कार्ल मार्क्स का मानना था कि जो विचार जीवन में खरा उतरे उसे मानना चाहिए। विचार की कसौटी जीवन है विचार नहीं। यह बात मार्क्सवाद पर भी लागू होती है मार्क्सवाद के अनेक विचार जीवन पर खरे साबित नहीं हुए हैं। व्यवहार में जिस विचार को सही सिद्ध नहीं किया जा सके तो उसे त्यागने में कोई असुविधा नहीं है। उत्तर आधुनिकों के जितने भी भारतीय संस्करण प्रचलन में हैं उनमें से ज्यादातर विचार जीवन की कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं।
स्वतंत्र भारत में उत्तर आधुनिक विचारधारात्मक प्रयोगों का बड़ा जखीरा फैला हुआ है। इस जखीरे का मूल्यांकन करने की जरूरत है। मार्क्सवाद को सर्वसत्तावादी और जनविरोधी विचारधारा के रूप में चित्रित करने में उत्तर आधुनिकों ने विगत 40 सालों में एड़ी-चोटी का पसीना एक किया है। वे किसी भी किस्म का सार्थक विकल्प किसी भी क्षेत्र में पेश नहीं कर पाए हैं।
मसलन उत्तर आधुनिकों के द्वारा भाषावार राज्यों के निर्माण के विरोध के सवाल को ही लें और उनके द्वारा छोटे राज्यों के गठन के तर्क और अनुभव पर गौर करें तो छोटे राज्यों की निरर्थकता समझ में आ जाएगी। भाषावार राज्यों के गठन के कारण सामाजिक स्थायित्व,बहुलतावाद का विकास, अल्पसंख्यक भाषायी समूहों और बहुसंख्यक भाषायी समूहों के बीच सदभाव बहुत बड़ी उपलब्धि है। साथ ही व्यक्ति को पहचान के पुराने अप्रसंगिक रूपों से मुक्ति दिलाने और आधुनिक अस्मिता का निर्माण करने में भाषावार राज्यों के गठन से मदद मिली है।
एक भाषा-भाषी समूहों को मिलाकर राज्य की परिकल्पना को हमने यदि उसके संतुलित आर्थिक विकास के साथ जोड़कर देखा होता,संतुलित आर्थिक विकास के प्रयास किए होते तो मामला कुछ और होता। कांग्रेस ने भाषावार राज्यों का गठन ते किया लेकिन आर्थिक विकास का संतुलित मार्ग नहीं चुना। यही वजह है कि चारों ओर आर्थिक वैषम्य खड़ा हुआ है। इस आर्थिक वैषम्य को बहाना बनाकर भाषावार राज्यों के बुनियादी आधार को ही चुनौती दे दी। हिन्दीभाषी क्षेत्र में तीन नए राज्य इनसे यू.पी.,बिहार और मध्यप्रदेश का विभाजन करके बना दिए गए। लेकिन राज्यों के आर्थिक विकास की समस्या के समाधान की ओर हम एक कदम आगे भी नहीं जा पाए हैं। इन राज्यों में भाषायी टकराव और भी गंभीर रूप ग्रहण कर चुका है।
स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी हटाओ हिन्दी लाओ का आंदोलन आरंभ करने वाले भू.पू.समाजवादी विचारकों का विचार एक जमाने में सबसे आकर्षक उत्तर आधुनिक विचार था। इस विचार के कारण भाषाओं के प्रति अतार्किक समझ का प्रसार हुआ,भाषाओं के प्रति, शिक्षा संस्थानों और बाजार में भाषायी व्यवहार को लेकर सबसे ज्यादा बेबकूफियां देखी गयीं। इस समूची प्रक्रिया में देशी भाषाएं कमजोर हुईं। भाषाओं का सामाजिक आधार कमजोर हुआ।
सभी भाषाएं और बोलियां समान हैं और सभी के विकास के लिए समान अवसर प्दान करने चाहिए। भाषा की प्रासंगिकता का फैसला सिरों की गिनती के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए। कम या ज्यादा लोगों के प्रयोग के आधार पर भाषाओं का संरक्षण और विकास नहीं किया जा सकता। जिस भाषा को एक हजार लोग बोलते हैं उसकी उतनी ही महत्ता और उपयोगिता है जितनी पचास करोड़ं लोगों के द्वारा बोली जाने वाली भाषा की है।
किसी भाषा विशेष को अतिरिक्त महत्व देने भाषायी संतुलन खतरे में पड़ सकता है। खड़ी बोली हिन्दी की हिमायत के चक्कर में हिन्दीभाषी क्षेत्र की अन्य भाषाओं और बोलियों की उपेक्षा हुई है और उसका ही परिणाम है भाषावार राज्यों के गठन का विरोध करने वाला सिद्धान्त।
पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष में भाषाएं हमारी सामाजिक एकता को मजबूत बना सकती थीं,लेकिन भाषाओं के आपसी संघर्ष को हवा देकर हमने पूंजीवाद विरोधी साझा मोर्चा तोड़ दिया। किसी भी तरह पूंजीवाद के खिलाफ व्यापक मोर्चा नहीं बने यही पूंजीपतिवर्ग चाहता है और उसे अपने इस लक्ष्य को हासिल करने में सफलता मिली है। दूसरी बात यह कि पूंजीपतिवर्ग और उनके दलों का भाषाप्रेम खोखला होता है उसका भाषायी वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। इसके विपरीत भाषा विशेष से प्रेम करने या तरक्की देने की आड़ में पूंजीपतिवर्ग भाषाओं की हत्या करता रहा है। भाषाओं को मारता रहा है। पूंजीवाद में भाषाओं की मौत धड़ाधड़ हो रही है,इसके विपरीत समाजवादी देशों में भाषाओं को जिंदा किया गया उन्हें शक्तिशाली बनाया गया। सोवियत संघ में समाजवादी व्यवस्था आने के बाद पचासों मृतप्राय भाषाओं को जिंदा किया गया जबकि किसी भी पूंजीवादी देश में जिंदा भाषा धीरे-धीरे मुर्दाभाषा में तब्दील होने लगती हैं। भारत इसका साक्षात प्रमाण है।
एलेन मिकसिंस वुड ने ‘उत्तर आधुनिक एजेण्डा क्या है’ निबंध में लिखा ‘पूंजीवादी व्यवस्था के विरोध के लिए हमें उन हितों और संसाधनों को एकजुट करने की आवश्यकता है जो पूंजीवाद विरोधी संघर्ष को जोड़ते हैं न कि इसे विखंडित करते हों। पहली दृष्टि में तो ये वर्ग के हित और संसाधन हैं। वर्ग एक मात्र सर्वाधिक सार्वभौम शक्ति है जो विविध मुक्तिकारी संघर्षों को जोड़ने में सक्षम है। लेकिन अंतिम विश्लेषण में हम अपनी मानवता के सामान्य हितों और संसाधनों की बात कर रहे हैं और वह भी इस विश्वास के साथ कि हमारे नानाविध विभेदों के बावजूद मानव कल्याण तथा आत्म-परितोष की कुछ मौलिक तथा अपरिवर्तनीय रूप से सामान्य स्थितियां हैं, जिन्हें पूंजीवाद संतुष्ट नहीं कर सकता लेकिन समाजवाद कर सकता है।’
उत्तर आधुनिकतावाद के प्रति आकर्षण का प्रधान कारण है इसका प्रतीयमान खुलापन। हमें सोचना चाहिए क्या विगत 40 सालों में सामाजिक खुलेपन का विस्तार हुआ है या पहले की तुलना में और भी ज्यादा कंजरवेटिव बने हैं ? अपने चारों ओर के विश्व परिदृश्य पर नजर डालें तो पाएंगे कि समाज में खुलापन घटा है। पारदर्शिता घटी है, उदारता, सहिष्णुता,सामंजस्य,सद्भाव आदि घटे हैं। अन्य के प्रति हमदर्दी,संवेदनशीलता घटी है। निहित स्वार्थ,परजीवीपन,कूपमंडूकता,अंधविश्वास आदि में इजाफा हुआ है। ज्ञान में कमी आयी है। भाषाएं मरी हैं। विचारधारात्मक और धार्मिक कठमुल्लापन बढ़ा है। धार्मिक सद्भाव कम हुआ है। मौलिक अच्छी बातों से हम दूर होते चले गए हैं। ये सभी चीजें उत्तर आधुनिकता की तर्कहीनता को समाने लाती हैं।
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