वर्तमान उत्तरआधुनिकतावाद के बारे में एक और विशेष रूप से रोचक बात है, एक खास रूप से नोट करने लायक अंतर्विरोध। एक ओर यह इतिहास के प्रतिवाद पर आधारित है, जो एक प्रकार के राजनीतिक निराशावाद से जुड़ा है। चूंकि कोई भी ऐसा तंत्र और कोई भी इतिहास नहीं है जिसके प्रयोजनमूलक विश्लेषण की गुंजाइश है, अत: हम बहुत सारी शक्तियों के मूल तक नहीं पहुंच सकते, जो हमारा दमन करती है; और हम किसी प्रकार के संयुक्त विरोध, किसी प्रकार की सामान्य मानव मुक्ति अथवा पूंजीवाद के विरुध्द वैसे आम संघर्ष की भी आकांक्षा नहीं कर सकते जिसमें समाजवादी विश्वास करते थे। अधिक से अधिक हम कई विशिष्ट और पृथक प्रतिरोधों की उम्मीद कर सकते हैं।
दूसरी ओर ऐसा प्रतीत होता है कि इस राजनीतिक निराशावाद का उद्गम पूंजीवादी संपन्नता और संभावना के प्रति अपेक्षाकृत अधिक आशावादी दृष्टिकोण में है। आज के उत्तरआधुनिकतावाद (जैसा कि हमने देखा है यह प्रतीकात्मक रूप से साठ के दशक की पीढ़ी के उत्तरजीवियों तथा उनके छात्रों द्वारा अपनाया गया है), जिसकी विश्व के प्रति दृष्टि अभी भी पूंजीवाद के 'स्वर्णिम युग' में बध्दमूल है, के अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था के प्रमुख लक्षण हैं : 'उपभोक्तावाद', उपभोग के पैटर्न की विविधता तथा 'जीवन-शैलियों' का प्रसार। भाषा और विमर्श पर उत्तरआधुनिकतावादी द्वारा जोर दिया जाना उनकी उपभोक्ता पूंजीवाद के प्रति आसक्ति तथा उनके इस दृढ़ विश्वास में देखा जा सकता है कि पुरानी राजनीतिक एजेंसियां (विशेष रूप से श्रमिक आंदोलन) स्थायी रूप से पूंजीवादी उपभोक्तावाद के 'प्रभुत्व' में आ गई हैं। बौध्दिक आचरण को सामाजिक जगत के केंद्र में स्थापित कर तथा बुध्दिजीवियों को प्रोत्साहित कर या विशेष रूप से शिक्षाविदों को ऐतिहासिक एजेंसी का अग्रदूत बनाकर उत्तरआधुनिकतावाद ने इन प्रभुता संपन्न एजेंसियों का स्थानापन्न नई एजेंसियों से करने के लिए अंतिम, और प्राय: भौंडा, अतिवादी और सुपरिचित प्रयास
किया है।
किया है।
यहां भी उत्तरआधुनिकतावादी बुध्दिजीवी अपने मौलिक गैर-इतिहासवाद को दरशाते हैं। ऐसा लगता है युध्दोतर तेजी के 'स्वर्णिम' क्षण के बाद के पूंजीवाद के संरचनात्मक संकट ठीक उनके सामने से निकल गए हैं या कम से कम इनका उन पर कोई खास सैध्दांतिक प्रभाव नहीं पड़ा है। कुछ के अनुसार इसका अर्थ यह है कि पूंजीवाद के विरोध के अवसर बहुत सीमित हो गए हैं। अन्य मानो यह कह रहे हों कि अगर हम सचमुच व्यवस्था को बदल नहीं सकते या यहां तक कि समझ नहीं सकते (या इसे हम व्यवस्था मानें भी) और अगर हमारे पास कोई श्रेयस्कर स्थिति न है न हो सकती है, जिससे कि हम उस व्यवस्था की आलोचना कर सकें इसका विरोध करने की तो बात ही छोड़िए, तो भी बैठकर इसका आनंद उठा सकते हैं या इससे भी बेहतर है कि खरीददारी करने जा सकते हैं।
इन बौध्दिक प्रवृत्तियों के प्रतिपादक भाष्यकार निश्चित तौर पर जानते हैं कि सब कुछ ठीक नहीं है लेकिन इन प्रवृत्तियों में शायद ही कुछ ऐसा है, जिससे उदाहरण के लिए आज की बढ़ती हुई गरीबी तथा बेघरबारी, गरीब मेहनतकश वर्ग के बढ़ते आकार, असुरक्षित और पार्ट टाइम श्रमिक के नए रूपों आदि को समझने में मदद मिलती हो। बीसवीं सदी के अस्पष्ट इतिहास के दोनों पक्षों, इसकी विभीषिकाओं तथा इसके चमत्कारों ने निस्संदेह उत्तरआधुनिकतावादी चेतना के निर्माण में भूमिका निभाई है। लेकिन जिन विभीषिकाओं ने प्रगति की पुरानी धारणा को नष्ट किया है, वे आज के उत्तरआधुनिकतावाद की सुस्पष्ट प्रकृति को परिभाषित करने में उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी कि आधुनिक प्रौद्योगिकी तथा उपभोक्ता पूंजीवाद की धन समृध्दि। उत्तरआधुनिकतावाद कभी-कभी पूंजीवाद की अस्पष्टता के समान दिखता है, तब जब इसे उनके नजरिए से देखा जाए जो इसके फायदों का आनंद उठाते हैं न कि उनके दृष्टिकोण से जो इसकी लागतों को झेलते हैं।
अंतिम विश्लेषण में 'उत्तरआधुनिकता' उत्तरआधुनिकतावादी बुध्दिजीवियों के लिए इतिहास का एक क्षण न होकर स्वयं मानवीय स्थिति प्रतीत होती है, जिससे बाहर निकलने का कोई मार्ग नहीं। यदि मिलस के अनुसार उनके युग की प्रमुख समस्या यह थी कि प्रसन्नचित्त यंत्रमानवों में स्वतंत्रता अथवा तर्कना की शक्ति होने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी, तो नव उत्तरआधुनिकतावादी स्वयं भी उन्हीं अभिवृत्तियों को प्रदर्शित करते हैं जिनकी मिलस ने निंदा की थी। यहां तक कि वे उन्हीं संकटापन्न प्रबोधन मूल्यों को आधुनिक बुराइयों की जड़ मानते हैं और उन्होंने उन्हें निसर्गत: दमनकारी मानकर खुलेआम अस्वीकार कर दिया है। दूसरे शब्दों में, उत्तरआधुनिकतावाद अब निदान नहीं, बीमारी बन गया है।
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