(कथाकार उदयप्रकाश)
उदयप्रकाश पर लिखना मुश्किल काम है। इसके कई कारण हैं पहला यह कि वह मेरे दोस्त हैं। दूसरा उनका जटिल रचना संसार है। उदयजी को मैं महज एक लेखक के रूप में नहीं देखता । बल्कि पैराडाइम शिफ्ट वाले लेखक के रूप में देखता हूँ। हिन्दी कहानी की परंपरा में पैराडाइम शिफ्ट वाले दो ही कथाकार हुए हैं,पहले हैं प्रेमचंद, दूसरे हैं उदयप्रकाश। पैराडाइम शिफ्ट से मतलब है युगीन नए मीडिया के साथ अन्तर्क्रियाएं करते हुए कथा या विधा के नए ढ़ांचे का निर्माण।
प्रेमचंद ने नए मीडिया के रूप में कहानी और फिल्म की अन्तर्क्रियाओं का विकास करते हुए कहानी का नया ढ़ांचा बनाया जिसे हिन्दी में यथार्थवादी कहानी कहते हैं। उसी तरह उदयजी ने वृत्तचित्र और टीवी की चाक्षुषभाषा का प्रयोग करके हिन्दी कहानी को नयी दिशा दी। कहानी की नई संरचना को जन्म दिया। किसी भी कथाकार की महानता तब सामने आती है जब वह युगीन मीडिया की अभिव्यक्ति की प्रभावशाली प्रवृत्ति को साहित्य की विधा में रूपान्तरित करते हुए उसके मूल रूप को बदलता है।
मैं उदयप्रकाश को आज भी संघर्षशील लेखक के रूप में देखता हूँ। मेरा उनसे 1980-81 से परिचय है। उन्होंने मुझे जेएनयू में एक सेमिस्टर पढ़ाया था। उदयप्रकाश और देवेन्द्र कौशिक एक ही साथ शिलॉग के विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे,स्थानीय राजनीतिक उथल-पुथल ने उन्हें शिलांग की शिक्षक की नौकरी छोड़ने के लिए मजबूर किया।
देवेन्द्र कौशिक ने संस्कृत काव्यशास्त्र पढ़ाया था,बाद में उनकी दिल्ली वि.वि. के मोतीलाल नेहरू कॉलेज में नौकरी लग गयी,लेकिन शिलांग की नौकरी छोड़ने के बाद उदयप्रकाश को दोबारा प्राध्यापक की नौकरी नहीं मिल पायी, इसका प्रधान कारण गुरूदेव नामवर सिंह का उनसे नाराज रहना है।
गुरूदेव क्यों नाराज थे यह अभी तक रहस्य है। नामवरजी की यह विशेषता है कि वे जब किसी से नाराज होते हैं तो नाराजगी को मन मे बड़े कौशल से छिपा लेते हैं। उदयप्रकाश जैसे लेखक को हिन्दी में शिक्षक की नौकरी न मिलना यह इस बात का भी संकेत है कि हिन्दी विभाग अभी तक सामंती सोच में कैद हैं। साथ ही हिन्दी में नामवर सिंह जैसे लोगों की नाराजगी कितनी महंगी हो सकती है।
उदयप्रकाश और नामवरजी के रिश्ते छात्र जीवन से तल्ख रहे हैं और बाद में अनेक मसलों पर नामवरजी के साथ वैचारिक मुठभेड़ों में यह वैचारिक तल्खी व्यक्त हुई है।
उदयप्रकाश के बारे में समग्रता में यह कहा जा सकता है कि वह 80 के बाद का सबसे प्रखर, विचारोत्तेजक और सही परिप्रेक्ष्य में गद्य लिखने वाला हिन्दी का अकेला समर्थ लेखक है। आमतौर पर यह माना जाता है कि हिन्दी का श्रेष्ठ गद्य रामविलास शर्मा ने लिखा है लेकिन मेरी व्यक्तिगत राय है कि 80 के बाद का हिन्दी श्रेष्ठ गद्य उदयप्रकाश ने लिखा है।
हिन्दी में आलोचना का धंधा करने वालों के पास उदयप्रकाश के गद्य का कोई विकल्प नहीं है। हमारे सामने हिन्दी के जितने सुधी आलोचक हैं वे इस मामले में उदयप्रकाश से अभी काफी पीछे हैं। सन् 80 के बाद हिन्दी गद्य का नया ठाठ राजेन्द्र यादव ,उदयप्रकाश और सुधीश पचौरी के यहां दिखता है। यह ऐसा गद्य है जो हिन्दी में पहले नहीं लिखा गया।
उदयप्रकाश की जिंदगी की जंग रोज़ आरंभ होती है। उसके पास कोई निश्चित आय नहीं है उसने सारी जिंदगी टुकड़ों और किश्तों में अस्थायी काम करते गुजार दी। वे स्वभाव से सहृदय और संवेदनशील लेखक हैं। उनकी सारी साहित्यिक सफलताओं की धुरी है उनकी पत्नी और उसका अबाधित समर्थन। उनकी पत्नी की पक्की नौकरी ने ही उदयप्रकाश को जिंदा रखा हुआ है वरना हिन्दी के मठाधीश उनकी मौत का सारा इंतजाम कर चुके हैं। उदयप्रकाश की दिली इच्छा थी कि शिक्षक बनूँ और साहित्य सृजन करूँ। क्योंकि शिक्षक की नौकरी करते हुए उन्हें दैनन्दिन जीवन में समझौते नहीं करने पड़ते।
उदयप्रकाश बुनियादी तौर पर नव्य-उदारवादी यथार्थ का लेखक है उसकी रचनाओं में विस्थापन और अस्मिता ये दो महत्वपूर्ण समस्याएं हैं जो बार-बार उभरकर सामने आई हैं। नव्य-उदारतावाद के दौर में हाशिए के लोगों के साथ-साथ निम्नमध्यवर्ग के लोगों पर किस तरह की मुसीबतें आ रही हैं इन्हें बड़े ही कलात्मक ढ़ंग से उन्होंने अभिव्यक्त किया है। इस क्रम में आम आदमी की तकलीफें केन्द्र में चली आई हैं।
उदयप्रकाश के बारे में राजेन्द्र यादव जैसे संपादकों ने यह बात फैला दी कि उदय की कहानियां जादुई यथार्थवाद को व्यक्त करती हैं। सच्चाई यह नहीं है। उदयप्रकाश ही क्यों भारत के किसी भी लेखक का जादुई यथार्थवाद से कोई संबंध नहीं है। भारत और लैटिन अमेरिका की परिस्थितियों में कोई साम्य नहीं है और जिस तरह का नग्न यथार्थ लैटिन के साहित्यकारों के यहां व्यक्त हुआ है वैसे यथार्थ की सृष्टि उदयप्रकाश ने नहीं की है।
उदयप्रकाश की कहानियां मुक्तिबोध की कहानीकला से काफी मिलती हैं। इसके अलावा उनकी कहानियों में टेलीविजन की चाक्षुषभाषिक चमक है। भाषायी प्रयोगों में चाक्षुषभाषा के सफल प्रयोग करने में उदयप्रकाश सफल रहे हैं। कहानी में चाक्षुषभाषा का इसके पहले प्रेमचंद के यहां प्रयोग मिलता है। प्रेमचंद ने सिनेमा की भाषा को कहानी की भाषा बनाया था। वहीं उदयप्रकाश की कहानियों में टीवी की भाषा का प्रयोग मिलता है। ये दोनों कथाकार दो भिन्न मीडियायुग की देन हैं। इसके अलावा वृत्तचित्र की भाषा को कहानी की अपरिहार्य भाषा बनाने में उदयप्रकाश को सफलता मिली है।
उदयप्रकाश सिर्फ कहानी में चाक्षुषभाषा का प्रयोग नहीं करते बल्कि कविता और निबंधों में भी इसका प्रयोग करते हैं। कहानी कब डाकूमेंटरी में बदल गयी इसे जानना हो तो उदयप्रकाश की कहानियों को पढ़ना दिलचस्प होगा। यही डाकूमेंटरी का फॉरमेट उनकी कई कविताओं में झलकता है।
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