आप देश में कहीं पर भी जाइए आपको विश्वविद्यालयों और कॉलेज शिक्षकों में एक बड़ा तबक़ा मिलेगा जो सहज और स्वाभाविक तौर पर साम्प्रदायिकचेतना और जातिचेतना संपन्न है । स्थानीय तौर पर अनेक मसलों पर ये लोग साम्प्रदायिक या जातिवादी नजरिए से सोचते हैं । इस तरह की चेतना कांग्रेस के जमाने में भी थी और आज भी है।लेकिन भाजपा-आरएसएस का प्रचार यह है कि विश्वविद्यालय और कॉलेज शिक्षकों में वामदलों का , वाम विचारधारा का वर्चस्व है।आरएसएस का यह प्रचार एकदम निराधार और सफेद झूठ है।मैं जब पढता था तब और जब पढाने लगा तब भी अधिकांश शिक्षकों में साम्प्रदायिक और जातिवादी चेतना के मैंने जेएनयू से लेकर कलकत्ता विश्वविद्यालय तक साक्षात दर्शन किए हैं।सवाल यह है शिक्षकों में यह चेतना कहाँ से आती है? हम अपनी शिक्षा और शिक्षकों को साम्प्रदायिक और जातिवादी चेतना से मुक्त क्यों नहीं कर पाए ? असल में हमारी शिक्षा परिवर्तन विरोधी है , परिवर्तनकामी को शिक्षा में शक की नजर से देखते हैं।
एक अन्य बुनियादी सवाल यह है कि क्या हमारे विश्वविद्यालय और कॉलेज तर्क और विवेक के आधार पर चल रहे हैं या स्टीरियोटाइप नजरिए से चल रहे हैं ? शिक्षक अपने विद्यार्थियों को तर्क,विवेक और वैज्ञानिक नजरिए से पढाते हैं या स्टीरियोटाइप नजरिए से पढाते हैं? अंदर की हकीकत यह है कि हम अपने विद्यार्थी को स्टीरियोटाइप पद्धति से पढाते हैं।वास्तविकता यह है कि हमारे विकास और परिवर्तन की गारंटी स्टीरियोटाइप नजरिया नहीं है। हमें यदि बदलना है और नया समाज बनाना है तो तर्क और विवेक के आधार पर चीजों को देखने,समझने और परखने के संस्कार पैदा करने होंगे।ये चीजें ही शिक्षा की सार्थकता की गारंटी हैं।
विश्वविद्यालय और कॉलेज का नाम आते ही पहला शब्द ज़ेहन में आता है वह है ज्ञान या नॉलेज।सवाल यह है हम ज्ञान कैसे अर्जित करते हैं ? ज्ञान कैसे संप्रेषित करते हैं ? जानना या खोज की भूख पैदा करना बेहद जरुरी है लेकिन हमारा समूचा पठन -पाठन ज्ञान की भूख पैदा नहीं करता,खोज की इच्छा पैदा नहीं करता इसके विपरीत हमने यह मान लिया है कि हमें किसी तरह डिग्री हासिल करनी है, नौकरी हासिल करनी है और इसके लिए जितना जरुरी है उतना ही पढो, रट लो और फिर काम पर निकल लो! यानी ज्ञान के साथ हमने प्रयोजनमूलक संबंध बनाया है ज्ञानकेन्द्रित संबंध नहीं बनाया है।शिक्षा में प्रयोजनमूलक दृष्टि हमें पुराने संस्कारों ,मूल्यों और संबंधों से मुक्त करने में मदद नहीं करती यही वजह है कि हम जैसे पढने आते हैं डिग्री पाने के बाद भी वैसे ही बने रहते हैं। यही दशा शिक्षकों की भी है। वे शिक्षित होकर भी अवैज्ञानिक बातें करते हैं, तर्कहीन और अविवेकपूर्ण बातें करते हैं ,अपरिवर्तित बने रहते हैं।
असली शिक्षा वह है जो मनुष्य को बदले, मनुष्य के अंदर बैठे पशुबोध को नष्ट करे। लेकिन वास्तविकता यह है कि हम न तो बदलते हैं और न हमारे अंदर का पशुबोध मरता है बल्कि शिक्षित होने के बाद यह प्रबल और शक्तिशाली हो जाता है।यथास्थिति बनी रहती है और इसे बनाने में स्टीरियोटाइप पठन-पाठन की केन्द्रीय भूमिका है।यही वह बुनियादी जगह है जहाँ पर साम्प्रदायिक और जातिवादी चेतना फल-फूल रही है।
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