढिबध्द होती है। आलोचना में बागी भाव का अर्थ है वर्तमान पर बोलना। आलोचनात्मक माहौल बनाना। आलोचना में बागी भाव को अभिव्यक्त करने की बजाय अतीत का आख्यान खूब लिखा गया है। अतीत में जाने का प्रधान कारण था वर्तमान और बागी भाव से पलायन। हिन्दी में जिन लेखकों ने बागी भाव को अभिव्यक्ति दी और वर्तमान पर केन्द्रित नजरिए को प्रतिपादित किया उनकी व्यापक उपेक्षा हुई। यहां तक कि आलोचना ने उन्हें किसी न किसी बहाने ठंडे बस्ते में डाल दिया। ऐसे अनेक लेखक हैं जो हिन्दी में बागी भाव को व्यक्त करते हैं। किंतु उन लेखकों में से सुविधानुसार चुनकर ही तदर्थवादी ढंग से चर्चाएं हुई हैं।
बागी लेखन के कुछ साझा तत्व है, 1. मनुष्य के शोषण को खत्म करना ,2. मनुष्य को स्वाभाविक अवस्था में देखना ,3. परिवर्तनकामी बहुलतावाद की हिमायत। हिन्दी में बागी और क्रांतिकारी दोनों ही किस्म के लेखक हैं। हिन्दी में बागी और क्रांतिकारी लेखकों में कोई टकराहट नहीं है। ये दोनों ही हिन्दी साहित्य की साझा धरोहर हैं। बागी और क्रांतिकारी साहित्य को पर्याप्त रूप से आलोचना के द्वारा न समझ पाने का प्रधान कारण है आलोचना का सत्ताा विमर्श और अतीत विमर्श में उलझे रहना। इसके अलावा सांस्कृतिक भिन्नता और वर्चस्व की संरचनाओं की गंभीर समझ का अभाव। बागी और क्रांतिकारी लेखकों के यहां बगावत और क्रांति का अनेक स्थानों पर छद्म रूपायन भी मिलता है। इस छद्म क्रांतिकारिता और बागीपन की गंभीर आलोचना होनी चाहिए। इसके महिमामंडन से बचना चाहिए।
बागी और क्रांतिकारी लेखकों की सकारात्मक विशेषता है कि वे शोषण और पतनशीलता के खिलाफ हैं। वे इन दो चीजों के सामने समर्पण करने को तैयार नहीं हैं। जाहिर है बागी और क्रांतिकारी साहित्य से क्रांतिकारी राजनीतिक संरचनाएं पैदा नहीं होतीं किंतु इस तरह की रचनाएं क्रांतिकारी और परिवर्तनकामी शक्तियों के लिए वैचारिक माहौल बनाती हैं। दूसरी बुनियादी बात यह कि रचना अथवा कला में हिंसा या सेक्स की अभिव्यक्ति नहीं होती। रचना तो महज रचना है उसे हिंसा के प्रचारक अथवा हिंसा की अभिव्यक्ति के रूप में देखना बेवकूफी है। बागी और क्रांतिकारी रचनाकार सही मायनों में अभिव्यक्ति की आजादी के सर्जक हैं। इन्हें रोमैंटिक क्रांतिकारी या हिंसा के प्रचारक कहकर खारिज करना सही नहीं होगा। ये सही अर्थों में वर्तमान की नब्ज और स्वतंत्रता की शक्ति को पहचानते हैं।
मौजूदा युग में किसी भी एक रणनीति, एक विचारधारा और एक ही नजरिए से समाधान संभव नहीं है। यदि किसी एक ही मार्ग का अनुसरण करते हैं और उसे थोपते हैं तो विनाश अवश्यंभावी है। सही दिशा क्या है और सही रणनीति क्या होगी ? इसका दावा नहीं किया जा सकता। अब हम किसी भी चीज के बारे में अंतिम तौर पर कुछ भी नहीं कह सकते। आज साझा और मिश्रितमार्ग चुनने की जरूरत है,एकाधिक मार्ग पर चलने, एकाधिक रणनीतियों का प्रयोग करने और साहित्य में अन्तर्विषयवर्ती नजरिए की जरूरत है। आज कोई भी रास्ता चुनें 'अन्य' के लिए स्थान देना होगा। जिससे 'अन्य' भी अपना विकास कर सके। अपने को व्यक्त कर सके। ये सारी स्थितियां पैदा हुई हैं भूमंडलीकरण,अत्याधुनिक संचार और उपग्रह सूचना प्रवाह के कारण। इस मुक्त प्रवाह को बनाए रखना बेहद जरूरी है।
इस परिप्रेक्ष्य में हमें हिन्दी के तीनों लेखक संगठनों की आंतरिक कार्यप्रणाली पर गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए। कम से कम जनवादी लेखक संघ के साथ अपने लंबे संबंध के अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि इस संगठन में लोकतांत्रिक पारदर्शिता का जबर्दस्त अभाव है। तकरीबन यही स्थिति अन्य संगठनों की भी है। लोकतांत्रिक पारदर्शिता तब तक पैदा नहीं होगी तब तक लेखकों के अधिकारों के संघर्ष को ये तीनों संगठन अपना प्रधान लक्ष्य नहीं बनाते। लेखकों के अधिकारों के लिए संघर्ष का अभाव ही वह बुनियादी स्रोत है जिसके जरिए अलोकतांत्रिक सत्तााकेन्द्र हस्तक्षेप करते हैं। सवाल उठता है क्या हिन्दी लेखकों की समस्याएं नहीं हैं ? क्या इन तीनों संगठनों ने उन समस्याओं को सूचीबध्द करके लेखकों को एकजुट करने और फिर उस पर व्यापक आन्दोलन खड़ा करने का कभी प्रयास किया। क्या उनके प्रयासों में निरंतरता है ? साम्प्रदायिकता,धर्मनिरपेक्षता आदि पर सेमीनार करना आसान है किंतु लेखकों की समस्याओं पर आन्दोलन करना बेहद मुश्किल काम है। हिन्दी के लेखक आज गंभीर संकट से गुजर रहे हैं। यह संकट क्या है और इसके कितने व्यापक आयाम हैं ? लेखक नहीं जानते। कहीं से भी लेखकीय अधिकारों के लिए संघर्ष की आहट सुनाई नहीं देती। स्वतंत्रता के लिए मर मिटने की आग नजर नहीं आती। पता नहीं दिमागी गुलामी से मुक्ति का घोषणापत्र कब लिखा जाएगा ?

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