भारत में आरएसएस सबसे बड़ा फासीवादी संगठन है। कहने को यह संगठन अपने को सांस्कृतिक संगठन कहता है लेकिन इसका बुनियादी लक्ष्य है भारत को हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करना। कांग्रेस पार्टी समय-समय पर संघ परिवार के सामने समर्पण करती रही है। कांग्रेस की नीतियां उदार रही हैं,उसका बुनियादी चरित्र ढुलमुल धर्मनिरपेक्ष है।
लेकिन कांग्रेस में उदार और अनुदार दोनों ही किस्म के लोग हैं। कांग्रेस की नीतियां समय-समय पर पापुलिज्म के दबाब में आती रही हैं। यही वजह है कांग्रेस का राष्ट्रीय चरित्र अनेक बार कई मसलों पर उसकी स्थानीय इकाईयों और नेताओं की भूमिका के साथ मेल नहीं खाता। कांग्रेस इन दिनों नव्य-उदारवादी आर्थिक नीतियों के दबाब में है और इन नीतियों का गहरा असर संघ परिवार से भी है। जहां-जहां ये नीतियां लागू हुई हैं वहां अनुदारवादी राजनीति को इससे मदद मिली है। अनुदार या कंजरवेटिव मसले संघ के एजेण्डे पर आए हैं।
कंजरवेटिव राजनीति और फासीवाद का गहरा संबंध है। सारी दुनिया में फासीवादी ताकतों के उदारवादी पूंजीवाद का विरोध किया था और आज भी कर रहे हैं। भारत में बिहार के 1974 के जेपी आंदोलन और 1974 के गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन में संघ परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका थी, नरेद्र मोदी,लालूयादव,नीतीश कुमार आदि उसी समय की राजनीतिक खेती की देन हैं।
सन् 1974 में संघ परिवार ‘इन्दिरा गांधी हटाओ देश बचाओ ’ के नारे लगाने वालों में सबसे आगे था। यही संघ परिवार जून 1975 में आपात्काल लगते ही इंदिरा का भक्त हो गया। संघ के तत्कालीन सरसंघचालक ने इन्दिरा गांधी को आपात्काल लागू करने के लिए पूरे सहयोग का वादा किया था,आपात्काल का समर्थन किया था। उल्लेखनीय है उस समय संघ पर केन्द्र सरकार ने पाबंदी लगा दी थी।
आपात्काल में जनता के सभी अधिकार छीन लिए गए थे, विपक्ष के सभी नेता जेलों में बंद थे,संघ परिवार के हजारों कार्यकर्ता जेलों में बंद थे, इसके बावजूद संघ परिवार ने आपात्काल में सहयोग का प्रस्ताव देकर अपने बुनियादी जनतंत्र विरोधी और अधिनायकवादी नजरिए का प्रतिपादन किया था। संघ परिवार का ऐसा करना उसके उदारवाद विरोधी राजनीतिक नजरिए का हिस्सा है।
इसी प्रसंग में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फासीवाद के निर्माताओं के उदारतावाद विरोधी नजरिए को देखें तो पता चलेगा कि संघ परिवार का देशी विचारों का दावा गलत है और वह फासीवाद के विदेशी विचारों का प्रचारक-प्रसारक है।
फासीवादी संगठनों का प्रधान शत्रु है मार्क्सवाद। मार्क्सवाद को विध्वस्त करने के लिए उदार पूंजीवाद पर हमला करना जरूरी है। क्योंकि उदार पूंजीवादी वातावरण में मार्क्सवाद फलता-फूलता है। सारी दुनिया में समाजवाद के पराभव में मार्क्सवाद की आंतरिक कमजोरियों के साथ उदार पूंजीवाद विरोधी नीतिगत रूझानों की बड़ी भूमिका है। मुसोलिनी,हिटलर और फ्रैंको ने जमकर उदार पूंजीवाद का विरोध किया था। भारत में संघ परिवार के अनुदारवादी राजनीतिक नजरिए के ये ही मार्गदर्शक हैं।
रोजे बूर्दरों ने ‘‘फासीवाद : सिद्धांत और व्यवहार’’ नामक किताब में लिखा है कि फासीवाद के तीन तिलंगों मुसोलिनी,हिटलर और फ्रैंको द्वारा ‘‘ उदारवाद की आलोचना इस विचार पर आधारित है कि उदार राज्य मार्क्सवाद के खिलाफ प्रभावी संघर्ष में असमर्थ है। राजनीतिक स्तर पर उदार राज्य की जन्मजात कमजोरी उसे मार्क्सवाद के विरुद्ध आवश्यक कदम उठाने से रोकती है।
विचारधारा के स्तर पर न्याय संगत परिवेश के दर्शन के पास बृहत्तर जनता को आकर्षित करने वाली कोई जीवंतता नहीं है। मुसोलिनी अपने वक्तव्यों में उदार राज्य की कृतियों और सिद्धांत की नपुंसकता की भर्त्सना करता है। हिटलर घोषित करता है : 'एक ऐसा राज्य जो एक कोढी, मार्क्सवाद वास्तव में यही तो है, के विकास को नहीं रोक सका वह भविष्य के किसी अवसर का क्या इस्तेमाल कर पायेगा।’’ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के तमाम भाषण मुसोलिनी की इसी हुंकारभरी शैली में ही होते हैं।
भारत में संघ परिवार समानता के सिद्धांत का विरोध करता है और राष्ट्रवाद, वर्णव्यवस्था और हिन्दू वर्चस्व को नैसर्गिक मानता है। अगर हम इन चीजों को नैसर्गिक मान लेंगे तो फिर समानता की सभी बातें खोखली हैं। समानता को सही रूपों में लागू करने के लिए वर्णव्यवस्था,जातिप्रथा, राष्ट्रवाद और हिन्दू वर्चस्व या धार्मिक वर्चस्व की धारणा को त्यागना जरूरी है। अगर कोई संगठन इन चीजों में विश्वास करता है तो वह स्वभावतः संविधान विरोधी राजनीतिक भूमिका निभाता है। इस अर्थ में भारत के संविधान की बुनियादी स्प्रिट के साथ संघ परिवार का कोई मेल नहीं बैठता। भारत का संविधान उदार पूंजीवाद की शानदार अभिव्यक्ति है। जबकि फासीवाद को उदार पूंजीवाद से घृणा है।
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