अण्णा हजारे के नेतृत्व वाले सिविल सोसायटी आंदोलन ने पुनः लोकपाल बिल पर वार्ताओं में शामिल होने का फैसला किया है उनकी शर्त है कि बंद कमरों में जो भी बातें हों उनको लाइव टेलीकास्ट किया जाए। यह मांग अपने आपमें बेतुकी है। वे जानते हैं जन लोकपाल बिल बनाने की प्रक्रिया आरंभ हो गई है और उसमें अब सरकार पीछे नहीं जा सकती। इस बिल के दायरे में प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को रखा जाए या नहीं यह निर्णय राष्ट्रीय विमर्श के बाद ही हो पाएगा। संसद में फैसला लिए जाने तक उन्हें इंतजार करना होगा। कारपोरेट मीडिया ने अण्णा हजारे और सिविल सोसायटी का जिस तरह महिमामंडन किया है उससे अण्णा का जमीनी यथार्थ समझ में नहीं आ सकता। सिविल सोसायटी के लोग कभी भी दैनंन्दिन जीवन के यथार्थ सवालों को नहीं उठाते,वे हमेशा उन्हीं सवालों को उठाते हैं जो नव्य उदार आर्थिक नीतियों की संगति में आते हैं। मसलन वे महंगाई रोकने और भूमि सुधार लागू करने के लिए आंदोलन नहीं करते। उल्लेखनीय है अण्णा हजारे ने अपनी स्वयंसेवी राजनीति की धुरी धर्म को बनाया है। महाराष्ट्र के रेलीगांव सिद्धि में उन्होंने पर्यावरण को धर्म से जोड़ा है। पर्यावरण संरक्षण को हिन्दू संस्कारों और रीति-रिवाजों से जोड़ा है। अण्णा का सार्वजनिक आंदोलन को धर्म से जोड़ना अपने आप में साम्प्रदायिक कदम है। इस इलाके में अन्ना का सैन्य अनुशासन है। इस इलाके में हिन्दी फिल्मी गाने सुनना मना है। फिल्में देखना मना है। सिर्फ भजन सुन सकते हैं और धार्मिक फिल्में देख सकते हैं। अण्णा के सारे फैसले मंदिर में भगवान के नाम पर होते हैं। वहां पंचायत के चुनाव नहीं होते। दलित दोयमदर्जे का व्यवहार झेलते हैं। मासकल्चर के विभिन्न रूपों पर एकदम पाबंदी है।
अण्णा ने अपने एक बयान में कहा है कि " मेरा अनशन किसी सरकार या व्यक्ति के खिलाफ पूर्वाग्रहग्रस्त नहीं था बल्कि वह तो भ्रष्टाचार के खिलाफ था। क्योंकि इसका आम आदमी पर सीधे बोझा पड़ रहा है।" असल में अन्ना ने अनशन के साथ ही अपना स्टैंड बदला है। अण्णा का आरंभ में कहना था केन्द्र सरकार संयुक्त मसौदा समिति की घोषणा कर दे मैं अपना अनशन खत्म कर दूँगा। बाद में अन्ना ने तुरंत एक नयी मांग जोड़ी कि मसौदा समिति का अध्यक्ष उस व्यक्ति को बनाया जाए जिसका नाम मैं दूं। केन्द्र ने जब इसे मानने से इंकार किया तो अन्ना ने तुरंत मिजाज बदला और संयुक्त अध्यक्ष का सुझाव दिया लेकिन सरकार ने यह भी नहीं माना और अंत में अध्यक्ष सरकारी मंत्री बना और सह-अध्यक्ष गैर सरकारी शांतिभूषण जी बने। लेकिन दिलचस्प बात यह हुई कि अन्ना इस समिति में आ गए। जबकि वे आरंभ में स्वयं नहीं रहना चाहते थे। मात्र एक कमेटी के निर्माण के लिए अन्ना ने जिस तरह प्रतिपल अपने फैसले बदले उससे साफ हो गया कि पर्दे के पीछे कुछ और चल रहा था।
अण्णा हजारे के आंदोलन के पीछे मनीपावर काम कर रही है मात्र 4 दिन में 83 लाख रूपये चंदा इकट्ठा कर लिया गया। जिसमें से तकरीबन 32 लाख रूपये खर्च भी कर दिए गए। यानी अन्ना हजारे के लिए आंदोलन हेतु संसाधनों की कोई कमी नहीं थी।
असल में स्वयंसेवी संगठनों की एनजीओ संस्कृति नियोजित कारपोरेट पूंजी की संस्कृति है। स्वतःस्फूर्त संस्कृति नहीं है। भारत में हजारों एनजीओ हैं जिनको विदेशों से सालाना पांच हजार करोड़ रूपये से ज्यादा चंदा विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों के संगठनों द्वारा प्रदान किया जाता है।एनजीओ समुदाय में काम करने वाले लोगों की अपनी राजनीति है। विचारधारा है और वर्गीय भूमिका भी है। वे परंपरागत दलीय राजनीति के विकल्प के रूप में काम करते हैं। अण्णा हजारे के इस आंदोलन के पीछे जो लोग सक्रिय हुए हैं उनमें एक बड़ा अंश ऐसे लोगों का है जो विचारों से संकीर्णतावादी हैं।
मीडिया उन्माद,अण्णा हजारे की संकीर्ण वैचारिक प्रकृति और भ्रष्टाचार इन तीनों के पीछे सक्रिय सामाजिक शक्तियों के विचारधारात्मक स्वरूप का विश्लेषण जरूर किया जाना चाहिए। इस प्रसंग में इंटरनेट पर सक्रिय भ्रष्टाचार विरोधी फेसबुक मंच पर आयी टिप्पणियों का सामाजिक संकीर्ण विचारों के नजरिए से अध्ययन करना बेहतर होगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ सक्रिय लोग इतने संकीर्ण और फासिस्ट हैं कि वे अण्णा हजारे के सुझाव से इतर यदि कोई व्यक्ति सुझाव दे रहा है तो उसके खिलाफ अपशब्दों का जमकर प्रयोग कर रहे हैं। वे इतने असहिष्णु हैं कि अण्णा की सामान्य सी भी आलोचना करने वाले व्यक्तिगत पर कीचड उछाल रहे हैं। औकात दिखा देने की धमकियां दे रहे हैं। यह अण्णा के पीछे सक्रिय फासिज्म है। अण्णा की आलोचना को न मानना,आलोचना करने वालों के खिलाफ हमलावर रूख अख्तियार करना संकीर्णतावाद है। इस संकीर्णतावाद की जड़ें भूमंडलीकरण में हैं। अन्ना हजारे फिनोमिना हमारे सत्ता सर्किल में पैदा हुए संकीर्णतावाद का एनजीओ रूप है। इसका लक्ष्य है राजनीतिक दलों को बेमानी करार देना। संसद-विधानसभा आदि के द्वारा तय लोकतांत्रिक प्रक्रिया और परंपराओं का उल्लंघन करना। आयरनी यह है कि अण्णा हजारे के संकीर्ण हिन्दुत्ववादी विचारों को जानने के बाबजूद बड़े पैमाने पर लोकतांत्रिक मनोदशा के लोग उनके साथ हैं। ये ही लोग प्रत्यक्षतः आरएसएस के साथ खड़े होने के लिए तैयार नहीं हैं लेकिन अन्ना हजारे के साथ खड़े होने के लिए तैयार हैं जबकि अन्ना के विचार उदार नहीं संकीर्ण हैं। असल में एनजीओ संस्कृति की आड़ में संकीर्णतावादी -प्रतिगामी विचारों की जमकर खेती हो रही है।इनका तेजी से मध्यवर्ग में प्रचार-प्रसार हो रहा है। ये सत्ता के विकल्प का दावा पेश करते हैं। तुरंत समाधान की मांग करते हैं। यह 'पेंडुलम इफेक्ट' पद्धति है। इसमें चट मगनी पट ब्याह। यह संकीर्णतावादी आर्थिक मॉडल से जुड़ा फिनोमिना है। वे छद्म संदेश दे रहे हैं सरकार परफेक्ट नहीं हम परफेक्ट हैं। सरकार की तुलना में अन्ना की प्रिफॉर्मेंश सही है। जो काम 42 साल से राजनीतिक दल नहीं कर पाए वह काम एनजीओ और सिविल सोसायटी संगठनों ने कर दिया। असल में सिविल सोसायटी आंदोलन की धुरी है लोकतांत्रिक संस्थाओं ,नियमों और परंपराओं की अवहेलना करना।इसे मनमोहन सरकार बढ़ावा दे रही है।
सरकार द्वारा निर्मित लोकपाल सरकार के हितों के अनुरूप होगा.जनता के हितों के अनुरूप होता या सरकार के पक्ष में जनता होती तो इनसब मुद्दों पर वह अन्ना का खुलकर साथ नहीं देती.अन्ना की मांग सही ह.बेलगाम सरकार पर लगाम लगनी चाहिए.लेकिन प्रधानमंत्री को इस दायरे से बाहर रखा जय.अगर अन्ना गलत हैं,या करप्ट हैं या जो गलतियाँ आप बता रहे हैं वह हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकतावादी संगठनो की है.उनके खिलाफ मुहीम करनी चाहिए.मगर कहने से क्या होगा जरुरत है सड़क पर उनकी तरह प्रतिरोध करने की.अन्ना फ़िलहाल गलत चीजों के खिलाफ मुहीम कर रहे हैं.भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहीम भला गलत कैसे हो सकता है?इस मुहीम के सफल होने के बाद हिन्दुत्ववादी रवैये का प्रतिरोध होना चाहिए.मगर गलत का कोई प्रतिरोध कर रहा हो तो उसमे बौद्धिक खामी निलाल कर उसे कमजोर नहीं बनाना चाहिए.इस आन्दोलन की सफलता से देश मजबूत होगा.इसके बाद फिर किसी गलत चीज के खिलाफ मुहीम हो.अभी इसका विरोध सरकार की अजनतांत्रिक रुख का साथ देना ही है.
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