रविवार, 1 मई 2016

छात्र राजनीति का महाख्यान है जेएनयू-3-

             जेएनयू की एक आयरनी है कि इसमें आइकॉन विरोधी भावबोध है। इसके बावजूद कुछ छात्रनेता ऐसे भी हुए जो अपने को जेएनयू के आइकॉन या प्रतीक पुरूष के रूप में प्रतिष्ठित करने में सफल रहे। इनमें जिसने सबसे ज्यादा शोहरत और साख हासिल की है वह देवी प्रसाद त्रिपाठी यानी डीपीटी। इन दिनों वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं। देवी प्रसाद त्रिपाठी से मेरी पहली मुलाकात सन् 1979 के अक्टूबर महिने में छात्रसंघ के चुनाव के मौके पर हुई। त्रिपाठीजी के बारे में मैं लगातार अन्तर्विरोधी बातें सुनता रहता था। खासकर जेएनयू आने के बाद अनेक एसएफआई नेता थे जो नहीं चाहते थे कि त्रिपाठी जी को कभी भी एसएफआई और उससे जुड़े मंचों पर बुलाया जाए। मजेदार बात यह थी कि ये नेतागण उनके बारे में तरह-तरह की कानाफूसी भी किया करते थे। एक अवस्था तो यह भी आयी कि माकपा के दिल्ली राज्य नेतृत्व से यह तय करा लिया गया कि त्रिपाठी को कभी जेएनयू चुनाव में प्रचार के लिए नहीं बुलाया जाएगा। सन् 1979 में डी.रघुनंदन को एसएफआई ने अध्यक्ष पद पर लड़ाने का फैसला लिया। आखिरी समय में स्थितियां एसएफआई के अनुकूल नहीं थीं। उस साल एआईएसएफ के साथ चुनावी समझौता भी नहीं हो पाया था। अंत में झक मारकर जेएनयू पार्टी ब्रांच ने निर्णय लिया कि देवीप्रसाद त्रिपाठी को प्रचार के लिए इलाहाबाद से बुलाया जाए। देवी प्रसाद त्रिपाठी उस समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग में अध्यापन कार्य कर रहे थे और माकपा के उ.प्र. राज्य कमेटी सदस्य थे। इलाहाबाद में पार्टी का काम मूलत: उन्हीं के जिम्मे था। उल्लेखनीय है उनके इलाहाबाद में पार्टी कार्य देखने के दौरान ही पहलीबार इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यक्ष पद पर एसएफआई ने चुनाव जीता था। त्रिपाठीजी की इन सारी स्थितियों के बावजूद जेएनयू के कुछ नेताओं का उनके प्रति गुटपरस्तभाव मुझे आज तक समझ में नहीं आया। मेरी समझ है जब एक व्यक्ति पार्टी का सदस्य है तो उसके प्रति पार्टी के अंदर भेदभाव नहीं होना चाहिए। डीपीटी के संदर्भ में माकपा के अंदर भेदभाव और गुटपरस्ती को मैंने पहलीबार जब देखा तो माथा ठनका था। कई बार इस मसले को लेकर पार्टी में गर्मागर्म बहसें भी हुईं और उसका यह सुपरिणाम था कि मैं त्रिपाठीजी को देखना चाहता था, मैंने कुलदीपकुमार से अपनी इच्छा व्यक्त की मेरी डीपीटी से मुलाकात करा दो। कुलदीप ने कहा वे रघु के चुनाव प्रचार के लिए आ रहे हैं तुम मेरे साथ रहना मुलाकात हो जाएगी और त्रिपाठी आए तो सबसे पहले उन्हें खाना खिलाने के लिए हम दोनों डाउन कैम्पस में कटवारिया सराय में एक रेस्टोरैंट में ले गए हम तीनों ने जमकर खाना खाया और खूब बातें की। अंत में खाना खाकर तकरीबन ग्यारह बजे रात को हम ऊपर कैम्पस में आए और गोदावरी होस्टल (लड़कियों का) में चुनावसभा स्थल पर पहुँचे और तकरीबन एक बजे करीब डीपीटी ने अपना भाषण शुरू किया जो तकरीबन ढाई घंटे का था । इतना लंबा धारावाहिक, आकर्षक, विचारों से भरा भाषण्ा सुनकर सभी छात्र मुग्ध थे, मेरे लिए यह विलक्षण अनुभव था। मैंने अनेक नेताओं के भाषण सुने थे, सबसे लंबे भाषण के रूप में जयप्रकाशनारायण और चन्द्रशेखर का भाषण मैं मथुरा में सुन चुका था। किंतु डीपीटी के भाषण के बाद जो अनुभूति भाषणकला के प्रति पैदा हुई वह आनंददायी थी। डीपीटी का भाषण आकर्षक,सरस, मानवीय और विचारधारात्मक था। यह भाषण द्विभाषी था। अधिकांश समय अंग्रेजी को मिला तकरीबन आधा घंटा हिन्दी में भी बोले। अनिलचौधरी और रमेश दधीचि के अलावा त्रिपाठीजी तीसरे छात्र नेता थे जो हिन्दी में भी थोड़ा समय बोलते थे। रघु के चुनाव की यह अंतिम सभा थी और इसमें प्रकाश कारात, सीताराम येचुरी ने भी भाषण दिया और जब त्रिपाठीजी बोल रहे थे वे दोनों मुग्धभाव से सुन रहे थे और बार-बार यह संकेत भी कर रहे थे कि त्रिपाठी को सुनना एक आनंद से कम नहीं है। मजेदार बात यह थी कि उन्हें इतना मजा आ रहा था कि प्रत्येक बीस मिनट के बाद एक स्लिप डीपीटी की ओर बढ़ा देते थे कि बीस मिनट और बोलो। किसी नेता के भाषण के प्रति किसी नेता का यह आग्रह निश्चित रूप से विरल चीज थी। डीपीटी के भाषण शुरू होने के बाद कैम्पस में और कहीं पर किसी भी संगठन को अपनी चुनावी सभा जारी रखने में जबर्दस्त मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। विपक्ष के सभी नेता और कार्यकत्तर्ाा अपनी सभा खत्म करके उनका भाषण सुनने चले आते थे ,रघु की चुनाव सभा में कहने को मंच पर प्रकाश कारात और सीताराम येचुरी बैठे थे वे पहले ही भाषण दे चुके थे उनके भाषणों के दौरान वह हलचल और सुनने की बेचैनी नहीं देखी गयी जो त्रिपाठी के भाषण के समय देखी गयी। त्रिपाठी को लंबे समय तक विपक्ष की सभाभंग करने वाले वक्ता के रूप में भी जाना जाता था। त्रिपाठी के भाषण के प्रति आम छात्रों में एक तरह का पागलपन था। मैंने अनेक छात्रों से पूछा कि भाई ऐसा क्या है जो पागल की तरह सुनने आ गए, सभी एक ही बात कहते थे कि त्रिपाठी को सुनने में मजा आता है। त्रिपाठी के भाषण के बाद जाना कि भाषण को आनंद देने वाला होना चाहिए। अमूमन नेतागण भाषणों के जरिए बोर करते हैं। त्रिपाठी के भाषणों में रस होता था। त्रिपाठी ने अपनी भाषणकला में राजनीतिक भाषण कला में समाजवादी, कम्युनिस्ट और पंडितों की कथाशैली का सम्मिश्रण करके एक ऐसा फॉरमेट तैयार किया था जिसमें समाजवादियों की तरह विचारधारात्मक विवाद थे, कथाओं की तरह आनंद और आख्यान था साथ ही कम्युनिस्टों की समाहार शैली भी थी। त्रिपाठी की कोशिश हुआ करती थी कि श्रोताओं को कुछ देर के लिए दैनन्दिन जंजाल के बाहर ज्ञान के जंजाल में आनंद लेने को तैयार किया जाए। फलत: भाषण में विवाद ,समाहार,और आनंद की त्रिवेणी का एक अच्छी विचारोत्तोजक सुबह में मिलन होता था। त्रिपाठी का भाषण आधी रात के बाद कभी शुरू होता था और सुबह सूर्योदय के पहले तक चलता था। रघु के चुनाव के समय जो जलवा था वही जलवा अगले साल वी. भास्कर के चुनाव के समय भी था और दोनों ही मौकों पर मैन ऑफ द मैच त्रिपाठी थे। त्रिपाठी का हिन्दी का देशी ठाठ हिन्दीभाषी प्रान्तों के छात्रों को बेहद अपील करता था। डीपीटी अकेले वक्ता थे जिनकी अभिजन और गैर अभिजनों में समान अपील और सम्मान था। रघु की चुनाव सभा खत्म करने के बाद डीपीटी और मै,ं कुलदीपकुमार के पेरियार होस्टल स्थित कमरे में चले आए तब त्रिपाठीजी ने अपने हंसी-मजाक वाले अंदाज में ही मुझसे अपनी ज्योतिष संबंधी जिज्ञासाएं रखीं और इस तरह मैंने पहलीबार किसी माक्र्सवादी को ज्योतिषी से प्रश्न करते पाया।

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