भारत में ऐसे लोगों की किल्लत नहीं है जो राष्ट्रवाद का आए दिन डंका बजाते रहते हैं। राष्ट्रवाद का नारा देने वाले यह भूल जाते हैं राष्ट्रवाद आधुनिक युग का कैंसर है। यह बात रवीन्द्रनाथ टैगोर से लेकर प्रेमचंद तक सभी बड़े भारतीय बुद्धिजीवियों ने रेखांकित की है। जो लोग राष्ट्रवाद को धर्म से जोड़कर हिन्दू राष्ट्रवाद का नारा देते हैं वे समाज का और भी नुकसान करते हैं यह तो वैसे ही हुआ कि कैंसर के मरीज को एड्स।
राष्ट्रवाद को फासीवादी ताकतें भी प्यार करती हैं। मुसोलिनी,हिटलर ,फ्रैंको आदि का राष्ट्रवाद का नारा मानव सभ्यता को विनाश की ओर ले जा चुका है, उसी तरह हिन्दू राष्ट्रवाद भी भारत में सामाजिक जहर का गोमुख है।
संघ परिवार ने नस्ल के फासीवादी सिद्धांत से प्रेरणा लेकर हिन्दुत्व की धारणा विकसित की है। हिन्दू की धार्मिक-नस्लीय श्रेष्ठता पर जोर दिया है। संघ परिवार की विचारधारा में मनुष्य की धारणा से ऊपर हिन्दुत्व को महत्ता प्रदान की गई। मानवीय मूल्यों और मानवाधिकारों को संरक्षण देने की बजाय राजनीति का आधार हिन्दू और हिन्दुत्व को बनाया है और उसे राष्ट्रवाद से वैसे ही जोड़ा है जैसे हिटलर-मुसोलिनी ने राष्ट्रवाद को नस्ल से जोड़ा था।
रोजे बूर्दरों ने ‘फासीवाद : सिद्धांत और व्यवहार’ नामक किताब में लिखा है कि फासीवादी आंदोलनों के संस्थापक कुछ बातों पर जोर देते हैं, वे ’‘स्वेच्छा से मिस्तीक या रहस्य की बात करते हैं। उदाहरण के लिए, प्रीमो क्रांतिकारी मिस्तीक के बरअक्स 'शाश्वत कर्तव्य का मिस्तीक' प्रस्तुत करता है। नात्सियों के यहां नस्ल का मिस्तीक, फासीवाद में राष्ट्र का। 'हमने अपना मिथ रचा है। हमारा मिथ है राष्ट्र।' (मुसोलिनी, 1922) जर्मनी में नस्लवाद 'बीसवीं शताब्दी का मिथ है।'
जर्मन और इतालवी विचारधाराओं ने अपने सिद्धांतों के अतर्कसंगत आधारों पर जोर दिया है। नए फासीवादी राज्य का विश्लेषण करते हुए जेंतील याद दिलाता है कि एक प्रकार का निरंकुश उदारवाद फासीवादी के लिए अपरिचित नहीं हैं। लेकिन वह यह भी कहता है कि एक शक्तिशाली राज्य की अवधारणा 'कमोबेश बौद्धिक जड़सूत्र' के अलावा कुछ नहीं है। इस अवधारणा का वास्तव में कोई आधार नहीं है। फासीवाद के कारण यह जड़सूत्र एक विचार-शक्ति, एक आवेग बन गया है। भीड़ और शक्तिशाली विचार के बीच तत्काल एक दिया स्थापित हो जाता है, जैसे उसे प्रकाश मिल गया हो। कर्म पर आवेग हावी हो जाता है। इस प्रकार सुसंगत सिद्धांत से जुड़ाव के कारण गति नहीं पैदा होती है, उल्टे, इसके विपरीत, कर्म द्वारा जनता में विचारशक्ति एक अतर्कसंगत उद्गार और आवेश उद्वेलित करता है एक प्रकार से रहस्यात्मकता का उद्धाटन। इस प्रकार व्यक्ति और सिद्धांत के मिलन की तात्कालिकता नात्सियों में कम नहीं है। कार्ल श्मिट सिद्धांत की समझ और कर्म के प्रारंभ के लिए किसी तर्क संगत या भावात्मक मध्यस्थता को नकारता है।’’
बुर्दरों ने लिखा है ‘‘उल्लेखनीय है कि एक संगत छवि तत्काल छवि या तुलना से बढ क़र लगती है वह स्वयं एक प्रेरणा होती है। हमारी अवधारणा को न तो किसी मध्यस्थ छवि की आवश्कयता है न प्रतिनिधि तुलना की। वह किसी दृष्टांत या बारीक प्रतिनिधित्व से नहीं आती है, न ही देकार्तवादी एक 'सामान्य विचार' से। वह तो एक तत्काल उपस्थित और व्यावहारिक धारणा है। कहना ही हो तो कहेंगे इस सिद्धांत का उत्स दैवीय है-हिटलर कहता नहीं है कि इसमें ईश्वर की प्रेरणा हैं? 'मैं तो सर्वशक्तिमान अपने रचयिता की प्रेरणा से काम करता हूँ, यहूदियों के विरुद्ध अपनी रक्षा करते समय मैं ईश्वर के कामों की ही रक्षा में संघर्ष करता होता हूं।'' (माइन कांफ, पृष्ठ 72)
''इस प्रकार, आधार कुछ विचार-शक्तियां होनी चाहिए जो लोगों को आवेग मुक्त कर सकें और ऊर्जा लामबंद की जा सके कुछ निरपेक्ष सत्य जो बस विश्वास में ही अभिव्यक्त होते हैं। उन्हें बस आधारतत्व के रूप में घोषित किया जा सकता है वांछित तत्काल प्रभाविता के लिए यह जरूरी होता है।''
"विमर्श की प्रक्रिया इन्हीं संचालक सिद्धांतों से संचालित होती है। अकसर ही शुरुआत होती है कुछ अभिपुष्टियों से बिना किसी और बात का खयाल किए। इटालियन इनसाइक्लोपीडिया में फासीवाद की परिभाषा पर गौर करें तो उसमें कोई तर्कणा या बहस नहीं है बस कुछ सकारात्मक और कुछ नकारात्मक, अभिपुष्टियां हैं। ('फासीवाद है, 'फासीवाद की धारणा', 'फासीवाद का विचार' ऐसा है..) इसके अलावा सत्य का वाहक होने का विश्वास किसी व्याख्या को निरर्थक बना देता है। नेशनल सिंडिकलिज्म की व्याख्या इस प्रकार है : चूंकि वह सत्य का वाहक है और चूंकि सत्य एक ही होता है इसलिए नेशनल सिंडिकलिज्म को लेकर किसी भी प्रकार के विवाद की संभावना स्वीकार्य नहीं हैं।"
"विचारधारात्मक स्तर पर एक प्रदर्शनात्मक आकर्षण हो सकता है लेकिन उसमें भी पूर्वापेक्षा यही है कि न कोई विवाद हो न निरूपण। इसको विशेष रूप से माइन कांफ में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए 'जन और नस्ल' नामक अध्याय में नस्ल की असमानता की अभिपुष्टि को मान कर ही चला गया है ,उसी पर यह बहस आधारित है कि आर्य श्रेष्ठ होते हैं और यहूदियों ने सारे विश्व पर अपना प्रभुत्व कायम कर रखा है। ज्यादा से ज्यादा यह पुष्टि पर्यवेक्षण पर आधारित की जाती है जिसे अपने में एक सबूत, एक बोध, स्वाभाविक, ऐतिहासिक या वैज्ञानिक की तरह पेश किया जाता है। इस प्रकार घोषित सत्य के प्रति एक सावधानी बरतने की बात कर दी जाती है। इस प्रकार तीनों ही आंदोलनों में समान रूप से श्रेणीबद्धता के सिद्धांत और जीवन के लिए संघर्ष के संदर्भ में एक नैसर्गिकता चिह्नित है जिसमें किसी तरह की समानता का कोई अस्तित्व नहीं है न व्यक्तियों के बीच, न नस्लों के बीच। राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद और नस्ली असमानता को इतिहास में तथ्यसंगत और तथ्यपरक बताया गया है। इस बिंदु पर इन आंदोलनों की विचारधाराएं निर्विवाद रूप से ऐतिहासिक नियति की तरह प्रस्तुत की गई है।
नात्सीवाद ने प्राकृतिक विज्ञान में वनस्पति संसार एवं जंतु संसार के उदाहरणों से दिखाया कि एक 'सिद्धांत है 'रचयिता का सिद्धांत और दूसरा है 'परजीविता' का। फिर वह परजीवियों से मनुष्यों के संघर्ष का उदाहरण लेता है और एक 'वैज्ञानिक' सिध्दांत प्रतिपादित करता है कि यह संघर्ष तभी खत्म होगा जब या तो परजीवियों का अंत हो जाए या मानव समाज का। यह बात मानव समाज पर भी लागू होती है क्योंकि नियम सार्विक (यूनीवर्सल) है और इसलिए मानवजाति बच सके इसके लिए परजीवियों का अंत होना चाहिए। इस प्रकार तर्क पूरी गंभीरता के साथ प्रयोग की पध्दति पर आधारित है। लेकिन इस तर्कणा की विकृति एकदम स्पष्ट है।
1. सिद्धांत रचयिता और परजीवी का निरपेक्ष सत्य, जिस पर सारी प्रस्तुति आधारित है, एक सामान्य अभिपुष्टि की तरह लिया गया है जिसे प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं समझी गई है।
2. समन्वयन के स्तर पर, जिससे झूठे तर्क जुटाए गए हैं जंतु विज्ञान की एक बात को सामाजिक संरचना पर लागू कर दिया गया है। इस तरह दिखाई कुछ भी पडे, यह सब है पूरी तरह अतर्कसंगत।
इस तरह हमें अतर्कसंगतता के स्तर पर पटक दिया जाता है। इस प्रकार हम ऐसी विचारधारा के रूबरू हैं जो उन मूलभूत सत्यों पर आधारित है जिन्हें निर्विवाद और जडसूत्र की तरह अभिपुष्ट मान लिया गया है। जिनका व्यक्ति और जन-समुदाय तत्काल साक्षात्कार करता है। लेकिन अगर हम प्रभाविता की कसौटी पर इसे कसें तो ये विचार शक्तियां खास एक प्रकार का व्यवहार चिन्हित करती हैं। यहीं जरूरत है कि सिध्दांत और व्यवहार के बीच संबंध पर इनकी सोच का विश्लेषण कर लिया जाए।’’
फासीवाद : सिद्धांत और व्यवहार
लेखक- रोजे बूर्दरों
प्रकाशक- ग्रंथ शिल्पी, बी-7,सरस्वती काम्प्लेक्स,सुभाष चौक,लक्ष्मी नगर,दिल्ली-110092
मूल्य -275
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