बुधवार, 23 जून 2010

प्रत्यारोपित शहरों में सुबकी लेती मनुष्यता- अरुण माहेश्वरी

       पश्चिम बंगाल के हाल के नगरपालिका चुनाव में कितनी भी राजनीतिक उत्तेजना क्यों न रही हो, इनके दौरान बहसों और बातों के कुछ ऐसे पहलू देखने को मिलें, जिन पर इस स्तंभ के पाठकों से कुछ दिलचस्प चर्चा की जा सकती है। मसलन्, ममता बनर्जी कह रही थी कि हमें सत्ता सौंपो, हम कोलकाता को लंदन बना देंगे, दार्जिलिंग को स्विट्जरलैंड और दीघा को गोवा। प्रत्युत्तर में वामपंथ का कहना था कि कोलकाता कोलकाता ही रहे तो गनीमत है, दार्जिलिंग दार्जिलिंग रहे और दीघा भी दीघा ही।

दूसरा था, नगरपालिकाओं के चुनाव को लेकर टेलीविजन के बांग्ला चैनलों पर सौसौ घंटे की लगातार लाइव बहसें! बहस करने वालों का एकएक पैनल घंटों बैठा बतिया रहा था  और श्रोतादर्शक भी टेलिविजन से चिपके उस बतरस में डूबउतर रहे थे! मुझे नहीं लगता कि नगरपालिकाओं को लेकर ऐसी वैचारिक उत्तेजनाओं का दृश्य और कहीं भी देखने को मिल सकता है। अड्डेबाजी का पुराना जानापहचाना बंगाली मिजाज नये माध्यम में उतर कर और कितना गाढ़ा तथा विस्तृत हुआ है, इसका अंदाज लगाना मुश्किल है। कोलकाता की यह तर्कप्रियताक्या यहां के प्रसिद्ध ब्रिटिश वास्तुशास्त्र की उपज है या राममोहन राय, विद्यासागर, रवीन्द्रनाथ और ठाकुर परिवार, विवेकानंद और न जाने कितने वेदांतियों और तर्कवागीशों से लेकर सुनिति बाबू, सुकुमार सेन, कम्युनिस्ट आंदोलन और अमर्त्‍य सेन की परंपरा की देन है? और, बिना इन सबके कोलकाता क्या है?


उपरोक्त दोनों पहलू ही शहरों को लेकर हमारे सोच के बहुत सारे आयामों को सामने लाती है। शहर आखिर क्या है? क्या सिर्फ कुछ सड़कों, ढांचागत सुविधाओं और इमारतों का एक पुंज भर, जहां पहले तक गांवों में बसे लोगों को लाकर बसा दिया गया है? शहरों की अपनी निजी स्वाभाविकता या विशिष्टताओं का क्यां? क्यां वे रातोंरात पैदा होती हैं या उनके पनपने में सदियों की कहानी छिपी होती है। कहानी इसलिये कि यह एक ऐसा यथार्थ है जिसमें इतिहास, संस्कृति, सड़केंइमारतें और सर्वोपरि इसके नागरिकों का जीवन, मनोविज्ञान सबकुछ आपस में मिलाजुला होता है। और, इन सबकी भी अपनी एक स्वाभाविक गति होती है जिसमें विकास और पतन साथसाथ चलता है। यह कोई निश्चित एकायामी सच नहीं है। इसीलिये यह बात तो सही है कि किसी शहर पर किसी दूसरे शहर को प्रत्यारोपित नहीं किया जा सकता है। न कोलकाता को लंदन में बदला जा सकता है और न मुंबई को शंघाई में और न किसी और शहर को किसी दूसरे शहर में।

फिर भी, आदमी का योजनाप्रियस्वभाव उससे तोड़नेगढ़ने की कैसीकैसी योजनाएं बनवा लेता है, इसकी थाह पाना मुश्किल है। दो साल पहले ही हमने चीन के कुछ शहरों की यात्रा में चिर युवाशहरों की कहानी को अपनी आंखों से देखा था। युवा’ – इन शहरों की सदाबहार चमकदमक के कारण नहीं, बल्कि इनकी आबादी की उम्र के कारण। कहीं खोजे से बूढ़ा आदमी देखने को न मिले! जून 2008 के मंथली रिव्यूमें राबर्ट वील का एक लेख पढ़ा था, ‘सिटी आफ यूथ : शेनजेन चायना। राबर्ट वील ने इसमें चीन के व्यापारिक दृष्टि से इन बहुचर्चित दक्षिणी तटवर्ती शहरों की चौंका देने वाली जवान आबादी के रहस्य को शेनजेन शहर को केंद्र में रख कर अपने अध्ययन का विषय बनाया था। उनका निष्कर्ष था कि इस शहर का युवापन उसके निवासियों की नयी पीढि़यों के जन्म से उत्पन्न नहीं हुआ है। बनिस्बत्, यह शहर में आने वाले अधिकांश लोगों के युवा वय, जिनमें से अधिकांश तेरह से उन्नीस साल के बीच के हैं, और इस शहर के उद्योगों में काम करने वालों की तेजी से होने वाली बदली को जाहिर करता है। राबर्ट वील ने सर्वेक्षण, आंकड़ों और तथ्यों से जिस सचाई को पेश किया, उसे हमने अपनी आंखों से देखा था। इन शहरों में पीढि़यों की अपनी कोई कहानी नहीं है। जो है, वह है कारखानों की जरूरतों के लिये भरती करके लाये गये रंगरूटों का सिर्फ आना और जाना। शहर साफ और सुंदर बने रहे, इसीलिये किसी को भी अपने नियत समय से ज्यादा समय तक बसे रह जाने की शायद अनुमति नहीं है।

सबसे बड़ा अचरज हुआ था चीन के सबसे पुराने, किसी समय में पूरब का पैरिस कहलाने वाले शंघाई शहर को देख कर। चीन के आधुनिक इतिहास में ऐसा कौन सा दौर रहा होगा, जिसने शंघाई शहर को अपनी जद में न लिया हो। शंघाई शहर की परतों में न जाने सभ्यता के कितने अवशेष पड़े होंगे। एक पुराना और परंपरागत शहर लेकिन आज, उसका पुरानापन सिर्फ पिपुल्स स्क्वायर के शंघाई आर्ट म्यूजियम की तस्वीरों में सिमटा हुआ है। इसी आर्ट म्यूजियम से खरीदी गयी फार ईस्टर्न इकोनोमिक रिव्यूकी शंघाई संवाददाता पामेला यार्ट्स की किताब न्यू शंघाईद रौकी रीबर्थ आफ चायनाज लीजेन्डरी सिटीशंघाई के इस कायान्तरण की अंतरकथा का बयान करते हुएं बताती है कि इस शहर के जिस मजदूर वर्ग ने तियेनमान स्क्वायर (1989) की घटना के संकटपूर्ण समय में भी बिगड़ैल छात्रोंऔर नौजवानों को काबू में लाने में अग्रणी भूमिका अदा की थी, वह मजदूर वर्ग आज इस नये शंघाई से गायब है। द इकोनामिस्टके बिल्कुल ताजा (29 मई4 जून 2010) अंक में शंघाई के इतिहास के पुनरुद्धार की एक रपट है कि वहां अब कुछ सिनागोग, चर्च, ब्रिटेन के रॉयल एशियटिक सोसाईटी तथा बैपटिस्ट पब्लिकेशन सोसाईटी की इमारतों का पुनरुद्धार और सड़कों के पुराने, काफी पहले ही भुला दिये गये नामों के पट्ट लगा कर शहर के इतिहास और संस्कृतिको पुनरुज्जीवित किया जा रहा है।

बहरहाल, इस समूची चर्चा में हमारा मतलब शहर, शहर के इतिहास, उसकी संस्कृति और सर्वोपरि उसके लोगों से हैं। इनमें कुछ भी स्थायी नहीं है। सबकुछ बदल रहा है। कुछ दुनिया की रफ्तार की ठोकरों से, तो कुछ सुचिंतित योजनाओं पर अमल से। शहर के रूप में हम कारखानों के रंगरूटों की चमकदार छावनियों के तौर पर चिरयुवाबना कर रखे गये शहरों पर बात नहीं कर सकते हैं। इनका न कोई अतीत है और न कोई भविष्य, सिर्फ वर्तमान ही वर्तमान है। शहरीकरण की यह अपने ही प्रकार की एक प्रक्रिया है। आने वाले समय में इन नये प्रकार की छावनियोंका इतिहास क्या और कैसा  होगा, यह समय ही बतायेगा।

मुद्दे की बात यह है कि हमने शुरू में चर्चा के लिये जिस विषय को उठाया था, शहर और उसकी संस्कृति, ये उसमें बसे लोगों की पीढि़यों के इतिहास से बनते हैं। शहर की सड़कों, इमारतों और दूसरी ढांचागत सुविधाओं के इतिहास को संग्रहालयों के जरिये जाना जा सकता है। लेकिन उसके नागरिकों के बीच क्या कुछ बनबिगड़ रहा है, इसे जानने का तरीका क्या होगा?

इसी सिलसिले में अनायास ही हिंदी के कवि मानिक बच्छावत के इसी साल प्रकाशित कविताओं के संकलन इस शहर के लोगको याद करना अप्रासंगिक नहीं होगा। पैतालींस कविताओं का अपने प्रकार का यह एक अनोखा संकलन है। इसकी प्रत्येक कविता राजस्थान के मरुशहर बीकानेर के किसी न किसी एक ऐसे चरित्र पर है जिसे साधारणीकृत करके हम इस शहर के वासियों के अंदर की विलुप्त होरही प्रजातियों की श्रेणी में रख सकते है। ये उदय प्रकाश के पाल गोमरा का स्कूटरके पाल गोमरा की तरह किसी तेज गति पर सवारी की बेचैनी की वजह से बेमौत मारे जारहे चरित्र नहीं है, बल्कि खुद ब खुद व्यतीत और विलुप्त हो जाने वाले बेहद संकेतपूर्ण चरित्र हैं। पेशों और परिस्थितियों से उत्पन्न ऐसे चरित्र अपने विलोप के साथ शहर के परिवेश, उसकी संस्कृति और उसकी आबादी की भी बदलती सूरत की कहानी कहते हैं। जैसे, संकलन की पहली कविता है: लूणजी बाबा। ‘’आजन्म कुंआरे...उन्होंने अपनी बोली में कभी बातचीत नहीं की/...वे रोज सुबह गवाड़ की/बड़ी हवेली के पाटे पर बैठते/बाहर से मंगाए अखबारों का/ पुलिंदा खोलते/...अखबारों से उनका पेट भर जाता/शहर में उन दिनों कोई लोकल अखबार/ नहीं था.../शहर की सारी खबरें लूणजी खुद/ घूमकर इका करते और/...ये खबरें मौखिक रूप से/पाटा गजट पर छपकर प्रसारित हो जातीं/...अब लूणा बाबा जैसे खबरची की/जरूरत नहीं/शहर में अब कई छोटेमोटे/ अखबार निकलते हैं ’’
और एक कविता : तीजाबाई रोवणगारी‘’ तीजांबाई का/ पेशा रोने का था/वह पेशा उसे विरासत में/मिला था/...तीजांबाई के पास/ रोने वाली सात पक्की औरतें थीं/...यह रिवाज पुरुषों की मौत पर/ रोने का था/ घर की औरतों के मरने पर/ वे कभी नहीं बुलाई जातीं/ यह पेशा अब धीरेधीरे खत्म हो गया है/ यह बात अलग है कि/इन रोवणगारियों के घर पर/ जब कोई मरता तो कोई रोने नहीं आता ‘’। ऐसे ही सलमा पोट्टाथापणी, खुदाबक्श फोटोग्राफर, नूरजी पिंजारा, भूरजी छींपा, गपिया गीतांरी, रामचंद्र मोची, तोलाराम डाकोत, अहमद हमाल, सूरजो जी दर्जी, मियां खेलार, जिया रंगारी, अल्लाह जिलाई बाई, नत्थू पहलवान, भाइया मारजा, छोगाजी नाई, जेठोजी कोचवान, हमीदा चुंनीगरनी, कबरी लाखारी, पीरदान ठठेरा, नैणसी गोदारा, नूरा ऊनछांटनी, मेहतरानी, करणीदान पागी, कजलू गांधी, अब्दुल रहमान भिश्ती आदि इसी संकलन की कविताओं के तमाम चरित्र, जिनसे निश्चित तौर पर कभी उस शहर की एक निजी सूरत बना करती थी, अब क्रमश: महज स्‍मृति‍यों के वासी रह गये है। शहरों में बदलाव के यह कम महत्वपूर्ण सूचक नहीं है।

दो साल पहले, सन् 2008 में ही दुनिया में शहरी आबादी की संख्या गांवों की आबादी के बराबर हुई है। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार सन् 2050 तक शहरों की आबादी दुनिया की आबादी का 70 प्रतिशत होगी। आने वाले चार दशकों में दुनिया की आबादी में जो भी वृद्धि होगी, उससे कहीं ज्यादा वृद्धि शहरों की आबादी में होने वाली है। ऐसी स्थिति में शहरों का सच हमारी चिंता और चेतना का एक प्रमुख विषय बने, यह जरूरी है। बल देने की बात सिर्फ यह है कि शहर से तात्पर्य दूसरी सभी बातों से कहीं ज्यादा उसके निवासियों के सरोकारों से रहें। तभी शहरों के अपने चरित्र और संस्कृति का स्वरूप बनेगा और विकसित भी होगा, शहर के निवासियों की मानवीय गरिमा कायम रहेगी। नकली और प्रत्यारोपित शहर सुबकी लेती मनुष्यता की कब्र पर कंक्रीट के कोरे जंगल के अलावा और कुछ नहीं होते।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...