नस्लवाद : जर्मनी में खास तौर पर यहूदियों को निशाना बनाया गया। उन्हें शोषक और राष्ट्रविरोधीयहां तक कि प्रथम विश्वयुध्द में जर्मनी की पराजय के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया गया। वे हर क्षेत्र में अपनी जनसंख्या के अनुपात में बहुत अधिक सफल और समृध्द थे। इसलिए सामान्यर् ईर्ष्या-द्वेष के लक्ष्य थे। इसलिए उन्हें दमन और प्रताड़ना का शिकार बनाया गया और ईष्यालु जनसंख्या का समर्थन मिला ही। हिटलर ने अपनी आत्मकथा में इस मुद्दे पर विशेष जोर दिया था। अब वह इसे सुनियोजित ढंग से कार्यान्वित करता गया। यहूदियों के विस्थापन को अन्य जर्मनों के संस्थापन से जोड़ दिया गया। ईर्ष्या और घृणा पर आधारित षडयंत्रात्मक राजनीति जब एक पूरे समाज को मनोरोग की तरह ग्रसती चली गई तो विस्थापन और उत्पीड़न विध्वंस तक पहुंचा दिया गया और जर्मनी और विजित क्षेत्रों जैसे पोलैंड में बाकायदा 'आउसविट्ज' जैसे कुख्यात 'यातना कैंप' बनाए गए जहां यहूदियों पर घातक प्रयोग किए जाते, उनसे कठिन श्रम करावाया जाता और अंत में उन्हें भट्ठियों में झोंक दिया जाता। यह महाविध्वंस (॥शद्यशष्ड्डह्वह्यह्ल) मानव-कृत बर्बरता का चरम बिंदु है। यहूदियों के पलायन और विनाश से व्यवसाय, नौकरियों और संस्थाओं में गैर-यहूदी जर्मनों को विशेषकर मध्यवर्गीय जर्मनों को, तात्कालिक लाभ मिला। यह निश्चित ही पर्याप्त उत्प्रेरणा थी।
नस्लवाद भारत में अस्पृश्यता, दक्षिण अफ्रीका में 'अपारथाइड' (रंगभेद), अमरीका में अश्वेत-उत्पीड़न आदि के रूप में सारे संसार में कई-कई रूपों में मौजूद रहा है पर इतनी सुनियोजित-संगठित राजनीतिक हथकंडे के रूप में जर्मनी में नात्सीवाद ने इसका ही इस्तेमाल किया था। इसका सबसे खतरनाक और त्रासद आयाम यह था कि इतने जघन्य अपराध को समाज का मौन समर्थन ही नहीं प्राय: प्रोत्साहन मिला। इस संक्रामक रोग से मानवता अब तक नहीं उबर पाई है और इसका आक्रमण विविध रूपों में होता ही रहता है। भारतीय समाज तो इसके लिए सबसे ऊर्वर जमीन साबित होता रहा है।
प्रचार-प्रदर्शन प्रभावी राजनीतिक उपकरण : फासीवाद ने मिथ्या प्रचार और भ्रामक प्रदर्शनों का अभूतपूर्व इस्तेमाल किया और तब से ऐसा प्रचार-प्रदर्शन राजनीतिक संगठनों का प्रिय हथकंडा बन गया है। वैसे तो समाज को मुट्ठी में रखने के लिए इतिहास के प्रारंभिक काल से ही शासकों ने प्रदर्शन और प्रतीकों का भरपूर इस्तेमाल किया है। सिंहासन, शासन-दंड, विशेष वस्त्राभूषण, विशेष भव्य आयोजन का इस्तेमाल आदिम काल से आज के गणतंत्र दिवस के परेडों तक होता ही रहा है। पर फासीवाद ने विज्ञान और मनोविज्ञान का इस काम के लिए अप्रत्याशित और अभूतपूर्व इस्तेमाल किया। हिटलर के प्रचार तंत्र गोएबल्स ने मिथ्या को मिथकीय और गाथात्मक गरिमा प्रदान कर दी। उसका कथन मुहावरा बन गया कि अगर झूठ को सौ बार दोहराया जाए तो वह सत्य बन जाता है।
फासिस्टों ने प्रदर्शनों और जनसभाओं में तामझाम, गाजे-बाजे-ग्लैमर का आकर्षक और प्रभावी प्रयोग करना शुरू किया। नाटकीय वक्तृता में हिटलर बेजोड़ साबित हुआ। शक्ति-प्रदर्शन के लिए, झंडों-पताकों, बाजे-गाजे, मार्च-परेड आदि के साथ विरोधियों, संभावित-विरोधियों और शत्रुओं की पिटाई से हत्या तक का बेहिचक प्रयोग होने लगा। प्रदर्शन की ऐसी तकनीकों की तात्कालिक प्रभाविता ने जनता को आकर्षित और लामबंद करने में ऐसी सफलता प्राप्त की कि अब तो सभी राजनीतिक और धार्मिक संगठन इन फासीवादी उपकराणों का ¹ुलेआम इस्तेमाल करने लगे हैं।
अवसरवादी विचारधारा : फासीवादी व्यवहार तो काफी गोचर और उजागर हो गया है पर यही ढोल में पोल फासीवादी सिध्दांत और विचारधारा पर भी लागू होता है। रोजे बूर्दरों ने तो दो टूक कहा है कि फासीवाद की कोई विचारधारा नहीं थी। हर जगह अवसरवादिता व्याप्त थी।
उदाहरण के लिए कम्युनिज्म पर सबसे बड़ा हमला फासीवाद ने ही किया है पर उसके बहुत से उपकरणों और लाक्षणिकताओं का मुसोलिनी और हिटलर ने बाकायदा और भरपूर इस्तेमाल किया। समाजवाद में समानता पर जोर को अपने अनुयायियों की भ्रामक और भावनात्मक समानता को प्रतिपादित करने में किया गया। कभी-कभी धनिकों और पूंजीवाद की विलासिता और आत्मकेंद्रिता की आलोचना भी की जाती। वर्ग संघर्ष और द्वंद्वात्मकता को नकारने के लिए सभी को महत्वपूर्ण करार दिया गया हालांकि जर्मन मेहनतकश का भी पूर्ववत शोषण-उत्पीड़न-दमन जारी रहा।
राष्ट्रवाद एकांतिक धारणा हैएकोऽहं द्वितीयो नास्ति। फासीवाद में तो एकदम अभिनव प्रयोग किया गया जिसमें दो भिन्न श्रेणियों का एक भ्रामक मिश्रण राष्ट्रीय समाजवाद तैयार किया गया। हिटलर ने अपनी पार्टी का नाम 'नेशनल सोशलिस्ट' पार्टी र¹ा जिसका लोकप्रिय नाम नात्सी पार्टी प्रचारित हुआ। इसमें एक निहित अंतर्विरोध थासमाज राष्ट्रवादी और राष्ट्रवाद समाजवादी हो ही नहीं सकता।
फासीवादी संस्कृति : फासीवाद ने एक संस्कृति का प्रतिपादन और प्रचार प्रसार किया जिसमें सारत: एक पिछड़ापन और अपरिपक्वता निहित थी। उसकी प्रकृति पितृसत्तावादी और सर्वसत्तावादी थी। उसमें नकारात्मकता और निषेध पर अधिक बल था। सकारात्मकता और सृजनशीलता उसके लिए मानो विजातीय थे। तभी तो फासीवाद ने कोई सच्चा विचारक, साहित्यकार और कलाकार नहीं पैदा
किया जिसका कोई स्थायी महत्व हो। आज भी फासीवादियों और कट्टरपंथियों की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि उसके पास सर्जक नहीं है। वह सर्जकों की नहीं विध्वंसकों की ही लामबंदी कर पाता है। फासीवाद में श्रेष्ठता पर इतना बल है कि सामान्यता हेय मानी जाती है। नारी और सामान्य जन फासीवाद में उपेक्षित ही नहीं तिरस्कृत होते हैंभले ही उनका 'मां' और 'गृहलक्ष्मी' और राष्ट्रभक्त के रूप में मिथ्या और भ्रामक गौरवान्वयन किया जाता हो। कुछ बड़े लोगों ने विभिन्न कारणों से फासीवाद का पल्ला पकड़ा भी तो उनका पराभव और पतन ही हुआ जैसे विख्यात अंग्रेजी के कवि एजरा पाउंड का।
फासीवाद ने नैतिकता और सौंदर्यबोध की अपनी ही धारणा प्रस्तुत की जो कुछ शीर्ष-शासक के हितपोषी होने के कारण सर्वजन को कौन कहे बहुजन हिताय भी नहीं हो सकती थी। नेता में ऐहिक ईश्वरस्थ आरोपित होने के कारण कुछ बेहद सतही और छिछला था और है और उसका वास्तव में कल्याणकारी या शुभकारी प्रभाव पड़ ही नहीं सकता।
मानव इतिहास में तो भी विचार और संस्थाएं विकसित हुए हैं बाद में वे कितने ही नकारात्मक सिध्द हुए हों, उनका देश-काल विशेष में कोई न कोई योगदान रहा ही है। यहां तक कि धर्म और ईश्वर के आलोचक भी मानेंगे कि एक समय में उनकी मानव समाज को आगे बढ़ाने में एक निश्चित भूमिका थी। परंतु फासीवाद ने ऐसे विचारों और संस्थाओं को जन्म दिया जो हमेशा ही सारत: नकारात्मक ही रहे। कोई बजिद हो या फासीवाद में सकारात्मकता ढूंढ़ने के लिए और कहे कि फासीवाद देश समाज को अनुशासित करता है (जैसे आपातकाल में भारत हुआ था?), उत्पादन बढ़ जाता है, देश की उपलब्धियां बढ़ जाती हैं और उसकी शक्ति का सम्मान बढ़ता है, तो इसका एक ही जवाब हो सकता हैपागलपन में भी यह सकारात्मक है कि पागल व्यक्ति बहुत शक्तिशाली हो जाता है। पर क्या ऐसी शक्ति, बेफिक्री और मस्ती वांछनीय कही जा सकती है?
फासीवाद की उपर्युक्त लाक्षणिकताएं एक साथ सत्तासीन होने पर उजागर हो गई थीं। परंतु वास्तविकता यह है कि इटली, जर्मनी, स्पेन और जापान में सत्ताच्युत होने के पहले, और बाद में भी, सारे संसार में व्यक्तियों, संगठनों और राज्यों में इनमें से कुछ फासीवादी प्रवृत्तियां और लाक्षणिकताएं परिलक्षित होती रही हैं।
उदाहरण के लिए हम भारत के आधुनिक इतिहास पर विहंगम दृष्टि भी डालें तो उन्नीसवीं सदी के नवजागरण के दौरान और बीसवीं सदी में भी ऐसे विचारों और संस्थाओं का प्रादुर्भाव हुआ जो एक जाति या धर्म को श्रेष्ठकभी-कभी सर्वश्रेष्ठ मान कर ही अपना ताना-बाना बुनते रहे हैं। वे इतिहास को तोड़-मोड़ कर भी अपनी बात को ही सही साबित करते रहे हैं। वे एक ऐसा अतीत प्रस्तुत करते हैं जिसमें उनकी श्रेष्ठता चरितार्थ थी और एक भविष्य की कल्पना करते हैं जब फिर ऐसा होगा। ऐसी परिकल्पित सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था के नाम पर वे तात्कालिक रूप से अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं। इसका राजनीतिक लाभ भी उठाया जाता रहा है। एक परिकल्पित साध्य के लिए कोई भी साधन उपयुक्त करार दिया जाता रहा है।
फासीवाद संकीर्ण निहित स्वार्थों को बहुत सूट करता है और कभी-कभी सत्ता पाने या उसे बनाए र¹ने का एक मात्र तरीका बन जाता है। भारतीय उपमहाद्वीप में पाकिस्तान और बांग्लादेश में तो विकृतियों की बाढ़ आती रहती है पर दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र घोषित कर इतराने वालों में सर्वोपरि जवाहरलाल नेहरू की बेटी ने ही केवल अपनी सत्ता बचाने के लिए देश पर आपातकाल थोप दिया था। फासीवाद का सबसे उजागर रूप 'इंदिरा भारत है और भारत इंदिरा' के नारे के साथ प्रतिपादित कर दिया गया थाऔर इस श्रेष्ठता को समाज के श्रेष्ठ कहे जाने वाले बहुत से बुध्दिजीवियों-साहित्यकारों-कलाकारों-वामपंथियों की भी सहभागिता और मौन समर्थन प्राप्त थी। यह प्रवृत्ति बाद में भी जारी रही है। सभी पार्टियों ने सत्ता में आने पर कोई न कोई फासीवादी कानून पास किए हैं और विरोधियों का दमन किया है।
फासीवादी तरीके क्रामवेल और चैंबरलेन के इंगलैंड, थिओडोर रूजवेल्ट और बुश के अमरीका, पेटै और द गाल के फ्रांस, स्तालिन के रूस, पोलपोत के कंबोडिया और इजराइल और भारत की सभी सरकारों द्वारा अपनाए जाते रहे हैं। फासीवाद के उसी रूप को मानक नहीं मानना चाहिए जिसे मुसोलिनी और हिटलर ने अपनाया था।
रोजे बूर्दरों की किताब की ¹ास बात यह है कि उसमें फासीवाद की मूल प्रवृत्ति और प्रकृति को चिह्नित करने के साथ-साथ उसके सिध्दांत और व्यवहार में अलग-अलग देशों में आई भिन्नता पर भी गौर किया है। इससे हमें दिशा मिलती है कि हम अपने देश-काल की फासीवादी व्यवहारों की पहचान कर सकें। इटली, जर्मनी और स्पेन में क्रमश: फासीवाद, नात्सीवाद और फालांजवाद भिन्न स्थितियों में विकसित और सत्तासीन हुआ और इसलिए उनकी अपनी विशिष्टताओं को चिह्नित किया गया है।
फासीवाद का सबसे उत्कट-बर्बर-विध्वंसक रूप जर्मनी में उजागर हुआ। इसका कारण यह था कि यूरोप में सबसे संभावना संपन्न क्षेत्र होते हुए भी जर्मनी एक देश नहीं था। सोलहवीं सदी में ही मार्टिन लूथर ने रोमन कैथोलिक चर्च के विरुध्द धर्म सुधार के साथ-साथ पवित्र रोमन साम्राज्य के विरुध्द राष्ट्रवाद का भी आह्वान किया था। पर वहां आंतरिक विभाजन और कलह और बाहरी हस्तक्षेप के कारण राष्ट्रीय एकीकरण संभव नहीं हो पा रहा था। जो यथार्थ में संभव नहीं हो पा रहा था वह विचारों और आदर्शों में प्रतिपादित हो रहा था। नीत्शे द्वारा प्रतिपादित सुपरमैन की धारणा जर्मन सामूहिक अवचेतन में एक वांछित प्रतीक और लालच के रूप में स्थापित हो गया था। फ्रांसीसी क्रांति के विचारों का जर्मनी में व्यापक स्वागत हुआ था पर जब नेपोलियन ने सारे जर्मन क्षेत्र को रौंद डाला तो प्रतिकार में प्रशा में पुनरुत्थान हुआ और जर्मन एकीकरण संभव लगने लगा था। पर 1848 की क्रांतियों के दमन ने जर्मन क्षेत्र में जनवादी शक्तियों को हताश कर दिया पर प्रशा के पूंजीवादी विकास ने ऊपर से राष्ट्रीय एकीकरण हासिल करना शुरू किया। प्रशा के चांसलर बिस्मार्क के नेतृत्व में तीन युध्दों के बाद जर्मनी एकीकृत हुआ पर जर्मन श्रेष्ठता को स्थापित और जारी र¹ने के लिए अपनाई गई उसकी षडयंत्रात्मक नीति ने यूरोप में शीतयुध्द शुरू कर दिया था। एकीकरण के बाद 30 वर्षों में वह प्रगति कर लेने के बाद, जिसे इंगलैंड और फ्रांस ने 300 वर्षों में हासिल किया था, जर्मनी ने विश्व रणनीति (ङ्खद्गद्यद्य-श्चशद्यद्बह्लद्बष्) शुरू कर दी थी जो प्रथम विश्वयुध्द तक ले गई।
ब्रिटेन ने आह्वान किया कि इस विश्वयुध्द को 'युध्दों का अंत' करने वाला युध्द होना चाहिए। अंतत: युध्दों का अंत करने वाले युध्द का अंत हुआ पर शुरू हुई ऐसी शांति जिसने शांति का अंत कर दिया। वास्तव में यही हुआ। जर्मनी को इतना अपमानित और दंडित किया गया कि जर्मन लोगों के लिए बर्साई की संधि से मुक्ति राष्ट्रीय सपना बन गया। हताश जर्मनी में हिटलर ऐसा फासीवाद लेकर आया जो जर्मनी में आशा और आत्मविश्वास का संचार कर गया। नात्सीवाद ने नस्लवाद को एक 'सर्जिकल ऑपरेशन' की तरह इस्तेमाल किया और यहूदी कैंसर को काट फेंकना जर्मनी को रोगमुक्त करने के लिए अनिवार्य निदान की तरह पेश किया गया और स्वीकार लिया गया एक अतिवादी रोग का अतिवादी निदान।
जर्मनी में फासीवाद ने सारी सीमाएं तोड़ दीं। वहां एक ऐसा अमानवीय तंत्र सफल दीखने लगा जिसने सारी मानवी उपलब्धियों पर मानव-सभ्यता और संस्कृति पर प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया। यह एक ऐसा प्रश्न बन गया है जो इतिहास का सबसे ज्वलंत प्रश्न बना हुआ है आज भी क्योंकि फासीवाद आज भले ही कहीं पूरी तरह सत्तासीन न हो पर वह प्रवृत्ति के रूप में हर कहीं प्रभावी उपकरण के रूप में स्वीकृत और उपयुक्त होता रहा है।
इटली में फासीवाद इसलिए सफल हुआ कि वहां कहा गया कि जर्मनी पराजित होने के बाद जितना तिरस्कृत और अपमानित है इटली तो विजेताओं का साथ देने के बावजूद उतना ही तिरस्कृत है। वहां इटली अभी अपूर्ण है (ढ्ढह्लड्डद्यद्बड्ड द्बह्मह्मद्गस्रड्डह्वह्लड्ड) का नारा उसी तरह कुछ लोगों को प्रभावित करता था जैसे भारत में आज भी '¥¹¢ड भारत' का नारा। वहां उत्तरी इटली की समृध्दि और सिसली की दरिद्रता में इतना असंतुलन था कि 'तर्क से अधिक कारगर चाकू था।' सामंतवाद, विघटन और रूढ़िवादी धर्म (कैथोलिक चर्च) से ग्रस्त इटली में जनतंत्र जड़ नहीं जमा सका था। ऐसे में मुसोलिनी की बात 'फासीवाद का मतलब है अपने को गंभीरता से लेना' काफी कारगर साबित हुई। वह स्वयं समाजवादी रहा था। उसने अपने मोहभंग को राष्ट्रीय मोहभंग बना दिया।
स्पेन आधुनिक काल के प्रारंभ में सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। पर पूंजीवादी विकास न होने के कारण वहां सामंतवाद फूलता-फलता रहा और लातिन अमरीका में फैला साम्राज्य कामधेनु की तरह स्पेन की आवश्यकताएं पूरी करता रहा। एक परजीवी समाज से क्षरण और तेज हो गया जब उन्नीसवीं सदी में अमरीकी उपनिवेश एक-एक करके आजाद हो गए। फिर भी यूरोप के प्रभाव और कुछ क्षेत्रों के थोड़े औद्योगिक विकास के बाद वहां आधुनिक जनतंत्र अंगड़ाई लेने लगा तो उसका काफी विरोध हुआ। प्रथम विश्वयुध्द के बाद वहां पहली बार एक जनतांत्रिक सरकार चुनी गई। अब तो सारी रूढ़िवादी शक्तियां चर्च-सामंत-सेना एक हो गए और जनरल फ्रांको को आगे करके उन्होंने गृहयुध्द छेड़ दिया। यहां फ्रांको ने एक पिछड़े समाज का फासीवाद विकसित किया।
इस तुलनात्मक पध्दति के कारण फासीवाद की उन संभावनाओं की ओर भी इशारा है जो आज अलग-अलग परिस्थितियों में उजागर हो सकती हैं।
भारत की स्थिति बहुत विडंबनापूर्ण है। एक ओर यहां अनेक समस्याओं के बावजूद जनतंत्र कायम है और कई बार लगता है कि उसकी जड़ें फैल रही हैं। पर कई बार ऐसा भी लगता है कि जनतंत्र के वाहक ही उसके सबसे बड़े विध्वंसक भी हैं। समाज में जिस तरह विघटन और भ्रष्टाचार बढ़ रहा है और राज्यतंत्र कमजोर साबित हो रहा है, लोग अपनी भी अंग्रेजों के 'राज' या आपातकाल के प्रति 'नॉस्टैलजिक' होते लगते हैं। ऐसी स्थिति फासीवाद के आविर्भाव के लिए ऊर्वर साबित हो सकती है। एक मजबूत राज्य की चाहत और वकालत फासीवाद के लिए चोर दरवाजा खोल सकती है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि इटली और जर्मनी में फासीवाद और भारत में आपातकाल पार्लियामेंट के रास्ते ही आया था। इसीलिए खास तौर में भारतवर्ष में फासीवाद की बेहतर और व्यापक समझ जरूरी है।
( निम्नलिखित किताब की भूमिका से)
फासीवाद : सिद्धांत और व्यवहार
लेखक- रोजे बूर्दरों
प्रकाशक- ग्रंथ शिल्पी, बी-7,सरस्वती काम्प्लेक्स,सुभाष चौक,लक्ष्मी नगर,दिल्ली-110092
मूल्य -275
अनुवादक- लाल बहादुर वर्मा
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