मंगलवार, 29 जून 2010

पोस्टमॉडर्न में 'पोस्ट ' और 'मॉडर्न' के खेल



           उत्तर - आधुनिकता को समझने के लिए वृद्ध पूंजीवाद की सही समझ होना बेहद जरुरी है। हिन्दी के अधिकांश बुध्दिजीवी इसका अमूमन उपहास उड़ाते रहते हैं।ये ऐसे बुध्दिजीवी हैं जो अभी तक सामंती खोल से बाहर नहीं निकल पाए हैं। इनका जीवन और साहित्य को लेकर सामंती रवैय्या है। ज्ञान के स्तर पर पूंजीवाद की आधी - अधूरी समझ को मुकम्मल समझ कहते हैं। पिछड़ेपन का आलम यह है कि ये अपने ज्ञान को सही और अन्य के ज्ञान को गलत मानते हैं। हर विषय पर वगैर जाने लिखना और उसे लेकर अहंकार में डूबे रहना , अपने ही हाथों अपनी पीठ ठोकना,ज्ञान के पुस्तकीय एवं शोधपरक कार्यों की उपेक्षा करना, मौलिक लेखन और मौलिक ज्ञान के नाम पर ' कॉमनसेंस ' की बातों की पुनरावृत्ति करना, संदर्भों को छिपाना आदि।
            
        उत्तर - आधुनिकतावाद पदबंध की यह सीमा है कि इसकी कोई स्वतंत्र पहचान नहीं है। इस पर की गयी बहस किसी न किसी रुप में आधुनिकतावाद से जुड़ती है। ' 'उत्तर' का वास्तव में क्या अर्थ है इसकी संतोषजनक व्याख्या नहीं मिलती । मसलन्, 'मॉडर्न' का संबंध वर्तमान से है तो 'पोस्ट मॉडर्न' का संबंध भविष्य से होगा। इस दृष्टि से 'पोस्ट मॉडर्न' साहित्य वह होगा जिसका भविष्य से संबंध है। ब्रैन मैक हॉल ने ''पोस्ट मॉडर्निस्ट फिक्शन'' में लिखा 'पोस्ट मॉडर्न' का अर्थ है ऐसी वस्तु का संदर्भ जो मौजूद नहीं है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में उत्तर-आधुनिकतावाद पर विचार करें तो पाएंगे डिक हिंगिस ने '' ए डायलेक्टिक ऑफ सेंचुरी''[1978]मेंअंग्रेज चित्रकार जॉन वाटकिंस कैपमैन के बारे में लिखा कि उसने सन्1870 में 'पोस्ट मॉडर्न पेंण्टिग' पदबंध का सबसे पहले प्रयोग किया। 
         सन् 1917 में लिखित रुडोल्फ पान्नविट्ज ने '' दि क्राइसिस इन यूरोपीयन कल्चर '' में 'उत्तर- आधुनिक' पदबंध का सैन्यवादी, राष्ट्रवादी,अभिजात मूल्यों की व्याख्या के संदर्भ में प्रयोग किया। बाद में यह प्रवृत्ति फासिज्म में प्रकट हुई। ब्रिटिश इतिहासकार अर्नाल्ड टायन्वी ने ''ए स्टैडी ऑफ हिस्ट्री'[1947]एवं डी.सी. सॉमरवेल की कृतियों में 'उत्तर-आधुनिक' का प्रारम्भ सन् 1875 से माना गया है। जबकि अमरीकी चिन्तन में सन् 1950 के बाद इस पदबंध का प्रयोग मिलता है। 
        बर्नार्ड रोजेनबर्ग ने 'मासकल्चर'[1957]में मास सोसायटी की व्याख्या 'उत्तर -आधुनिक' पदबंध के तहत की है। अर्थशास्त्री पीटर डुकर की एक रिपोर्ट '' दि लैण्ड मार्क्स ऑफ टुमारो ''[1957]में ' ए रिपोर्ट ऑन दि न्यू पोस्टमॉडर्न वर्ल्ड ' शीर्षक से उप अध्याय है। इसी तरह सी. ब्राईट मिल्स ने ''दि सोशियोलॉजिकल इमेजिनेशन''[1959] में बताया है कि इस युग में आधुनिक युग की जगह उत्तर -आधुनिक युग ने ले ली है। उत्तर- आधुनिक विद्वानों की राय है कि सामयिक समाज उच्च प्रौद्यौगिकी और सूचना प्रणाली के अत्याधुनिक रुपों के विकास के कारण तेजी से बदल रहा है।
       ल्योतार की कृति '' पोस्ट मॉडर्न कण्डीशंस ''[1984] में लिखा कि उत्तर - आधुनिकतावाद का तीन कारणों से वैशिष्ट्य है ,पहला- सौन्दर्यात्मक अर्थ में,यहां वह आधुनिकतावाद से संबंध तोड़ता है। यह विघटन कला ,स्थापत्य ,साहित्य ,चित्रकला में विशेष रुप से दिखाई देता है। दूसरा -कला,विज्ञान एवं तकनीकी के संदर्भ में प्रगति ,स्वतंत्रता का विस्तार ,मानवतावाद आदि प्रासंगिक नहीं रह गए हैं।
          ' आधुनिक' ने सार्वभौम मुक्ति की जो बात कही थी,वह आज संभव नहीं है। हमारी परिस्थितियां बिगड़ रही हैं।इसका कारण है ''तकनीकी विज्ञानों का विकास ।''यह परिस्थितियों को बिगाड़ रहा है। यह विकास हमारी परेशानियों को दूर नहीं कर रहा , बल्कि जटिलता के प्रति अस्थिर कर रहा है।यह हमारी जरूरतों और सामाजिक विकास से असंबध्द है। तीसरा- बुध्दिजीवियों की संस्थागत भूमिका का क्षय ,प्रगति एवं मुक्ति के आख्यान का क्षय ,सुरक्षित जगह और प्क्ष का अभाव, प्रतिरोध की राजनीति का उदय,आलोचना और विरोध की संभावनाओं को बनाए रखने की कोशिश। उत्तर- आधुनिकों में ल्योतार की यह रिपोर्ट आप्त वाक्य के रुप में स्वीकृति प्राप्त है। यह रिपोर्ट वृध्द पूंजीवाद की व्याख्या का गंभीर प्रयास है।
          इस रिपोर्ट की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसमें पूंजीपति वर्ग के शोषक चरित्र को छिपाया गया है। पूंजीवादी व्यवस्था और पूंजीपति वर्ग के शोषण से कैसे मुक्ति प्राप्त करें ?पूंजीवादी व्यवस्था का कारगर विकल्प क्या है ?बुर्ज़ुआ विचारधारा का क्या विकल्प है ?आधुनिक समाज के बुनियादी अन्तर्विरोध क्या हैं ?और उन्हें कैसे हल करें इत्यादि प्रश्नों की उपेक्षा की गयी है।
       इहाव हसन ने ''दि कल्चर ऑफ पोस्ट मॉडर्निज्म''[1985]में लिखा कि साहित्य में सबसे पहले इस पदबंध का प्रयोग स्पेनिश विद्वान् फेद्रिको दे ओनिस ने किया था। उसने सन् 1930 में इर्विंग हॉव,हेरी लेविन और लेसिली फील्डर की आलोचना के प्रसंग में इस पदबंध का प्रयोग किया था। सन् 1940-50 के दौरान स्थापत्य और कविता के मूल्यांकन के क्षेत्र में उत्तर- आधुनिक दृष्टिकोण का विकास हुआ। सत्तर के दशक में संस्कृति के क्षेत्र में उत्तर-आधुनिक मानदंडों का प्रयोग हुआ।
       उत्तर - आधुनिकता से असहमत होना संभव है। किन्तु उसके प्रभाव से बचना असंभव है। उसने हमारे रवैय्ये, एटीटयूट्स,संस्कार,जीवन शैली और दृष्टिकोण को प्रभावित किया है। उन्हें बदला है।इस क्रम में पूंजीवाद की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में छलांग लगा चुके हैं। इस छलांग के कारण रैनेसां और औद्योगिक क्रान्ति के परिप्रेक्ष्य में निर्मित विचारों की शक्ति चुकी हुई नज़र आने लगी है। आधुनिकता के सवाल बेअसर लगने लगे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है ? आधुनिकतावादी -विमर्श या शास्त्रीय विमर्श इसके कारणों को अभी तक उद्धाटित नहीं कर पाया है। इन परिवर्तनों के संतोषजनक उत्तर न तो आधुनिकतावादियों के पास हैं और न उत्तर- आधुनिकतावादियों के पास हैं।


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