यह सामाजिक संबंधों के अंत का दौर है। नए किस्म के सामाजिक संसार की सृष्टि सोशल नेटवर्किंग साइट पर हो रही है। एक सर्वे में अनुमान व्यक्त किया गया है कि सन् 2014 तक इंटरनेट पर सोशल नेटवर्क का आकार कल्पना के दायरों का अतिक्रमण कर जाएगा। सोशल नेटवर्क के बढ़ने से सामाजिक समुदायों के बीच पुख्ता संबंधों की संभावनाओं को व्यक्त किया जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि इससे समाज में आस्था मजबूत होगी।
उल्लेखनीय है पूंजीवाद की विकास प्रक्रिया ने सामाजिक आस्थाओं को कमजोर किया है। उम्मीद की जा रही है कि सोशल नेटवर्क के विकास से सामाजिक आस्थाएं लौटेंगी। व्यक्तिगत समस्याओं,नौकरी,सूचना के बेरीफिकेशन,साझा हितों और वस्तुओं का उपभोग बढ़ेगा।
‘पेव’ सर्वे के उपरोक्त निष्कर्षों से 39 फीसदी लोग सहमत हैं, 20 फीसदी लोग असहमत हैं, और 27 फीसदी ने उपरोक्त राय को चुनौती दी है। जबकि 15 फीसदी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है। यह सर्वे 1,286 अमेरिकियों में सन् 2004 में किया गया था।
इस सर्वे में जिस बात का अनुमान किया गया था वह सही साबित नहीं हुआ। लेकिन एक तथ्य साफ है कि 2004 से लेकर 2010 के बीच में सामाजिक आस्था में गिरावट आयी है। आर्थिक मंदी ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है। मंदी का पूर्वानुमान लगाने में इंटरनेट और कारपोरेट मीडिया असफल रहा है। आज अमेरिका में बेकारी चरमोत्कर्ष पर है।
सोशल नेटवर्क के बृहत्तर संगठन हैं। किंतु इनमें से ज्यादातर के संबंध हल्के और चलताऊ मूल्यों पर टिके हैं। सोशल नेटवर्क के लोगों के संबंधों में विश्वास का अभाव है। सोशल नेटवर्क में ज्यादातर लोगों का इकसार विचारों के लोगों के बीच संबंध है। ये ऐसे लोगों के समूह हैं जो सहमत हैं। इनमें न्यूनतम असहमति है। ये लोग आपस में ज्यादा से ज्यादा रेडीकल विचारों का आदान-प्रदान करते हैं लेकिन एक-दूसरे पर कम से कम विश्वास करते हैं।
दूसरी बड़ी समस्या यह है कि सोशल नेटवर्क के सदस्यों की सूचनाओं की सहज पुष्टि संभव नहीं है। सोशल नेटवर्क का लक्ष्य लोगों में आपसी विश्वास पैदा करने से ज्यादा माल या वस्तु के प्रति विश्वास पैदा करना है। व्यापारिक विश्वास और संचार पैदा करना इसका प्रधान लक्ष्य है। सोशल नेटवर्क के द्वारा बने संपर्क और संबंधों का सीमित महत्व है,लेकिन इसे व्यक्तिगत संबंधों का विकल्प नहीं बनाया जा सकता।
सोशल नेटवर्क का विस्तार हो रहा है इसका यह अर्थ नहीं है कि सामाजिक संबंधों में आस्था पैदा हो रही है। इंटरनेट पर सभी सूचनाएं विश्वास के लायक नहीं होतीं। नेट पर जितनी वैध सूचनाएं हैं उससे ज्यादा अवैध सूचनाएं हैं। जितने भरोसे के लोग हैं उससे ज्यादा भरोसा लूटने वाले लोग हैं। नेट पर जितना व्यक्तिगत सच है उससे कहीं ज्यादा झूठ फैला हुआ है।
आज समाज में आम लोगों के पास सामाजिक संबंध बनाने के अनेक चैनल हैं,सोशल नेटवर्क उनमें सबसे कमजोर और अविश्वसनीय चैनल है। एक सीमा के बाद सोशल नेटवर्क की कोई उपयोगिता नहीं है। संपर्क और संबंध के जितने ज्यादा स्रोत होंगे उतने ही संशय और संदेह की संभावनाएं भी होंगी। नेट के विभिन्न ऱूप सामाजिक शिरकत की बजाय सामाजिक पलायन को बढ़ावा दे रहे हैं। आप किसी भी व्यक्ति का नेट के माध्यम से आसानी से विश्वास तोड़ सकते हैं। यहां शिरकत वही कर रहे हैं जो एकमत हैं।
इंटरनेट के द्वारा बहुत दूर रहने वाले व्यक्ति के साथ संपर्क रख सकते हैं। तत्काल अपनी बात संप्रेषित कर सकते हैं। अब तक का इंटरनेट अनुभव बताता है कि यह संपर्क का सबसे प्रभावी माध्यम है। इससे हमें ज्ञान संचार के अनेक नए स्रोत भी हाथ लगे हैं।
इंटरनेट से संपर्क बनाने के लिए समय और धैर्य ये दो चीजें होनी चाहिए। नेट के संबंधों को बनाए रखने के लिए इफ़रात में समय खर्च करना पड़ता है। सोशल नेटवर्क से सतही संबंध बनता है। यह नकली संबंध है। वास्तव जीवन में जिन व्यक्तियों से जीवंत संबंध हैं उनसे सोशल नेटवर्क से जरिए संवाद फलदायी हो सकता है। ऐसे लोगों के संबंधों को सोशल नेटवर्क और भी प्रगाढ़ बनाता है।
सोशल नेटवर्क के सभी सदस्य गुणी नहीं होते। अनेक अवगुणी सदस्य भी हैं,शैतान भी हैं। सोशल नेटवर्क के सभी दोस्त मूल्यवान नहीं होते। इस सबके बावजूद सोशल नेटवर्क का दायरा तेजी से फैल रहा है। इसमें विविध किस्म के लोग आ रहे हैं। इससे परंपरागत संप्रेषण और सामाजिक बंधनों की सीमाएं टूट रही हैं। इससे यूजर और भी आलसी बनेगा। सामाजिक शिरकत घटेगी। हम ज्यादा से ज्यादा घर में बैठे रहेंगे। स्थानीय समाज और संस्कृति से बेगानापन बढ़ेगा।
सोशल नेटवर्क वैसे ही है जैसे घर में टेलीफोन। जिस तरह फोन की सीमा है उसी तरह नेटवर्क की भी सीमा है। चाहे वह कितना ही बड़ा हो इसकी भी सीमा है। मानवीय अनुभव में विश्वास धीरे धीरे आता है। उसी तरह आस्था का हमारी सहजजात अनुभूतियों से गहरा संबंध है। अनुभव की कसौटी पर जब कोई सूचना खरी उतरती है तब ही विश्वास होता है।
सोशल नेटवर्क की एक समस्या यह भी है कि इसके अधिकांश सदस्य एक-दूसरे से भूठ बोलते रहते हैं। वे एक ऐसी संस्कृति का हिस्सा हैं जिसे साइबर संस्कृति कहते हैं। साइबर संस्कृति में असत्य की वैसे ही गुंजाइश है जैसे जीवन में। यह काल्पनिक संस्कृति है,इसका वास्तव जगत से कम संबंध है। इसका आधार है वर्चुअल या डिजिटल तकनीक। इस तकनीक का सांस्कृतिक आधार है सत्याभास। इसका परिणाम है ईमानदारी का लोप। वक्ता के एथॉस का लोप।
यह भी संभव है कि असत्य ढ़ंकने के लिए बड़बोलेपन से काम लिया जाए। सत्य को छद्म रूप और छद्म नाम से पेश किया जाए। यह भी संभव है कोई यूजर सत्य ही बोलना चाहे और वास्तव नाम के साथ बोलना चाहे। इस तरह के अन्तर्विरोध के बावजूद सोशल नेटवर्क का विस्तार ही होगा। यह भी संभव है जागरूक लोगों के बीच सोशल नेटवर्क सघन विचारधारात्मक एकता और भाईचारे का प्रभावी माध्यम हो जाए।
कुछ लोगों का मानना है कि ‘सोशल नेटवर्क’ के बहाने ‘सामाजिक संबंधों’ को अपदस्थ किया जा रहा है। ‘नेटवर्क’ में ‘संबंध’ को अपदस्थ करने या उसका विकल्प तैयार करने की क्षमता नहीं है। ‘नेटवर्क’ सिर्फ कनेक्शन है। बेज़ान संपर्क सूत्र है। यहां से ही इसकी शक्ति,सीमा और संभावनाओं के द्वार खुलते हैं। बेज़ान संपर्क सूत्र के जरिए बनने वाले संबंध में प्राणों का संचार करना संभव नहीं है।
जिन लोगों के बीच किसी भी किस्म का पहले से सामाजिक संबंध है उनके लिए तो सोशल नेटवर्क एक अतिरिक्त संपर्क सूत्र हो सकता है। लेकिन जो सीधे सोशल नेटवर्क के जरिए जुड़ रहे हैं,मित्र बन रहे हैं, उनकी दोस्ती वायवीय और काल्पनिक ही होगी। ऐसे संबंध वर्चुअल ही होंगे, इन्हें वास्तव संबंध समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। इस तरह के संबंध में परिवर्तन की क्षमता नहीं है। यह सच है कि सोशल नेटवर्क में हजारों -लाखों लोगों के साथ संपर्क किया जा सकता है,लेकिन एक व्यक्ति कम से कम लोगों से संपर्क करता है। यह वैसे ही है जैसे 400 से ज्यादा टीवी चैनल टीवी में दिखते हैं। लेकिन व्यक्ति 400 चैनल नहीं देखता वह चंद चैनल ही देखता है।
सोशल नेटवर्क के डाटा की सुरक्षा और प्राइवेसी को लेकर खूब हंगामा हो रहा है। कई बार डाटा चोरी की खबरें भी आई हैं। व्यक्तिगज जीवन की सूचनाओं के अपहरण की भी खबरें आई हैं। इनकी चोरी का सीधा घातक असर भी होता है। पहचान से जुड़ी सूचनाओं की चोरी गंभीर क्षति पैदा करती है।
सोशल नेटवर्क का भविष्य में विकास होगा लेकिन विश्वास में विकास नहीं होगा इसके विपरीत विश्वास घटेगा। इंटरनेट पर सूचना प्राप्ति के स्रोत बढ़ जाएंगे। किंतु विश्वासयोग्य सूचना स्रोत नहीं बढ़ेंगे। इसी तरह नेटवर्क बढ़ेगा लेकिन भरोसे के सपर्क उस अनुपात में नहीं बढ़ पाएंगे। इंटरनेट उन लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में असमर्थ है जिनके बीच पहले से ही विश्वसनीय संबंध हैं। जो एक-दूसरे पर भरोसा करते हैं उन्हें इंटरनेट आकर्षित नहीं कर पाया है। खासकर वाचिक सभ्यता ,व्यक्तिगत संबंधों और पुरानी नातेदारी-रिश्तेदारी वाले समाजों में सोशल नेटवर्क की अपील ज्यादा नहीं होगी।
एक अन्य पहलू है जिस पर ध्यान देने की जरूरत है। सोशल नेटवर्क पर बढ़ती भीड़ में एक-दूसरे पर विश्वास का जमना संभव नहीं है। यह भी़ड़ जितना बढ़ेगी निजी विश्वास उतना ही कम होगा। विश्वास कम लोगों में होता है,भीड़ पर विश्वास कोई नहीं करता,भीड़ में सच कोई नहीं बोलता. भीड़ की कोई पहचान नहीं होती। भीड़ में पहचान गुम हो जाती है। हजारों की सदस्यता वाले सोशल नेटवर्क में निजी पहचान बचाए रखना संभव नहीं है ,वहां प्राइवेसी को भी बचाना संभव नहीं है। सोशल नेटवर्क मूलतः भीड़ है। भीड़ का निजी विवेक नहीं होता। भीड़ अधिकारहीन होती है। भीड़ में भेड़चाल होती है।
सोशल नेटवर्क यूजर के भूगोल को बदल देता है। किंतु भूगोल के आकार को नहीं बदल सकता। किसी भी संबंध को बनने में समय लगता है। इंटरनेट पर रीयल टाइम में संबंध बनने से किसी सामाजिक संबंध को बनाने में खर्च होने वाला समय कम नहीं किया जा सकता। इंटरनेट पर जितनी सूचनाएं उपलब्ध हैं उससे ज्यादा डिस-इन्फॉर्मेशन या कु-सूचनाएं उपलब्ध हैं। इसके अलावा सूचनाओं का अतिरिक्त बोझा स्वयं में एक समस्या है।
इंटरनेट के आने के साथ सूचना ही नहीं आ रही हैं बल्कि अफवाह, असत्य, भड़काने वाली बातें,बेबकूफियां भी आ रही हैं, इससे इंटरनेट और सोशल नेटवर्क पर अविश्वास बढ़ेगा। इंटरनेट के चाटरूम में चलने वाली बातचीत में भी किसी भी किस्म का नियमन नहीं है अतः वहां जो सुझाव दिए जा रहे हैं वे वास्तव हैं,वैध हैं, इसके बारे में छानबीन करना संभव नहीं है। नेट पर विभिन्न रूपों में होने वाली बातचीत को वाचिक पहलवानी कहना समीचीन होगा। बातों के शेर कभी हकीकत में शेर नहीं होते।
‘पेव’ के 2004 के सर्वे से यह भी पता चला है कि सन् 2014 तक राजनीतिक और धार्मिक कट्टरपंथियों की इंटरनेट पर तादाद में तेजी से बढ़ोतरी होगी। प्रतिक्रियावादी और कट्टरपंथी ग्रुपों के व्यक्तिगत नेटवर्क भी खूब तेजी से सामने आएंगे। ये वे लोग हैं जो खुलेआम हिंसाचार और अविवेकपूर्ण बातों की हिमायत करते हैं। हिंसा और प्रतिगामी विचार उनके बीच में एकता का मूलाधार है।
सन् 2004 का सर्वे यह भी रेखांकित करता है कि आम लोगों में राजनीतिक विवाद बढ़ेंगे। राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर ध्रुवीकरण तेज होगा। विचारों के ध्रुवीकृत संसार में अर्थपूर्ण बहस करना संभव नहीं है। किसी भी मसले पर अर्थपूर्ण आम सहमति बनाना संभव नहीं होगा।
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं