(इटली के फासीवादी नेता मुसोलिनी)
भारत में फासीवाद -साम्प्रदायिकता सबसे गंभीर राजनीतिक चुनौती है। मनमोहन सिंह की सरकार जिस आर्थिक एजेण्डे पर चल रही है उससे देश में अनुदारवादी विचारधाराओं के फलने-फूलने का पूरा वातावरण बन रहा है। अनेक मोर्चों पर कांग्रेस पार्टी की नीतियों की असफलता साफ नजर आ रही है। कांग्रेस पार्टी की कारपोरेट घरानों की पक्षधर जनविरोधी नीतियों का ही दुष्परिणाम है कि आज देश में विभाजनकारी,फासीवादी और आतंकी ताकतें चारों ओर सिर उठाए घूम रही हैं।
कांग्रेस पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रम की सबसे बड़ी असफलता है देश में फासीवादी- साम्प्रदायिक ताकतों को न रोक पाना। कांग्रेस की 125 साल की राजनीतिक असफलता है आरएसएस ,भाजपा आदि फासीवादी-साम्प्रदायिक संगठनों का राजनीतिक शक्ति के रूप में विकास। हमें गंभीरता के साथ उन विचारधारात्मक कारणों की खोज करनी चाहिए जिसके कारण फासीवाद फलता-फूलता है।
हिन्दी में ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन के द्वारा प्रकाशित एक शानदार किताब बाजार में आयी है। ‘फासीवादःसिद्धान्त और व्यवहार’, लेखक हैं रोज़े बूर्दरों। रोज़े ने फासीवाद को व्यापक फलक पर रखकर विचार किया है। लिखा है, ‘‘फासीवादी, नात्सीवादी और फलांजवादी कार्यक्रम राजनीतिक कर्म के अर्थ में 'हर पार्टी के सारभूत सिद्धांतों की दिशा को अभिव्यक्त या सार संकलित करते हैं। अब हमें सैद्धांतिक दिशा को सुस्पष्ट करना है ताकि फासीवादी विचारधारा की पहचान करने वाले समान आधारों को विश्लेषित किया जा सके। स्रोतों की कमी नहीं है । मुसोलिनी के भाषण और लेखन, विचारक जेंतील का लेखन, इतालवी विश्वकोष, प्रेत्सोलीनी वालेंजियानी या गारजुलेनी जैसे लोकप्रिय विचारकों की कृतियां फासीवादी विचारधारा के अध्ययन के लिए अनिवार्य हैं।
नात्सीवाद के लिए रोजेनवर्ग लिखित पुस्तक 'बीसवीं शताब्दी का मिथक' (ल मिथ द वंतियम सिएक्वल) के पहले माइन कांप्फ (मेरा संघर्ष), नात्सी पार्टी के विचारधारात्मक पाठ और संस्थापन के विचारों पर नात्सी पार्टी के अन्य नेताओं के विमर्श। स्पेन के फ्रांकोवाद के लिए भी दस्तावेजों की बहुलता है।
गृह-युद्ध के पहले के लिए अंतोनियो प्रिमो का लेखन हैं जो फ्रांकोवाद के प्रारंभिक दिनों को परिभाषित करता है। फ्रांको और उसके अनुयायियों के भाषण भी स्रोत हैं। पी.ए. मारकोथ ने भी राष्ट्रवादी-सिंडीकलवादी स्पेन' पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। इसके अलावा, फलांज कार्यक्रम फासीवादी और नात्सीवादी कार्यक्रमों से भी ज्यादा विचारधारात्मक सरोकार प्रस्तुत करते हैं।
इसके बावजूद कि दस्तावेजों की प्रचुरता है, कार्य ठीक से नहीं हुआहर आंदोलन अपने राष्ट्रीय मूल से गहराई से प्रभावित है, और विचारधारा के स्तर पर विशिष्ट लगता है। नात्सीवाद में नस्लवाद की व्याप्ति, जो और कहीं नहीं है, आंदोलनों की विशिष्टता को चिन्हित करती है। शैली और प्रस्तुति की विभिन्नता उन्हें अलग करती है। जेंतील की सूक्ष्म और बारीक टिप्पणियों और रोजेनबर्ग के भडक़ीले लेखन के बीच कोई समानता नहीं हैं। इसी तरह इतालवी विश्वकोष में फासीवादी विचारों की प्रगतिशील प्रस्तुति और 'माइन कांफ' के तथ्यों और विचारों (उदारवाद विरोध) या तो किसी दूसरे सिध्दांत के रू-ब-रू एक नकारात्मक सैध्दांतिक अवस्थिति (जैसे 'वर्ग संघर्ष' के रू-ब-रू सभी के उत्पादक होने की अवधारणा) मनुष्यों की समानता के रू-ब-रू श्रेणी बध्दता का सिध्दांत है।
समाहार करते हुए मुझे लगता है कि इन आंदोलनों के बीच एक वांछित विचारधारात्मक समान आधार चिह्नित कर पाना कठिन होगा। एक ही संभावना दिखती है। इन तीनों ही आंदोलनों में किसी एक दूसरे सिद्धांत के प्रति एक उग्र प्रतिकार है।
यहां एक तथ्य उल्लेखनीय है। विचारधारात्मक लेखन में प्राय: राष्ट्रवाद अंतर्राष्ट्रीयतावाद के प्रति और राष्ट्र का विनाश करने वाले वर्ग संघर्ष के प्रति संपूर्ण प्रतिकार के माध्यम से ही परिभाषित होता है, कम से कम इसी अर्थ में वह सद्गुण संपन्न लगता है। क्या आंदोलन किसी के पक्ष में होने के पहले, और मुख्य रूप से, विपक्ष में नहीं होते? क्या मुख्य विचारधारा किसी विशेष विरोधी के विरोध में ही नहीं विकसित होती?’’
रोज़े ने लिखा है फासीवाद का प्रधान लक्ष्य है मार्क्सवाद को पीछे धकेलना। विभिन्न रंगत के फासीवादी संगठन भारत में भी कम्युनिस्टों को परास्त करने के लिए एकजुट हो जाते हैं। खासकर संघ परिवार और उससे जुड़े संगठनों का एकमात्र लक्ष्य है मार्क्सवाद के खिलाफ जहर उगलना।
रोज़े ने सही लिखा है कि ‘‘जहां तक मार्क्सवाद और मार्क्सवादी पार्टियों का संबंध है, फासीवादी आंदोलनों में प्रयुक्त शब्द बहुत सटीक नहीं है। फासीवादी जानबूझ कर गोलमोल शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। और 'मार्क्सवाद' 'समाजवाद' 'कम्युनिज्म' के बीच फर्क नहीं करते और कम्युनिस्ट आंदोलन और सोशल-डेमोक्रेसी के बीच भी फर्क नहीं करते। इन आंदोलनों के संस्थापक और विचारक जब अपने आंदोलन के सिद्धांत परिभाषित करते हैं तो मार्क्सवादी विचारों के नकार से ही शुरू करते हैं। इसके अनगिनत उदाहरण हैं।
रोज़े ने इटली के फासीवादी शासक मुसोलिनी को उद्धृत करते हुए जिन बातों की ओर ध्यान खींचा है ,वे बातें आए दिन संघ परिवार के नेता अपने प्रकाशनों और राजनीतिक कार्यक्रम में व्यक्त करते हैं। रोज़े ने लिखा है-
‘‘21 जून 1921 को सत्ता प्राप्ति के पहले मुसोलिनी ने संसद में मार्क्सवाद के विध्वंस को सारभूत उद्देश्य के रूप में चिह्नित किया था :
'हम अपनी पूरी शक्ति के साथ समाजीकरण, राज्यीकरण और सामूहिकीकरण की कोशिशों का विरोध करेंगे। राजकीय समाजवाद से हम भर पाए। हम आपके जटिल सिद्धांतों, जिन्हें हम सत्य और नियतिविरोधी करार देते हैं, के विरुद्ध अपना सैद्धांतिक संघर्ष छोड़ेंगे नहीं। हम नकारते हैं कि दो वर्गों का अस्तित्व है, क्योंकि और बहुतों का भी अस्तित्व है। हम नकारते हैं कि आर्थिक नियतिवाद के जरिए समस्त मानव-इतिहास की व्याख्या की जा सकती है। हम आपके अतंर्राष्ट्रीयतावाद को नकारते हैं। क्योंकि यह एक बुध्दि-विलास है। इसे केवल उन्नत वर्ग व्यवहार में ला सकते हैं जबकि आम जनता हताश है और अपनी जन्मभूमि से जुड़ी हुई हैं। ’’
भारत में संघ परिवार का प्रधान एजेण्डा वही है जो एक जमाने में इटली में फासीवादी महानायक मुसोलिनी का था। संघ परिवार और उसके संगठन सरकारीकरण,राष्ट्रीयकरण,सामूहिकीकरण आदि का जमकर प्रतिरोध करते रहे हैं। वे यह भी नहीं मानते कि भारतीय समाज वर्गों में बंटा है। उनके अनुसार भारत में वर्गों का नहीं जाति और वर्ण का अस्तित्व है। वे यह मानते हैं कि सामाजिक,सांस्कृतिक,राजनीतिक परिवर्तनों को देखने के लिए आर्थिक कारकों को प्रधान और निर्णायक कारक नहीं माना जा सकता। वे कम्युनिस्टों के अंतर्राष्ट्रीयतावाद का विरोध करते हैं लेकिन फासीवादी संगठनों की विचारधारात्मक विश्वव्यापी एकजुटता का प्रच्छन्नतःसमर्थन करते हैं।
फासीवाद : सिद्धांत और व्यवहार
लेखक- रोजे बूर्दरों
प्रकाशक- ग्रंथ शिल्पी, बी-7,सरस्वती काम्प्लेक्स,सुभाष चौक,लक्ष्मी नगर,दिल्ली-110092
मूल्य -275
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं